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हाथ दूर हुआ कि ब्राह्मणों की सत्ता के प्रभाव ने फिर से सिर ऊंचा किया और विप्लव मचा दिया कि जिसके फल स्वरूप, जैसा कि हमने देख लिया है, सुरंगवंश का स्थापना हो गई। सुरंगों के राज्य विस्तार का विचार करने पर हम देखते हैं कि पाटलीपुत्र, आधुनिक पटना, प्राचीन काल का पालीपोत्रा और उस समय की उत्तर भारत की राजधानी, सुरंगों की राजधानी बनी रही और आसपास के प्रदेश भी उनके अधिकार में रहे । दक्षिण में नर्मदा तक उनके राज्य का विस्तार था। बिहार, तिरहूत और ग्राधुनिक उत्तर प्रदेश भी उनके राज्य में था । पंजाब ती परवर्ती मौर्योों के अधिकार में से बहुत पहले ही निकल चुका था अतः वह सुरंगों के अधिकार में नहीं था ।
बृहस्पति और पुष्यमित्र एक ही व्यक्ति हैं, वह सामयिक इतिहास की बात वृहस्पति और पुरुष नक्षत्र के पार स्परिक सम्बन्ध से भी समर्पित होती है। इस पर टिप्पण करते हुए भी स्मिथ लिखता है कि 'वपति कुछ सिक्कों और छोटे शिलालेखों का बहुपति मिश्र ही प्रतीत होता है क्योंकि दोनों ही संस्कृत शब्द बृहस्पति के प्राकृत रूप हैं । फिर ज्योतिष में बृहस्पति ग्रह पुष्य या तिष्य नक्षत्र का कि जो कर्क राशि का ही अंश है, स्वामी कहा गया है। बहुपति निश्चय ही पुराणों की वंशावली के सुवंश का प्रथम राजा पुष्यमित्र का ही विकल्प नाम है।
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इसी रष्टिकोण का समर्थन करते हुए भी हरप्रसाद शास्त्री इस प्रकार कहते हैं कि 'अशोक वस्तुतः बोद्ध राजा या और वह भी धर्मान्ध... उसने सारे साम्राज्य में सब प्रकार के पशु-यश बंध कर दिए थे... उसकी यह माना जहां भी ब्राह्मण रहते हो उनकी विशिष्ट जाति के विरुद्ध ही थी... इसी प्राज्ञा के बाद एक दूसरी प्राज्ञा भी थी जिसमें अशोक ने गर्व के साथ घोषणा की थी कि उसने इस भूमि पर देव माने जानेवाले लोगों को थोड़े ही समय में कुदेव बना दिया है । यदि इसका कोई अर्थ हो तो यही है कि भूदेव माने जानेवाले ब्राह्मणों का उसने परदा फाश कर दिया...। धर्ममहामातों की अशोक द्वारा नियुक्तियां भी ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के प्रति प्रत्यक्ष प्रक्रमरण था । इस प्रकार की गई अपनी हानि को ब्राह्मण चुपचाप सहने वाले नहीं थे । इन सब के कलश रूप, अशोक ने अपने एक प्राज्ञालेख में अपने समस्त अधिकारों को प्रादेश दिया था कि वे दण्डसमता और व्यवहारसमता के सिद्धांतों का कड़ाई के साथ परिपालन करें अर्थात् ज्ञाति, रंग और वर्ण और धर्म शिक्षा और समान व्यवहार का अमल करें... ऐसी परिस्थिति में प्रतिष्ठा सम्पन्न महान् विद्यान धौर विशिष्ट अधिकार प्राप्त ब्राह्मणों को भी अनार्यो के साथ जेल में रहने कोड़ों का दण्ड दिए जाने, जीवित ही भूमि में गाड़ दिए जाने अथवा फांसी पर लटकाए जाने के दण्ड ग्रपराधानुसार दिए जा सकते थे और यह उन्हें ग्रसह्य हो गया था | ये सब अपमान वे जब तक कि अशोक का सुहद बाहु साम्राज्य का संचालन करता था तब तक सहते थे... । परन्तु वे किसी ऐसे सैनिक की खोज में भी रहे कि जो उनके अधिकारों के लिए लड़े, और ऐसा व्यक्ति उन्हें मौर्य साम्राज्य को महासेनाधिपति पुष्यमित्र के रूप में मिल ही गया। वह रग-रग से ब्राह्मण था और बौद्धों से घृणा करता था ।" "
की अवगणना करते हुए समान
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संक्षेप में कहें तो यह कि वुपतिमित्र को पुष्पमित्र मान लेने में जरा भी कठिनाई या यापति नहीं है और न इससे कोई ऐतिहासिक क्षति ही पहुंचती है।" पक्षान्तर में ऐसा करने से ही उस समय के समसमयी पुरुषों
1. मजुमदार, वही, पृ. 36 । 2. देखो एसो कार्याविवरण और पत्रिका, 1910 पृ. 259-262 1 3. एपो पत्रिका, 1918, पृ. 5451
4. शास्त्री, हरप्रसाद बंएसो, कार्यवाही और पत्रिका, 1910 पृ. 259-2601
5. यहां यह द्रव्य है कि इस प्रकार के नाम - विकल्प भारतीय इतिहास में सामान्य बात है-याने बिंबिसा-श्रेणिक, अजातशत्रु - कूरिणय अशोक प्रियदसी, चन्द्रगुप्त- नरेन्द्र, बलमित्र प्रग्निमित्र, भानुमित्र वसुमित्र आदि ।
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