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________________ 140] खारवेल के किसी प्रकार के उसके विरुद्ध प्राकमा किए बिना ही पीछा छूट गया था और मथुरा छोड़ गया था। इस प्रकार खारवेल का अनुमानिक समय डिमोट्रियस और मिनेण्डर के मध्य का है. यह निश्चित ही प्रतीत होता है। ' 1 इस डिमोट्रियस की विजयें ही उपके पतन का कारण हुई, ऐसा ग्रीक इतिहासज्ञ कहते हैं । उसकी विजयों के कारण उसके महाराज्य का केन्द्र बिन्दु बैक्ट्रिया से भी आगे चला गया था। उसका पितृ देश एक अधीन राज्य हो कर सन्तोष करनेवाला नहीं था। फलतः पराक्रमी और शक्तिशाली युफेटाइडस ने जिसके विषय में इतिहास कदाचिद ही कुछ कहता है, विप्लव कर पृथक राज्य की स्थापना कर ली। पार्थिया का राजा मिधटाइटस म के राज्यारोहण के साथ ही वह भी राजा बन गया। अपने भाई फात 1म के बाद ई. पूर्व 171 में 1म गद्दी पर बैठा याने हमें वान गुट्श्मिड की ई. पूर्व 175 की तिथि यूक्रेटाइडस के लिए लगभग सही मान लेना ही उचित है। " उसके राज्य का प्रारम्भ तुफानी था। वैक्ट्रिया का नहीं परन्तु भारतवर्ष सिंधु की ग्रासपास के प्रदेश) का राज डिमोट्रियस अपने प्रतिस्पर्धी युक्रेटाइडस द्वारा खड़ी की गई कठिनाई के कारण भारतवर्ष से पीछा लौट गया। डिमोट्रियस का या पनरावर्तन बैक्ट्रिया के इतिहासज्ञों ई. पूर्व 175 में हुआ मानते है और यह बात गोरयगिरि एवम् राजगृह के घेरे के साथ खारवेल के राज्य का प्रारम्भ ई. पूर्व 175 से मेल खा जाती है। इस प्रकार खारवेल के राज्य का प्रारम्भ ई. पूर्व 183 और इस शिलालेख के लिखे जाने का समय ई. पूर्व 170 माना जा सकता है। 1 ग्रीक राजा डिमोट्रियस के उपरोक्त वन के अतिरिक्त दूसरा साधन भी सारवेल का समय प्रायः निश्चित करने के लिए प्राप्य है। पश्चिम का सार्वभौम, आंध्र के राजा सातकर्णी को हो शिलालेख में खारवेल का प्रतिस्पर्थी लिखा है ।" हम इसे नानापाट के शिलालेख का सातकर्णी ही कह सकते हैं क्योंकि सातकरण की रानी नागनिका का नानाघाट का शिलालेख और हाथीगुफा का शिलालेख दोनों ही लिपि के आधार पर कृष्ण के नासिक के शिलालेख के ही काल के लगते हैं । " प्रथम सातवाहनों के नानापाट के शिलालेख 'अशोक धौर दशरथ के आज्ञालेखों के बहुत नहीं अपितु कुछ ही बाद के हैं और उत्कीर्णलिपि के आधार पर वे अन्तिम मौर्य अथवा प्रथम सुरंगों के काल के याने ई. पूर्व दूसरी सदी के प्रारम्भ के हैं । " हाथीगुफा का लेख यद्यपि तिथि रहित है फिर भी खारवेल का समय डिमोट्रियस और सातकर्णी के समय के साथ याने ई. पूर्व दूसरी सदी का पूवार्ध मानने के पर्याप्त कारण हैं । जब मौर्य साम्राज्य निर्बल पड़ गया था प्रांध्रवंश और कलिंगवंश साथ साथ ही सत्ता में आना चाह रहे थे और यह बात सूचित करती है कि इन दोनों राजों के समकालिक होने की बहुत अधिक संभावना है । इस प्रकार शिलालेख की तिथि का लगभग निर्णय कर लेने के पश्चात् अब हम उसकी बातों की इस रष्टि से निरीक्षा करेंगे कि जैनधर्म के इस महान संरक्षक के विषय में हमें क्या पता लगता है. उसका राजनयिक जीवन कितना व्यापक रहा था कि जिसने उसे भारतीय इतिहास के महान नरपुंगवों में से एक का मान प्राप्त कराया । शिलालेख की पहली पंक्ति जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है जैन रीति अनुसार प्रर्हतों और सिद्धों के नमस्कार स्मरण से प्रारम्भ हुई है। यह जैनों में आज भी प्रचलित पंच परमेष्ठित नमस्कार की पद्धति के अनुसार 1. केहि भाग 1, पृ. 446 इं, I 2. at 1 3. मेयेर, एडुअर्ड वही भाग 9, पृ. 8901 4. देखो बिउप्रा पत्रिका सं. 4, पृ. 398, और सं. 13, पृ. 226 I 5. देखो कूलर, पाच सर्वे व्येस्ट इण्डिया, पुस्त 5, पृ. 71 और इण्डिश पेलियोग्राफी, पृ. 39 1 6. व्हूलर, चि. सर्वे व्येस्ट इण्डिया, पुस्त 5, पृ. 71 आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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