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________________ 28 ] सत्य रूप बताया गया है। यदि बुद्ध की भांति ही वे अपने धर्म के मूल संस्थापक होते तो यह सब अशक्य हो जाता । परन्तु यह तो कोई भी मान सके ऐसे एक सूधारक के जीवन और कथन का ही उल्लेख है। उनका गुणगान देवों और मनुष्यों ने इन शब्दों में किया कहा जाता है-जिनों द्वारा प्ररूपित अस्खलित मार्ग से सर्वोच्च पद अर्थात् पोक्ष-निर्वाण प्राप्त करो।" महावीर का तपस्वी जीवन: गृह त्याग कर महावीर साधू की सामान्य जीवनचर्या में रहे । बारह वर्ष से कुछ अधिक काल तक वर्षावास के अतिरिक्त वे भ्रमण करते रहे थे। प्रारम्भ के लगभग तेरह महीने तक 'पूज्य तपस्वी महावीर ने वस्त्र धारण किया था। बाद में वे प्रत्येक प्रकार के वस्त्र का त्याग कर नग्न ही भ्रमण करते रहे थे । अबाधित ध्यान, अखण्ड ब्रह्मचर्य तथा खानपानादि नियमों का सूक्ष्म पालन करते हुए उनने अपनी इन्द्रियों को सम्पूर्णतया वश किया । बारह वर्ष तक देह-ममत्व की वे उपेक्षा करते रहे थे और कहीं से भी आते तमाम उपसर्गों को समभाव से सहन करने, उनका सामना करने और उन्हें भुगतने के लिए वे कटिबद्ध रहे थे । यह स्वाभाविक ही था कि ऐसी विस्मृतावस्था में महावीर सवस्त्र थे या नग्न इसका उन्हें बिलकुल ही भान नहीं था। ऐसी कोई भी स्पष्ट उनकी प्रवृत्ति नहीं थी कि जिससे वे नग्न ही भ्रमण करते रहें। जो वस्त्र उनने पदयात्रा में रखा था, उसे उनके पिता के एक ब्राह्मण मित्र सोम ने दो बार में टुकड़े-टुकड़े करके ले लिया था । उनकी थोड़ी बहुत विस्मृतावस्था में जो कुछ भी उनके जीवन में हुआ, वह उनके अनुयायियों द्वारा शब्दानुशब्द अनुकरणीय होने के अभिप्राय से नहीं था। जैनशास्त्रों में ऐसी कठोर आज्ञा कहीं भी देखने में नहीं पाती है। उत्तराध्ययन में सुधर्मा मुख में नीचे लिखे शब्द रख दिए हैं कि 'मेरे वस्त्र फट जाने के पश्चात् में (तुरन्त ही) नग्न विचरूगा अथवा नया वस्त्र लूगा, ऐसे विचार साधू को नहीं रखने चाहिए।' एक समय उसको कोई भी वस्त्र नहीं होगा, दूसरे समय उसके पास कुछ होगा। इस नियम को हितावह समझ कर बुद्धिमान (मुनि) को इस सम्बन्ध में कोई भी शिकायत नहीं करना चाहिए। संक्षेप में इसका अर्थ यह है कि ऐसी सब उपाधियों से साधू को अनासक्त रहना चाहिए। फिर भी सारे समुदाय के अनुशासन की दृष्टि 1. याकोबी, इण्डि. एण्टी., पुस्तक 9, पृ. 16 । 2. योकोबी, से. बु. ई., पुस्तक 22 1 258| उनने तीर्थकरों के सर्वोच्च सिद्धान्त का उपदेश दिया था । वही, पुस्तक 45, पृ. 288 । 3. “जब वर्षाऋतु आ जाती है और वर्षा हो रही है तो अनेक जीवों की उत्पत्ति हो जाती है और अनेक बीजों के अंकुर फुट जाते हैं । ...यह जान कर मुनि को ग्रामानुग्राम भ्रमण करना नहीं चाहिए नापितु एक ही स्थान में वर्षाऋतु में वासावास करना चाहिए।"-याकोबी, सेबुई, पुस्तक 22, पृ. 1361 4. समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं चीवरधारी हत्था तेप्रां परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए। कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, सूत्र 117, पृ. 98। देखो सेबुई, पुस्तक 22, पृ. 259, 261 । 5. देखो वही, पृ. 200। 6. ततः पितुमित्रेण बाह्म गेन गृहीतं । कल्पसूत्र, सुबोधिका-टीका, पृ. 98। देखो हेमचन्द्र, वही, श्लो. 2, पृ. 19। 7. याकोबी, सेबुई, पुस्तक 45, पृ. 11। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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