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________________ [ 167 तात्पर्य यह है कि अनुमान आज भी शंका स्पद ही है।"1 कुषाण काल गणना की महत्वपूर्ण बात के विषय में ग्राज बहत मत विभिन्न उठता है। फिर भी, अनेक गणमान्य विद्वानों के साथ हम भी कह सकते हैं कि इन लेखों में प्रयुक्त सम्वत् ई. 78 से प्रारम्भ होने वाला शक सम्वत् ही है।" कंकाली टीले को जैन पादपीठ को एक शिलालेख इस प्रकार का है "सिद्ध महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सर नवमे...मासे प्रथ...दिवसे 5,' यादि। यद्यपि शोडास और अन्य कुषाण शिलालेखों की भांति एवम् प्राचीन मालव-विक्रम संवत् की रीति अनुसार यहाँ भी ऋतु, मास और दिन क्रमानुसार की तिथि उल्लेख करने की भारतवर्ष की प्राचीन पद्धति ही हम देखते है, फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि कुषाण राजों ने किसी भी संयोग में शक सम्वत् का उपयोग नहीं किया था। पक्षान्तर में प्राचीन विक्रम संवत् की इस लाक्षणिकता का कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों ने अपने ब्राह्मीलिपिक अभिलेखों में उपयोग किया हो तो वह कुछ भी अनहोनी बात नहीं है और हम यह जानते ही हैं कि कुषाणों में एक राजा का नाम वासुदेव था जो कि विशुद्ध भारतीय नाम है। . फिर कुषाणों के सम्बन्ध में विक्रम संवत् स्वीकार कर लेने से मथुरा के क्षत्रपों के उत्तराधिकारियों की स्थिति का निश्चय करना कठिन हो जाता है। हमारी यह कठिनाई उस समय और भी बढ़ जाती है जब कि हम जानते हैं कि कनिष्कवंशजों के समय में मथुरा भी उसी एक साम्राज्य का अंश था । अन्त में तक्षशिला के प्राचीन खण्डहरों की खुदाई में सर जाह्न मार्शल को मिले अवशेषों से यह निश्चित होता है कि कनिष्क का समय ईसवी पहली सदी के अन्त का होना चाहिए और इसको चीनी इतिहासकारों के वर्णनों से तुलना करते हुए और उसके साथ इन शिलालेखों की तिथि का मेल बिठाते यह निश्चय होता है कि ईसवी 78 में प्रारम्भ होता प्रख्यात शक सम्वत् कनिष्क ने प्रवर्तन किया ही होगा। इस प्रकार कुषाण शिलालेखों में निर्दिष्ट संवत् 4 से 98 का समय ई. लगभग 82 से 176 का आता है। कुषाण शिलालेखों में के दो विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें का एक साम्प्रदायिक इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्व का है जो इस प्रकार है : "79 वर्ष की वर्षा ऋतु के चौथे महीने के बीसवें दिन...की स्त्री श्राविका, दिना (दत्ता) द्वारा भेट दी गई मूर्ति देवों के निर्मित बौद्ध स्तूप में स्थापना की गई थी।" 1. रैप्सन, वहीं, पृ. 583 । 2. कनिष्क के काल सम्बन्धी विभिन्न मतों के लिए देखो रायचौधरी, वही, पृ. 295 प्रादि । 3. फम्यूं सन, प्रौल्डनबर्ग, टामस, बैनरजी, रेप्सन आदि विद्वानों के अनुसार कनिष्क ने ई. 78 में प्रारम्भ होने वाले सम्बत् का जो पीछे शक सम्वत् कहलाया, प्रवर्तन किया था।"-वही, पृ. 297 1 देखो हरनोली उवासगदसायो, प्रस्ता. पृ. 11। इस बात में बहुत मतभेद है कि शक सम्वत् का प्रवर्तक वास्तव में कौन था, यद्यपि यह तो निश्चित ही है कि कोई विदेशी शासक ही इसका पवर्तक होना चाहिए। जैसा कि पं. अोझा कहते हैं कि इस सम्बत् के पीछे कौन व्यक्ति है इसका निर्विवाद रूप से निर्देशन करना नहीं है, देखो, अोझा, प्राचीन लिपिमाला, 2 य संस्करण, पृ. 172-173 । 4. कनिधम वही, लेख सं. 4, प्लेट 13, पृ. 31। 5. कोनोव, वही, पृ. 141। 6. देखो कनिधम, वही, पृ. 41। 7. देखो रायचौधरी, वही, पृ. 284। 8. रेप्सन, वही, प. 583 । 9. ब्हलर, वही, लेख सं. 20, पृ. 204। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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