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राज्य किया था और यह राज्य काल के 55 वर्ष का ही था। कर्टियस कहता है कि 'उसका पिता (याने अग्राम्मे अथवा जण्डर में का पिता याने प्रथम नन्द अर्थात् महापद्म नन्द) निश्चय ही नाई था जो कि बड़ी कठिनाई से आजीविका चलाता था । परन्तु वह रूप का सुन्दर था इसलिए रानी की मासक्ति उसमें हो गई और उसी रानी के कारण उसकी पहुंच राजा के पास हो गई और वह राजा का विश्वास पात्र भी बन गया। बाद में उसने धोके में राजा की हत्या कर दी और तदनन्तर बाल-कुमारों के संरक्षक स्वरूप काम करने का ढोंग करते हुए ही उसने सारी राजसत्ता अपने हाथ में ले ली और फिर राजकुमारों को मार कर अपने ही पुत्र को राजगद्दी पर बैठा दिया । इसने भी व्यवस्थित रूप से राजकाज चलाने के एवज अपने पिता की ही नकल की जिसके फलस्वरूप प्रजा से बह घृण्य हो गया और वह अपदार्थ माना जाने लगा।'
नन्दों की अक्षत्रियोत्पत्ति के विषय में जैन और अन्य उल्लेखों को साम्यता के सिवा कालक्रम में भी स्मिथ के अनुसार यदि यह घटना ई. पूर्व 413 या उसके ग्रासपास रखी जा सकती है। तो जैनों की दन्तकथा और भी समर्थित हो जाती है। क्योंकि जैसा कि हम देख पाए हैं मगध की सार्वभौम सत्ता शैशुनागों के हाथ से नन्दों के हाथ में महावीर निर्वगात 60 में ग्राई थी जिस निर्वाण की तिथि हमने ई. पूर्व 480-467 मानी हैं। पूनभक्ति का पालम्भ लेकर भी यह कहना उचित होगा कि जनों द्वारा सूचित नन्दों का समय 95 वर्ष पौराणिक दन्तकथा से भी मिलता है । मेरुतुग और अन्य लोगों के प्रमारणों का विचार करते हुए विसेंट स्मिथ कहता है कि बुद्धिभ्रश से जैनों ने उस वंश के 155 वर्ष गिन लिये हैं ।'' परन्तु हमारी स्वीकृत काल गणना के अनुसार महान इतिहासवेत्ता द्वारा सुचित 155 वर्ष नन्दवंश के नहीं अपितु महावीर निर्वाण और चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का अन्तरसूचक काल है। इसलिए हमारा काल उन्हें भी स्वीकृत मालम देता है क्योंकि 91 वर्ष का काल 'निश्चित कालक्रम योजना' में उचित माना है।।
इस प्रकार नीच कुलोत्पत्ति, राज्यारोहगा तिथि और नन्दों का राज्यकाल सम्बन्धी जैन दन्तकथा की पुष्टि अन्य ग्राधारों से भी हो जाती है। इस राज्यवंश का जैनधर्म के साथ सम्बन्धी कैसा था इस विवरगण में उतरने के पूर्व नादों के समय में भारतवर्ष में मगध का प्राधान्य टिका रहा था या नहीं यह भी हम संक्षेप में देखें । भिन्न-भिन्न उल्लेखों से मालम होता है कि उस समय भी मगध एक अखण्ड साम्राज्य के रूप में टिका हुया था, इतना ही नहीं अपितु उसकी सीमा इतनी दूर तक फैली हुई थी कि महान अल्येक्जेण्डर और उसके सत्रपों के अधीन रहा हा उत्तरीय-पश्चिमी विभाग चन्द्रगुप्त को और कलिंग देश ही अशोक को फिर से मगध साम्राज्य में मिलाना मेष रहा था।
पुराणों में महापद्म अथवा नन्द । म को क्षत्रिय जाति का संहारक दूसरा परशुराम कहा गया है और उसे पृथ्वी का एक छत्र राजा भी माना जाता है।' नन्द शासन में मारत के अधिकांश भाग के एकीकरण का यह पुराणों का वर्णन सर्वोत्कृष्ट इतिहास लेखक भी स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि अल्यैक्जेण्डर के समय में एक ही राजसत्ता के नीचे अनेक शक्ति सम्पन्न पुरुष समुद्र पार रहते थे। उनकी राजधानी पालीमोत्र या पाटलीपुत्र थी।
1. देखो मैकक्रिण्डले, दी इनवेजन प्राफ इण्डिया बाई अल्यैक्जैण्डर दी ग्रेट, 409। 2. वही, पृ. 222। देखो वही, प. 282; राय चौधरी, वही. प. वही; प्रधान वही और वहीं प., स्मिथ, वही, - प. 42-43; जायसवाल, बि. उ. प्राच्य मन्दिर पत्रिका सं. 1, पृ. 88 । 3. स्मिथ, वही, पृ. 431 4. वही, पृ. 42 ।। 5. वही, पृ4।। 6. देखो पार्जीटर, वही, पृ. 25, 69 ।
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