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के पूर्वज बिन्दुसार के विषय में हम इतना ही जानते हैं कि उसने एण्टीग्रोकोस सोटर के पास दूत भेज कर किसी ग्रीक दार्शनिक के भेजने का सन्देशा पहुंचाया था। और यह भी कि उसने साम्राज्य का विस्तार, उसकी विजयों और उसके पिता के साम्राज्य को दृष्टि में रखते हुए, कम से कम मैसूर के कुछ भागों तक अवश्य ही फैला लिया था। ये दोनों ही तथ्य निरुपयोगी नहीं हैं क्योंकि पहला बिन्दुसार के दार्शनिक प्रेम का दिग्दर्शन कराता है और दूसरा दक्षिण भारत में अशोक के स्तम्भों के प्रचार पर प्रकाश डालता है। ऐसा भी हो सकता है कि मात्र विजय की स्वाभाविक क्षत्रियोचित महा इच्छा के अतिरिक्त अपने पिता चन्द्रगुप्त के अन्तिम दिनों से पवित्र हई भूमि मैसूर को जीतने के वह पितृप्रेम से प्रेरित हुया हो ।
पिहल की दंतकथाएं तो यह कहती हैं कि बिंदुसार ब्राह्मण धर्म पालता था। महावंश में अशोक के पिता के विषय में लिखा है कि वह ब्राह्मण धर्म का मानने वाला होने से 60,000 ब्राह्मणों को पालता था । परन्तु एड्वर्ड टामस कहता है कि "अन्य देशों और अन्य समयों के विषय में उनकी साक्षी का कोई ऐसा महत्व नहीं हो सकता है। फिर यह भी एक खास प्रश्न है कि वे ब्राह्मणधर्म के विषय में कितना जानते थे, और यह कि ब्राह्मण शब्द का उपयोग उनकी दृष्टि में, अबौद्ध अथवा बौद्धों का विरोधी कोई भी धर्म अर्थ में ही तो नहीं है। हम वर्तमान दृष्टि से यही कह सकते हैं कि बिंदुसार अपने पिता के धर्म का ही पालन करता था और उसो धर्म में वह चाहे जो भी प्रमाणित हो-अशोक ने भी बचपन में शिक्षा पाई थी।
इससे अधिक बिदूसार के धर्म विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। हम देख ही पाए हैं कि वह अपने पिता की ही भांति चाणक्य के प्रभाव में था । जैन दंतकथा कहती है कि उसके समय में यह ब्राह्मण मंत्री स्वयम् राजा को अप्रिय हो गया था जिसने उसके स्थान में किसी सुबन्धु को मंत्री नियुक्त कर दिया था । उसके पुत्र और उत्तराधिकारी अशोक के विषय में यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं है कि उसका जीवन उसके पिता की भांति अप्रसिद्ध नहीं था। निर्ग्रन्थ मम्प्रदाय के साथ उसका सम्बन्ध कैसा था यह बताने के पर्याप्त साधन हैं । अशोक ने अपने राज्यकाल में किस धर्म का पालन किया था यह एक विवादास्पद विषय है, फिर भी उसका जैनधर्म के प्रति रूख कैसा था यह जानने की यहां आवश्यकता है। परम्परागत सागरमाही वत्ति की थोड़ी देर के लिए उपेक्षा कर दें तो भी हम यह कहने का साहस कर सकते हैं कि उसके दादा का धर्म होने के कारण उसका उस पर कोई कम प्रभाव नहीं पड़ा होगा, हालांकि महावंश तो यही कहता है कि उसके पिता की ही भांति, अशोक भी ब्राह्मणों को तीन वर्ष दान-दक्षिणादि देता रहा था। उसकी आज्ञाएं बहुत ही उदात्त हैं और वे
समभाव को स्पष्ट सचना देती हैं। फिर भी इस मनोवृत्ति का मूल कदाचित् वही हो जैसा कि सूचित किया गया है।
अशोक बचपन से ही अपने पितामह चन्द्रगुप्त के धर्म से प्राकर्षित था इस बात को एडवर्ड टामस की यह बात ममर्थन करती है कि "अकबर के कुशल मंत्री अबुलफज्ल ने आईन-ए-अकबरी में काश्मीर के राज्य के लिए तीन आवश्यक तथ्य कहे हैं जिसमें से पहला यह है कि "अशोक ने स्वयम् कश्मीर में जैनधर्म का प्रचार किया
1. स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ. 155-56। 2. पिता सट्ठिसहस्सानि ब्रह्मने ब्रह्मपक्खिके मोजेसि । -गीगर, वही, परिच्छेदो 5, गाथा 34 । 3. टामस, एड्वर्ड, वही, पृ29। 4. चाणक्य अपने राजा की अप्रसन्नता का भाजन किस कारण से हरा इसके
लिए देखो हेमचन्द्र, वही, श्लोक 436-459 । 5. ...सो पीते येवा नि वस्सानि भोजयई। -गीगर, वही और वही स्थान ।
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