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________________ [ 91 इसके भिवा कल्पसूत्र से भी मालूम होता है कि महावीर अपने साधू-जीवन में अपनी मातृभूमि को भूल नहीं गा थे और इसीलिए 42 चौमासों में से लगभग 12 उनने वैशाली में किए। फिर भी जैनों के अन्तिम तीर्थंकर और लिच्छवियों के इस निकट सम्बन्ध का महत्व इस बात से और भी बढ़ जाता है जब कि हम विभिन्न प्राधारों मे यह जानते हैं कि वैशाली, लिन्छवी राजनगर, शक्तिशाली, राजवंश के अधिकार में थी कि जो अपने काल के राजनैतिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों में बहुत ही प्रभावशाली था । "वैशाली", डॉ. लाहा कहते हैं, "महानगरी, सर्व श्रेष्ट, भारतीय इतिहास में लिच्छवी राजों की राजधानी रूप में और महान् एवं शक्तिशाली वज्जि जाति के केन्द्र रूप में प्रख्यात है। यह महानगरी जैन और बौद्ध धर्म दोनों ही के प्राचीन इतिहास के साथ निकट का सम्बन्ध रखती है इतना ही नहीं अपितु ईसबो यूगारम्भ के 500 वर्ष पूर्व में भारत के ईशान कोण में उत्पन्न और विकसित दो महान धर्मो के संस्थापकों की पवित्र मतियों भी उसके साथ लगी हुई हैं।" एक बात और विचार करने की रह जाती है और वह यह कि वैशाली और कुण्डग्राम में क्या सम्बन्ध था। ईसवी युगारम्भ के 500 वर्ष पूर्व में भारतवर्ष के नगरों में वैशाली अनन्यतम समृद्ध नगर था इसको दृष्टि से रखते हुए एक बात निश्चित लगती है कि कुण्डग्राम, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वैशाली का ही विभाग होना चाहिए । जैन और बुद्ध दोनों ही की दन्तकथाओं के आधार पर, डॉ. हरनोली', राकहिल', ग्रादि विद्वान इससे सहमत हैं कि वैशाली तीन विभागों में विभाजित था । "एक तो वैशाली खान, दूभरा कुण्डग्राम और नीमग वारिणयगाम जो सारे नगर के क्षेत्रफल में अनुक्रम मे नैऋत्य, ईशान और पश्चिम में अवस्थित थे। फिर ये तीनों ही खण्ड वैशाली से निकट सम्बन्धित थे क्योंकि महावीर कुण्डग्राम में जन्मे होने पर भी वैशाली-निवामी 1. वही, पृ. 3।। यह लिच्छवीकुल की राजधानी थी, कि जो मगध के राजों के सा विवाह सम्बन्ध से पहले ने हो घनिष्टतम जुड़ी हुई थी...वह बज्जि शक्तिशाली जनपद का प्रमुख स्थान थी...। उन स्वतन्त्र वंशा के समस्त राज्यों में कि जो ई. पूर्व छटी सदी के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में प्रमुख स्थान रखते थे, एक यही महानगरी थी। वह प्रति सम्पन्न नगरी होना चाहिए।" हिस डेविडस, वही, १. 40. शपेंटियर, कैहिई, भाग 1, पृ. 157। 2. कुण्डग्राम नाम से वैशाली नगर जैन तीर्थंकर महावीर की जन्मभूमि कही गई है जो कि वेसालिए भी कहलाते थे । बौद्धों का कोटिगाम भी यही है।" -दे दी ज्योग्राफिकल डिक्षनेरी प्रॉफ एजेंट एंड मैडीवल इण्डिया, पृ. 107 । 3. हरनाल:, वही, 1.3-7 । राकहिल, दी लाइफ ग्राफ बुद्ध, पृ. 62-63 1 5 हरनोली. वही, पृ. 4 । देखा लाहा वि. च., वही, पृ. 33; दे, वही, पृ. 17। यहां यह कह देना उचित है कि उवास गदसानों में वारिणयगाम के सम्बन्ध में निम्न प्राशय का उल्लेख मिलता है : वारिणयगामे नयरे उच्चनीयमज्झिमाड़ कुलाई (वारिंगयगाम नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में) ! हरनोली, वही, भाग 1, पृ. 36 । प्राश्चर्य की ही यह बात है किमदल्व में दिए वैशाली के वर्णन से यह मिलता हया है। -राकहिल, वही, पृ. 62 । वैशाली के तीन भाग हैं : एक भाग में स्वर्ग शिखर वाले 7000 भवन थे, मध्य भाग में रौप्य शिखर के 14000 भवन थे और अन्तिम भाग में 220000 ताम्र शिखर के घर थे । इनमें उच्च, मध्य और निम्न वर्ग के लोग अपनी-अपनी स्थित्यानुसार रहत थे।" देखो हरनोली, वही, भाग 2, पृ. 6 टि. ४ | श्री दे ने इन तीनों विभागों को इस प्रकार माना है : वैशाली खास (वसाढ), कुण्डपुर (बसुकुण्ड), और वारिणयगाम (बानिया) जिनमें क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य रहते थे। -दे, वही, पृ. 176 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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