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उसके युद्ध
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कस्मिक नहीं अपितु वे मगध साम्राज्य के विस्तार की सामान्य योजना के ही परिणाम थे इन युद्धों के फलस्वरूप वैशाली, विदेह, कासी और अन्य राज्यों को मिला कर मगध के महत्वाकांक्षी राजा को उतने ही महत्वाकांक्षी प्रवंती के राजा प्रद्योत के विरुद्ध होना पड़ा था। हम जानते ही है कि अवन्ती का सिंहासन इस समय चण्ड प्रद्योत महासेन सुशोभित कर रहा था। पड़ोसी राज्य उससे भयाक्रान्त इका मज्झमनिकाय के एक वक्तव्य से भी होता है, जो कहता है कि अजातशत्रु ने राजगृह में मोर्चाबन्दी इसलिए कराई श्री कि उसे प्रद्योत द्वारा अपने साम्राज्य पर आक्रमण का भय था । यह अशक्य भी नहीं था क्योंकि अंग एवम् वैशाली के पतन और कोसल के पराभव के पश्चात् ग्रवन्ती ही मगध का प्रमुख प्रतिद्वन्दी रह गया था ।
इस प्रकार कुणिक के समय में पूर्व भारत के प्रायः सब गणतन्त्र और राज्य मगध में मिला लिये गए थे । उसके पुत्र और प्रनुगामी उदायिन के काल में, जैन कथानकों के अनुसार मगध और प्रति परस्पर विरोध में ग्रामने सामने आ गए थे।" स्थविरावली चरिन और अन्य जैन राज्यों से हमें मालूम होता है कि उदायिन भी एक अच्छा शक्तिशाली राजा था। उसने एक राज्य के राजा को बुद्ध में मार और हरा दिया था और इस राजा का पुत्र उज्जयिनी चला गया था और वहां उसने अपनी दुःखद गाथा कह सुनाई एवं राजा की सेवा भी स्वीकार करली |
ग्रन्त में इन प्रदभ्रष्ट कुमार ने अवन्तीपति की कृपा प्राप्त कर ही ली यही नहीं पर उसकी सहायता प्राप्त कर, जैन साधु के वेश में, उसने उदायिन की जब कि वह सोया हुआ था एक दिन हत्या कर ही दी । यह दन्तकथा, अधिक नहीं तो इतना तोप्रकाश डालती ही है कि प्रवंती और मगध के बीच में प्रतिद्वन्द्वता के भाव सजग थे और दोनों ही उत्तर भारत में सार्वभौम सत्ता प्राप्त करने के पूर्ण अभिलाषी थे ।
फिर अवंतीपती की समान अाक्रामक नीति ने भी यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में कलह का कारण उत्तर भारत की सार्वभोमता ही था कथासरिनागर और अन्य जैन दन्तकथाओं से मालूम होता है कि इस समय कोसाम्बी राज्य भी प्रद्योत के पुत्र प्रवन्तीपती पालक 1 के राज्य में मिला लिया गया था । इस प्रकार अजातशत्रु के समय में प्रारंभ हुआ अवन्ती-मगध का यह कलह उदायिन के राज्य में भी चल रहा था कलह का अन्त शुनाग के नेतृत्व में मगध के लाभ में हुआ कि जिसने पुराणों के अनुसार, प्रचोत के उत्तराधिकारी वंशजों के प्रभाव और प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया था, ' अवन्ती का बराबर पराजय ही होता रहा था । "
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हालांकि जैन कथानकों के अनुसार उदायिन के हा
यहां एक समस्या यह खड़ी हो जाती है कि मगध में उदायिन का उत्तराधिकारी कौन हुआ था । परन्तु हमें भारतीय इतिहास के इन विवादास्पद और अब तक भी अनिर्णीत तथ्यों को विवेचना में जाने की जरा भो आवश्यकता नहीं है। हमारे लिए तो इतना ही पुनरावर्तन कर देना पर्याप्त है कि पीर भवंतो का यह
पू. 609 1 देखो प्रधान, वही, पृ. 217 ।
3. देखो हेमचन्द्र वही श्लो. 189-190 208 आवश्यकसूत्र वही और वही स्थान
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1. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 123; प्रधान, वही, पृ. 216 1
2. प्रदसन नियमवन्तीशोप्पुदायिनः हेमचन्द्र परिशिष्टपन सर्ग 6 श्लो. 191 देखो व
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4. देखो रायचौधरी, वही, पृ 131 1
5. उज्जयिन्यां प्रयोतसुतौ द्वौ भ्रातरो पालको, यदि आवश्यकसूत्र, पू. 699
6. प्रधान, वही, पृ. 217 | देखो रायचौधरी, वही, पृ. 132 1
7. उज्जयिनी... राजा... बहुशः परिभूयते उदायिता श्रावश्यकसूत्र. 690
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