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________________ 81 पहला अध्याय महावीर पूर्वोत्तर जैन धर्म जैनधर्म से क्या अभिप्रेत है ? "प्राचीन भारत का इतिहास मानव संस्कृति और उसके विकास की तीस सदियों का इतिहास है । यह पृथक-पृथक कितने ही युगों में विभाजित है । कितनी ही अर्वाचीन प्रजा के समस्त इतिहास की तुलना में बहुत काल तक खड़ा रह सके ऐसा वह प्रत्येक युग है ।" 1 मानव संस्कृति और उसके विकास के इन तीन हजार वर्षो की कला, शिल्प, धर्म, नीति और तत्वज्ञान की अनेक विध प्रगति में जैनधर्म का योगदान द्वितीय है । परन्तु जैनधर्म की प्रमुख सिद्धि है "ग्रहिंसा" का आदर्श । जैन मानते हैं कि श्राज की दुनियां शनैः शनैः प्रदृश्य रीति से फिर भी उसी प्रादर्श की ओर प्रगति कर रही है । प्रत्येक उच्च व्यावहारिक और आत्मिक प्रवृत्ति का ध्येय ग्राहिसा ही माना जाता हो और भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों के निवास के कारण संस्कृति की उलझनभरी विशाल अभिवृद्धि में से परिणत हुई सब विभिन्नता के होते हुए भी अहिंसा ही एकता का चिह्न मानी जाती थी ? जैनधर्म मुख्य रूप से दर्शन के नैतिक अर्थ का सूचक है। जैसे बौद्ध ज्ञानी बुद्ध के अनुयायी हैं वैसे ही जैन वीतराग जिन के अनुयायी हैं । जैनों के सभी तीर्थकरों को "जिन" कहा जाता है । " जिन के पृथक-पृथक गुणों पर से उद्भूत अनेक नाम उनकी सफलता के प्रति भक्तों के भावों के प्रदर्शक हैं जैसे कि जगतप्रभु-याने जगत का स्वामी, सर्वज्ञ- याने सर्व पदार्थ का ज्ञाता, त्रिकालवित -याने भूत भविष्यत् श्रर वर्तमान तीनों ही काल को जानने वाला, क्षीरणकर्मा-याने सर्व दैहिक कर्मों को क्षीण याने नाश करने वाला, अधीश्वर - याने महान् ईश्वर, देवाधिदेव - याने देवों का भी देव । ऐसे और भी अनेक गुणवाचक नाम जिन के हैं । फिर कितने ही नाम अर्थसूचक भी हैं जैसे कि 'तीर्थंकर', या 'तीर्थकर', 'केवली' 'अहं' और 'जिन' । 'तीयंते प्रनेन' अर्थात् संसार रूपी समुद्र जिसकी सहायता से तेरा जा सके वह 'तीर्थंकर', प्रत्येक प्रकार के दोष से रहित अपूर्व प्राध्यात्मिक शक्ति जिसमें हो वह 'केवली,' देवों और मनुष्यों को जो मान्य हो वह 'प्रर्हत्' और राग एवं द्व ेष से परे ऐसा जितेन्द्रिय हो वह 'जिन' कहलाता है । 1. दत्त ( रमेशचन्द्र ). एन्सेंट इण्डिया, 1890 पृ. 1। 2. उन सब स्त्रियों और पुरुषों को भी यह लागू होता है कि जिन ने अपनी हीन वृत्तियों पर विजय पाली है और जो सब राग-द्व ेष को पूर्णतया जीत कर उच्चतम स्थिति पर पहुंच गए हैं। देखो राधाकृष्णन, इण्डियन फिलोसोफी, भाग 1, पृ. 286 1 3. ग्रस्य च जैन दर्शनस्य प्रकाशयिता परमात्मा रागद्वेषाद्यान्तररिपुजेतत्वादन्वर्थक जिनना मधेयः । जिनो र्हन् स्याद्वादी तीर्थंकर इति ज्ञानर्थान्तरम् । श्रतएव तत्प्रकाशित दर्शनमपि जनदर्शन महत्प्रवचन जैनशासनं स्याद्वाददृष्टिरनेकान्तवाद इत्यादय निवानैव्यं पदिपते । विजयधर्मसूरि भण्डारकर स्मृति ग्रन्थ, पू. 139 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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