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________________ 170 ] ___ इन शिलालेखों की भाषा, शब्द और रूप, मिश्र अर्थात् अर्ध-प्राकृत-संस्कृत है । ऐसा होते हुए भी कुछ शिलालेख पाली शैली की विशुद्ध प्राकृत में असिलिखित कहे जाते हैं । जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है उनमें अक्षर बहुत ही प्राचीन है और केवल इसी आधार पर उन्हें ई. पूर्व दूसरी और पहली सदी का माना जाता है । सर ए. कनिधम संग्रह के कुछ शिलालेखों में पूज्वीये या पूर्वये रूप जो कि जैन प्राकृत और महाराष्ट्री प्राकृत के हैं, प्रयुक्त हुए हैं। यह निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कि इन अभिलेखों की भाषा को किसने प्रभावित किया था जब तक कि हमें ईसवी पहली और दूसरी सदी में मध्य-भारत में प्रयुक्त भाषा का ठीक-ठीक परिचय न हो। फिर भी ऐसा लगता है, जैसा कि डॉ. व्हलर कहता है, कि "कितनी ही बातों में वह पाली और अशोक के आज्ञापत्रों तथा ग्रांध्र के प्राचीन शिलालेखों की भाषा की अपेक्षा जैन प्राकृत और महाराष्ट्री के बहुत अनुरूप है।" डा. भण्डारकर एवम् अन्य विद्वानों की भांति ही यह विद्वान भी इस मिश्र भाषा के मूल के विषय में कहता है कि 'अर्धदग्ध प्रजा के लेखन-वाचन के परिणाम से ही ऐसा हया होगा क्योंकि जिनको संस्कृत का अपूर्ण ज्ञान रहता था और इसीलिए जो उसे सामान्यतया प्रयोग करने के अभ्यासी नहीं थे, वे ही ऐसी भाषा लिख सकते हैं । इसमें शंका ही नहीं है कि मथुरा के सब शिलालेख गुरुपों और उनके शिष्यों द्वारा लिखे गए हैं क्योंकि किसी पर उनके लिखने वालों का कोई भी नाम नहीं है। परन्तु इस परिणाम पर हम इसलिए पहुंचते हैं कि उसौ प्रकार के परवर्ती अनेक अभिलेखों में उन यतियों के नाम दिए गए हैं जिनने उनकी रचना की है या लिखे हैं। पहली और दूसरी सदी में यतिलोग, जैसा कि आज भी करते हैं. अपने उपदेशों और धर्मशास्त्रों की व्याख्याओं में समकालिक बोलचाल की लोकभाषा का प्रयोग ही करते थे और धर्मशास्त्र प्राकृत में ही लिखते थे । यह स्वाभाविक ही था कि उनके संस्कृत लेखन के प्रयास अधिक सफल नहीं थे । इस सिद्धान्त का इस बात से प्रबल समर्थन होता है कि प्रत्येक अभिलेख में प्रायः अपभ्रशों की संख्या और लक्षण असमान हैं और अनेक वाक्यों से जैसे कि वाचकस्य पार्य-बलदिनस्य शिष्यो अर्या-मात्रिदिनः तस्य निर्वर्तना, ऐसा ही प्रमाणित होता है। उक्त वाक्य का अंतिमांश नए नवसिखिए की लिखावट ही लगता है।"4 उत्तर-भारत के जैन इतिहास की दृष्टि से मथुरा के शिलालेख ई. पूर्व तथा पश्चात् के इण्डो-सिखिक ममय धर्म की सम्पन्नावस्था के अचूक प्रमाण हैं, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। महावीर और अन्य तीर्थंकरों के मन्दिर एवम् प्रतिमाएँ बनाने वाली और उनको पूजने वाले चुस्त जैन समाज को अस्तित्व का ये सब लेख पूरा-पूरा भान कराते हैं । खारवेल के हाथी गुफा के शिलालेख के पश्चात् मथुरा का कंकाली टीला ही हमें इस बात का सम्पूर्ण एवं सन्तोष जनक प्रमाण प्रस्तुत करता है कि ईसवी युग के प्रारम्भ में जैनधर्म भी बौद्धधर्म जितना ही महान् सम्पन्न और समृद्ध था। 1. कनिंघम, प्राकियालोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट, सं. 3, लेख सं. 2, 3, 7 और 11, पृ. 30-33 । 2. न्हलर, वही, पृ. 37613. देखो भण्डारकर, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 12, पृ. 141। 4. न्हूलर, वही, पृ. 3771 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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