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मन्दिर
तीर्थयात्रा का घाम बाबू शिल्प की सूक्ष्म कोमलता एवं कलाविधान की विशिष्टता की दृष्टि से धैर्य और अत्यन्त श्रम व्यय करने वाले इस देश में भी अप्रतिम हैं। इसी प्रकार विवाद में पाया सम्मेतशिखर या पार्श्वनाथ तीर्थ, राजपूताने में सादड़ी मारवाड़ के निकटस्थ राणकपुर का भव्य मन्दिर, पटना जिले का पावापुरी का जल मन्दिर व आदि का नाम बताया जा सकता है । परन्तु जैनों के कला के प्रति प्रेम प्रदर्शन करानेवाले स्थापत्य के ये उदाहरण जैन शिल्पकला के या तो प्रथम अथवा महान् युग के हैं जो कि ई. 1300 प्रथवा उसके कुछ काल बाद तक चलता रहा था, " अन्यथा जैन स्थापत्य की मध्य शैली के हैं, कि जिसका पुनरुजीवन पन्द्रहवीं सदी में मेवाड़ वंश के प्रति शक्तिशाली राजाओं में से एक राणा कुम्भा के राज्यकाल में हुआ था कि जिसकी राजधानी चित्तौड़ थी। जनों के इन सब सुन्दर स्मारकों से सम्बन्ध रखनेवाली स्थापत्यकला, प्राचीनता और पौराणिकता का खोज करवा रसप्रद और ज्ञान वर्धक हो सकता है, परन्तु ऐसा करने के लिए हमें अपने लक्ष्य से बाहर जाना होगा जो किसी भी तरह से उचित नहीं है ।
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स्थापितों की तरह ही जैनों की चित्रकला के अवशेष में भी ऐसे कोई नहीं है कि जो हमारी काल मर्यादा में आ सकते हैं। इसमें संदेह नहीं कि भारतीय ललितकला के नमूने जो कि जैनों के गम्भीर प्रभाव में विकसित हुए हैं, सचित्र हस्तलिखित ग्रन्थों में जैन दन्तकथा और परमार्थविद्या की रचनाओं में क्षमापना या विज्ञप्तिपत्रों में कि जो जैन धावक और धमरा पड़ोस के प्राचायों को सम्बरसरिका पर भेजने के लिए महान् परिश्रम और सजावट से तैयार करते थे, देखे जा सकते हैं । परन्तु ये सब जैन रस-संवेद कला के विशिष्ट नमूने ईसवी 12वीं सदी से प्रारम्भ होनेवाले मध्यकालीन गुजरात या जैन काल के हैं।
हमारे ही निर्दिष्ट काल के जैन स्थापत्य घोर मूर्तिशिल्प के अवशेषों का विचार करने पर हम देखते हैं कि हमारे मुख्य साधन उदयगिरि और खण्डगिरि की उड़ीसा की गुफाएं जूनागढ़ का गिरनार पर्वत, मथुरा का कंकाली टीला और अन्य टेकरियों प्रादि को स्थापत्य हैं । परन्तु इनका विचार करने के पूर्व भारतीय ललितकला की कुछ लाक्षणिकता पर सामान्य रूप में कुछ प्राथमिक बातें कह देना ग्रावश्यक है ।
पहली बात जो इस सम्बन्ध में स्मरण रखने की है वह यह है कि भारतीय ललितकला का साम्प्रदायिक वर्गीकरण, जैसा कि फरम्युसन ने माना है, कुछ दोषयुक्त ही है। सच बात तो यह है कि स्वापत्य या मूर्तिशिल्प में बौद्ध जैन, या हिन्दू शैलियां है ही नहीं । जो कुछ है ये हैं श्रपने युग की भारतीय शैली के बौद्ध, जैन और हिन्दू अवशेष।" ये अवशेष कला के घौपचारिक विकास में प्रान्तीय विभेद ही दिखाते हैं जो कि विशुद्ध शैली में
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1. बल मन्दिर... पण्डों के अनुसार, महावीर का निर्वाण हुआ उसी स्थल पर बना हुआ है और जल मन्दिर उनके दाहसंस्कार के स्थान पर, " - विउडिगप, पृ. 224 । देखो वही, पृ. 72
2. फरम्युसन, वही, पु. 59 3. वही, पृ. 60 4. देव मेहता स्टडीज इन इण्डियन पेंटिंग, पू 1-2
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परसी ब्राउन, इण्डियन पेंटिंग, पृ. 38, 511
व्हूलर ने मधुरी की खोजों के सिखाए पाठ पर बल देते हुए कहा है कि भारतीय जलतकला साम्प्रदायवादी नहीं दी थी। बौद्ध, जैन और हिन्दू सब धर्मों ने अपने काल और देश की कला का उपयोग किया है और सब ने समान रूप से लाक्षणिक और रवाजी हथकण्डों के सामान्य कोश से प्रेरणा प्राप्त की है। स्तूप चैत्यवृक्ष कट हरे, चक्र, यादि आदि जनों, बौद्धों और सनातन हिन्दुओं को धार्मिक या सजावट के रूप में समान रूप से प्राप्त
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ये स्मिथ दी जैन स्तूप एण्ड सदर एण्टीक्विटीज ग्राफ मथुरा प्रस्तावना. पू. 61 देखो हूनर, एपी. इष्टि.. पुस्त 2, पृ. 322
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