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जिनमें उसकी रचना हुई और उसके रचियता सूरि की गुरुपरंपरा का यथार्थ चित्र बहुत कुछ हमारे सामने प्रस्तुत
1
करती है। प्रास्ताविक गाथाओं में हमारे लिए उपयोगी कुछ गाथाएं इस प्रकार हैं :---
(1) अस्थि पुहुपसिद्धा दोण्णिा यहा दोणि चेय देस ति ।
तत्मात् पह धामेरा उत्तरावहं ब्रहुजा || (2) सुहृविचारुसोहा विश्रमिश्रकमलारगरणा विमलदेहा ।
तत्थरिथजलदिमा सरिया ग्रह पंडामाय ति ।। (3) तीरम्मितीय पमटा पव्बइया ग्राम रमणसोहिला | जन्मतिथ ठिए भुत्ता पुहई सिरितोराए । ( 4 ) तरस गुरू हरिवतो मायरियो प्रासि गुत्तलाम्रो । मरीब विष्णो जेरण रिगवेसो तहि काले ।
तीय
( 5 ) तस्स वि सिस्सो पयडो महाकई देवउत्तणामो त्ति । *
इन गाथाओं का मानार्थ यह है "विश्व में दो मार्ग और दो ही देश हैं (दक्षिणापथ और उत्तरापथ) कि जो सर्व प्रख्यात हैं । इनमें से उत्तरापथ विद्वानों से भरा पूरा देश माना जाता है । उस देश में चन्द्रभागा नाम की नदी बहती है, जो ऐसा लगती है कि मानो सागर की प्रिया ही हो । उस नदी के तट पर फवइथा नामक सुप्रसिद्ध और सम्पन्न नगर बसा हुआ है। जब वह यहां था तब श्रीतोरराय पृथ्वी पर राज्य भोगता था । आचार्य हरिगुप्त, जिनका गुप्तवंश में जन्म हुआ था, इस राजा के गुरू थे, और उस समय वह भी वहां रहते थे । देवगुप्त जो एक महा कवि था, इन आचार्य का शिष्य हो गया था ।"
उद्योतनसूर की ये प्रस्ताविक गाथाएं उत्तर भारत की जैन समाज और सामान्य भारतीय इतिहास दोनों ही दृष्टियों से अत्यन्त महत्व की हैं। राजा तोरमाण या तोरराय जिसका तीसरी गाथा के उत्तरार्ध में निर्देश किया गया है. हूणों के प्रख्यात सरदार के सिवा और कोई नहीं है कि जिसके नेतृत्व में उत्तर-पश्चिमीय पाटियों में
1. जिनविजयजी सूचित करते हैं कि इस कुवलयमाला की दो ही हस्तप्रतियां अभी तक उपलब्ध हुई हैं । एक पूना के सरकारी संग्रह में और दूसरी जैसलमेर के जैन भण्डार में दोनों प्रतियां न केवल छोटी छोटी बातों में ही अपितु अति महत्व की ऐतिहासिक बातों में भी एक दूसरे से भिन्न हैं। विद्वान् पण्डित इन भेदों को मूल लेखक कर्तृक ही मानता है और विश्वास करता है कि दोनों ही प्रतियों में ये मतभेद मूल श्रोतों से ही प्राए हैं । देखो, वही, पृ. 1751
2. देखो वही, पृ. 177 पूना की प्रति में उपर्युक्त पहली दो गायाएं नहीं मिलती है वह प्रति तीसरी गावा से ही दम भिन्न है । वह
लिखा हुआ है।
प्रारम्भ होती है । फिर प्रस्ताविक गाथा भी इस प्रति की जैसलमेर के प्रति की गाथा से एक गाथा इस प्रकार है :- ग्रत्थि पयापरी तौररायेण के स्थान में पूना प्रति में तोरमाण पांचवीं गाथा के प्रथमा के स्थान में हम पूनः प्रति में निम्नलिखित सम्पूर्ण गाथा पाते है :-- (तस्स) बहुकलाकसलो सिद्धान्तयववाम्रो कई दलो
आयरिय देवगुत्तों ज ( स्स) ज्जवि विज्जरए कित्ती । वही ।
3. हूण मध्य एशिया में आर्यों की ही एक जाति थी । उनने गुप्त साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया था और कुछ समय तक भारतवर्ष के एक बड़े भाग पर उनका आधिपत्य भी रहा था। हुणों का राज्यवोरभारण के उत्तराधिकारी मिहिरकुल की पराजय और मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया था। इसको छठी सदी ईसवी के मध्य के लगभग रखा जा सकता है। हूणों के विशेष परिचय के लिए देखो श्रीझा, राजपूताना का इतिहास, भाग 1, पृ. 53 आदि, 126 आदि ।
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