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अब तक जो कुछ हमने देखा और जाना उस पर से इन पहाड़ियों की एक लाक्षणिकता बहुत ही स्पष्ट होती है और उसकी घोर ध्यान आकर्षित करना यहां मावश्यक है। जिला विवरणिका के अनुसार खण्डगिरि की प्रक गुफाओं में जैन तीर्थकरों की प्रतिमाए हैं जो, गुफाओंों से परवर्ती काल की हो तो भी, मध्यकालीन जैन भक्तमाल (hagiology) के उदाहरण रूप से रोचक हैं और यदि ये मूर्तियां गुरुाम्रों जितनी ही प्राचीन हैं तो वे तीर्थकरों और उनके परिवारों के प्राचीनतम उपलब्ध नमुने हैं मूर्तियों में पार्श्वनाथ या उनके लांछन फंकार के प्रयोग की प्रमुखता एक विचित्र बात है क्योंकि अन्य उपलब्ध अवशेषों में महावीर को ही सब तीर्थंकरों से प्रमुखता दी गई है। पार्श्वनाथ की प्रमुखता इन अवशेषों की प्राचीनता को ही सिद्ध करती है और यदि ठीक हो तो ये जैन मूर्तिशिल्प के द्वितीय उदाहरण है। महावीर के 200 वर्ष पूर्व अर्थात् ई. पूर्व लगभग 750 में हुए पार्श्वनाथ के विषय में हमें बहुत ही कम जानकारी है कि जिसने चार व्रतों का धर्म ही उपदेश दिया था और दो वस्त्रों, याने एक अयो मोर एक उपरि के प्रयोग की ही आज्ञा दी थी। इस रष्टि से इन गुफाओं में प्राप्त मूर्ति रूपी अभिलेख, चाहे वे बहुत सामान्य ही हों फिर भी पुरातत्वज्ञों द्वारा स्वागत योग्य ही हैं ।"
और 'मर्वगुण सम्पन्न पवित्र पुरुषों और 'मवंगुण सम्पन्न पवित्र पुरुषों
'स्वर्ग और मोक्ष के दाता' का स्थान माने जाने वाले इस देश के पवित्र अवशेषों से इतने ही परिणाम निकाले जा सकते हैं। यहीं ईसवी युग से बहुत ही पहले, बौद्ध एवम् जैनधर्म प्रधान हो चुके थे और उनने हिन्दूधर्म जिसका उचित नाम ब्रह्मणधर्म है, को बहुत ही प्रभावित किया था। ऋषियों को इसी में कभी जैन तो कभी बौद्ध प्रभुत्व अनुभव किया जाता रहा था, और इसलिए कुछ प्रतीकों अथवा स्थपित कल्पनाओं के लक्षणों के तुच्छ आधारों पर निश्चित रूप से इन गुफाओं को बौद्ध या जैन मूल की बताना या कहना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव सा लगता है। हमारी यह कठिनाई तब और भी अधिक हो जाती है जब कि उन दिनों में दोनों ही धर्मों में स्वस्तिक, वृक्ष प्रादि यादि समान प्रतीकों का प्रयोग एक साधारण बात थी। ऐसे ऐतिहासिक तथ्य चाहे जैसे भी हों, फिर भी यह निश्चित है कि विचार, कला, कलाविधान, मूर्तिशिल्प, स्थापत्य के प्रत्येक विभाग में हो रहे महा परिवर्तन जैन और बौद्धधर्म के साथ ब्राह्मण धर्म के संमिलन से प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सके थे।
इस प्रारम्भिक विचारों के पश्चात् अब हम हाथीगुफा के शिलालेख का विस्तार से विचार करेंगे । परन्तु इसके भी पूर्व खण्डगिरी टेकरी बेरशिलर पर मरहटों द्वारा बनाए गए जैन मन्दिर का सरसरी दृष्टि से विचार करना अप्रासंगिक नहीं होगा। यह मन्दिर लगभग एक सदी ही का प्राचीन और अठारहवीं सदी की समाप्ति के आसपास का बना हुआ है।" जैन मन्दिरों की सामान्य प्रधानुसार यह बड़े भव्य स्थान पर बना हुआ है और वहां से बड़ा ही सुन्दर दृश्य दीखता है। इस छोटे से मन्दिर के विषय में 'दी एण्टीक्विटीज ग्राफ उड़ीसा ' ग्रन्थ के लेखक का कहना है कि " इस मन्दिर में श्याम पाषाण की महावीर की खड़ी प्रतिमा है और वह एक कष्ठ सिंहासन पर रखी है। यह मन्दिर दिगम्बर सम्प्रदाय के कटक निवासी जैन व्यापारी मंजु चौधरी और उसके भतीजे भवानी दादू ने बनाया था ।" इसके मूल गभारे में ही एक चिना हुआ चबुतरा है जिसके पीछे की भींत कुछ ऊपर उठी हुई है और इसमें पांच जैन तीर्थकरों की मूर्तियां जड़ी हुई हैं। मन्दिर के पीछे कुछ ही निचाई पर एक झरोखा है जिस पर इधर उधर बिखरे हुए अनेक उत्सर्गित स्तूप हैं जो कि प्राचीन मन्दिर के अस्तित्व का संकेत करते हैं । "
1. वही, पृ. 2661 4. fuar, at, g. 351 मित्रा, वही, पृ.
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2. वनपर्व खण्ड 114 मने 4.5
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5. वही 1 6. बंजिंग, पुरी, पृ. 264
3. ब्रह्मपुराण अध्याय 26 ।
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