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________________ 38 यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि ईश्वर जैसी कोई वस्तु प्रयवा व्यक्ति जैनी स्वीकार नहीं करते हैं तो वे किस सत्ता को मानते हैं और उस सत्ता के लक्षण क्या है लक्षणों द्वारा पहचाने बिना किसी भी व्यक्ति के आदेश स्वीकार करने में मनुत्तरदायी और धाततायी सत्ताधीश की आज्ञा स्वीकार करने का आरोप धाता है। सत्ताधीश चाहे जैसा सच्चा हो फिर भी उसके उपदेश की पहली भूमिका सत्यज्ञान है। धर्म के मूल तत्व या जड़का विचार करने पर हम देखते हैं कि मनुष्य और ईश्वरी सत्ता का पारस्परिक सम्बन्ध ही धर्म की तात्विक व्याख्या नहीं है और यह व्याख्या जैनधर्म के अनुकूल नहीं है । ऐसी व्याख्या धर्म के गूढ़ रहस्य का आकलन करती ही नहीं है । 'दुख के अस्तित्व के कारण जानने की, उनको निर्मूल करने की, फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले शाश्वत सुख के लिए मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा ही धर्म का लक्षण है। उपर्युक्त शक्तियों को इच्छापूर्वक ही इन्द्रियातील नहीं कहा गया है, ताकि रश्य देवी शक्ति इस प्रकार अस्वीकार हो जाएं और फिर ये शक्तियां वास्तविक रूप में नहीं अपितु पूजकों की दृष्टि में लौकिक है। * तथ्य जो भी हो, यह ऐसी निर्बलता है कि जो किसी न किसी रूप में सार्वभौमिक है, धौर इस दृष्टि से, प्रकृतथा जैन भी इससे विमुक्त नहीं रह पाए है। इस विचारसरणी । को यहीं छोड़ दें तो जैसा कि हम पहले ही देख आए हैं जैनधर्म, यह कहा जा सकता है कि, एक ऐसा स्वच्छ और परिपूर्ण प्रकाश है जिसे उन महान आत्माओं ने कि जिनने अपने सब विकारों और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर it at र जो सब प्रकार के कर्मों से इसलिए विमुक्त हो गए थे. इस संसार को दिया था । जिन - जैनधर्म के प्राध्यात्मिक नेता: जैनधर्म के मौलिक सिद्धांतों को प्रस्तुत करनेवाले सब शास्त्र पृथ्वी पर मनुष्य रूप में विचरते पार्श्वनाथ और महावीर जैसे महान् श्राध्यात्मिक गुरुश्रों के उपदेशामृत हैं । ये उपदेश सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा जिन भगवान् के शिष्य गणधरों को सर्व प्रथम उनके द्वारा दिए गए थे और उन गणधरों ने आज तक चली आती गुरु परम्परा को वारसे में वे दिए । इस प्रकार हम जो कुछ भी जैनधर्म के विषय में अब कहेंगे उस सब का मूल ये जिन भगवंत ही हैं । इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि मूल सिद्धांत की दृष्टि से उनके आधार सब अपेक्षाकृत परवर्ती कालीन हैं। परन्तु मूल और रूपान्तर को पृथक करना जरा भी कठिन नहीं है क्योंकि डा. शापेंटियर ठीक ही कहता है कि 'मूल सिद्धांतों को दृढ़ता से चिपके रहने में छोटी सी जैन जाति की अनमनशील अनुदारता' ही उसका सुदृढ़ रक्षक रही है। इसी धनुदारता के कारण अनेक भयंकर विपत्तियो के आने पर भी जैनी लोग अपने शास्त्रों को लयभग अबाधित रूप में सुरक्षित रख पाए हैं। ईसकी पहली और दूसरी सदी के उद्भिदों (वास रिलीफ) में उनकी 1. वारेन, वही, पृ. 1 1 2. टी, वही, पृ. 21 3. जिनेन्द्रो... रागद्वेषविवर्जितः... कृत्स्नकर्मक्षयं कृत्वा संप्रान्तः परमपदम् । हरिभद्र, षड्दर्शनसमुच्चय श्लो. 45, 46 | 'जैनधर्म का यह खयाल है कि वही ज्ञान यथार्थ है जो क्रोध, मान, घृणा आदि विकारों से रहित है वही जो सर्वज्ञ है. वहीं ग्रार्जव के मार्ग का उपदेश कर सकता है कि जिससे जीवन का अनंत सुख प्राप्त हो सकता है और वह सर्वज्ञता उसमें असम्भव है जिसमें प्रमादी तत्व पाए जाते हैं।' धारेन वही, पृ. 3: 4. इन्द्रभूति से प्रारम्भ कर प्रभवस्वामी में समाप्त होने वाले महावीर के ग्यारह गणधर थे। 5. प्रक्रान्तशास्त्रस्य चीर जिनवरेन्द्रापेक्षया र्थतः ग्रात्मागमत्वं तच्छिध्यं तु पंचमरणधरं सुधर्म ... तच्छिध्यं च जंबू ... परम्परागत प्रतिपिपादयिपु. सूत्रकारः... आह... शाता, टीका, पृ. 1 6. शापेंटियर केहि.., माग 1, पृ. 1691 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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