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भारतीय इतिहास की इन प्रसिद्ध बातों को यही छोड़ कर अब हम यह देखें कि मगध साम्राज्य का परिबल मौर्य-काल में कितना था। मगध की सत्ता और राज्य-विस्तार अशोक के समय में उच्चतम कक्षा को पहुंच गया था। परन्तु यथार्थ विजय और राज्य-विस्तार तो अशोक के समय में नहीं अपितु चन्द्रगुप्त के समय में ही प्रारम्भ होकर समाप्त हो गया था। राजनीति की दृष्टि से अशोक एक क्वकर याने धार्मिक-वृत्ति का और वह राजा की अपेक्षा धर्मगुरू पद के अधिक योग्य था। उसने तो मात्र कलिंग पर मगध की सत्ता पुनः स्थापित की थी। महामान्य हेरास के शब्दों में "हिन्दु-युग के हिन्दुस्थान का महानतम सम्राट चन्द्रगुप्त था । उसके पौत्र अशोक की कीति तो उसके बौद्धिक कामों पर खड़ी है। वह शासक राजा की अपेक्षा एक दार्शनिकचिंतक था; वह शासक की अपेक्षा नीति का उपदेशक या शिक्षक था।"।
तथ्य जो भी हो, परंतु महान् मौर्य साम्राज्य के मगध का विस्तार व्यापक था। पंजाब, सिंध और उत्तरीय राजपूताना के सिवा प्रायः सारा ही उत्तर-भारत नन्दों के अधिकार में हो गया था । उस विशाल साम्राज्य में पंजाब, सिंध, बलोचिस्थान, अफगानिस्थान और सम्भवतः, जैसा कि हमने हिमवत्कूट के पर्वत के टिप्पण में देख लिया है, नेपाल और काश्मीर भी चन्द्रगुप्त काल में मिला लिए गए थे। उत्तर की घटनाएं ही इतनी सघन थी कि उसे दक्षिण की ओर दृष्टि फैकने का अवकाश ही नहीं मिल सकता था। जैसा कि स्मिथ कहता है." यह विश्वास करना ही कठिन है कि अप्रसिद्धी में से पूर्ण प्रभावक एवम् शक्तिशाली बन जाने, मैसीडोनी सेना को देश से निकाल मगाने, सेल्यूकस के आक्रमण को विफल करने, क्रांति कर पाटलीपुत्र में अपना राजवंश स्थापने, अरियान का अधिकांश भाग साम्राज्य में मिला लेने और बंगाल की खाड़ी से अरबसमुद्र तक अपना साम्राज्य विस्तार कर लेने से अधिक सनय उसे कदाचित् ही मिल सकता था।"
दक्षिण की विजय चन्द्रगुप्त के पुत्र और उत्तराधिकारी बिंदुसार द्वारा सम्पन्न हुई थी इसका अनेक आधारों से समर्थन होता है। उसे भी उसके पिता के मंत्री चाणक्य का निर्देशन प्राप्त था । दक्खन अथवा भारतीय द्वीपकल्प लगभग नेलोर के अक्षांश तक प्रत्यक्षतया बिंदुसार द्वारा जीन लिया गया होगा क्योंकि अशोक को यह सब उत्तराधिकार में उसी से प्राप्त हया था और उसका एक मात्र युद्ध अभिलेख कलिंग-विजय का ही था । परवर्ती मौर्यों ने साम्राज्य के विस्तार में कुछ भी योगदान नहीं दिया था। वस्तुतः अशोक के राज्यकाल के समाप्त होते ही मौर्य सत्ता क्षीण होने लग गई थी और बृहद्रथ से जिसकी जैसा कि हम आगे के अध्याय में देखेंगे, उसके ही महासेनाधिपति पुण्यमित्र द्वारा हत्या कर दी गई थी, और जिसने शुगवंश का नया राजवंश स्थापन किया था, मौर्य सत्ता बिलकुल ही तिरोहित हो गई।
मौर्यो की अधीनता में मगध साम्राज्य के विस्तार का श्रृंखला बद्ध इतिहास जान लेने के पश्चात् अब हम उनका जैनधर्म के साथ के सम्बन्ध का विचार करेंगे। जैन दन्तकथा कहती है कि मौर्यवंश संस्थापक और यवनों का विजेता और भारत का प्रसिद्ध सम्राट चन्द्रगुप्त जैन था। इसकी दन्तकथा संक्षेप में इस प्रकार है :
1. हेरास, मिथीकल सोसाइटी त्रैमासिक, सं. 17, पृ. 276 । देखो जायसवाल, बिउप्रा प्रत्रि, 2, पृ. 83 । 2. देखो वही, पृ. 81। 3. स्मिथ, वही, पृ. 156 । देखो जायसवाल, वही, वही स्थान । 4. आवश्यकसूत्र, पृ. 184 । 5. देखो जायसवाल, वही, पृ. 82-83; शीफनगर, वही, पृ. 89 । 6. देखो स्मिथ, वही, पृ. 204 ।
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