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________________ 192 ] दस प्रकार के धर्म की चर्चा है। इसके दो विभाग किए गए हैं। एक में अधर्मों की विवेचना की गई है और दूसरे 1 में धर्मों की वधर्म याने जिनसे परहेज करना चाहिए जो कि पांच हैं याने हिंसा, सत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य धौर परिग्रह प्रासक्ति इन पांचों के उलट याने हिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच धर्म है जिनका ग्राचरण करना चाहिए ।" पक्षान्तर में विपाकसूत्र नामक ग्यारहवें मांग में पुण्य धीर पाप कार्यों के फलों की दन्तकथाएं हैं कि जो डा. विनिज के अनुसार यवदानशतक और कर्मशतक नामक बौद्ध धर्मकथात्रों जंभी हो है । बारहवां अंग ग्राज हस्थि में नहीं है। चौदह पूर्वो का कि जो रंग साहित्य से पृथक स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व में नहीं रहे थे, समावेश इस बारहवें श्रंग में किया गया था, परन्तु दुर्भाग्य से वह भी विच्छेद हो गया । बारहवें अंग दृष्टिवाद के विच्छेद हो जाने के विषय में एक प्रश्न विचारणीय है और वह महत्व का भी है। प्रख्यात योरोपीय जैनविद्याविद् कहते हैं कि जैन स्वयम् ही कोई विश्वासनीय कारण इस बात का नहीं देते हैं कि उनका यह प्राचीनतम और अत्यन्त पूज्य धर्मज्ञान कैसे नष्ट हो गया । ग्रतः इस सम्बन्ध में उनने अनेक मत प्रकट किए हैं क्योंकि उन्हें यह एक प्रति ग्रद्भुत बात दीखती है । हम यहां कुछ ही विद्वानों के मतों का दिग्दर्शन कराते हैं । कहता है कि सिद्धान्त के मूल तत्वों के अनुरूप नहीं होने से ही दृष्टिवाद की जैनों ने इरादापूर्वक उपेक्षा की ऐसा लगता है* डा. याकोबी कहता है कि दृष्टिवाद इसलिए अव्यवहृत और लुप्त हो गया कि उसमें महावीर और उनके विरोधियों के प्रवादों का ही वर्शन था और इनमें रस घटते घटते ऐसी स्थिति उपस्थित हो गई कि स्वयम् जैनों को ही वे एकदम अबूझ हो गए । अन्तिम मत हम डा. लायमन का देते हैं जो इसके विच्छेद जाने एक दम बनोला ही कारण कल्पना करते हैं। वे कहते हैं कि इसमें मन्त्र तन्त्र, इन्द्रजाल फलित ज्योतिष प्रादि विद्याओं के अनेक पाठ होना चाहिए और उसके विच्छेद जाने का भी यथार्थ कारण यही होना चाहिए ।" जैनों के बारहवें रंग के नष्ट हो जाने के उपरोक्त अनेक कारणों में जो एक सामान्य कमी मालूम पड़ती है। वह यह है कि रष्टिबाद स्वयम् जैनों की उपेक्षा ही से नष्ट हुआ दृष्टिवाद याने (पूर्व जो कि बहुतांश में नही है । 7 ) यह बात सुनने में कुछ अद्भुत सी लगती है और विशेषकर इसलिए कि वह जैनों की दन्तकथा से जरा मी मेल नहीं खाती है, क्योंकि जैनों की यह स्पष्ट मान्यता है कि पूर्वो का विच्छेद शनैः शनैः ही हुआ था और उनका 1. देखो व्यंबर, इण्डि एण्टी.. पुस्त 20, 1.23 1 2. देखो विनिट्ज, वही, पृ. 306 1 3. बारहवें रंग के तीसरे विभाग में चौदह पूर्व का समावेश किया गया था। देखो ध्यंवर, वही, पृ. 174 4. देखो व्यंवर, वही, पुस्त 17 पू. 286 । 5, देखो याकोबी, सेबुई, पुस्त 22, पृस्ता. पृ. 45, यादि । 6. '... des Ditthivay eineganzanaloge tantra-artige Texpartie gatanden hat sendern lasst damit zugleich aucher rathem, warrumder. Ditthivay veloran geganzen isto' Leumann 'Beziehungen der Jaina-literatur Zu Andern literatur-kreisen Indians.' Actesdu Congress a Leide, 1883, P. 559. 7. पेंटियर वही प्रस्ता. पृ. 22-23 दन्तकथा निःसंदेह पूर्वो का दिट्ठीवाय के अनुरूप ही मानती है, व्यंवर इण्ड. एण्टी, पुस्त 20, पृ. 1701 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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