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________________ 36 ] यदि दोनों की यह समानता स्वीकृत हो तो जैन प्रतिमा के स्तित्व का ऐतिहासिक काल ई. पूर्व चौथी सदी का लगभग प्रारम्भ ही होना चाहिए । फिर यह भी माना जाए कि राजा नन्द कि तिथि श्री जायसवाल के अनुसार ई. पूर्व 457 के लगभग हैं, वही नन्दिवर्धन है तो ऐसा कहने में कि जैन प्रतिमाएं ई. पूर्वं 450 के लगभग या उससे भी कुछ पहले थी, ऐतिहासिक भूल अथवा जैन दन्तकथा से कोई विरोध नहीं मालूम देता है । ऐसा कहने में केवल इसी कारण से ऐतराज नहीं हो सकता है कि महावीर का निर्वारण ई. पूर्व लगभग 467 के नहीं हो सकता है और ई. पूर्व 545 तक दूर जाना आवश्यक है क्योंकि सत्य या श्रसत्य परन्तु अनेक दन्तकथाओं के अनुसार मूर्तिपूजा जैनधर्म में कोई नहीं है ।" जैन कालगणना में अजातशत्रु और चन्द्रगुप्त के बीच का अन्तर उदायिन और नव-नन्दों से सम्पूर्ण किया गया है, और मेरुतुरंग जैसा लेखक कहता है कि नन्दों का राज्य 155 वर्ष चला था । पक्षान्तर में हेमचन्द्र ने शश नन्दों को केवल 95 वर्ष ही दिए हैं और वह वस्तुतः इसमें नवों-नन्दों को ही लेता है । फिर भी ई. पूर्व 480 467 का काल जिसे महावीर निर्वाण काल हमने माना है. सम्भव परिकल्पना की सीमा बांधने के प्रयत्न के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं जैसा कि ग्राज तक उपलब्ध कतिपय प्रमाणों से भारतीय प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण के हमारे प्रयत्नों में होना बहुधा अनिवार्य है । इससे अधिक सत्य निर्णय के लिए हमें उस समय की प्रतीक्षा करनी ही होगी कि जब पुरातत्व खोजों से हमें और पर्याप्त साधन प्राप्त नहीं हो जाएं । जैनधर्म की दृष्टि से सृष्टि की उत्पत्ति: महावीर के संस्कारित जैनसम्प्रदाय या तथाकथित जैनधर्म का जब विचार करते हैं तो हम देखते हैं कि किसी के भी सम्बन्ध में विस्तार से विचार करना हमारे लिए सम्भव नहीं है। इस पुस्तक के मर्यादित क्षेत्र में हमारे लिए इतना ही सम्भव है कि हम उसके मुख्य लक्षरण और मनुष्य के श्राध्यात्मिक जीवन सम्बन्धी सामान्य समस्याओं प्रश्नों और उलझनों के विषय में उसके विश्वासों का विचार मात्र यहां कर लें तत्वज्ञान की जीवित ज्योति चितन है। प्राथमिक तत्व चितन जगत की उत्पत्ति की खोज में रहा था और कर्म सिद्धान्त को स्वरूप देने का उसने प्रयास किया था । इस विषय में जैनधर्म को नास्तिक यदि किसी शाश्वत सर्वोपरि ईश्वर को सव वस्तुओं का कर्ता और स्वामी नहीं मानना ही नास्तिकता हो तो, कहा जा सकता है। "देवी सर्जकात्मा के अस्तित्व का निषेध ही जैनधर्म की नास्तिकता का अर्थ है ।"" जैनी ऐसे सर्व शक्तिमान ईश्वर को नहीं मानते हैं। परन्तु वे शाश्वत अस्तित्व, सर्वव्यापी जीवन, कर्मसिद्धान्त की अटलता और मोक्ष के लिए सर्वज्ञता की आवश्यकता को स्वीकार करता है । जैनों को विश्व उत्पत्ति के आदि कारण के प्रश्न के आकलन की ग्रावश्यकता प्रतीत नहीं होती |" बे बुद्धिगम्य यादि कारण के अस्तित्व को नहीं मानते हैं। घोर शून्य में से अथवा अकस्मात उद्भूत सर्जन सिद्धान्त 1. तए सा दोबई रायवर कसा... जेणेव जिलधरे... यजिखपटिमाणं... परणामं करेई... ज्ञाता सूत्र 119 T. 210 1 2. देखो रेप्सन. के. हि... भाग 1, पृ. 313 । 3. हापर्किस, वही, पृ. 285 286 "उनके यथार्थ देव उनके जिन या तीर्थंकर ही हैं जिनकी मूर्ति की पूजा उनके मन्दिरों में की जाती है ।" वही । 4. कर्तास्ति कश्चिद् जगतः स चैकः, स सर्वगः स स्ववश स नित्यः । इमा: कुहेवाकविडम्बना: स्युस्तेषां न येषामनुशासकत्वम् ||9|| हेमचन्द्र, स्याद्वादमंजरी (मोतीलाल लधाजी सम्पादित), पृ. 24; वही, पृ. 14 आदि । 5. राधाकृष्णन, वही भाग 1 पृ.299 देखो विजयधर्मसूरि भण्डारकर स्मृतिग्रन्थ पृ ( 14 आदि) 150-151 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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