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तीर्थकरों की बात को हम छोड़ दें तो भी हिन्दूधर्म के एक प्राचीनतम सूत्र में जैन तत्वज्ञान के सम्बन्ध में उल्लेख हमें मिल जाते हैं। ब्रह्मसूत्र जिसे तेलांग और अन्य पण्डितों ने ईसा पूर्व चौथीं सदी की प्राचीन रचना माना है, में स्याद्वाद और प्रात्म सम्बन्धी जैनधर्म की मान्यता का खण्डन किया गया है । इसके अतिरिक्त महाभारत, मनुस्मृति, शिवसहस्र, तेत्तरीय-पारण्यक, यजुर्वेदसंहिता और अन्य हिन्दूशास्त्रों में जैनधर्म सम्बन्धी अनेक उल्लेख हमें प्राप्त होते हैं। परन्तु यहां हमें उन पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है।"
। अन्त में पार्श्वनाथ और उनके पुरोगामियों की ऐतिहासिकता के विषय में प्राचीन और पवित्र जैनसूत्र एवम् आधुनिक सुप्रसिद्ध विद्वान क्या कहते हैं उसका यहां विचार करलें । जैन साहित्य के किसी भी विभाग का सीधा विचार करने के पूर्व हम यह देख लें कि उस समय की रूपरेखा पर से इस विषय के सम्बन्ध में क्या बातें मिलती हैं । डॉ. जार्ल शार्पटियर कहता है कि तथ्यों के सामान्य विचार को दृष्टि से यह वक्तव्य कि शास्त्र का प्रमुख माग महावीर और उनके निकटस्थ अनुयायियों द्वारा उत्पन्न हुए थे, संभवतः विश्वस्त माना जा सकता है । परन्तु जैनी तो इससे भी एक कदम आगे जाते हैं। उनके अनुसार प्रथम तीर्थ कर ऋषभदेव के समय से चले पाते पूर्व ही प्राचीन में प्राचीन पवित्र जैन धर्मग्रन्थ हैं। इसके अतिरिक्त दूसरी अधिक विश्वस्त परम्परा भी एक है जिस पर डॉ. याकोबी उसको आंशिक सत्य मानते हुए ठीक ही भार देते हैं । यह परम्परा इस प्रकार है कि पूर्वो का उपदेश तो स्वयम् महावीर ने दिया था और ग्यारह अंगों की रचना बाद में उनके गजधरों ने की थी।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर और उनके उत्तराधिकारी गजधर पागम पाहित्य के कर्ता हैं । जब यह कहा जाता है कि महावीर कर्ता थे तो उसका यह अर्थ नहीं है कि ये शास्त्र उनके ही लिखे हुए हैं. अपितु यह कि जो कुछ लिखा गया उसका उपदेश उनने ही दिया था । "क्योंकि भारतवर्ष में कर्तव्य मुख्य रूप से वस्तु पर से माना जाता है । जब तक कि भाव वही हो तो शब्द किसके हैं यह बात अप्रासंगिक मानी जाती है।" फिर जैन साहित्य की कुछ विशिष्टतानों से ही हम देख सकते हैं कि धर्म की भांति, साहित्य में वर्धमान और उनके समय तक का भी उसमें अनुसंधान मिलता है । परन्तु यहां हमें उसकी एक भी लाक्षणिकता का निर्देश नहीं करना है क्योंकि "जैन साहित्य' शीर्षक के अध्याय में इसका सम्पूर्ण विचार किया जाने वाला है।
जब कि पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में कर्मवेश अंश में जैनशास्त्रों में हमें सर्वमान्य प्रमाण मिलते हैं तो उनकी सप्रमागता में शंका करने का कोई भी कारण नहीं है। उदाहरणार्थ भद्रबाह के कल्पसूत्र को ही लीजिए। उसमें जनों के सब तीर्थकरों का वर्णन है। श्री पार्श्वनाथ महावीर के धर्मों के उसमें दिए उल्लेखों के विषय में बहत कुछ कहा ही जा चुका है । दूसरा शास्त्र भगवतीसूत्र का अत्यन्त उपयोगी भाग वह है कि जहाँ पार्श्वनाथ के अनुयायी कालासवेसियपुत्त और महावीर के किसी शिष्य में हुए संवाद-विवाद का वर्णन दिया गया है । इस वर्णन
1. से. बु. ई., पुस्तक 8, पृ. 32 । 'न्याय-दर्शन और ब्रह्मसूत्र (वेदान्त) की रचना ई. सन् 200 और 400 के बीच में कभी भी हुई थी।' याकोबी । देखो अमरीका प्रोरियन्टल सोसायटी पत्रिका, संख्या 31, पृ. 29 । 2. उदाहरण के लिए देखो, पंशीकर, वही, पृ. 252 । 3. हीरालाल हंसराज एशेंट हिस्ट्री आफ दी बैन रिलीजन, भाग, पृ. 85-89 । 4. शार्प-टियर, वही, पृ. 12। 5. याकोबी, से. बु. ई., पुस्तक 22, प्रस्ता. पृ. 45 । 6. याकोबी, कल्पसूत्र, पृ. 151
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