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________________ [ 83 स्थान पर तो लिच्छवी राजकुमारी प्रभावती, जनप्रातमा का पूजन करने के पश्चात् कहती है कि ,राग. ढेप और भ्रम रहिन, सर्वज्ञ, अष्टमिद्धियुक्त, देवाधिदेव महत भगवान मुझे अपने दिव्य दर्शन देने की कृपा करें। इससे प्रकट है कि सोवीर की राजगहिषी जैनधर्म के प्रति कितना अधिक सम्मान रखती थी। फिर उत्तराध्ययन एवं अन्य मुत्रग्रन्थों में हमें पता लगता है कि राजा भी जैनधर्म का कुछ कम भक्त नहीं था। हालांकि मूलतः वह ब्राह्मग तापनों का भक्त था।' इतना ही नहीं परन्तु वह संसार त्याग करने की सीमा तक पहुंच गया था।' और जब उसके पुत्र ग्राभी के राज्याभिषेक का प्रश्न उसके समक्ष उपस्थित दया तो उसने विचार किया कि 'यदि मैं राजकूमार पाभी को राज्यासन दे कर संसार त्याग करूगा तो ग्रामी राजसत्ता और राज्यमोह से : में लुब्ध रहेगा और अनादि अनंत संसारचक्र में वह परिभ्रमगा करेगा। इमो नो मैं अपनी बहन के पुत्र के सी को राजपाट दे कर संसार त्याग करू तो अधिक माछा रहेगा।'' उपरोक्त दृष्टान्त से उदायन के अंत:करण का पलटा देवा जा सकता है। इसी उसका संसारत्याग जैनों के लिा लोकोक्ति हो गया है। अंतगामामुत्र में उदाधान के विषय में इस प्रकार का उलेख है कि 'फिर राजा अलक्खे ने...उसी प्रकार संसार का त्याग किया जैसा कि उदायन ने किया था। अपवाद इतना मात्र था कि इसने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य कारबार मौंपा था। यहां यह कह देना प्रावश्यक है कि इम पर टिप्पगा करते हए डा. वारन्येट ने भूल से यह देखा है कि वैशाली के राजा चेडग की पुत्री मृगावती से उत्पन्न हुए शतानीक के पुत्र, कौमाम्बी के राजा उदयन का उक्त मंदर्भ में निर्देश है । इसके सिवा, युद्धवन्ती चण्डप्रयोत के प्रति उदायन का किया वत्रि भी उसकी जैनधर्म में अनन्य श्रद्धा प्रमागित करता है क्योंकि उसने 'पषणापर्व में घोरातिघोर वैरभाव त्याग कर क्षमा करने की जैनधर्म की शिक्षा' का तत्परता से पालन किया था। यह घटना इस प्रकार है। पy परणापर्व में उदायन को एक दिन उपवास था । परन्तु चण्डप्रद्योत को उसकी इच्छानुसार भोजन देने की उसने उचित व्यवस्था कर दी थी। जब भोजन चण्डप्रद्योत को दिया गया तो उसने विप के भय से उसके ही लिए बनाया गया भोजन करने से यह कह कर इन्कार कर दिया कि उसे भी जैन होने के कारगा उदायन की ही भांति उपवाम है। जब उदायन को सूचना 1. वही, पृ. 1051 2. प्रभावत्या...अन्तःपुरे चैत्यगृहं कारितं...भक्तप्रत्यास्थानेन मृता देवलोकंगता । ग्रावश्यक मुत्र, पृ. 298 । देखो मेयेर जे. जे., वही, वही स्थान; हेमचन्द्र, वही, जलो. 404, पृ. 1501 3. मेयेर, वही, पृ. 103 । स च तापम भक्तः अावश्यकसूत्र, पृ. 298; हेमचन्द्र, वही, श्लो. 388, पृ. 14.) । 4. तएणं से उदायरणे राया...समरणम्म भगवो जाव पव्वइए। भगवती, सूत्र 492, पृ. 620; मयेर वही.. पृ. 114 1.5. सौवीर के राजों में वृषभ समान राजा उदायन ने संसार त्याग कर भगवती दीक्षा ले ली और यह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया।' याकोबी, सेवई. पुस्त. 45, पृ. 87 । इसी स्थान पर के एक टिप्पण में डा. याकोबी लिखता है कि 'वह महावीर का समकालिक था।' वही । 6. वही, पृ. 113-114 । एवं खलु अभीयोकूमारे...काममोगेषु मुच्छिए...भाइणेज केमि कुमारं रज्जे ठावेना... भगवती, सूत्र. 491, पृ 6191 7. वारन्येट, वही, पृ. 96 1 8. वही, पृ. 96, टिप्पण । . 9, भण्डारकर, ई. 1883-1884 को प्रतिवेदन, पृ. 142; पज़्जसण या पर्युषणा, जनवर्षान्त पर मनाया जाने .... वाला धार्मिक समारोह । देखो श्रीमती. स्टीवन्सन, वही, पृ. 76; पज्जासवियाणं...खमियव्वंसमावियव्वं... कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, सूत्र 59, पृ. 191-192 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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