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________________ 150] और ऐतिहासिक घटनाओं का पारस्परिक समन्वय और सम्बन्ध बैठ जाता है। पुप्यमित्र कट्टर ब्राह्मण था और खारवेल जैन, ये दोनों ही बातें खारवेल को राज्य का जैन इतिहास की दृष्टि से महत्व बढ़ा देती हैं। यदि पुष्यमित्र के ब्राह्मणीय धर्मयुद्ध में जैनधर्म की रक्षा करने वाला खारवेल उस समय न होता तो महावीर की धर्मक्रान्ति भी उसी प्रकार नष्ट हो गई होती जैसी कि बौद्धधमं की बुद्ध द्वारा की गई क्रान्ति ऐसे व्यक्ति के हाथों बिलकुल नष्ट हो गई कि जिसकी ख्याति 'बौद्ध सिद्धान्त के उन्मूलनकर्ता' नाम से है । जंगा कि हम पहले ही कह पाए हैं, खारवेस ने मगध पर दो बार चढ़ाइयां की थी पहली चढ़ाई में वह लगभग पाटलीपुत्र तक पहुंच गया था उस समय पुष्यमित्र ने युक्तिपूर्वक मथुरा की और पीछे हटने और खारवेल नं बराबर टेकरियों (गोरठगिरि) से मांगे नहीं बढ़ने में ही होशियारी या समझदारी मानी । परन्तु दूसरी चढ़ाई में खारवेल विजयी हुया । उत्तर भारत में प्रदेश कर हिमालय की तलेटी तक पहुंच उसने यकायक मगध की राजधानी पर गंगा की उत्तर से धावा बोल दिया। इस नदी को उसने कलिंग के प्रख्यात हाथियों द्वारा पार किया था। त्रिशरणागत हुआ और विजेता वेल ने उनके राज्य के कोम पर अपना अधिकार जमा लिया । उसमें कलिंगजित की प्रतिमा जो महाराज नन्द श्म ले प्राया था, वह भी थी । उसकी इस विजय का प्रभाव सुरंग राज्य की पूर्वी सीमा मात्र पर ही पड़ा उसने बंगाल एवम् पूर्व बिहार पर भी विजय प्राप्त की होगी जहां कि जैनधर्म के प्रभाव के अनेक प्रमाण ग्राज भी उपलब्ध हैं।" खारवेल की इस विजय के विषय में जयसवाल कहते हैं कि " पुष्यमित्र ने लड़ाई के परिणाम पर अपने राज्य सिहासन का दाव लगाने की अपेक्षा भूतपूर्व तीन सदियों के मगध कलिंग इतिहास को संक्षिप्त करने वाले पदार्थों को लौटा कर रक्षा की बहुत संभव है कि मगधराज की सत्ता ने ही इस चढ़ाई के उद्देश को कूट राजनैतिक विजय की अपेक्षा महत्व का बना दिया क्यों कि भारतवर्ष के इस साम्राज्य सिंहासन पर अधिकार न कर यही छोड़ देना किसी भी मनुष्य के लिए आसान बात नहीं था। ". बृहद्रथ खारवेल पुष्यमित्र का यह सिंहासन अपहरण नहीं कर सका था, यह बात शिलालेख के पाठ से स्पष्ट प्रगट है । उस सीमा तक कल्पना को खींचने की आवश्यकता ही नहीं है। वस्तुतः ऐसा हुआ दीखता है कि जैस सातकरण के सम्बन्ध में हुआ था वैसे ही खारवेल को अपने पड़ोसियों पर ना कुछ अधिक सर्वोपरिता जमा कर ही यहां सन्तोष कर लेना पड़ा होगा, क्योंकि अन्तिम मार्य राज की हत्या के पश्चात् मौर्य साम्राज्य की सम्पत्ति विभाजन कर लेने वाली शक्तियों की पारस्परिक प्रतिइन्द्रता से उस समय का राजनीतिक वातावरण बहरा रहा था । महान राज्य के पतन पर उठनेवाली शक्तियों में सत्ता के लिए संघर्ष चल रहा था । इस संघर्ष में यह बिना जोखम के कहा जा सकता है कि चारवेल ने भी पूरा पूरा भाग लिया या यही नहीं अपितु जो भी उसे प्राप्त हो सका उसे ले लेने में उसे यश ही प्राप्त हुआ था। कलिंग में जैनधर्म की प्राचीनता की दूसरी बात का विचार करते हुए हम देखते हैं कि इस शिलालेख में कलिंगजिन के उल्लेख के अतिरिक्त हमें कुछ भी संकेत नहीं मिलता है जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है उसमें जिस वाक्यरचना का प्रयोग किया गया है उससे ऐसा लगता है कि उक्त मूर्ति कलिंग अथवा कलिंग की राजधानी 1. दव्यावदान पृ. 433-434 3. मजुमदार, वही. पृ. 633 Jain Education International 2. स्मिथ, वही, पृ. 2009 4. विडा पत्रिका मं. 3.2.447 far, 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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