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________________ लेते हैं. उसे प्रावश्यक उत्तेजन देते हैं और अपनी प्रजा को भी वे उसी धर्म की ओर झुका सकने में भी सफल होते हैं । " फिर भी हमारा कार्य कंटकाकीरणं हे सत्य तो यह है कि उत्तर भारत के जैन धर्म का सम्पूर्ण ऐतिहासिक अवलोकन पूरा-पूरा करा सके ऐसा एक भी उपयोगी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, तो भी भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए न तो वह क्षेत्र एकदम प्रद्धता ही है और न वह मात्र ऐतिहासिक व काल्पनिक नामों का धार्मिक दृष्टान्तों का. महाकाव्य अथवा धर्मग्रन्थों की पुराण कथाओंों का जैसा तैसा किया हुआ संग्रह ही है। क्योंकि यदि ऐसा ही होता तो हजारों प्राचीन जैन साधुयों और पण्डितों को इन बहुमतम्पादित रचनाओं की कि जिन्हें प्रति पोढ़ी स्मृति द्वारा ही कि जिसे बाज का युग एक चमत्कार ही मानता है, दिया जाना रहा था, सुरक्षित रखना ही निरर्थक हो जाता है । यही क्यों विगत डेढ़ सौ वर्ष का सुप्रसिद्ध भारतीय और विदेशीय पण्डितों और पुरातत्वविदों का किया हुआ काम भी अकारथ हो जाता है. यदि उनके खेलों के परिणाम स्वरूप आज हम ऐसा सुसम्बद्ध इतिहास कि जो साधारण पाठक की समझ का और प्रभ्याशियों के उपयोग का हो, नहीं लिख पाते हैं । जैन इतिहास के अनेक अंश यद्यपि आज भी अन्धकार में हैं, धार अनेक विवरण सम्बन्धी प्रश्न प्रभी स्थित हैं तो भी हमारा यह सद्भाग्य है कि जनयुग के सामान्य इतिहास की रचना का कार्य सव इतना भारी नहीं रह गया है। भारी है या नहीं, हम तो अपने लिए न तो निजी खोजों का और न पौर्वात्य विद्वत्ता एवम् खोज की सीमाओं को किसी प्रकार विस्तृत करने का ही श्रेय का अधिकारी समझते हैं। अन्त में उत्तर भारत" की व्याख्या स्पष्ट कर देना भी हमारे लिए पवश्यक है। कृष्णा मोर तुंगभद्रा नदी के दक्षिण और बाए हुए प्रदेशों को मर्यादित रूप में दक्षिण भारत" कहा जाता है। इन नदियों से उत्तरीय प्रदेशों को "दवखन" कहने की प्रथा है । परन्तु दक्षिण और उत्तर भारतवर्ष याने नर्बदा के दक्षिणी और महानदी के उत्तरी प्रदेश अपने में ही एक-एक इकाई हैं। इसी इकाई के अर्थ में "उत्तर-भारत" शब्द का यहां प्रयोग किया गया है। साप्ती नदी के दक्षिण भाग से ही दक्खन का उच्च प्रदेश याने प्लेटो निश्चय ही शुरू होता है। दक्षिण याने उपडीपी भारत (पेनिन्सर इण्डिया) से भारत को इस्तुतः पृथक करने वाली तो बंदा नदी ही है। इसी उत्तर-भारत प्रदेश में समस्त बारह लाख की जैनों की लगभग आधी संख्या याज भी बनती है । ये छह जितने जैन ऐतिहासिक सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से अपने आप में उसी प्रकार एक निश्चित इकाई हैं जैसे कि ये दन्तकथाएं, रीतिरिवाज पर मान्यता से स्पष्ट रूप में उत्तरीय है। वीदों की भांति उत्तर और दक्षिण के जैनों का यह विभजन मूलतः भौगोलिक होते हुए भी "सिद्धान्त, गावभाषा दलका और रीतिरिवाजों के समस्त शास्त्रभाषा, शरीर में ही अन्ततः स्याप्त हो गया है।"a 1. स्मिथ, वही, पृ. 55 3. वार्थ, वही, पृ. 145 Jain Education International 2. श्रीनिवासचारी और सागर हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया, भाग 1. पृ. 3 । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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