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________________ से अपना स्थान खाते गए, वैसे ही भारत के पश्चिमी प्रदेशों में प्रवासी होते गए जहाँ वे स्थायी रूप से बस गए और उनकी वह बसाहट वहां प्रांज तक कायम है। इसमें सन्देह नहीं कि उत्तर भारत के जैनधर्म के उस काल के इतिहास में कलिंग का अपना ही खास योगदान है, परन्तु फिर भी जैनों की तब सामान्य वृत्ति पश्चिम की ओर हो गई थी और ई. पूर्व दूसरी सदी के मध्य से जिस दूसरे स्थान में जैनों की बस्ती सुदृढ़ जम रही थी, वह मथुरा था । चन्द्रगुप्त के दिनों में और उसके पश्चात् सम्प्रति और खारवेल के दिनों में भी जैनों का फैलाव साधारण रूप से वीर्यवान रहा हो ऐसा लगता है। इन महान् सम्राटों के धार्मिक दृष्टिकोण और भावों की बात जाने भी दें तो भी जैनों के असाधारण वीर्यवान प्रसारण की साक्षी हमें उन अनेक जैन कुलों और शाबा में मिलती है कि जिनके जनसंघ में होने का हमे ई. पूर्व लगभग दूसरी सदी से प्रारम्भ होने वाले की तिथियों के मथुरा के शिलालेखों से परिचय मिलता है । मथुरा के ये शिलालेख हमें उत्तरी भारत के इण्डोसिथियन राज्य काल तक ले पाते हैं। हम यह तो देन ही पाए हैं कि चन्द्रगुप्त ने अपने को मेसीडोनी जुड़े के नीचे कराह रहे. उन भारतीयों का नेता बना लिया था और ये डर के प्रत्यागमन पश्चात् उसकी सेना को हरा कर भारत के गले पर से "दासता का वह जुड़ा " दूर फैक दिया था । अल्यैक्जेण्डर के प्रत्यागमन पश्चात् ही देश में कैसी घटनाएं घटी इसका स्पष्ट परिचय हमें नहीं है । "महान् प्रत्येक्जण्डर की मृत्यु के पश्चात् तुरन्त ही भारत की घटनाओं ने क्या मार्ग लिया था उस पर अंधकार का पनाकोहरा छाया हुआ है। फिर भी इतना तो निश्चित ही है कि उसकी मृत्यु के लगभग एक सदी पश्चात् तक मौर्य सम्राटों की सुद्ध बाहुयों ने भारत को भारतियों के लिए सभी प्राक्रान्तों से बचाए रखा बा और उनके पवन पड़ोसियों के साथ भी समान वर्ताव ही किया गया था । " 163 मौयों के पश्चात् गम का ब्राह्मण युगों का राजतन्त्र और उत्तर-पश्चिम का ग्रीक तंत्र खारवेल के नेतृत्व में हुए चेदियों के प्रचण्ड प्राक्रमणों के सामने झुकते जा रहे थे, यह हम देख प्राए हैं। डिमेट्रियस और युक्रेटिडस की प्रापसी लड़ाइयों में ग्रीक शक्ति को कितनी निर्बल बना दिया था कि यह भी हम उल्लेख कर चुके हैं। बैक्ट्रिया के यवनों के अन्य भारतीय दुश्मनों का और सुरंगों के विरुद्ध किए सातवाहनों के प्रचण्ड श्राक्रमणों का विचार करने का हमारा कोई इरादा नहीं है । परन्तु इतिहास की सलगता की दृष्टि से इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि 'ई. पूर्व दूसरी और पहली सदी में काफिरस्तान और गंधार के भागों में यवनों का राज्य उत्थापित होकर उसके स्थान में शकों का राज्य स्थापित हो गया था । * रेप्सन के शब्दों में भारत की राजनैतिक विच्छता, मिथि पनों द्वारा ई. पूर्व लगभग 135 में बैक्ट्रिया की विजय से और रोम एवम् पार्थिया के लम्बे संघर्ष से जिसका कि प्रारम्भ ई. पूर्व 53 में हुआ था समाप्त हो चुकी थी । " इन शक राजों में के एक मुरण्ड नाम के राजा के साथ पादलिप्फाचार्य का प्रगाढ़ परिचय था जैनों के दन्तकथा साहित्य के अनुसार यह मुष्ठ पाटलीपुत्र का राजा हो ऐसा लगता है । उसके दरबार में पादल्पित का प्रभाव पूरा-पूरा जमा हुआ था ।" इस महान् प्राचार्य ने इस 1. देखो शार्पेटियर, वही श्रोर वही स्थान 2. मॅकडोन्येल्ड, केहि भाग 1, पु. 427 3. देखो मिच, पर्ली हिस्ट्री ग्राफ इण्डिया, पृ. 253 1 4. रायचौधरी, वही, पृ. 2731 5. रेम्सन, केहि भाग 1, पृ.60 1 6. पाटलीपुरे... राजास्ति मुरण्डो नाम...स... हुतान्तः करणां नृपः सूरेबलिस्य प्रादानां प्रणानेच्छु रवेरिव ।'प्रभावकचरित पादलिप्तप्रबंध, श्लोक 44 61 देखो सम्यक्त्व सप्तति, गाया 48; मंधारि, 1923, पृ. 11 झरी. वही, प्रस्ता. पृ. 80 1 Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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