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रीति से स्थापित हो चुका था। यह भी आगे कहा गया है कि खारवेल ने श्रावक के व्रतों की पालना कर जीव और देह का सद्विववेक अनुभव कर लिया था ।।
खारवेल को जैनधर्म के प्रति दृढ़ता और पूर्ण श्रद्धा का इससे अच्छा प्रमाण और क्या हो सकता है ? याप प्राचार्यों और अन्यों को कि जो कुछ व्रतों का पालन करते दिया जाने वाला दान या भेट, और जैन दर्शनानुसार जीव और पुद्गल (देह) के पारिभाषिक महत्व का अध्ययन करने के प्रति प्रेम स्पष्ट बताता है कि यह अश जैन नहीं था । उसने अपने धर्म के प्रमुख लक्षणों को पहले जानने समझने का प्रयत्न किया और इस प्रकार अपने धर्म की महत्ता का अनुभव कर वह उन लोगों की सहायता और प्रोत्साहन को सदा ही तैयार रहता था जो कि साधू हो गए थे या जो भगवान् महावीर के दिव्य संदेश के लिए जीने और मरने के लिए सन्नद्ध थे ।
इस पंक्ति में कुछ ऐसे भी उल्लेख हैं जो कि भूतपूर्व दिनों के जैनाचार पर भी महत्व का प्रकाश डालते हैं और एक ऐसे वर्ग का परिचय भी देते हैं जो आज अस्तित्व में नहीं है' याप प्राचार्यों के वर्ग का उल्लेख बताता है कि उस समय जैनों में ऐसा एक सम्प्रदाय था। इन्द्रभूति के नीतिसार के अनुसार वह एक ऐसा मिथ्यादृष्टि संघ था जिनमें कि दक्षिण का दिगम्बर सम्प्रदाय तब विभक्त था:
गोपुच्छक ? श्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः ।
नि:पिच्छकश्चेति पंचेते जैनामासा: प्रकीर्तिताः ।। उपरोक्त सूची में यापनीय का नाम सम्मिलित किया जाना एक आश्चर्यकारक बात है क्योंकि चालुक्य राजा, अम्मराज 2य के शिलालेख में उन्हें पवित्र और पूज्य नंदी-गच्छ का एक विभाग बताया है और उनके संघ को 'पवित्र यापनीय-संघ' कहा गया है। फिर श्रवण बेल्गोल के शिलालेखों में से एक में इस नन्दी-संघ को अर्हदबलि ने रुढिचुस्त माना है। उसकी राय में यह संघ 'संसार का नेत्र' था । नियमों से विपरीत सिताम्बर अोर अन्य संघों में उसने विभेद करने का कोई भी प्रयत्न नहीं किया है । और यदि कोई सेन, नन्दी देव और सिंह संघों के विषय में ऐसा विभेद करता है, उसको उसने 'मिथ्यात्वी या पाखण्डी' तक कह दिया है।
इस विषय में जायसवाल कहते हैं कि भद्रबाहचरित में चन्द्रगुप्त के समकालिक भद्रबाह श्रुतकेवली के तुरन्त बाद के जैनधर्म का इतिहास देते हुए कहा गया है कि भद्रबाहु के शिष्यों में जो कि गुरू की अस्थियों की पूजा करते थे. ही एक सम्प्रदाय यापनीसंघ नाम से उद्भव हया और इस संघ ने अन्त में ही दिगम्बर रहने का निश्चय कर लिया। यह यापनसंघ दक्षिण में फलाफूला क्योंकि इसका कर्णाटकीय शिलालेखों में प्रमुखतया उल्लेख पाता है । अब यह लुप्त है । मुनि जिनविजय का यह मत है कि इस संघ के कितने ही सिद्धांत तो दिगम्बर सम्प्रदाय से मिलते थे और कितने ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय से। इस मत की दृष्टि से यापनसम्प्रदाय जनसंघ के इन दो स्पष्ट सम्प्रदायों में विभक्त होने से पूर्व का ही कदम होना चाहिए। इस शिलालेख से पता चलता है कि याप जिससे कि इस सम्प्रदाय का नाम पड़ा था, कुछ पवित्र प्राचारों को कहा जाता था । यदि हम इसका विचार उस अर्थ में करें कि जिसमें बरक-पीड़ा उपशामक या महाभारत 'प्राण-पोषक' में यह प्रयुक्त हुना है तो याप उपदेष्टा प्राणियों के शारीरिक दु:खों के उपशम के धर्म पर ही बल देते थे ।
1. तेरसमे च वसे सुपवत-विजय-चक्र कुमारीपवते अरहिते यप-रवीण-संसितेहि काय...जीव-देहसिरिका परिखिता।
बिउप्रा पत्रिका, सं. 4, पृ. 401, 402, और सं. 13, पृ. 233 । 2. प्रेमी, विद्वरत्नमाला, भाग 1, पृ. 132 .हुल्ट्ज, एपी. इण्डि., पुस्त. 9, पृ. 55, श्लो. 18, पृ. 50 4. एपी. करा., पुस्त. 2, एस. बी., 254। 5. वही। 6. बिउप्रा पत्रिका, सं. 4, पृ. 389 1
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