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और शिलालेख की 14वीं पंक्ति भी सूचित करती है कि कुमारीपर्वत (उदयगिरि) वह स्थान था कि जहां धर्म का प्रवर्तन और उपदेश दिया गया था । लेख यह भी प्रमाणित करता है कि (3) लगभग या ई. पूर्व 450 या उससे भी कुछ पूर्व जैनमूर्तियों को खोने का यह अर्थ है कि महावीर निर्वाण की तिथि वह होना चाहिए जो कि हमें उन अनेक जैन कालनिरूपक सामग्रियों का पुराणिक और पाली सामग्रियों के साथ पढ़ कर कि जो सब उसे ई. पूर्व 545 में स्थिर करने एक्य स्थापन करते हैं, प्राप्त होता है (बिउप्रा, पत्रिका, सं. 1, पृ. 99-105) इन तीनों ही निष्कर्षों की चर्चा हमने पहले ही अच्छी तरह कर दी है।
अब हम अनुगामी पंक्ति का विचार करेंगे। इसमें भी एक राजनैतिक घटना दृष्टव्य है-याने उसकी महान् विजय का वर्ष धुर दक्षिण से अतुल धन वर्षा का भी वर्ष था। आदि में यह पंक्ति हमें बताती है कि खारवेल ने भीतर में उत्कीर्ण काम की भव्य मीनारें या स्तम्भ बनवाए थे और 'उस योग्य पुरुष' ने कलिंग में पाण्ड्य देश (सिंहल के सामने को धुर दक्षिणी देश) के राजा से अद्भुत और विस्मयोत्पादक गज-वाहन, चुर्नोदा अश्व, माणक, मोती आदि अनेक रत्न प्राप्त किए ।
इसमें कलिंगाधिपति की पाइय देश पर आक्रमण का कोई उल्लेख नहीं है । खारवेल की महत्ता, और उसकी प्रांध्रों एवम् सुगों पर अधिपत्य को देख कर ही ये सब जयहिन्द पाण्ड्यों ने अपने आप खिराज रूप में भेज दिए हों। जैसा कि हम अभी ही देखेंगे कि खारवेल के सैनिक शौर्य के इस वर्णन के अतिरिक्त इस शिलालेख में उसके धर्मकृत्यों का भी अभिलेख किया गया है। इससे यह विश्वास करने का पर्याप्त कारण मिल जाता है कि राजा और उसके परिवार का जैनधर्म की अोर झुकाव था और उसके वंशज उत्तराधिकारी भी प्रत्यक्षतः उसी धर्म के मानने वाले थे।
___ चौदहवीं से लेकर लेख की अन्तिम पंक्ति तक के अभिलेख से हमें मालूम होता है कि राजा खारवेल निरा नाम का ही जैनी नहीं था अपितु उसने इस धर्म को अपने नित्य नैमितिक जीवन में भी उचित स्थान दिया था। वहाँ जो कुछ भी कहा गया है उससे स्पष्ट है कि उसके राज्यकाल के तेरहवें वर्ष में, राज्य विस्तार से सन्तुष्ट हो कर, उसने धार्मिक कार्यों में अपनी शक्ति मोड़ दी थी। वह कुमारी पर्वत के पवित्र स्थानों पर खूब धन खर्च करता है और गौरव से परिपूर्ण शिलालेख खुदवाता है। व्रतों की समाप्ति पर दिए जाने वाले राजकीय भत्ते उन याप प्राचार्यों को कि जिनने उस पवित्र कुमारी पर्वत की शरीरावशेषों के भण्डार पर तप करके अपने जन्मान्तरों के क्रम को समाप्त कर दिया हो देने का आदेश निकाला कि जहाँ 'विजेता का चक्र" खूब अच्छी
1. बिउप्रा पत्रिका, सं. 13, पृ. 245, 246। 2.सिंहली अपने गजों के निर्यात के लिए विशेष प्रकार नौकाएं
बनाते थे। ऐसा लगता है कि शिलालेख निर्दिष्ट 'गजवाहन' इसी जाति के थे। 3. तु जठर-लिखित-वरानिसिहिरानि नीबेसयति...पंडराजा चेक्षनि अनेकानि मतमणिरतनानि-बिउप्रा पत्रिका ___ सं. 4, पृ. 401 और सं. 13, पृ. 233 1 4. बंगाल जिला विवरणिका, पुरी, पृ. 24 । 5. वह पवित्र स्थान था क्योंकि वहां जैनधर्म की देशना दी गई थी (पंक्ति 14)। 6. परम आदर्श जैन मुनि जिनने तपों द्वारा अपने को (प्रात्मा को) विमुक्त कर लिया है। जैन दर्शन में यह बहुत
ही प्रादर्श धारणा हैं। 7. यह सूचित करता है कि जैनों में वर्द्ध धर्म विस्तार का भी चिन्ह था। मथुरा के जैन स्तूपों में पाए जाने वाले वर्ष के प्रतीक से भी यही समर्थित होता है।
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