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________________ [155 में सिंह भी प्रमुख स्थानों पर रखे हैं। इस प्रकार अवशेष संग्राहक स्मारक प्रर्हत् निषीधि इसी रानी महल के पास कहीं होना चाहिए। जैसा कि शिलालेख में कहा गया है। अन्तिम कितने ही दशकों से जिसकी विवादास्पद चर्चा चल रही है सोलहवीं पंक्ति का वह यश अति महत्व का है इसमें खारवेल और उसके जैन इतिहास के संबंध में कुछ भी नहीं है। पूर्व पंक्ति की तरह यह भी इसी बात को समर्थन करती है कि खारवेल महान् जैन था । जैन शास्त्र और उनकी सुरक्षितता में उसे कितनी अधिक दिलचस्पी भी इसी का इसमें स्पष्ट उल्लेख है, क्योंकि इस पंक्ति में कहा गया है कि 'मौर्य राजा के काल में खोए 64 प्रकरण वाले चार खण्ड के अंग-सप्तिका ग्रन्थ का उसने उद्धार किया ।" " जैसा कि हम पहले देख चुके हैं. डा. फ्लीट का इस पंक्ति की व्याख्या भी बहुत कुछ ऐसी ही है । हम उसे यहां उद्धृत करना उचित समझते हैं 'सारे वर्णन में कोई भी तिथि नहीं दी गई है, केवल यही कहा गया है कि खारवेल ने मौर्य राजा वा राजों के समय में उपेक्षित सात ग्रंथों के संग्रह के 64 प्रकरणों यथवा अन्य विभागों का और कुछ मूल पाठों का उद्धार किया। यहां हमें मगध के महान् दुष्काल का स्मरण हो प्राता है कि जो बारह वर्ष का था और जिसकी चर्चा पूर्व अध्याय में की जा चुकी है। जैसा कि हम देख चुके हैं इसके परिणाम स्वरूप चन्द्रगुप्त राज्य छोड़कर अपने गुरू भद्रबाहु एवम् ग्रन्थ प्रवासियों के साथ दक्षिण में चला गया था। इस दुष्काल की समाप्ति पर पाटलीपुत्र " में स्थूलभद्र युगप्रधान की प्रमुखता में साधुसंघ एकत्रित हुआ था । ये स्थूलभद्र सब कुछ जोखम उठाकर भी देश के दु का भीषण दस्यों को देखने के लिए वहीं रहे थे। इस प्रकार शिलालेख की यह पंक्ति चन्द्रगुप्त काल में कुछ जैन शास्त्रों के नष्ट या लुप्त हो जाने के विवाद की दन्तकथा का समर्थन करती है। कलिंग ने बहुत कुछ भद्रबाहु और उनके साथ दक्षिण में गए अनुयायियों का अनुगामी होने से, मगध में एकत्र हुई साधूसंघ की शास्त्र वाचना या पाठ को स्वीकार नहीं किया यह स्पष्ट है । शिलालेख की ग्रन्तिम याने सत्रहवीं पंक्ति भी इसके पूर्व की सोलहवीं पंक्ति के साथ ही पढ़ी जानी चाहिए । इस प्रकार पढ़ने पर हम देखते हैं कि उसमें संक्षेप से खारवेल के प्रमुख गुरणों का वर्णन होने के साथ साथ, उसकी सत्ता की व्यापकता भी बताई गई है । शिलालेख के इस अंश में विशेष रूप से ही कुछ अतिशयोक्तिकता हो सकती है और ऐसा होना स्वाभाविक है। परन्तु जब हमारे सामने खारवेल का तुलनात्मक अध्ययन करने को और कोई भी साधन नहीं है तो हमें इस पंक्ति को शब्दार्थ से ही सन्तोष करना होगा। जो कि इस प्रकार है - "वह वैभव (क्षेम) का राजा, विस्तार (साम्राज्य के) का राजा ( या प्राचीन लोगों का राजा) भिक्षुग्रों को दानी (या राजा होते हुए भी भिक्षु) धर्म का राजा जो हित (कल्याणों को देखता, सुनता धीर धनुभव करता है...' " "राजा खारवेल - श्री महान् विजेता, राजर्षियों के वंश में अवतरित हुआ हो, उसने वह जिसका साम्राज्य विस्तार पाया है, जिसके साम्राज्य को रक्षा साम्राज्य (या सेना) नायकों द्वारा सुरक्षा की जाती है, वह जिसके रथ 1. वही, पृ. 236 2. एसो पत्रिका, 1910, पृ. 826-827 3. आधुनिक पटना इनके संघ के वृत्तों में ऐतिहासिक महत्व का स्थान और उस समय मौर्य साम्राज्य की राजधानी । 4. इस परिषद ने जैनों के पवित्र ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो के प्रागम साहित्य को निश्चित किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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