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उससे लगता है कि वह अपने कुल का नायक और किसी राज्य का चाहे वह छोटा हो या बड़ा, राजा था ।" जैसा कि हम आगे देखेंगे वह एक ऐसे प्रजासत्ताक राज्य का अधिकारी ही होगा कि जिसका मुख्य स्थान कुण्डपुर होगा । परन्तु तात्कालिक समाज में जो स्थान उसे प्राप्त था वह एक स्वतन्त्र राज्य के सामान्य अधिकारी की अपेक्षा विशिष्ट अर्थात् स्वतन्त्र राज्यकर्ता के रूप में ही वह जीवन विताता होगा ।"
सोलह महाजनपदों का विचार करते हुए हमें ज्ञात होता है कि वज्जियों का राज्य जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म को मानता था। डा. रायचीयरी कहता है कि प्रो. हिस डेविस और कनियम के आधार पर परिजवी का राज्य ग्राठ सहकारी जातियों या कुलों का बना था जिसमें विदेही, लिच्चवी, ज्ञानुक और वज्जि विशेष महत्व के अन्य कुलों को ठीक से पहचाना नहीं जा सका है, और भी इतना तो उल्लेखनीय हो कि कृतांग के एक वाक्य ने उम्र. भोग, एश और फौरन जानियों का ज्ञात पीर लिच्छवी जातियों के साथ ही राज्य की प्र एक ही सभा के राज्यों के रूप में उल्लेख किया गया है । '
पक्षान्तर में बौद्धों के विशिष्ट प्रमाणों के ग्राधार पर डा. प्रधान इस सहायकारी मण्डल में एक और जाति का भी समावेश करते हुए कहता है कि वह नी जातियों का बना हुआ संघ था। उनमें को कितनी ही जानिय हैं लिच्छवी, वृज्जि याने वज्जी, ज्ञातृक और विदेह । ये महायकारी मण्डल लिच्छिवी ग्रथवा वृज्जिक मण्डल के रूप में ही पहचाने जाते थे क्योंकि उन नौ जातियों में लिच्छिवी और वृज्जि ही महत्व की थी । नो लिच्छिवी जातियां नय मल्लिक जाति और कासी कोसल के अठारह गण रात्रों के साथ सम्बन्धित हो गई थी।" विद्वान पण्डित के इस कथन का समर्थन जैनसूत्र भी करते हैं । *
डा. याकोबी कहता है कि राय चेटक ने कि जिस पर चम्बा के राजा कुणिक ने भारी सेना के साथ बाबा
1. कल्पसूत्र में महावीर की माता जिला के स्वप्नों का पर्व बनानेवाले का 'सिद्धार्थ के रत्न समान प्रत्यन्त सुन्दर महल के मुख्य द्वार' तक आना कहा गया है । याकोबी, वही, पृ. 245। उसी सूत्र में एक अन्य स्थान पर सिद्धार्थ का महावीर जन्मोत्सव मनाने का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उनने अपने दण्डनायकों को कुण्ठपुर नगर के ब बन्दियों को मुक्त कर देने माप और तोल को बड़ा कर देने ग्रादि यादि की प्राज्ञाएं दी ।..देखो वही पृ. 252 हेमचन्द्र वही पर्व 10 श्लो. 128, 132 16 1
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2. बारपेट अन्तमदसाधो धौर धनुत्तरोववाइयोदनाथ प्रस्ता. पू. 61 डा. याकोवी जैनों की इस मुद
मान्यता का कि 'कुण्डग्राम एक बड़ा नगर था और सिद्धार्थ एक शक्तिशाली राजा भण्डाफोड़ करने के लिए एक दूसरी प्रन्त्य कल्पना कर डाली है कि 'इस सबसे यह स्पष्ट होता है कि सिद्धार्थ कोई राजा नहीं था वह अपने कधी का नायक भी नहीं था, परन्तु बहुत सम्भव है कि वह ऐसे धन्यकारों का प्रयोक्ता मात्र हो, कि जोकी पूर्व के देशों में भूस्वामियों और विशेषकर देश के मान्य सचिवंशों के भूस्वामियों को सामान्यतः प्राप्त हो जाते हैं ।' - याकोबी, वही, प्रस्तावना पृ. 12
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3. रायचौधरी, वही पु 73-74 उम्र और भोग जनों की मान्यतानुसार उ उनके वंशज थे जिन्हें ऋषभदेव, प्रथम तीर्थकर ने नगर कोतवाल रूप ने नियुक्त किया था और भोग उनके वंशज थे कि जिन्हें उन सम्मान के अधिकारी रूप से माना था' पाकोत्री सेखुई परिशिष्ट 3, पृ. 581 3. प्रधान, वही, पृ. 215
पुस्त. 45. 71 टि. 2 देखो होनी ही |
पृ
4. नव मल्लइ नव लच्छद कासीको सलगा घटठारसरि गणरायाणो... भगवती सूत्र 300, पृ. 316 देखो
हेमचन्द्र, बही, पू. 165
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