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________________ 132] शिलालेख अच्छी दशा में नहीं है और इसलिए उसकी अन्तिम पंक्ति के कुछ शब्द भुस गए हैं । जैसा भी वह है उससे हमें यह पता लगता ही है कि " प्रख्यात उद्योतकेसरी के विजयी राज्य के पांचवें वर्ष में प्रख्यात कुमार पहाड़ी पर 1 जीर्णशीर्ण ताल और जीर्णशीर्ण मन्दिरों का फिर से पुनरुद्धार कराया गया (और) उस स्थान पर चौबीस तीर्थकरों की मूर्तियां स्थापित की गई प्रतिष्ठा के अवसर पर... जसनन्दी... प्ररूपात ( पारस्पनाथ ) (पार्श्वनाथ) के स्थान (मन्दिर) में 2 इस लेख में जो कुछ भी लिखा गया है उससे स्पष्ट है कि उद्योतकेसरी या तो जैनी था या वह जैनधर्म का बड़ा संरक्षक और सहायक था । हमें ऐसा कोई निश्चित ग्राधार प्राप्त नहीं है कि हम इस लेख के उद्योतकेसरी का किसी ऐतिहासिक व्यक्ति विशेष से मिलान कर सकें। फिर भी इतना तो निर्जीवम कहा ही जा सकता है कि उड़ीसा का इतिहास ई. 200 याने बांधों के समय से लेकर ई 7वीं सदी के ग्रन्धकाराविष्ट है । प्रारम्भ तक बहुतांश में परन्तु जगन्नाथ मन्दिर के ताड़पत्रीय वृत्त. मादला पांजी के अनुसार, उड़ीसा 7 वीं से 12वीं सदी ईसवी तक केमरी याने सिंह राजवंश के अधिकार में था। इस केसरीवंश का विवरण खोजना निःसंदही हमारे प्रतिपाद्य युग से बाहर जाना होगा। फिर भी भुवनेश्वर और अन्य स्थानों पर उपलब्ध उनके भव्य प्रवशेष उस राज्य वंश की सम्पन्नता एवं उच्च संस्कृति की प्रत्यक्ष साक्षी देते हैं। ये भव्य मन्दिर बताते हैं कि उस समय हिन्दूधर्म का प्रभाव उड़ीसा पर पूरा पूरा छा गया था और बौद्धों का कोई भी अवशेष जो कुछ ही सदियों पूर्व दन्तकथाओं के अनुसार वहां प्रवेश पाया था, प्राप्त नहीं होता है । परन्तु उस समय में जैनधर्म का प्रजा में प्रभाव और प्रेम चलता रहा था अथवा पुनरुज्जीवित हो गया मालूम पड़ता है क्योंकि खण्डगिरि उदयगिरि की गुहाओं में शिलालेख और शिलोकगित जैन तीर्थंकरों या देवीदेवताओं की उसी युग की तिथि की मूर्तियां पाई जाती हैं। उदयगिरि पर की गुफाओंों का विचार करने पर हम देखते हैं कि ललितकला और शिल्प की दृष्टि से ये सब उड़ीसा में बड़े महत्व की हैं । इनमें से भी रानीगुफा या रानी नूर से विशिष्ट है क्योंकि मनुष्य की विविध क्रियाओं के दृश्य उसकी भव्य वेष्टनी की कोरणी में खुदे हैं। इसमें भी तीन वेष्टनियां और नीचे के मन्जिल के भवनों की कोरणी विशेष ध्यान चारित करती है। जिला विवरणिका के अनुसार 'रश्य यद्यपि बहुत से प्रशित हो गए हैं फिर भी, किसी धार्मिक प्रसंग में नगर में निकलती किसी साधु-पुरुष की सवारी का प्रदर्शन करते हैं जिसको लोग अपने घरों में से ही देख रहे हैं ताकि एक दृष्टि तो उन्हें भी प्राप्त हो जाए । घोड़े आगे प्रागे चल रहे हैं, हाथी पर सवारिया की जा रही हैं, रक्षक पहरा दे रहे हैं और प्रजाजन, पुरुष एवं स्त्रियां, हाथ में हाथ मिला कर संतों के पीछे पीछे चल रहे हैं और स्त्रियां खड़ी रह कर या बैठ कर थाल में फल और प्रहार अर्ध्य रूप में लिए आशीर्वाद मांगती हैं ।' 4 ऊपर की मुख्य पार्श्व की वेष्टनी जो कि लगभग 60 फुट लम्बी है, अत्यन्त मनोरंजक है सत्य तो यह है कि भारतीय गुफाओं की कोई भी वेष्ठनी पुरातत्वज्ञों में चर्चा का ऐसा विषय नहीं बनी है। इसके रयों की जो कि 1. शिलालेख की दूसरी पंक्ति से हमें पता लगता है कि खण्डगिरि का प्राचीन नाम कुमारी पर्वत था । खारवेल का हाथीगुफा का शिलालेख उदयगिरि का प्राचीन नाम कुमार पर्वत बताता है ये जुड़वा दोनों पर्वत 7वीं वा 11वीं सदी ईसवी तक कुमारी पर्वत ही कदाचित् कही जाती रही होंगी । । 4. वही, पृ. 254 2. एपा. इण्डि, पुस्तक 13, पृ. 167 3. देखो बंगाल सिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पुरी, पृ. 25 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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