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जिन का प्ररूपित धर्म ही 'जनधर्म' है। उसे 'जनदर्शन', 'जनशासन', 'स्याद्वाद', भादि भी कहते हैं । जैनधर्म पालने वाले गृहस्थों को बहधा श्रावक भी कहा जाता है ।।
जनधर्म के प्रारम्भ की निश्चित तिथी बताना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव है । फिर भी जैनधर्म बौद्ध या ब्राह्मण धर्म की शाखा है इस प्राचीन मान्यता को हम अर्वाचीन खोजों के परिणाम स्वरूप निघड़क अज्ञानसूचक और भ्रमात्मक मिथ्यावर्णन घोषित कर सकते हैं। हमारे ज्ञान की प्रगति यहां तक हो चुकी हैं कि अब यह कहना एक ऐतिहासिक भ्रांति ही होगा कि जैनधर्म का प्रारम्भ भगवान महावीर से ही हुआ जब तक कि इसको समर्थन करने वाले कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत नहीं किए जाएं, क्योंकि जैनों के तेईसवें तीर्थकर श्री पाश्वनाथ अब एक ऐतिहासिक व्यक्ति पूर्णतया स्वीकृत किए जा चुके है और अन्य जिनों की भांति महवीर उनकी श्रेणी में एक सुधारक से अधिक कुछ भी नहीं थे यह भी स्वीकार किया जा चुका है।
मनुष्य जाति जितना ही धर्म प्राचीन है, अथवा इसका उद्भव बाद में हुआ। यह अभी तक भी ऐतिहासिक अन्वेषकों की विवेचना का विषय उतना ही बना हुआ है जितना कि धर्म का प्रारम्भ और तत्वज्ञान और इसका कोई भी हल उन्हें नहीं मिला हैं । मानस-शास्त्र की दृष्टि से ही इस प्रश्न का उत्तर या जा सकता है । परन्तु यह प्रश्न निरा दार्शनिक ही है। जो किसी भी उच्चतर व्यक्ति या व्यक्तियों में विश्वास नहीं करती हो ऐसी कोई आदिम जाति या प्रजा अाज तक भी नहीं मिली है और यह धर्म के विशाल अर्थ में एक परम महत्व की बात है।
जब हम किसी विशिष्ट धर्म का विचार करते हैं तो भी यह प्रश्न उपस्थित होता ही है कि वह धर्म मनुष्य जितना ही प्राचीन है अथवा मनुष्य जीवन में उसकी उत्पत्ति बाद में हुई थी। इस विषय में प्रत्येक धर्म का बहुतांश में यही दावा है कि जो स्पष्टतया परन्तु संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है:-"हमारा धर्म अनादि और सर्वव्यापक है और अन्य धर्म सब पाखण्ड हैं ।" अपने प्रनादित्व के इस दावे को सिद्ध और समर्थन करने के लिए प्रायः प्रत्येक धर्म में अनेक प्रकार का काल्पनिक या पौराणिक साहित्य है कि जो धार्मिक रूपकों और धर्मपुस्तकान्तर्गत पुराणकथाओं को आश्रय देते हैं । अस्तित्व रखता हुया कोई भी धर्म अनादि और सर्व-व्यापक होने का अपना दावा वस्तुत: सिद्ध कर सकता है अथवा मनुष्य की यह एक निर्बलता ही है, यह कहना हमारा कार्य नहीं है क्योंकि यह हमारे क्षेत्र के बाह्य विषय है। अधिक से अधिक हम जैन धर्म के इस विषय में कथन का ही यहां विचार कर सकते हैं।
1. हेमचन्द्र अभिधानचितामणि, अध्या. 1, श्लोक 24-25 । 2. इस अध्याय के अन्तिम अंश का समझना सरल हो जाए इसलिए यहां इस अवसर्पिणी काल के 24 तीर्थकरों के नाम दे दिए जाते हैं :- 1. ऋषभ, 2. अजित, 3. संभव, 4. अभिनंदन, 5. सुमति, 6. पद्मप्रभ, 7. सुपार्श्व, ४. चन्द्रप्रभ, 9. पुष्पदंत, अथवा सुविधनाथ, 10. शीतल 11. श्रेयांस, 12. वासुपूण्य, 13. विमल, 14. अनंत, 15. धर्म, 16. शांति, 17. कुन्थु, 18. पर 19. मल्लि, 20. मुनिसुव्रत, 21. नमि, 22. नेमि या अरिष्ठने मि, 23. पार्श्व या पार्श्वनाथ, और 24. वर्धमान जिसको महावीर आदि भी कहा जाता है। प्रत्येक तीर्थकर का परिचायक चिह्न याने लांछन भिन्न-भिन्न होता है और यह लांछन उनकी मूर्ति पर सदा ही पाया जाता है, जैसे पार्श्वनाथ का लांछन फरणीसर्प है और वर्धमान का सिंह । देखो एतस्या मवसपिण्यामषभो जितसंभवो...प्रादि-हेमचन्द्र, वही, श्लो. 26, 20.28 ।
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