SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 138] के सर्व प्रमुख समर्थक थे पनी नवीन खोजों के आधार पर एक सच्चे विद्वान की परम उदारता के साथ फ्लीट और अन्य पण्डितों में सहमति स्वीकार कर दी है कि निर्दिष्ट पंक्ति में ही नहीं अपितु समुचे लेख में अन्यत्र मी कहीं इस प्रकार के संवत का कोई भी उल्लेख नहीं है । " इसमें सदेह नहीं कि लेख की छठी पंक्ति में नन्द-युग का उल्लेख है, परन्तु इस उल्लेख से खारवेल का समय निश्चित करने में हमें तनिक भी सहायता नहीं मिलती है। 8 इस शिलालेख और वेदिवंश के इस महान सम्राट का दोनों ही समय निर्णय करने के लिए इस शिलालेख में उल्लिखित अन्य तथ्यों को ध्यान में लेना अत्यन्त ही आवश्यक है। इन तथ्यों को उन समकालिक ऐतिहासिक घटनाओंों को प्रकाश में जो भी प्राप्त हो, व्याख्या करना और समझना होगा, और तभी हम इस शिलालेख की तिथि बहुत कुछ ठीक ठीक निर्धारित कर सकते हैं या कर सकेंगे । श्री जयसवाल के नए वाचन और व्याख्या के अनुसार इस शिलालेख की आठवीं पंक्ति द्वेश का यह अंश जिसमें कि सम्राट खारवेल के राज्यकाल के 8वें वर्ष का विवरण दिया गया है, इस प्रकार है :-- "घातापयिता राजगृहं उपपीडापयति एतिना च कम्मापदान संनादेन संबडत सेन वाहनो विपमुचितु मधुरां अपयातो यवन राज- डिमिट यच्छति विपलव ७ और इसका अर्थ यह है कि "(राजगृह के परे और गोरथनिरि के गढ़ के हस्तगत करने कि जिसके विषय में हम आगे विचार करेंगे शौर्य कार्यों से उत्पन्न अफवाहों के कारण, ग्रीकराजा दिमिट (रीयास), अपनी सेना और परिवहन पीछा खींच, अथवा अपनी सेना और रथों से अपने को सुरक्षित कर मथुरा का घेरा उठा कर खिसक गया ।"10 1 में अव्यवहार्य हो गया था। देखो रमेशचन्द्र मजुमदार भी (इण्डि. एण्टी, पुस्त. 47, 1918, पृ. 223 प्रादि, और पुस्त. 48 1919, पृ. 187 आदि। फ्लीट के अनुसार यह 16वीं पंक्ति अस्पष्ट और अनिश्चित है और उसने जयसवाल एवम् बैनरजी रामप्रसाद चन्दा के अनेक निष्कर्षो का विरोध किया है ( रा एसो पत्रिका 1919, पृ. 395 श्रादि) । वह फ्लीट और ल्यूडर्स से हाथीगुंफा लेख में किसी तिथि के अस्तित्व की अनुपस्थिति के विषय में सहमति दिखाता है। पर अब यह सन्तोष की बात है कि श्री जयसवाल एवम् उनकी सम्प्रदाय के अन्य विद्वान भी विरोधी सम्प्रदाय के मत से इस महत्व की बात में सहमत हो गए हैं और इसलिए लेख की 16वीं पंक्ति का वाचन जो कि इस स्थापना की मुख्य चावी है प्रायः सभी विद्वानों द्वारा पूर्ण स्वीकार कर लिया गया है (देखो जायसवाल, बिउमा पत्रिका सं. 13, पृ. 221 आदि और सं. 14. पृ. 127 128 और 150-151) इन खोजों के सिवा भी गंगूली, फरग्यूसन एवम् वरस और प्रो. के. हघुव के मन्तव्य भी हमें सब प्राप्त हैं। श्री मनोमोहन गंगूली इस लेख को स्थापत्य एवम् शिल्पी धारणाओं से ई. पूर्व तीसरी सदी के अन्त के लगभग का होना मानते हैं याने मौर्य सिहासन पर शोक के पाने के पूर्व वा (देखो गगुली, पृ. 48-50) डॉ. फरग्यूसन एवम् वरयंस के अनुसार “ई. पूर्व 300 या उसके पास-पास की तिथि इस लेख की होना प्रत्यन्त सम्भव है।" ये लेखक यह भी कहते हैं कि "अशोक के राज्यकाल से टेकरियों को खोद कर गुहाएं बनाने की प्रथा का प्रारम्भ हुआ था और वह इस काल से लेकर लगभग 1000 वर्ष धागे तक उत्तरोत्तर सौष्ठव एवम् उत्कर्ष के साथ चलती रही थी।" (फरग्यूसन एवं बरन्स वही पृ. 67-68) प्रो. ध्रुव ने अपने गुजरात नाटक 'संच स्वप्न' - भास के संस्कृत नाटक 'स्वप्नवासवदत्ता' का गुजराती अनुवाद की प्रस्तावना में तात्कालिक राजवंशों और पुष्यमित्र सुरंग से जैनों के सम्बन्ध की प्राचीनता और खारवेल का विचार किया है । 7. विउमा पत्रिका सं. 13, पृ. 236 बिउप्रा, 1 प्रादि वही, सं. 4, पृ. 399 8. नंदराज-ति-वस-त-योपाटितं 10. वही, पृ. 229 1 9. वही और सं. 13, पृ. 227 I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy