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________________ 212 ] शिला है कि जिसमें जिन की प्रतिकृति या कोई अन्य पूज्य प्राकृति होती है। इस शब्द की यथाविहितरूप में व्याख्या' पूजा या समर्पण की शिला की जा सकती है क्योंकि ऐसी शिलाएँ मंदिरों में स्थापित कीजाती थीं और जैसा कि उन पर के अनेक शिलालेखों से कहा हुआ है, 'अर्हतों की पूजा के लिए:'...इसका प्रयोग जैनों में बहुत काल पहले ही स्थगित हो गया था जैसा इन पर के लेखों के प्राचीन अक्षर अनिवार्यतः प्रगट करते है, और जिनमें कहीं भी कोई तिथि नहीं दी गई है।1। प्राचीन जैन कला के प्रायागपट एकान्त नहीं अपितु प्रमुख लक्षण हैं । जैसा सामान्यतः देखा गया है, इन अति संवारे पटों के विषय में भी जैन शिल्प का लक्ष्य 'सौन्दर्य की स्वतन्त्र कृति प्रस्तुत करना नहीं था। उनकी कला स्थापित स्मारकों के सजावट की परतन्त्र कला ही थी ।' फिर भी यह कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है कि मध्य स्थान में शोभती बैठी जिन की योगी-मुद्रा, विविध प्रकार के पवित्र प्रतीकों सहित अत्यन्त सुशोभित त्रिशूल, उत्कृष्ट वक्रीयविमिण्डन, और ईरानी-अकीमीनी शैली में मोटे मोटे स्तम्भ कला-प्रेमी दर्शक को आसानी से यह विश्वास नहीं करने का पूर्वग्रही कर दें कि मथुरा शिल्प का प्रमुख ध्येय प्रतीक प्रदर्शन ही था और इसी ध्येय से 'इन पूजा की शिलानों' पर शिल्पीने अपनी छेनी चलाई थी। पक्षान्तर में, इन पायागपटों के सम्बन्ध में तो अवश्य ही, एक कदम और आगे बढ़ कहा जा सकता है कि उनकी कृतियों की स्वतन्त्रता और सजीवता में ही उनकी कला की उत्कृष्टता प्रगट हुई है, और इस प्रकार स्वयम् उत्साही कलाकार होने के कारण शिल्पीने धार्मिक विषयों को ही एक बहाना मात्र, न कि अपनी कृतियों का साधन और साध्य, रूप में बहुधा प्रयोग किया ऐसा ही लगता है । दो ही पायागपटों का वर्ण करना यहाँ पर्याप्त हैं- एक तो नातिक्क फगुयश की पत्नि शिवयशा स्थापित, और दूसरा महाक्षत्रप शोडास के राज्यकाल के 42वें वर्ष में उत्सर्गित ग्रामोहिनी का जिसका उल्लेख पहले भी किया जा चुका है। पहले में, स्मिथ के अनुसार, जैन स्तूप का एक सुन्दर दृश्य दिया हुआ है जिसके चारों ओर कटहरे द्वारा सुरक्षित एक भमती (परिक्रमा) है। उस भमती तक अति सुसज्जित तोरण द्वार में हो कर पहुँचा जा सकता है और द्वार चार सोपान की चाढी से । द्वार के नीचे ही नीचे के शहतीर से एक भारी माला लटक रही है। कमर में कटिबन्ध स्वरूप परिच्छद और सामान्य अलंकार याने कटिमेखला के अतिरिक्त सम्पूर्णतया नग्न नतिका द्वार के दोनों ओर कटहरे के ऊपर असम्य रीति से खड़ी या टिकी हैं। विचित्र पाये वाले दो भारी स्तम्भ भी दिखाए गए हैं, और कटहरे का कुछ भाग ऊपर की भमती को घेरा हुआ भी दीखता है ।"4 इस सुन्दरता से तक्षित तोरण पर एक संक्षिप्त अर्पण-पत्रिका उत्कीरिणत है । स्मिथ के अनुसार इस लेख के अक्षर "ई. पूर्व 150 लगभग के या सुगों के राज्यकाल की तिथि की भारत स्तूप के द्वार पर के धनभूति के लेख के अक्षरों से कुछ अधिक प्राचीन हैं।" डा. व्हलर भी इसको 'पार्ष प्राचीन' के समूह में ही गिनता है। परन्तु वह यह भी कहता है कि "यह कनिष्क से पूर्व समय का है। इस पायागपट की कला के गुणों के विषय में भावना से ही विचार करना आवश्यक नहीं है। वैयक्तिक पसंदगी या अपसंदगी अथवा विशिष्ट सिद्धान्तों के सिवा भी सर्व मान्य परीक्षाएं हैं। विसेंट स्मिथ को दो नर्तकी प्राकृतियों की भाव-भंगिमा असम्य प्रतीत हुई हैं । 1. ब्हलर, एपी., इण्डि., पुस्त. 2 4. 314। 2. चन्दा, पासई, 1922-1923, पृ. 106 3. देखो व्हूलर, वही, सं. 5 पृ. 200 । 4. स्मिथ, दी जैन स्तूप एण्ड अदर एण्टीक्विटीज आफ मथुरा, पृ. 19, प्लेट 12 । 5. स्मिथ, वही, प्रास्तावना पृ. 31 6. व्हूलर, वही, पृ, 196 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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