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________________ 1 125 सम्प्रति के जैनधर्म के प्रति उत्साह के विषय में बाचार्य हेमचन्द्र संक्षेप में इस प्रकार कहते हैं, 'सारे जम्बूद्वीप में जैन मन्दिर उसने कराए । उज्जयिनी में प्रार्य सुहस्तिन की स्थिरता के समय उनके नेतृत्व में धार्मिक पर्व के निमित्त से अर्हतु की रथयात्रा का उत्सव मनाया गया था। उस प्रसंग में राजा और प्रजा दोनों ने ही बड़ी श्रद्धा और भक्ति बताई थी। सम्प्रति के आदेश प्रोर कार्य से उसके प्रधीन राजों ने भी जैनधर्म स्वीकार करने पोर उसे उत्तेजन देने में उत्साहित हुए थे। इससे अपने राज्य के अतिरिक्त आसपास के देशों में भी साधू अपना धर्म पालन कर सकते थे । " हमारे जाने की इस सम्बन्ध में प्रति महत्व की बात तो यह है कि सम्पति ने जैनधर्म के प्रचारक दक्षिण भारत में भी भेजे थे और जो ऐसे प्रचारक उधर गए वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही थे । हेमचन्द्र को ही उद्धृत करें तो 'असभ्य असंस्कृत देशों में उन प्रचारकों के कार्य को व्यापक बनाने के लिए सम्प्रति ने जैन साधु के वेश में दूतों को भेजा था। उनने लोगों को साधुओं के कल्प्य आहार, पानी आदि अन्य आवश्यकताओं की पूरी पूरी समझ दी और तहसीलदार को दिए जानेवाले सामान्य कर के एवज साधुयों को ये वस्तुएं दान देने की, जब भी वे वहां पहुंचे, आज्ञा दी। इस प्रकार मार्ग तैयार करके उसने प्राचार्य श्री को साधुधों को अन्य देशों में भेजने की प्रार्थना और प्रेरणा की क्योंकि उनके यहां रहन में किसी भी प्रकार की असुविधा अब नहीं रह गई थी। इस प्रकार ग्रा और द्रमिल देश में उसने धर्म प्रचारक साधू भिजवाए और उन्हें राजा की आज्ञानुसार सब सुविधाएं मिली। इस प्रकार अनार्थ प्रजा जैनधर्मी बनी प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार सम्प्रति के अनार्य देशों में भेजे हुए जैनधर्म प्रचारकों का महत्व यह है कि दक्षिण में श्वेताम्बर संघ सम्बन्धी सबसे प्रथम उल्लेख हमें यहीं मिलता है । इसलिए पूर्वं प्रकरण में कहे गए महान् विदेश गमन जितना ही महत्व का यह भी प्रसंग है । सुहस्तिन श्वेताम्बर जैन थे यह इसी से सिद्ध है कि दिगम्बर पट्टा - वालियों अथवा गुरुयों की वंशावलियों में इनका कोई नाम नहीं है।' इस धर्म प्रचारकों को खाम श्वेताम्बर कहने का कारण यह है कि जैन धर्म में दिगम्बर- श्वेताम्बर पंथभेद महान् विदेशगमन और सुहस्तिन - महागिरि दन्तकथा दोनों ही से सम्बन्धित है। हमें यह भी उल्लेख मिलता हैं कि प्रार्य सुहस्तिन के उपदेश से सम्प्रति ने जैनधर्म अंगीकार किया था और जब पार्थमहागिरि ने यह जाना तो वे दशार्णभद्र के वन में चले गए क्योंकि 'उनकी साधुयों को कठिन साध्वाचार पालन की ओर उन्मुख करने की सारी यात्राओं पर पानी इससे फिर गया था । इस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय सम्प्रति के राज दरबार में विजयी हो गया । 115 जैन इतिहास की दृष्टि से मगध की महत्ता का यहां अंत हो जाता है। मौर्योों के अन्त एवं शुगों की विजय के साथ कलिंग देश इस इतिहास का केन्द्र बन जाता है। मगध की सर्वोपरि सत्ता के पतन से कलिंग किसी अंश में वह स्थान प्राप्त करने में विजयी हो जाता है । खारवेल के समय में शक्तिशाली कलिंग मगध को भारी हो गया 1. याकोबी, वही, पृ. 69 2. देखो भण्डारकर, वही और वही स्थान । इसके सम्बन्ध में जिन प्रभसूरि के पाटलीपुत्रकल्प में लिखा है : पाटली पुत्र में महान सम्राट सम्प्रति, कुणाल का पुत्र, तीन खण्ड का अधिपति, महान् अर्हत् जिसने अनार्य देशों में भी श्रमणों के लिए बिहार बनवाए थे, राज्य करता था । ' - देखो रायचौधरी, वही, पृ. 222 3. देखो याकोबी, वही और वही स्थान । 4. देखो हरनोली, इण्डि एण्टी, पुस्त. 21, पृ. 57-58; और क्लाट, वही, पुस्त. 11, पृ. 251 । 5. श्रीमती स्टीवन्सन, वही, पृ. 74 देखो बड़ोदिया, हिस्ट्री एण्ड लिटरेचर ग्रॉफ जैनीज्म, पू. 55 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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