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________________ [ 119 नहीं है। चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारियों का विचार करने के पूर्व जैनों के दक्षिण प्रयाण की उपयोगिता और चाणक्य के धर्म सम्बन्ध में भी कुछ यहां कह दें। यह प्रयाण दक्षिण के जैन इतिहास में एक निश्चित भूमिका हमें प्रदान करता है। इसके सिवा दक्षिण के इतिहास की दृष्टि से भी इसकी उपयोगिता कुछ कम नहीं है क्योंकि दक्षिण-भारत के इतिहास में इतने ही महत्व का प्राचीन प्रसंग और कोई हो ऐसा मालूम नहीं है । इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य का युग जो स्मिथ की दृष्टि से इतिहासवेत्ता को 'अन्धकार से प्रकाश' में उत्तर भारत में ले जाता है, दक्षिण भारत के इतिहास में भी वैसा ही है, याने नया युग प्रवर्तक है। यह बात भी कम महत्व की नहीं है कि जिस धर्म ने दक्षिण भारत को प्राचीनतम, यदि सर्वोत्तम नहीं तो, साहित्य प्रदान किया, उसी धर्म ने उसको अपनी सर्व प्रथम विश्वस्त ऐतिहासिक परम्परा भी प्रदान की है। अब चाणक्य के धर्म का भी संक्षेप में विचार कर लें। जैनों के अनुसार चाणक्य जैनधर्मी था । वह जैन गुरूत्रों को मान-सम्मान देता था और अपनी वृद्धावस्था में एक नैष्ठिक जैन साधु की ही भांति अनशन कर दिवंगत होने का उसने प्रयत्न किया था। दन्तकथा है कि दुष्ट मन्त्री अपने कर्मों का प्रायश्चित्त करने के लिए नर्बदा के तट-स्थित 'शुक्ल तीर्थ' में चला गया और वहीं उसकी मृत्यु हुई थी। चन्द्रगुप्त भी उसके साथ वहां आया था ऐसा कहा जाता है। 'शुक्ल तीर्थ' कन्नड़ शब्द 'बेल्गोल' जिसका अर्थ 'धवल सरोवर' है, का ही ठीक पर्याय शब्द है । शिलालेख में उसे धवल सरस् कहा गया है जिसका अर्थ धवल सरोवर होता है। चाहे वह आकस्मिक ही हो, फिर भी यह साम्य अति महत्व का है । सूक्ष्म बातों को छोड़ दें तो श्री ह्रिस डेविड्स की इस बात से इसका मेल खा जाता है कि उपलब्ध भाषा सम्बन्धी और शिलालेखी साक्षियों से जैनों में प्रचलित किम्बदन्ती की सामान्य सत्यता का समर्थन होता है। 'उसने यह भी कहा है कि' यह निश्चित है कि 'उपलम्य याजकीय साहित्य में लगभग दस शताब्दियों तक चन्द्रगुप्त बिल्कुल उपेक्षित ही रहा था।' यह सम्भव लगता है कि ब्राह्मण लेखकों की चुप्पी या उपेक्षा का यही कारण हो कि चन्द्रगुप्त मौर्य सम्राट ने अपने सांसारिक जीवन के अन्तिम दिनों में जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। अन्त में हम चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारियों का भी विचार कर लें। जैन दन्तकथानुसार ये थे विन्दूसार, अशोक, कुणाल और सम्प्रति । शैशुनागों और नन्दों की ही भांति, मौर्यों की वंशानुक्रम सूची में भी बहुत कुछ मतांतर और विभिन्नता है। परन्तु जहां तक अशोक की बात है, उसमें कोई भी मत भेद नहीं हैं। सभी स्वीकार करते हैं कि चन्द्रगुप्त के बाद में उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी बिन्दूमार ही था और इस बिन्दुसार का अनुगामी उसका पुत्र अशोक । इन दोनों मौर्यों के जैनों के साथ सम्बन्ध के विषय में इतना तो स्पष्ट ही है कि जैनों की साहित्यिक दन्तकथाएं इनके विषय में इतनी प्रखर नहीं है जितनी कि इनके पूर्वज चन्द्रगुप्त और इनके अनुगामी सम्प्रति के विषय में हैं। फिर भी ये दोनों ही जैनधर्म के प्रति अनुकूल थे, ऐसा मानने के स्पष्ट कारण हैं । अशोक 1. देखो स्मिथ, आक्सफर्ड हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ, 72 । 2. देखो याकोबी, वही, पृ. 62; जोली, अर्थशास्त्र आफ कोटिल्य, प्रस्तावना पृ. 10-11। अर्थशास्त्र और जैन साहित्य के पम्बन्ध के विषय में देखिए वही, पृ. 10 । हम देख ही पाए हैं कि चाणक्य का पिता ब्राह्मण होते हा भी पक्का जैन था, ऐसी जैन दन्तकथा हैं । अाजकल के ब्राह्मण ईसाइयों जैसी ही यह बात लगती है, फिर भी इसका अर्थ यह तो है ही कि चाणक्य का कुल जन्म से ब्राह्मण और धर्म से जैनी था । एड्वर्ड टामस के अनुसार 'यद्यपि हमारा राजा-निर्माता ब्राह्मण था, परन्तु प्राधुनिक ब्राह्मण अर्थ में वह ब्राह्मण नहीं था।' टामस, एडवर्ड, वही, पृ. 25-26 1 3. देखो स्मिथ, वही, प.75, टि. 1। 4. देखो नरसिंहाचार्य, वही, प्रस्ता. पृ. 1। 5. ह्रिस डेविड्स, बुद्धीस्ट इण्डिया, 164, 270 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003290
Book TitleUttar Bharat me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
PublisherSardarmal Munot Kuchaman
Publication Year1990
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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