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________________ 154 ] फिर. शिलालेख हमें कहता है कि ये याप प्राचार्य कुमारीपर्वत याने कायानिषीधि पर रहते थे । लेख की पंक्ति से ही प्रमाणित होता है कि यह निषीदि अर्हतों की ही निषीदि थी। निषीदि या निषीधि जैन साहित्य तीर्थ करों और गुरुओं प्रादि की पवित्र शोभा समाधियों के लिए जैन साहित्य में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु इसे विश्रामस्थान ही समझना चाहिए । इस पर ही डॉ. फ्लीट कहता है कि "निशीधि शब्द के लिए कि जो निषौधि, निशिधि और निशिदिगे रूप में भी मिलता है-डॉ. के. बी. पाठक मुझे सुचित करते हैं कि यह शब्द अाज भी जनसंघ के प्राचीन का वयोवृद्ध सदस्यों द्वारा प्रयोग किया जाता है, और इसका अर्थ है 'जैन साधु के अवशेषों पर खड़ी की गई समाधि' और उसने मुझे 'उपसर्गकेवलीगलकथे' से निम्न अंश उद्धृत किया है कि जिस में यह शब्द प्रयुक्त है "ऋषि-समुदायं = गृल्लं दक्षिणापथदि बंदु मट्टारर निषिदियन = एयदिद-पागल, आदिः “साधुओं का सारा समुदाय दक्षिण के प्रदेश में आकर और परम पूज्य की निषिधि पर पहुंच कर, आदि । कुमारीपर्वत पर की निषिधि जहां कि यह शिलालेख खुदा है, कोई शोमा समाधि सी नहीं दीखती अपितु एक यथार्थ स्तूप है, क्योंकि उस शब्द के पहले कायम विशेषण लगा हुआ है कि जिसका अर्थ होता है, 'शरीरावशेषों का' । शिलालेख पर विचार करते हुए जायसवाल कहते हैं कि "इससे यह मालूम होता है कि जैन अपने स्तुपों और चैत्यों को निषिधि कहते थे। मथुरा में पाया गया जैन स्तूप और भद्रबाहुचरित का यह कथन कि भद्रबाहु के शिष्यों ने अपने गुरू की अस्थियों की पूजा की, इस तथ्य की स्थापना कर देता है कि जैन (कम से कम दिगम्बर जैन तो) अपने गुरुषों के अवशेषों पर स्मारक बनाया ही करते थे।" प्रसंगतः यह भी कह दें कि यह प्रथा जनों और बौद्धों में परिसीमित नहीं थी, अपितु गुरुषों की स्मृति में स्मारक-चैत्य बनाने या खड़े करने की एक राष्ट्रीय प्रथा ही थी। जैसा कि पहले कह दिया गया है। पन्द्रहवीं पंक्ति हमारे सामने खारवेल का एक श्रद्धालु जैन का रूप प्रस्तुत करती है । साधुओं और एकांतप्रिय तत्वज्ञों के लिए खारवेल ने जो कुछ किया था उसका इसमें वर्णन है । परन्तु इस पंक्ति के कुछ शब्द लुप्त हो गए हैं इसलिए हमारे लिए यह जानना सम्भव नहीं है कि वस्तुत: वे कार्य क्या क्या थे । फिर भी यह स्पष्ट उल्लेख हुया है कि वह कार्य था संघ के नेता और प्रत्येक रीति से दक्ष पुरुष, पवित्र कार्य करने वाले और सिद्ध श्रमणों का।" इसके सिवा वह यह भी कहती है कि अर्हत् के अवशेषों के संग्रहस्थान के पास, पर्वत की ढ़लाई में, राजा खारवेल ने “सिंहपुर (= प्रस्थ) महल अपनी रानी सिंधुदा के लिए बड़ी दूर से अच्छी खानों के लाए हुए पत्थरों से, घंटा लगे स्तम्भों का कि जो नेपाल में खडें इसी वर्णन के सुन्दर मध्यकालीन स्तम्भों जैसे हैं, और उसमें फिरोजा जड़ा 75 लाख पणों की लागत से जो कि उस समय का प्रचलित पिक्का था, बनवाया था। जायसवाल जी ने इस महल की पहचान उस महान् शिलोत्कीरिणत भवन से जो कि 'रानी या 'रानी का महल' कहलाता है, की है। यह हाथीगुफा के पास ही, पर्वत की ढाल में है और यह भी द्रष्टव्य है कि इसकी ममती 1. एपी., इण्डि., पुस्त. 2, पृ. 274 ।। 2. इण्डि. एण्टी., पुस्त. 12, पृ. 9913. बिउप्रा पत्रिका, सं. 4, पृ. 389 । 4. सकति समण-सुविहितानं च सत-दिसानं...तपसि । -वही, सं. 4, पृ. 402 और सं. 13, पृ. 234 1 5. देखो प्रायंगर (के।, वही प. 75,761 6. देखो बिउप्रा पत्रिका, स. 4, पृ. 402, पौर सं. 13, पृ. 234, 235। 7. वही, सं. 13, पृ. 235 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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