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महावीर के अपने धर्म-सिद्धान्त का विकास साध कर सर्व जीवों के प्रति असीम दयाधर्म का प्रचार करने के पश्चात् उनके अनुयायियों में लिच्छवी ही बहुत बड़ी संख्या में थे और बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार वैशाली के उच्चपदस्थ व्यक्तियों में से भी कुछ उन अनुयायियों में थे ।"]
इस प्रकार विदेही, लिच्छवी, वज्जि, और ज्ञातृक जैनधर्म के साथ कैसे सम्बन्ध थे यह हमने संक्षेप में देखा । ऐसा मालूम होता है कि वज्जि अथवा लिच्छवी का राज-मण्डल महावीर के संस्कारित धर्म को शक्तिप्रद था। मल्लिकों का विचार करने पर मालम होता है कि उनकी भी महान तीर्थंकर महावीर और उनके सिद्धान्त के प्रति अपूर्व लग्न थी और बहुत मान था।
मल्लों का देश सोलह महाजनपदों-महान देशों में का एक कहा जाता है । और यह बौद्ध एवम् जैन दोनों ही स्वीकार करते हैं। महावीर के समय में मल्ल दो भागों में विभक्त दीखते हैं। एक की राजधानी पावा और दूसरे की कुसीनारा थी। दोनों राजधानियां एक दूसरे से थोड़ी सी दूरी पर ही थीं और वे जैनों एवम् बौद्धों के तीर्थरूप में आज तक प्रसिद्ध हैं क्योंकि दोनों के धर्म संस्थापकों का निर्धारण वहां हुआ था। हम देख ही आए हैं कि महावीर का पावा में निर्वाण जब हा वे "हस्तिपाल राजा की लेखनशाला (रज्जुगशाला) में ठहरे हुए थे। और पादरी स्टीवन्सन के कल्पसूत्रानुसार जब कि वे पावा के राजा हस्तिपाल के महल में प!षणा बिता रहे थे । आज वहां उनके निर्वाण-स्मारक रूप में चार सुन्दर मन्दिर बने हुए हैं।"।
मल्लों का जैनों के साथ सम्बन्ध यद्यपि लिच्छवियों जितना निकट का नहीं कहा जा सकता है फिर भी वह इतना तो गहरा मालम होता ही है कि जिससे उन्हें अपने धर्म-प्रचार में उनसे सहाय्यता प्राप्त होती रही थी। डॉ. लाहा के अनुसार इस बात के प्रचुर प्रमाण हमें बौद्ध साहित्य से प्राप्त हैं । वह कहता है कि "पूर्व-भारत की अन्य जातियां जैसे कि मल्ल जाति में भी जैनधर्म के अनेक अनुयायी मिलते हैं । महावीर के निर्वाण पश्चात् जैनसंघ में पड़ी फट के विषय में बौद्ध साहित्य में वरिणत बातें इसको प्रमाणित करती हैं । महान् तीर्थकर के निर्वाण के पश्चात् पावा में निगंठ नातपुत्त के अनुयायी पृथक हो गए थे। इन अनुयायियों में साधू व नातपुत्त अनुयायी श्रावक दोनों ही थे क्योंकि हमें लिखा मिलता है कि" साधुषों की इस फूट के कारण, । श्वेतवस्त्र धारियों के गृहस्थ अनुयायियों को भी निगंठों के प्रति तिरस्कार, क्रोध और विराग हुआ था। ये गृहस्थ-उपासक, उक्त अवतरण से पता लगता है कि, उसी प्रकार के श्वेत-वस्त्रधारी थे जैसे कि आज के श्वेताम्बर साधू हैं। बुद्ध और उनके प्रमुख शिष्य सारिपुत्त ने महावीर के निर्वाण पश्चात् उनके अन्यायियों में हुई इस फूट का अपने धर्म प्रचार
1. लाहा, बि. च., वही, पृ. 67, 73 । 2. देखो रायचौधरी, वही, प. 59-601 3. देखो लाहा, वि. च., वही, पृ. 147; रायचौधरी, वही, पृ. 79; ह्रिस डेविड्स कैहिई, भा. 1, पृ. 175
"कनिघम ने मनसे आधुनिक थडराना को पावा या पापा कह दिया है जहां कि बुद्ध ने चुण्ड के घर भोजन किया था। प्राचीन पापा या अपापापुरी का आधुनिक नाम पावापुरी है और यह बिहार नगर के पूर्व में सात मील पर है । यहां महावीर का निर्वाण हुअा था।" -दे, वही, पृ. 148, 155 । कुसीनारा या कुसीनगर वह स्थान है जहां बुद्ध का निर्वाण ई. पूर्व 477 में हुअा था। प्रो. विल्सन और अन्य विद्वानों ने आधुनिक गांव कासिया को ही जो कि गोरखपुर जिले के पूर्व में है, कुसीनारा बताया है। इसको प्राचीन काल में कूशवती
भी कहते थे । देखो रायचौधरी वही और वही स्थान लाहा, बि. च., वही, पृ. 147-148: दे, वही, पृ. 111। 4. वही, पृ. 148 । देखो व्हूलर, वही, पृ. 27, पादरी स्टीवन्सन, कल्पसूत्र, प, 9।। 5. देखो ब्लर, वही और वही स्थान ।
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