Book Title: Sramana 1999 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WOT ŚRAMANA स्वर्णजयन्ती वर्ष अक्टूबर-दिसम्बर १९९९ ई. वाराणसी रघुभगवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी PĀRŚWANĀTHA VĪDYĀPĪTHA, VARANASI Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमा पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका पं0 श्री अमृतलाल शास्त्री सम्मानार्थ विशेषांक वर्ष 50, अंक 10-12 अक्टूबर-दिसम्बर 1999 - प्रधान सम्पादक प्रोफेसर भागचन्द्र जैन 'भास्कर' परामर्शदाता प्रोफेसर सागरमल जैन सम्पादक ___ अतिथि सम्पादक डॉ० शिवप्रसाद डॉ0 कमलेश कुमार जैन प्रकाशनार्थ लेख-सामग्री, समाचार, विज्ञापन एवं सदस्यता आदि के लिए सम्पर्क करें सम्पादक श्रमण पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई.टी.आई. मार्ग, करौंदी पो.आ.-बी.एच.यू. वाराणसी-221005 (उ.प्र.) दूरभाष : 316521, 318046 फैक्स : 0542-318046 ISSN 0972-1002 वार्षिक सदस्यता शुल्क संस्थाओं के लिए : रु. 150.00 व्यक्तियों के लिए : रु. 100.00 इस अंक का मूल्य : रु. 25.00 आजीवन सदस्यता शुल्क संस्थाओं के लिए : रु.1000.00 व्यक्तियों के लिए : रु. 500.00 नोट : सदस्यता शुल्क का चेक या ड्राफ्ट केवल पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नाम से ही भेजे। - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय नयी शताब्दी का प्रवेश द्वार कुछ ही दिनों में हम नयी शताब्दी में प्रवेश करने जा रहे हैं। अभी हम देहली पर खड़े हुए हैं जहाँ से पिछले वर्ष और आगामी वर्ष की हमारी गतिविधियों का प्रतिबिम्बन हो सकता है। यह प्रतिबिम्बन स्वच्छ और निष्पक्ष हो तो हमारे मूल्यांकन में भी वही स्वच्छता और निष्पक्षता आ सकेगी। हमारा देश अध्यात्मिकता का पुजारी रहा है, त्याग-तपस्या उसमें मुखरित होती रही है। ऋषियों, मुनियों और सन्तों की महत्त्वपूर्ण भूमिका देश के संचालन में भी रही है। फिर भी जहाँ-तहाँ स्वार्थवश उनका अपमान भी होता रहा है। अभी २८ अगस्त १९९९ को सिरोही जिले के रोहिडा ग्राम (राजस्थान) में एक विचित्र घटना घटी। वहाँ अनोप मण्डल द्वारा आदिवासी समाज में यह दुष्प्रचार किया गया कि जैन साधुओं ने वर्षा को बांध रखा है। उनके मन्त्र-तन्त्र के प्रभाव से वर्षा नहीं हो पा रही है। इसका फल यह हुआ कि वहाँ विराजमान् आचार्यश्री पद्मसूरि जी आदि साधु-सन्तों को मारने के लिए एक जबर्दस्त भीड़ उमड़ पड़ी। साधु-सन्तों को तो बचा लिया गया पर आदिवासियों के कोप का भाजन बनना पड़ा जैन मन्दिरों को, जहाँ कि मूर्तियों आदि को तोड़-फोड़ दिया गया। पुलिस के हस्तक्षेप से किसी तरह भीड़ पर काबू किया जा सका। जैन साधु-साध्वियों पर किया गया हमला कोई नयी बात नहीं है। ऐसी घटनायें प्रायः होती रही हैं। इन घटनाओं में राजनीति और वैयक्तिकता के स्वर अधिक मुखरित होते हैं। राजनीति के अखाड़े में धर्म का अपमान करना कोई टेढ़ी खीर भी नहीं है। धर्म को वहाँ शस्त्र बनाकर चलाया जाता है और अपने स्वार्थ की पूर्ति कर ली जाती है। भारत जैसे धर्मप्राण देश में इस प्रकार की घटनायें घटना सहज नहीं कहा जा सकता है। जैन समाज अहिंसाप्रिय समाज है। उसने कभी भी हिंसा को अपना शस्त्र नहीं बनाया। निरर्थक विवादों से दूर रहकर वह सार्थकता की ओर अपना कदम बढ़ाता रहा है । व्यर्थ के आडम्बरों से दूर रहकर उसे जनधर्म की ओर विशेष Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान देना चाहिए साथ ही साधु समाज का भी कर्तव्य है कि वह अपने आप को साधना तक ही सीमित रखे। संसारिकता के पचड़े में न पड़कर आत्मकल्याण पर ही अधिक जोर दे। __ कुछ समय पहले समाचार पत्रों में यह समाचार प्रकाशित हुआ कि एक दिगम्बर मुनि शिविका में बैठकर भट्टारक बनने के लिए निकल पड़े। दोनों दो पृथक् पृथक् दिशायें हैं। मुनि भट्टारक के साथ जुड़ जायें तो वह एक अभिनव दिशा ही होगी। मठाधीशत्व को सामने रखकर कुछ परिवर्तन के साथ भट्टारक प्रथा का प्रारम्भ हुआ था। समय की वह मांग थी। आज भी है। जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में भट्टारकों का विशिष्ट योगदान रहा है। पर मुनि परम्परा का उससे जुड़ना उचित नहीं कहा जा सकता है। विभिन्न माध्यमों से यह सूचना मिली है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा ली जाने वाली नेट परीक्षा से प्राकृत भाषा की एक स्वतन्त्र विषय के रूप में मान्यता समाप्त कर दी गई है और उसे अन्य विषयों के साथ संलग्न कर दिया गया है जिससे इस विषय का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों का भविष्य ( अन्धकार में पड़ गया है। आयोग का यह निर्णय अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। आयोग के अध्यक्ष प्रो० हरिगौतम से हम सभी प्राकृत प्रेमियों का अनुरोध है कि प्राकृत भाषा के नेट परीक्षा के अन्तर्गत एक स्वतन्त्र विषय के रूप में पूर्ववत् मान्यता प्रदान करने की कृपा करें। बीसवीं शताब्दी जैनधर्म के लिए कल्याणपरक रही है। जैन साहित्य और संस्कृति ने भारतीय संस्कृति के क्षेत्र में जो अनुपम योगदान दिया है उसका लेखा-जोखा इसी शताब्दी में अधिक हुआ है। अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का उपक्रम भी इसी शताब्दी की देन है। १८-१९वीं शताब्दी में हमारी गतिमत्ता में कुछ कमी आयी थी। यह हमारे जैन समाज के ही साथ नहीं था, बल्कि समग्र भारतीय समाज उस युगीन परिस्थितियों से प्रभावित रहा है। बाद में २०वीं शती में संस्कृत अध्यापन परम्परा का विकास हुआ। जैन समाज में भी सर्वश्री गणेश प्रसाद वर्णी और विजयधर्मसूरि जैसे महात्माओं ने विभिन्न संस्कृत विद्यालयों की स्थापन की और उनसे प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलाल संघवी, दलसुख मालवणिया, बेचरदास दोशी, डॉ० हीरालाल जैन, आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं० बालचन्द्र शास्त्री, पं० दरबारी लाल P कोठिया जैसे प्राचीन परम्परागत शास्त्रों में निष्णात विद्वान् निकले। इन विद्वानों Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, कन्नड़ आदि भाषाओं में लिखित प्राचीन जैन साहित्य और परम्परा को प्रकाश में लाने का भरपूर प्रयत्न किया । यह उनके ही श्रम का फल है कि आज जैन साहित्य और संस्कृति जैनेतर साहित्य और संस्कृति के साथ सशक्त स्थिति को लेकर बैठी हुई है। कालदोष के प्रभाव के कारण और समाज की संकीर्णता के साथ ही दूरदृष्टि के अभाव के कारण प्राचीन पण्डित परम्परा की अक्षुण्णता खतरे में पड़ गई है । आज विद्वानों में तलस्पर्शिता का अभाव हो रहा है जो पण्डित परम्परा के साथ थी। दस वर्ष के बाद तो स्थिति ऐसी आयेगी कि बची-खुची परम्परा भी देखने नहीं मिलेगी। ―― प्राचीन परम्परा से जुड़े हुए एक और व्यक्तित्व हमारे सामने हैं। वे हैंश्री पं० श्री अमृतलाल शास्त्री, वाराणसी । स्वच्छ धुली हुई धोती पर रंगीन कुर्ता. तेजस्वी चेहरे पर सुनहरा चश्मा, चश्मे के भीतर आँखों से टपकता स्नेह का फौव्वारा, चप्पल में सजी गति में अजीब फुर्ती, बोलने में उत्साह और व्यवहार में मृदुता और कर्तव्यपरायणता के साथ संकोच से दबा व्यक्तित्व | बुन्देलखण्ड की माटी की सौगन्ध लेकर गंगा की पवित्र धारा में अवगाहन करने की प्रतिज्ञा लिये पं० जी ने वाराणसी को सन् १९३४ में अपना धाम बनाया। गंगा के किनारे खड़े उत्तुंग मानस लिये स्वाद्वाद महाविद्यालय के प्रवेश ने शास्त्री और आचार्य कराया और अपने ही पुस्तकालय की गोद में रखकर अध्यापन कार्य सौंप दिया। उनके मधुर स्वभाव ने छात्रों के बीच उन्हें 'शास्त्री जी' बना दिया । अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति शास्त्री जी को सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय ले गयी जहाँ वे लगभग दो दशक तक जैन दर्शन पढ़ाते रहे और वहाँ से निवृत्त होने पर ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं ने आपको आमन्त्रित कर लिया। वहाँ भी उन्होंने बीस बसन्त गुजारे। उनकी इस दीर्घ अध्यापन-परम्परा में शिस्यों की एक दीर्घ शृङ्खला खड़ी हो गई। मुझे भी उनका शिष्य होने का सौभाग्य प्राप्त है। आज वे अपने जीवन के सन्ध्याकाल में खड़े हु हैं । बहुत सारी स्मृतियों के पुलिन्दे उनके साथ जुड़े हुए हैं। शरीर ने अपना प्रभाव अवश्य दिखाया है पर उनकी स्मृति अभी भी पूर्ववत् है । उनके संस्मरणों को यदि एकत्रित किया जाये तो लगभग पूरी बीसवीं शताब्दी के जैन समाज का चित्रण सामने आ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायेगा। विशेष रूप से जैन अध्ययन परम्परा के कतिपय विलुप्त अध्याय प्रकाश में आ सकेंगे। जुलाई १९९९ में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक पद का कार्यभार सम्हालते ही मुझे यह स्मरण दिलाया गया कि विद्यापीठ की शिक्षा परिषद् ने काफी पहले यह प्रस्ताव पारित किया था कि श्रमण का एक अंक श्री पं० अमृतलाल शास्त्री के अभिनन्दन के रूप में प्रकाशित किया जाये । तदनुसार प्रस्तुत अंक उन्हें समर्पित है। पं० जी की अगाध विद्वत्ता, सरलता और मधुरता उनके शरीर को निरामय बनाये रखे और वे शतायु हों। इसी शुभकामना के साथ हमारा समूचा पार्श्वनाथ विद्यापीठ संस्थान उनका हार्दिक अभिनन्दन करता है। संस्थान की त्रैमासिक गतिविधियों के सन्दर्भ में आपको 'विद्यापीठ परिसर' वाले प्रपत्र से जानकारी मिल जायेगी जो इसी अंक में प्रकाशित है। हमारा प्रयत्न है कि संस्थान अपनी शैक्षणिक दिशा में उत्तरोत्तर बढ़ता रहे और समाज को भी अपने साथ जोड़ता रहे। समाज से भी निवेदन है कि वह संस्थान के हर विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देता रहे। उसके योगदान में ही संस्थान की प्रगति है। छात्रावास, छात्रवृत्तियाँ, प्रकाशन, श्रमण की सदस्यता आदि अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ समाज अपना आर्थिक सहयोग दे सकता है और अपने परिवार की स्मृति बनाये रख सकता है। एतदर्थ इच्छुक व्यक्ति संस्थान से सम्पर्क कर सकते हैं। नयी शताब्दी में वह अपनी पहचान और भी तेज कर सके इसके लिए सभी का सहयोग अपेक्षित है। प्रोफेसर भागचन्द्र जैन 'भास्कर' प्रधान सम्पादक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ55 9 विषय-सूची हिन्दी-संस्कृत खण्ड १. जैन अलङ्कार साहित्य १-११ २. वाग्भटालङ्कार १२-१७ ३. भट्टाकलदेव रचित तत्त्वार्थवार्तिक १८-२४ आचार्य अजितसेन और उनकी अमरकृति 'अलङ्कारचिन्तामणिः' २५-३१ चन्द्रप्रभचरित और महाकवि वीरनन्दी ३२-७१ ६. महाकवि अर्हदास और उनकी रचनाएँ ७२-७५ ७. काव्य-कल्पलता और कवि-कल्पलता ७६-७७ ८. भक्तामर स्तोत्र : एक विवेचन ७८-८७ तत्त्वसंसिद्धि और उसकी वयनिका : एक विवेचन ८८-९७ १०. नेमिनिर्वाण : एक अध्ययन ९८-१०५ ११. अप्रतिहत शक्ति भगवान महावीर १०६-११२ १२. भगवान् महावीर की देन ११३-११५ १३. काशी के कतिपय ऐतिहासिक तथ्य ११६-११८ १४. अतिशय क्षेत्र पौरा ११९-१२५ १५. भोजन और उसका समय १२२-१२४ १६. उपकारी पशुओं की यह दुर्दशा! १२५-१२८ १७. महान् १२९ १८. पूज्य श्री तुलसी गणी १२९-१३० १९. श्रीमुदितमुनि : अभिनन्दनपत्रम् १३०-१३१ २०. अभिनन्दन पत्रम् : साध्वी प्रमुखा श्रीकनकप्रभा १३१-१३२ २१. पं. अमृतलाल जी शास्त्री विद्वानों की दृष्टि में १३३-१४० ગુજરાતી ખંડ ૨૨. શ્રી પંચાસરા પાશ્વનાથ મંદિર વિષેના કેટલાક ઐતિહાસિક ઉલ્લેખો ૧૪૧-૧૪૮ - પ્રા. ભોગીલાલ જ સાંડેસરા ૨૩. ગુજરાતનું પ્રથમ ઈતિહાસકાવ્ય – પ્રા૦ જયન્ત એ. ઠાકર ૧૪૯–૧૫૭ अंग्रेजी खण्ड 4. Bandha-Karma-Moksa and Divinity in Jainism 158-169 - Dr. Mukul Raj Mehta २५. विद्यापीठ के परिसर में १७०-१७६ २६. जैन जगत् १७७-१८१ २७. साहित्य-सत्कार १८२-१९१ २८. संस्थान के विकास में सहयोग का आह्वान १९२-१९३ Composed at : Sarita Computers. Aurangabad, Varanasi, Ph.No. 359521 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन अलङ्कार साहित्य जैन साहित्य में भगवान् महावीर के समय से ही अलंकारों का प्रयोग होता चला आ रहा है। 'णिद्दोसं सारमंतं च हेउजुत्तमलंकियं' इत्यादि अनुयोगद्वार सूत्र के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि प्राचीन युग के जैन आचार्य अलंकारशास्त्र की परिभाषाओं से परिचित थे। विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी में जैन आचार्य श्री समन्तभद्र ने अपनी कृति 'स्तुतिविद्या' में- जिसका अपर नाम 'जिनशतकम्' है-- आदि से अन्त तक 'चित्र' अलंकार का उपयोग किया है। ___ जैन साहित्य बहुत विशाल है। अभी तक इसका पूरा प्रकाशन नहीं हो सका तो यदि परा जैन साहित्य प्रकाशित हो जावे तो वह भारतीय साहित्य के आधे भाग के बराबर होगा। जैन साहित्य की भाषा अलंकारों से अलंकृत है, अत: उसके मर्म को समझने के लिये अलंकारशास्त्रों का परिज्ञान नितान्त आवश्यक है। इसी की पूर्ति के लिये अनेक जैन आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण अलंकार ग्रन्थों की रचना की। प्रथमत: जैन विद्वानों ने अलंकार ग्रन्थों की रचना प्राकृतभाषा में की। जैसलमेर-भण्डार की ग्रन्थ-सूची से पता चलता है कि किसी जैन विद्वान् ने प्राकृत भाषा में 'अलंकार दर्पण' (सं० ११६१) नामक ग्रन्थ रचा था, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। अभी तक जितने जैन अलंकार ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, उनमें निम्नलिखित ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं- वाग्भटालंकार (१२वीं शती), काव्यानुशासन-हेमचन्द्र (१२वीं शती), काव्यकल्पलतावृत्ति (१३वीं शती), अलंकारमहोदधि (१३वीं शती), नाट्यदर्पण (१३वीं शती), अलंकारचिन्तामणि (१४वीं शती), काव्यानुशासन-वाग्भट (१४वीं शती) और काव्यालंकारसार (१५वीं शती)। ___ वाग्भटालंकार- वाग्भटालंकार के प्रणेता श्री वाग्भट्ट हैं। इनके पिता का नाम 'सोम' था और ये अणहिल्लपाटन (गुजरात) के राजा श्री जयसिंह- जो राजा कर्णदेव के पुत्र थे— के मन्त्री थे। इसका उल्लेख सिंहदेवगणि ने ‘बंभंड' इत्यादि चतुर्थ परिच्छेद के १४८वें श्लोक की व्याख्या करते हुए वाग्भटालंकार टीका में किया है। प्रभाचन्द्र *. आचार्यभिक्षुस्मृति ग्रन्थ से साभार। *. यह ग्रन्थ पार्श्वनाथ विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित हो रहा है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ने अपने 'प्रभावकचरित' में भी यह बात कही है। जयसिंह का निश्चित समय बारहवी शती है, अतः वाग्भट्ट का भी समय बारहवीं शती है। ये आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन हैं। इसका परिचय विस्तार से अन्यत्र दिया गया है। काव्यानुशासन – काव्यानुशासन के प्रणेता आचार्य हेमचन्द्र (११वीं - १२वीं शती ई०) हैं। ये जैन समाज के ही नहीं, बल्कि भारतीय समाज के भूषण थे। न्याय, व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलंकार, पुराण और कोष आदि सभी विषयों पर इनका समान अधिकार था और सभी विषयों पर उन्होंने प्रामाणिक ग्रन्थ रचे हैं। इन्होंने कुल मिलाकर साढ़े तीन करोड़ श्लोक प्रमाण साहित्य की रचना की है। इनके साहित्य में निम्नलिखित ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं प्रमाणमीमांसा, सिद्धहेमशब्दानुशासन, द्वयाश्रयमहाकाव्य, छन्दोनुशासन, काव्यानुशासन, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, अभिधानचिन्तामणि, अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला, वीतरागस्तोत्र और योगशास्त्र आदि । वाग्भट ने भामह, दण्डी और रुद्रट की तरह अपना वाग्भटालंकार श्लोकों में रचा था, किन्तु हेमचन्द्र ने अपना ग्रन्थ- काव्यानुशासन वामन की तरह सूत्र - शैली में रचा। काव्यानुशासन में आठ अध्याय हैं, जिनमें कुल मिलाकर २०८ सूत्र हैं। सूत्रों में अलंकार शास्त्र सम्बन्धी- कविशिक्षा, अलंकार, रस, ध्वनि, गुण, दोष और साथ ही नाटकीय तत्त्वों पर विशद् प्रकाश डाला है। अपने सूत्रों पर अलंकार चूड़ामणि नामक वृत्ति और विशेष बातों को समझाने के लिये 'विवेक' की रचना भी स्वयं हेमचन्द्र ने की है। अलंकार आदि सिद्धान्त को पुष्ट करने के लिये 'विवेक' में ६०० से ऊपर तथा 'अलंकारचूड़ामणि' में ७०० से ऊपर पद्य उद्धृत किये हैं। उदाहरणों का चयन हेमचन्द्र ने निष्पक्ष दृष्टि से किया है। इसीलिए काव्यानुशासन में हेमचन्द्राचार्य ने जैन ग्रन्थों के साथ जैनेतर ग्रन्थों से भी उदाहरण लिये हैं। विशेषता - आचार्य हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन में काव्यप्रकाश. ध्वन्यालोक और काव्यमीमांसा आदि ग्रन्थों से अधिक विषय का प्रतिपादन किया है। इनकी दृष्टि से जो कमी पूर्ववर्ती साहित्य में रह गयी थी, उसे इन्होंने काव्यानुशासन में पूरा कर दिया। काव्यप्रकाश में मम्मट ने नाटकीय तत्त्वों पर तनिक भी प्रकाश नहीं डाला, जबकि हेमचन्द्र ने इसके लिये काव्यानुशासन में एक और काव्यप्रकाश से अधिक विषयों का निरूपण किया है। ध्वन्यालोककार श्री आनन्दवर्धन ने ९ वीं शती में सबसे पहले ध्वनि सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। यह इनके गहन शास्त्रीय चिन्तन का परिणाम था। किन्तु महिमभट्ट आदि कुछ विद्वानों ने ध्वनिसिद्धान्त का जोरदार खण्डन, किया और यह बतलाया कि व्यञ्जना के मानने की कोई आवश्यकता नहीं । रस का ज्ञान व्यञ्जना से नहीं, अनुमान से होता है । ११ वीं शती में आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चकर महिमभट्ट के सिद्धान्त का खण्डन कर आनन्दवर्धन के सिद्धान्त का मण्डन किया। मम्मट के अव्यवहित उत्तरकाल में आचार्य हेमचन्द्र ने महिमभट्ट का खण्डन और ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन के ध्वनि-सिद्धान्त का जोरदार समर्थन किया। फिर तो ध्वनिसिद्धान्त का खूब ही प्रचार बढ़ा। ध्वनि के प्रकरण में आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में ऐसे अनेक उदाहरण दिये हैं, जो ध्वन्यालोक और काव्यप्रकाश आदि विशिष्ट ग्रन्थों में भी नहीं मिलते। जैसे बहलतमा हअराई अज्ज पउत्थो पई घरं सुण्णं। तह जग्गिसज्जु सज्जिय न जहा अम्हे मुसिज्जामो।। – काव्यानुशासन, पृष्ठ ३६ (निर्णयसागर प्रेस प्रकाशन) एक नायिका- जिसका पति प्रवास में है और घर बिलकुल सूना है- रात्रि के समय अपने पड़ोसी से कह रही है ___ आज की रात्रि बहुत दुःखदायिनी है, क्योंकि चारों ओर अंधेरा छाया हुआ है, पतिदेव बाहर गये हैं और घर सूना है। इसलिये हे पड़ोसी आज जागते रहना, जिससे हमारी और तुम्हारी चोरी न हो जाय। इस विधिवाक्य से अन्य विधि व्यंग है.---- तुम निर्भय होकर मेरे पास आ जाओ। कहीं वाच्य से- जो न तो विधिपरक हो और न निषेधपरक- निषेध सूचक । व्यंग्य निकलता है। जैसे जीविताशाबलवती धनाशा दुर्बला मम। गच्छ वा तिष्ठ वा पान्थ स्वावस्था तु निवेदिता।। -- काव्यानुशासन, पृष्ठ ३७ (निर्णयसागर प्रेस प्रकाशन) प्रवास के लिये उद्यत हुए पति को रोकने के लिये पत्नी कह रही है हे पान्थ! मुझे अपने जीवन में जितनी आसक्ति है, उतनी धन में नहीं, मझे धन से जीवन प्यारा है। (अत: मैं जीवन देकर धन लेना पसन्द नहीं कर सकती)। अब आप जाइये या रुकिये, मैंने अपनी अवस्था आपको बतला दी है। (तुम्हारे बिना मेरा जीवित रहना कठिन है)। यहाँ पति के जाने या न जाने का विधान नहीं किया गया है। वाच्यार्थ से हाँ या ना दोनों में से किसी एक का भी बोध नहीं होता, किन्तु व्यंग्य रूप से यह प्रतीत "हो रहा है कि पत्नी अपने पति को रोकना चाहती है। आपको मेरा उतना ख्याल नहीं जितना यात्रा का, यह भाव प्रकट करने के लिये पति को ‘पान्थ' पद से सम्बोधित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है इत्यादि सैकड़ों ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे हेमचन्द्र की मौलिक प्रतिभा का परिचय मिलता है। अलंकारचूड़ामणि और विवेक से विभूषित होकर काव्यानुशासन, काव्यप्रकाश से अधिक महत्त्वशाली हो गया है। काव्यप्रकाश से साहित्यदर्पण का प्रचार अधिक हुआ है। इसके दो कारण हैं- (१) काव्यप्रकाश की भाषा से साहित्यदर्पण की भाषा सरल है और (२) काव्यप्रकाश में नाटकीय तत्त्वों पर प्रकाश नहीं डाला गया है, जबकि साहित्यदर्पण में है। मेरा ख्याल है, यदि हेमचन्द्र जैन न होते तो काव्यानुशासन का प्रचार काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण से कहीं अधिक होता। समालोचकों का कहना है कि दर्पणकार साहित्यिक मर्म के प्रकाशन में उतने समर्थ नहीं, जितना कविता करने में और काव्यप्रकाशकार के बारे में उनका कहना है कि वे शब्दों के प्रयोग में कृपण थे- कम शब्दों में बहुत अर्थ प्रकट करना चाहते थे। यों देखा जाय तो यह मम्मट का गुण है, न कि दोष। आज के समय में जिज्ञासु ग्रन्थ का हृदय थोड़े परिश्रम से ही जानना चाहता है। इस दृष्टि से हेमचन्द्र बहुत सफल हुए हैं। इनका विवेचन प्रामाणिक होने के साथ-साथ सरल भी है। आचार्य हेमचन्द्र ने 'अप्रस्तुत प्रशंसा' अलंकार का नाम 'अन्योक्ति' रखा है'सामान्यविशेष कार्ये कारणे प्रस्तुते तदन्यस्य तुल्ये तुल्यस्य चोक्तिरन्योक्तिः (काव्यानुशासन, अध्याय ६, पृष्ठ ३०७)। हेमचन्द्र के पूर्ववर्तियों में केवल रुद्रट ने इस संज्ञा का उपयोग किया था। भामह, वामन, आनन्दवर्द्धन और मम्मट आदि सभी ने 'अप्रस्तुत प्रशंसा' संज्ञा का उपयोग किया था। हेमचन्द्र के बाद के विद्वानों ने भी'अप्रस्तुत प्रशंसा' संज्ञा का उपयोग किया है, किन्तु हिन्दी-साहित्य में प्रायः सर्वत्र 'अन्योक्ति' संज्ञा का उपयोग किया गया है। इसी तरह विद्वद्जन काव्यानुशासन का ध्यान से अवलोकन करें तो और भी ऐसी बहुत सी विशेषताएँ दृष्टिगोचर होंगी। काव्यकल्पलतावृत्ति-काव्यकल्पलता की सूत्र-रचना अरिसिंह ने की थी और इसकी वृत्ति जैनाचार्य अमरचन्द्रसूरि ने रची थी। इन दोनों का समय विद्वानों ने तेरहवीं शती निश्चित किया है। ये दोनों ही अपने समय के विशिष्ट विद्वान् थे। इनके अन्य ग्रन्थों का भी विद्वानों ने पता लगाया है। अरिसिंह ने वस्तुपाल की प्रशंसा में 'सुकृतसंकीर्तन' महाकाव्य लिखा था और अमर ने जिनेन्द्रचरित', 'स्यादिशब्दसमुच्चय', 'बालभारत', 'द्रौपदीस्वयंवर', 'छन्दो-रत्नावलि', 'काव्यकल्पलतापरिमल' और 'अलंकारप्रबोध आदि ग्रन्थ रचे थे। प्रस्तुत ग्रन्थ में चार प्रतान हैं- १. छन्दसिद्धिप्रतान, २. शब्दसिद्धिप्रतान, ३. श्लेषसिद्धिप्रतान और ४. अर्थसिद्धिप्रतान। प्रत्येक प्रतान में क्रमश: पाँच, चार, पाँच और सात कुल इक्कीस स्तवक हैं। कविता निर्माण करने की इसमें सुन्दर विधि बतलाई गई है और साथ में अन्य भी प्रासंगिक विषयों का वर्णन किया गया है। इस विषय में क्षेमेन्द्र, जयमंगल और Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलायुध आदि विद्वानों ने भी ग्रन्थ रचे, किन्तु वे अत्यन्त संक्षिप्त होने के कारण जिज्ञासा शान्त नहीं कर पाते। प्रस्तुत ग्रन्थ का विद्वत् संसार में खूब ही प्रचार हुआ और चौदहवीं शती के ब्राह्मण विद्वान् श्री देवेश्वर को यह ग्रन्थ इतना रुचिकर हुआ कि इन्होंने इसी का आधार लेकर नवीन 'कविकल्पलता' की रचना की जिसमें यत्र-तत्र प्रस्तुत ग्रन्थ की सामग्री का उपयोग किया। काव्यकल्पलतावृत्ति में कुछ ऐसे विषय हैं, जो कवियों के लिये बहुत ही सहायक हैं छन्दों के अभ्यास के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ में लिखा है कि ककार आदि व्यञ्जनों को भरकर छन्दों का अभ्यास करना चाहिए। ग्यारह अक्षर वाले इन्द्रवज्रा छन्द का अभ्यास करना हो तो उसके लक्षण के अनुसार ककार आदि वर्गों का प्रयोग करें। जैसे काका ककाका ककका कका का की की कि की की किकि की किकीकि। कुकू कुकूकू कुकुकू कुकूकु कं कं क कं कं कककं क कं कम्।। - काव्यकल्पलतावृत्ति, प्रतान १, स्तवक २ । इसी ढंग से अन्य छन्दों का भी अभ्यास करना चाहिए। यह विधि बहुत ही सरल है। छन्दों की पूर्ति के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ में हजारों शब्दों का संग्रह कर दिया गया है, जिनके यथास्थान रख देने से छन्द की पूर्ति सरलता से हो सकती है। जैसे अनुष्टुप छन्द बनाना हो तो निम्नलिखित अक्षरों में से कोई भी अक्षर उसके प्रथम अक्षर के लिये उपयोगी है। श्री, सं, सन्, द्राक्, विश्, आ, नि, श्राक्, सु, उत्, तत्। इसी तरह अन्य छन्दों के लिये भी अनेक प्रकार के शब्दों का संकलन प्रस्तुत ग्रन्थ में है। छन्दों के साथ अलंकारों के योग्य शब्दों का भी आश्चर्यजनक संग्रह यहाँ मिलता है। इसी तरह हजारों बातों पर इस ग्रन्थ में प्रकाश डाला गया है, जो विद्वानों को आश्चर्य में डाल देता है। चौथे प्रतान के सातवें स्तवक में समस्यापूर्ति का क्रम भी बतलाया गया है - प्रश्न से भी समस्यापूर्ति हो सकती है। जैसे- 'मृगात् सिंह: पलायते' इस समस्या की पूर्ति कस्तूरी जायते कस्मात् ? को हन्ति करिणां कुलम्? किं कुर्यात् कातरो युद्धे? 'मृगात् सिंहः पलायते।।' - काव्यकल्पलतावृत्ति, ४/७। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत समस्या की पूर्ति तीन प्रश्नों से की गई है— पहला प्रश्न कस्तूरी किससे होती है? दूसरा प्रश्न - हाथियों के झुण्ड को कौन मारता है ? तीसरा प्रश्न - युद्ध में कार क्या करता है ? इन तीनों के क्रमश: उत्तर (१) मृग से ( (मृगात्), (२) सिंह और (३) भाग जाता है ( पलायते ) । 'यदि' शब्द के प्रयोग से भी समस्यापूर्ति की जा सकती हैजैस - 'अग्निस्तुहिनशीतल:' इसकी पूर्ति देखिये - प्रतीच्यां यदि मार्तण्डः समुदेति स्फरत्करः । तदा संजायते ' नूनमग्निस्तुहिन शीतलः । । — का०क० ४/७ । इसी तरह और भी उपाय बतलाये हैं, जिनसे शीघ्र ही समस्यापूर्ति की जा सकती है। प्रस्तुत ग्रन्थ भारतीय साहित्य का भूषण है। श्री देवेश्वर ने इसी के आधार से 'कविकल्पलता' की रचना की। इसमें कहीं-कहीं तो पूरे के पूरे श्लोक मिलतेजुलते हैं। अलंकारमहोदधि- अलंकारमहोदधि की रचना आचार्य नरेन्द्रप्रभसूरि ने महामात्य वस्तुपाल की प्रार्थना पर अपने गुरु आचार्य नरचन्द्रसूरि की आज्ञा से की थी । इसकी टीका भी स्वयं नरेन्द्रप्रभ ने विक्रम संवत् १२८२ में समाप्त की थी, जो ४५०० (साढ़े चार हजार) अनुष्टुप श्लोक प्रमाण है। प्रस्तुत ग्रन्थ आठ तरंगों में विभाजित है । काव्य का स्वरूप, प्रयोजन, भेद, शब्द, अर्थ, गुण, दोष, अलंकार और ध्वनि आदि विषयों पर आचार्य नरेन्द्रप्रभ ने विशद् प्रकाश डाला है। काव्यप्रकाश की तरह इसमें भी नाटकीय तत्त्वों पर प्रकाश नहीं डाला गया है। शेष सभी विषयों पर काव्यप्रकाश में कहीं अधिक विवेचन किया गया है। साहित्यदर्पण इसके सामने बहुत छोटा है। साहित्यदर्पण में अलंकारों का विवेचन काव्यप्रकाश से अधिक है । किन्तु अलंकारमहोदधि का अलंकार विवेचन साहित्यदर्पण से कहीं अधिक है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पृष्ठ २१२ - १३ पर वृत्यनुप्रास के अवान्तर भेद- कार्णाटी, कौन्तली, कौंगी, कौंकणी, वानवासिका, त्रावणी, माथुरी, मात्सी और मागधी आदि बतलाये हैं, जो काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण आदि ग्रन्थों में नहीं हैं। काव्यप्रकाश और काव्यानुशासन ( हेमचन्द्र) के समान प्रस्तुत ग्रन्थ में भी ध्वनि का विस्तार से वर्णन है । सरल शब्दों में परिभाषा बनाना और सरल उदाहरण चुनना प्रस्तुत ग्रन्थ की Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषता है। जैसे सार अलंकार की परिभाषा देखिये- 'सारः प्रकर्षस्तूत्तरोत्तरम्' (पृष्ठ ३०६)। उदाहरण राज्ये सारं वसुधा वसुन्धरायां पुरं पुरे सौधम्। अजतिसहसस्रचतुष्टयमनुष्टुभामुपरि पंच शती।। - अलंकारमहोदधि, श्लोक ११, पृष्ठ ३४०. 'सौधे तल्पं तल्पे वारांगनाऽनंगसर्वस्वम्।' (पृष्ठ ३०६)। अलंकारों के अवान्तर भेद भी प्रस्तुत ग्रन्थ में काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण आदि ग्रन्थों से अधिक किये गये हैं। नाट्यदर्पण- नाट्यदर्पण आचार्य रामचन्द्र और गुणचन्द्र, दो विद्वानों की कृति है। ये दोनों आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य थे, अत: इनका समय भी वही है, जो हेमचन्द्र का है। रामचन्द्र और गुणचन्द्र अपने गुरु के समान बहुश्रुत विद्वान् थे। इन्होंने लगभग सौ ग्रन्थों की रचना की थी। उनमें से चार-पाँच प्रकाशित भी हो चुके हैं। नाट्यदर्पण उन्हीं में से एक है। नाट्यदर्पण चार विवेकों में विभक्त है। मूल कारिकाएँ क्रमश: चारों विवेकों में ६५, ३७, ५१ और ५४ --- कुल २०७ हैं और इन पर स्वयं रामचन्द्र और गुणचन्द्र ने विस्तृत विवरण लिखा है, जो ४५०० अनुष्टुप छन्द प्रमाण है। विवरण में विषय की विशेष पुष्टि के लिये जैन व जैनेतर ग्रन्थों के उदाहरण दिये गये हैं। भरत ने विस्तृत नाट्यशास्त्र रचा था। उनके बाद संक्षेप में नाट्यतत्त्वों का स्वरूप निरूपण करने वाले मुख्य दो ग्रन्थ हैं- (१) प्रस्तुत नाट्यदर्पण और (२) दशरूपक। दोनों ग्रन्थों का प्रतिपाद्य विषय एक ही है, किन्तु रामचन्द्र और गुणचन्द्र ये दोनों नाटकीय तत्त्व के मर्मज्ञ थे। इन्होंने अनेक ऐसे ग्रन्थों के उदाहरण दिये हैं, जो आज अनुपलब्ध है। कहीं-कहीं दोनों ग्रन्थों में मौलिक अन्तर भी हैं। दशरूपककार नाटकों में शान्त रस नहीं मानते, नाट्यदर्पणकार मानते हैं। दशरूपक में व्यञ्जनावृत्ति का खण्डन है, नाट्यदर्पण में नहीं है। नाट्यदर्पण में रस को सुख-दुःखात्मक बतलाया गया है- 'सुख दुःखात्मको रसः', पृष्ठ १४१। शृङ्गार, हास्य, वीर, अद्भुत और शान्त इन पाँचों को सुखात्मक और करुण, रौद्र, वीभत्स तथा भयानक इन चारों को दुःखात्मक बतलाया है। दशरूपक में रूपकों की संख्या दस स्वीकार की है, जबकि नाट्यदर्पण में बारह । अलंकारचिन्तामणि- इसके रचयिता आचार्य अजितसेन हैं। इनका समय चौदहवीं शती है। इन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन-ग्रन्थों के ही उदाहरण दिये हैं। जैनेतर ग्रन्थों के भी उदाहरण हैं, किन्तु ऐसे उदाहरणों की संख्या बहुत ही कम है। अर्हद्दास के मुनिसुव्रतकाव्य के भी कुछ उदाहरण प्रस्तुत ग्रन्थ में हैं, अत: प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का समय चौदहवीं शती है। अर्हद्दास का समय विक्रम से तेरहवीं शती का अन्तिम् । चरण और चौदहवीं का प्रथम चरण है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पाँच परिच्छेद हैं, जिनमें श्लोकों की संख्या क्रमश: १०३, ८६, ४१, ३४५ और ३००-कुल ७७५ है। गद्य रूप में लिखी गई वृत्ति की संख्या पृथक् है। इस रचना में कविशिक्षा, शब्दालंकार, अर्थालंकार, गुण-दोष और रस आदि पर प्रकाश डाला गया है। यहाँ शब्दालंकारों का इतना अधिक वर्णन है जितना अन्य जैन अलंकार ग्रन्थों में नहीं है। जैनेतर ग्रन्थों में भी भोज के सरस्वतीकण्ठाभरण को छोड़कर अन्य में नहीं है। अलंकारों में उपमा का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। दण्डी को छोड़कर इतना अधिक इस ढंग का वर्णन अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलता। इस रचना का अलंकार-विवेचन हृदयग्राही है, अत: अलंकारचिन्तामणि नाम सार्थक है। अलंकारों के पारस्परिक सूक्ष्म अन्तर को बतलाने के लिये इस ग्रन्थ के चौथे परिच्छेद के प्रारम्भ में जो प्रकाश डाला गया है, वह अन्य ग्रन्थों में एकत्र नहीं मिलता। यों अन्य ग्रन्थों में भी खोजने पर मिल सकता है, किन्तु एक ही स्थान में इतना अधिक विवेचन मेरे देखने में नहीं आया। यहाँ नाटकीय तत्त्वों को छोड़कर शेष अलंकार शास्त्र सम्बन्धी सभी बातों पर विशद प्रकाश डाला गया है। आचार्य अजितसेन ने ध्वनि की परिभाषा मात्र बतलाकर ग्रन्थ विस्तार भय से उसका विवेचन नहीं किया। शब्दालंकार का विवेचन अर्थालंकार के विवेचन की अपेक्षा कठिन होता है, किन्तु अजितसेन ने उसे भी सरल बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया है। श्लोक पढ़ते ही समझ में आ जाते हैं। चित्र-प्रकरण में अक्षरच्युत प्रश्नोत्तर का सुन्दर और मनोरञ्जक उदाहरण देखियेप्रश्न: - क: पंजरमध्यास्ते? कः पुरुष निस्वनः। कः प्रतिष्ठा जीवानां? कः पाठ्योक्षऽरच्युतः? ।। उत्तर:- शुक: पंजरमध्यास्ते काकः परुषनिस्वनः। लोकः प्रतिष्ठा जीवानां श्लोकः पाठ्योऽक्षरच्युतः।।२/३१-३२। प्रथम पद्य में चार प्रश्न किये गये हैं- पिंजरे में कौन बन्द किया जाता है? - कर्कश स्वर वाला कौन होता है? जीवों का आश्रयस्थान क्या है? अक्षर छोड़कर किसे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढ़ सकते हैं। दूसरे पद्य में चारों प्रश्नों के क्रमश: चार उत्तर दिये गये हैं- तोता, कौआ, लोक और श्लोक। जिस श्लोक में प्रश्न किये गये हैं, उसके प्रत्येक चरण में सात-सात अक्षर हैं। उनके प्रारम्भ में एक-एक अक्षर और जोड़ देने से उत्तर सहित दूसरा पद्य बन गया है। इस तरह शब्दालंकारों का वर्णन आदि से अन्त तक सरस है। इसी तरह ७० अर्थालंकारों और उनके अवान्तर भेदों की चर्चा भी सरस और सरल है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अर्थालंकारों की परिभाषाएँ भी बहुत परिष्कृत हैं। जैसे--- उपमालंकार की परिभाषा देखिये वर्ण्यस्य साम्यमन्येत स्वतः सिद्धेन धर्मतः। भिन्नेन सूर्यभीष्टेन वाच्यं यत्रौपमैकदा।।४।१८. उपमेय से भिन्न, स्वत: सिद्ध, विद्वानों द्वारा मान्य, अप्रस्तुत अर्थात् उपमान के साथ जहाँ किसी धर्म की दृष्टि से समानता बतलाई जाय, वहाँ उपमा अलंकार होता है। " जैनेतर उच्चकोटि के अलंकार ग्रन्थों में 'साधर्म्यम्पमा' अर्थात् उपमेय की उपमान के साथ समानता दिखलाने को उपमा कहते हैं। अलंकारचिन्तामणिकार ने यद्यपि इस परिभाषा का खण्डन नहीं किया, किन्तु उन्होंने अपनी उपमा की परिभाषा में उपमान के तीन विशेषण लगाये हैं। यदि ये नहीं लगाये जाते, तो अन्य अलंकारों में उपमा का लक्षण चला जाता। फलत: उपमा का लक्षण अतिव्याप्ति दोष से दूषित हो जाता। यदि 'स्वत:भिन्नेन' 'उपमेय से भिन्न' यह विशेषण न देते, तो अनन्वयालंकार में परिभाषा चली जाती, क्योंकि अनन्वय में उपमेय और उपमान अभिन्न होते हैं, 'स्वत: सिद्धेन' 'स्वयं सिद्ध' विशेषण नहीं देते, तो उत्प्रेक्षा में लक्षण चला जाता, क्योंकि उत्प्रेक्षा में उपमान स्वयं सिद्ध नहीं, बल्कि कल्पित होता है। ‘सूर्यभीष्टेन' विद्वानों के द्वारा मान्य यह विशेषण न देते, तो प्रस्तुत लक्षण 'हीनोपमा' में चला जाता। इसी प्रकार अन्य अलंकारों की परिभाषा भी परिष्कृत है। काव्यानुशासन– इसके रचनाकार अभिनव वाग्भट हैं। इनका समय १४वीं शताब्दी है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पृष्ठ ४२ पर उदात्तालंकार का जो उदाहरण वाग्भट ने दिया है, वह नरेन्द्रप्रभसूरि के अलंकारमहोदधि- जिसकी रचना वि०सं० १२८२ में समाप्त हुई थी— को छोड़कर अन्यत्र नहीं मिलता। अत: वाग्भट का समय १४वीं शताब्दी निश्चित है। प्रस्तुत ग्रन्थ की एक हस्तलिखित प्रति का उल्लेख इगलिंग कैटलौग नं० १११५७ पर है। इस लिखित प्रति पर लेखन-काल वि०सं० १५१५ है। __ वाग्भट के पिता का नाम नेमिकुमार और पितामह का श्री मक्कलय था। इनका Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० निवासस्थान मेवाड़ था। ये अपने समय के बहुत बड़े धनिक व्यापारी और उच्चकोडि के लेखक या महाकवि थे। इन्होंने अनेक महाकाव्य रचे थे। इन्होंने अपना परिचय काव्यानुशासन के प्रारम्भ में दिया है। काव्यानुशासन सूत्र शैली में रचा गया छोटा, किन्तु महत्त्वपूर्ण अलंकार ग्रन्थ है। इसके पाँच अध्यायों में क्रमशः ६२, ७५, ६८, २६ और ५८ कुल - २८९ सूत्र हैं। सूत्रों के ऊपर वाग्भट ने स्वयं 'अलंकारतिलकवृत्ति' नाम की टीका रची है। सूक्ष्म दृष्टि से ग्रन्थ देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वाग्भट हेमचन्द्र से बहुत प्रभावित थे। वे उन्हें अपना समझते थे, अतः उनके ग्रन्थ का नाम (काव्यानुशासन), सूत्र शैली और कुछ सूत्र तथा कुछ टीका का अंश भी उन्होंने अपने ग्रन्थ में ले लिया है। ग्रन्थ बहुत सरल है। इसमें अलंकार सम्बन्धी सभी तत्त्वों पर प्रकाश डाला गया है । जो बात सूत्रों में नहीं कही जा सकी, वह टीका में कह दी गयी है । टीका बहुत महत्त्वपूर्ण है। हेमचन्द्र ने ध्वनि का समर्थन जोरदार शब्दों में किया है, किन्तु वाग्भट ने उसे 'पर्यायोक्त' अलंकार में गर्भित किया है। सभी अलंकार ग्रन्थों में काव्यों से उदाहरण लिये गये हैं, किन्तु वाग्भट ने दोष प्रकरण में मम्मट और दण्डी आदि के अलंकार ग्रन्थों के मंगलाचरण के पद्यों को उद्धृत कर उनमें दोष बतलाये हैं। काव्यालंकारसार- इस ग्रन्थ के प्रणेता भावदेवसूरि हैं। इनका समय विक्रम की पन्द्रहवीं शती का प्रथम चरण है। इसकी सूचना स्वयं इन्होंने अपने पार्श्वनाथचरितमहाकाव्य की प्रशस्ति में दी है। काव्यालंकारसार में आठ अध्याय हैं, जिनमें क्रमशः ५+१५+२४+१३+१३+ ४९+५+८=१३२ श्लोक हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में काव्य का स्वरूप, हेतु, फल (१) शब्दार्थस्वरूप, (२) शब्दार्थदोष, (३) गुण, (४) शब्दालंकार, (५) अर्थालंकार, (६) रीति, (७) और रस, (८) इन साहित्यिक तत्त्वों पर संक्षिप्त और सारगर्भ प्रकाश डाला गया है। आचार्य भावदेवसूरि ने अपने पूर्ववर्ती सभी आचार्यों के अलंकार ग्रन्थों का गम्भीर चिन्तन कर प्रस्तुत ग्रन्थ बनाया है। अभी तक प्रकाशित हुए अलंकार ग्रन्थों में इतना सरल और सरस ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं आया। अलंकारशास्त्र के अध्ययन करने वालों को सबसे पहले यही ग्रन्थ पढ़ना चाहिए। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ और भी जैन- अलंकार ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, किन्तु वे इस समय सामने नहीं हैं, अतः उनके बारे में यहाँ कुछ नहीं लिखा जा सकता। अनेक जैन विद्वानों ने जैनेतर अलंकार ग्रन्थों पर महत्त्वपूर्ण टीकाएँ रची हैं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाश पर सबसे पहली ‘संकेत' नाम की टीका प्रकाशित हो चुकी है। इसके कर्ता जैन विद्वान् माणिक्यचन्द्रसूरि हैं। रुद्रट के काव्यालंकार पर जैन विद्वान् नमिसाधु ने टीका रची थी, जो प्रकाशित हो चुकी है। आचार्य सिद्धचन्द्र ने 'काव्यप्रकाश विवरण' रचा था। यह भी प्रकाशित हो चुका है। अलंकारशास्त्र का अविकल अध्ययन, मनन और चिन्तन करने वालों के लिये उक्त ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाग्भटालङ्कार* - विपुल संस्कृत वाङ्मय में अलङ्कारशास्त्र का स्वतन्त्र स्थान है। मानव जाति का हित अन्तर्निहित रहने से यों तो सभी शास्त्र उपादेय हैं, पर उनके मर्म को समझने एवं अभिनव कृति का निर्माण करने के लिए अलङ्कारशास्त्र की उपादेयता इतर शास्त्रों से कहीं अधिक है, जैसा कि राजशेखर (काव्यमीमांसा, द्वि०अ०) का कथन है। इसीलिए इसके प्रणयन की ओर बड़े-बड़े विद्वान् प्रवृत्त हुए। ख्यातनामा वाग्भट ऐसे ही विद्वानों में से एक हैं, जिनकी अभी तक केवल एक ही कृति उपलब्ध हो सकी है'वाग्भटालङ्कार'। वाग्भट का समय- वाग्भट ने 'वाग्भटालङ्कार' में समुच्चयालङ्कार के उदाहरण के रूप में जो निम्नलिखित पद्य रचा है, उससे उनके समय पर भी प्रकाश पड़ता है अणहिल्लपाटकं पुरमवनिपतिः कर्णदेवनृपसूनुः । श्रीकलशनामधेयः करी च रत्नानि जगतीह।। ४.१३२ अत्युत्कृष्ट वस्तुओं के समुच्चय की दृष्टि से इस पद्य में तीन रत्नों का उल्लेख किया गया है- (१) अणहिल्लपुरपाटन, जहाँ राजा जयसिंह की राजधानी रही, (२) राजा कर्णदेव के पुत्र--- राजा जयसिंह और (३) श्रीकलश नामक हाथी, जो राजा जयसिंह की सवारी के काम आता रहा। प्रस्तुत कृति में और भी ऐसे पद्य हैं, जिनमें सोलकी नरेश जयसिंह की प्रशंसा की गयी है। __ जयसिंह का नामोल्लेख करने से इतना सुनिश्चित हो जाता है कि वाग्भट इन (जयसिंह) से पहले नहीं हुए। फिर कब हुए? इसका उत्तर कलिकाल सर्वज्ञआचार्य हेमचन्द्र के, जो जयसिंह के उत्तराधिकारी राजा कुमारपाल के गुरु रहे, व्याश्रयकाव्य (कुमारपालचरित) से मिल जाता है, जिसमें (स० २० श्लो० ९१-९२) उन्हें जयसिंह का अमात्य लिखा है। वाग्भटालंकार की सिंहदेवगणिकृत संस्कृत टीका में 'बंभण्डसुत्ति....' इत्यादि (४, १४८) पद्य की उत्थानिका से भी इसकी परिपुष्टि होती है। अतएव वाग्भट जयसिंह के समकालीन ठहरते हैं। जयसिंह का शासन काल वि०सं० ११५० से ११९९ तक रहा है। इसलिए वाग्भट का भी यही समय प्रमाणित होता है, किन्तु इसके विषय में अनेक बड़े-बड़े विद्वानों को भी भ्रम हुआ है। *. श्रमण, वर्ष ८, अंक १, नवम्बर १९५६ से साभार Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वाग्भट का नाम और समय में भ्रम- श्रद्धेय स्व० प्रेमी जी ने चार वाग्भट और स्व० कीथ ने पाँच वाग्भट बतलाये हैं। कीथ के अनुसार अष्टाङ्गहृदयकार के वंश में एक और भी वाग्भट हुए हैं, जो 'वृद्ध वाग्भट' नाम से प्रख्यात रहे। ये अष्टाङ्गहृदय के प्रणेता के पितामह थे। नाम की समानता के कारण कतिपय विद्वानों को इनकी एकता का भ्रम हुआ है और कुछ को इनके काल के निर्णय में भी। जैसे- १. श्री वाचस्पति गैरोला 'संस्कृत साहित्य का इतिहास', पृष्ठ ९६१; २. आचार्य श्री विश्वेश्वर 'काव्यप्रकाश' की भूमिका, (पृष्ठ ८०) और प्रा० श्री बलदेव उपाध्याय 'संस्कृत-साहित्य का इतिहास' (पृष्ठ ६४५, पञ्चम संस्करण)। इन्होंने सभी वाग्भट नाम के आचार्यों को एक ही व्यक्ति माना है। इसी तरह अन्य इतिहास ग्रन्थों में देखा जाय तो और भी ऐसे भ्रान्त उल्लेख प्राप्त हो सकते हैं। वस्तुत: चारों या पाँचों वाग्भटों की सत्ता और तिथि सर्वथा पृथक् है। इन्होंने स्वयं अपनी-अपनी कृतियों में अपने-अपने पिता का नामोल्लेख किया है। अष्टाङ्गहृदयकार के पिता का नाम 'सिंहगुप्त', नेमिनिर्वाण के कर्ता के पिता का नाम 'छाहड़', 'वाग्भटालङ्कार' के प्रणेता के पिता का नाम ‘सोम' और 'काव्यानुशासन' के रचयिता के पिता का नाम 'नेमिकुमार' था। वृद्ध वाग्भट के पिता का नाम अभी तक प्रकाश में नहीं आया। श्रद्धेय स्व० प्रेमी जी के 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थ में इन सभी के समय पर प्रामाणिक प्रकाश डाला गया है। वाग्भट का पारिवारिक एवं धार्मिक परिचय–वाग्भट ने अपने वाग्भटालङ्कार (४.१४८) में अपना प्राकृत नाम 'वाहड' लिखा है। वे गृहस्थ थे। उनके एक अत्यन्त सुशील, सुन्दर एवं विदुषी कन्या भी थी। सिंघी जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित प्रभाचन्द्राचार्यकृत प्रभावकचरित (पृष्ठ १७३, श्लो० ६७-७०) बतलाता है कि वाहड (वाग्भट) धनवान् तथा परमधार्मिक आदर्श विद्वान् रहे। एक बार उन्होंने अपने गुरु के चरणों में प्रणाम करके उनसे पूछा- “गुरुवर! मुझे अत्यन्त श्लाघ्य कार्य बतलाइए, जिसमें मैं अपने द्रव्य को लगाऊँ। उन्होंने उत्तर दिया- 'जिनालय के निर्माण में द्रव्य लगाना सफल है।' उनके इस आदेश के अनन्तर वाग्भट ने एक सुन्दर जैन मन्दिर बनवाया, जो हिमालय की भाँति धवल, उन्नत और चमकीले मणिमय कलश से विभूषित था। उसमें अन्तिम तीर्थङ्कर श्री वर्धमान भगवान की जिस सातिशय अद्भुत मूर्ति को प्रतिष्ठित किया, उसकी दिव्य दीप्ति से चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त मणि की भी प्रभा फीकी पड़ गयी- वह रात्रि में चन्द्रकान्त से एवं दिन में सूर्यकान्त मणि से भी कहीं अधिक चमकती थी। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ उपर्युक्त उल्लेख से स्पष्ट है कि वाग्भट जितने विद्वान् और धनवान थे, उसमें कहीं अधिक परमधार्मिक सद्गृहस्थ भी। कृति-परिचय- वाग्भट की प्रस्तुत अमर कृति- 'वाग्भटालङ्कार', जिसका अपर नाम 'अलङ्कारसूत्र' भी है, पाँच परिच्छेदों में विभक्त है। मुद्रित प्रति के अनुसार पाँचों परिच्छेदों की पद्य संख्या क्रमश: २६+२९+ १८+१५४+३३= कुल २६० है। ओजो गुण के गद्यात्मक उदाहरणों की गणना को छोड़ दिया जाये तो पद्य संख्या २५९ ही रह जाती है। पर जयपुर और देहली की हस्तलिखित प्राचीन मूल प्रतियों के मिलान करने पर ज्ञात हुआ कि आमेर शास्त्र-भण्डार, जयपुर की एक मूल प्रति (लेखन काल वि०सं० १७७३) तथा नया जैन मन्दिर देहली की मूल प्रति (लेखन काल वि० सं० १८७१) में छ: पद्य (३.९; ४.६५; ४.९६; ४.१५०; ५.४; ५.३०) नहीं हैं, एवं आमेर शास्त्र-भण्डार जयपुर की अज्ञात लेखनकाल दूसरी प्रति में, जो अधिक प्राचीन प्रतीत होती है, उक्त छ: के अतिरिक्त एक पद्य (४.२९) और भी नहीं है। इस तरह इन प्रतियों के आधार पर पद्य संख्या और भी कम (२५४ या २५३) ही रह जाती है। उक्त देहली की प्रति में एक पद्य (४.९६) के साथ उसका पाठान्तर' भी उपलब्ध है। प्रतिपाद्य विषय- (१. परि०-) मङ्गलाचरण के पश्चात् काव्य का फल, कविता की सामग्री, कविता के कारण, कारणों के लक्षण, छन्दों के अभ्यास का उपाय. रचना की चारुता के हेतु, काव्य-रचना की विधि, कवियों की रूढ़ियाँ, (२. परि०-) काव्य की भाषाएँ, पद-वाक्य-वाक्यार्थ दोष, (३. परि०-) काव्य के दस गुण, (४. परि०-) चार शब्दालङ्कार, पैंतीस अर्थालङ्कार एवं उनके भेद-प्रभेद, (५. परि०-) नव रस और नायक-नायिकाएँ– इन विषयों का प्रतिपादन करके 'दौषरुज्झित...' इत्यादि उपसंहारात्मक सुन्दर पद्य के साथ प्रस्तुत कृति परिसमाप्त है। विशेषता- प्रस्तुत कृति की सबसे बड़ी विशेषता है सरलता। उपलभ्य अलङ्कार साहित्य में इससे अधिक सरल पुस्तक अभी तक प्रकाश में नहीं आयी। यों पीयूषवर्ष जयदेव का 'चन्द्रालोक' सरल है, पर उसकी सरलता अलङ्कार-प्रकरण से आगे नहीं पायी जाती। 'चन्द्रालोक' के प्रारम्भिक कतिपय पद्य यह बतलाते हैं कि पीयूषवर्ष के मन में वाग्देवतावतार काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट के प्रति तनिक-सी भी आस्था नहीं थी, पर 'वाग्भटालङ्कार' को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके लेखक के मन में मम्मट के प्रति गहरी आस्था रही। इस दृष्टि से 'चन्द्रालोक' की अपेक्षा 'वाग्भटालङ्कार' की प्रामाणिकता अधिक है। प्रामाणिक सिद्धान्तों का खण्डन करने वाला अप्रामाणिक और मण्डन करने वाला प्रामाणिक माना जाना चाहिए। यदि फूंक से पहाड़। नहीं उड़ाया जा सकता तो प्रमाणसिद्ध सिद्धान्त का भी खण्डन नहीं किया जा सकता। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यों के पूर्व भाग में लक्षणों और उत्तर भाग में उनके उदाहरणों का निरूपण करना 'चन्द्रालोक' की सबसे बड़ी विशेषता है, जो यत्र-तत्र वाग्भटालङ्कार में भी दृष्टिगोचर होती है। जैसे यद् यत्रानुचितं तद्धि तत्र ग्राम्यं स्मृतं यथा। छादयित्वा सुरान् पुष्पैः पुरो धान्यं क्षिपाम्यहम्।।२.१५ जो पद जहाँ अनुचित हो, उसका वहाँ प्रयोग करना ‘ग्राम्य' दोष है। जैसे कोई ग्रामीण व्यक्ति कह रहा है कि मैं देवों (देव-प्रतिमाओं) को फूलों से ढककर उनके आगे धान्य फेंक दिया करता हूँ। अपक्रमं भवेद् यत्र प्रसिद्धक्रमलंघनम्। यथा भुक्त्वा कृतस्नानो गुरून् देवांश्च वन्दते।। २.२२ -जिस वाक्य में (लौकिक, शास्त्रीय या दोनों के) प्रसिद्ध क्रम का उल्लंघन वर्णित हो, उसमें 'अपक्रम' दोष होता है। जैसे कोई व्यक्ति भोजन करके स्नान करे, फिर गुरुवन्दन के उपरान्त देववन्दन करता है- यह वर्णन। क्रम से स्नान, देववन्दना, गुरुवन्दना और भोजन करना- यह लौकिक तथा शास्त्रीय क्रम है। उसका उल्लंघन यहाँ वर्णित है, अत: ‘अपक्रम' दोष है। लक्षणों और उदाहरणों में प्रयुक्त छन्द- वाग्भट ने अपनी इस कृति के केवल एक (४.१५०) को छोड़कर शेष सभी लक्षणात्मक पद्यों की रचना अनष्टप् छन्द में और उदाहरणात्मक पद्यों की रचना अनुष्टुप्, आर्या, इन्द्रवज्रा, उपजाति, भ्रमरविलसित, मणिगुणनिकर, मालिनी, वसन्ततिलका, व्रीड़ा, शार्दूलविक्रीडित, शालिनी, शिखरिणी, सोमराजी और हरिणीप्लुता आदि विविध छन्दों में की है। उदाहरणों में कतिपय पद्य नेमिनिर्वाण आदि के भी हैं। उदाहरणों में संस्कृत पद्यों के साथ प्राकृत पद्य भी हैं। इससे स्पष्ट है कि वाग्भट अनेक भाषाओं और विषयों में निष्णात थे। संस्कृत टीकाएँ-- वाग्भटालङ्कार पर सिंहदेवगणि, सोमदेवगणि, राजहंस, ज्ञानप्रमोदगणि, जिनवर्धनसूरि, समयसुन्दरगणि, क्षेमहंसगणि, आचार्य वर्धमानसूरि, मुनि कुमुदचन्द्र, मुनि साधुकीर्ति, अज्ञातनामा मुनि, वादिराज, प्रमोदमाणिक्यगणि, गणेश और कृष्णवर्मा - इन प्राचीन श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं जैनेतर विद्वानों के अतिरिक्त आधुनिक विद्वानों ने भी संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं। * व्यापक प्रचार और प्रभाव- जहाँ तक मैं जानता हूँ जैन अलङ्कार साहित्य में इतनी अधिक टीकाएँ वाग्भटालङ्कार को छोड़कर अन्य किसी ग्रन्थ पर नहीं लिखी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ गयीं। अलङ्कारचिन्तामणि, काव्यानुशासन (अभिनववाग्भट-कृत) और किरात आदि अनेक जैनेतर महाकाव्यों की संस्कृत टीकाओं में प्रस्तुत कृति के अनेक पद्य प्रमाणरूप से उद्धृत मिलते हैं। इससे प्रस्तुत कृति के व्यापक प्रचार और प्रभाव का आभास मिलता है। सन्दर्भ १. सोलङ्की नरेशों की वंशावली में जयसिंह के पिता का नाम कर्णदेव लिखा मिलता है। – चौलुक्यकुमारपाल' (ज्ञानपीठ प्रकाशन) पृष्ठ ६६. दुर्गाशङ्कर शास्त्री- 'गुजरातनो मध्यकालीन राजपूत इतिहास', पृष्ठ २५५ तथा लक्ष्मीशङ्कर व्यास, चौलुक्यकुमारपाल, पृष्ठ ६८. नाथूराम प्रेमी - 'जैन साहित्य और इतिहास', पृष्ठ ३२६-३३१ तथा कीथ- 'संस्कृत साहित्य का इतिहास', पृष्ठ ६४५ (डॉ० मङ्गलदेव शास्त्री द्वारा अनूदित, मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन)। ३. एक बड़े राज्य के महामात्य, महाकवि और महान् विद्वान् होने पर भी म (वाग्भट) की जीवन-गाथा बड़ी करुण है। इन्हें अपने महामात्यत्व का महामूल्य चुकाना पड़ा है। इनकी एक पुत्री थी, परमविदुषी, परमसुन्दरी और अपने पिता के सदृश कविप्रतिभाशालिनी। जब वह विवाह योग्य हुई तो उसे बलात् इनसे छीनकर (राजा जयसिंह के) राजप्रासाद की शोभा बढ़ाने के लिए भेज दिया गया। न वाग्भट इसके लिए तैयार थे और न कन्या। पर 'अप्रतिहता राजाज्ञा' के सामने दोनों को सिर झुकाना पड़ा। विदाई के समय की कन्या की इस उक्ति को जरा देखिए। कैसा चमत्कार है, तबियत फड़क उठती है। राजाप्रासाद के लिए प्रस्थान करते समय कन्या अपने रोते हुए पिता को सान्त्वना देते हुए कह रही है 'तात वाग्भट! मा रोदिहि कर्मणां गतिरीदृशी। दृष् धातोरिवास्माकं गुणो दोषाय केवलम्।।' व्याकरणप्रक्रिया के अनुसार दुष् धातु के गुण होकर 'दोष' पद बनता है। दुष् धातु के गुण का परिणाम ‘दोष' है। इसी प्रकार हमारे सौन्दर्य गुण का परिणाम यह अनर्थ है और अत्याचार रूप दोष है। इसलिए हे तात! आप रोइये नहीं, यह तो हमारे कर्मों का फल है कि दुष् धातु के समान हमारा गुण भी दोषजनक हो गया। - आचार्य विश्वेश्वर, काव्यप्रकाश, प्रस्तावना, पृष्ठ ८०. . ४. आमेर शास्त्रभण्डार, जयपुर की सर्वाधिक प्राचीन प्रति के प्रत्येक पत्र पर बांई ओर 'अलङ्कारसूत्रम्' लिखा मिलता है और सिंहदेवगणि ने इसकी संस्कृत टीका Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . के प्रारम्भ में प्रस्तुत कृति के पद्यों को 'अलङ्कारसूत्र' लिखा है-- 'वाग्भटकवीन्द्ररचितालंकृतिसूत्राणि किमपि विवृणोमि। मुग्धजनबोधहेतोः स्वस्य स्मृतिजननवृद्धयै च।।' चिन्तयति न चूतलत्तां याति न जातिं न केतकों क्रमते। कमललतालग्नमाना मधुपयुवा केवलं क्वणति।। ६. जयपुर की प्राचीन प्रति के अनुसार यह पद्य प्रक्षिप्त है। ७. द्रष्टव्य- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृष्ठ १०६-१०८। 3 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टाकलङ्कदेव रचित तत्त्वार्थवार्तिक* तत्त्वार्थसूत्र जैनों का प्रथम संस्कृत ग्रन्थ है। इसके प्रणेता आचार्य गृद्धपिच्छ हैं। जिस तरह हिन्दुओं में गीता की, ईसाइयों में बाइबिल की और यवनों में कराण की मान्यता है, उसी तरह जैनों में इस ग्रन्थ की है। इसके श्रवण करने मात्र से श्रोता को एक उपवास का फल मिलता है। दशलक्षणपर्व की पुण्यबेला में प्रवचन का मुख्य विषय यही रहता है। यह प्राकृत जैन वाङ्मय का सार, जैन धर्म का हृदय और जैन दर्शन का प्रवेशद्वार है। इस ग्रन्थ का मुख्य नाम तत्त्वार्थ है, क्योंकि इसमें तत्त्वार्थ- जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- इन सात तत्त्वों का निरूपण है। पर सूत्र शैली में लिखे जाने से इसका तत्त्वार्थसूत्र नाम पड़ा। इसके दो नाम और भी हैंमोक्षशास्त्र और निश्रेयसशास्त्र, यद्यपि इन दोनों का अभिप्राय एक ही है। मोक्ष या निश्रेय के मार्ग- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का-प्रतिपादन करने से वे दोनों नाम पड़े। इसके प्रारम्भ के चार अध्यायों में जीवतत्त्व का, पञ्चम में अजीव तत्त्व का, षष्ठ और सप्तम में आस्रवतत्त्व का, नवम में संवर तथा निर्जरा का और अन्तिम अध्याय में मोक्ष तत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र- इन आत्मा के श्रेष्ठ गुणों का, प्राणि जगत् का, भूगोल का, खगोल का, व्रतों का और कर्मों का आकर्षक वर्णन है। मानव का उत्थान सद्गुणों और पतन दुर्गुणों से होता है- इस पर इस ग्रन्थ में जो प्रकाश डाला गया है, वह द्रष्टव्य है तथा किसी भी सहदय गुणग्राही पाठक के हृदय को हरण करने वाला है। इसके 'मोक्षमार्गस्यनेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये।' इस मङ्गलाचरण को लेकर आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा और आचार्य विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा ग्रन्थ की रचना की। प्रमाणनयैरधिगम : १-६ सूत्र को आधार बनाकर भट्टाकलङ्कदेव ने अपने लघीयस्त्रय ग्रन्थ के प्रमाण प्रवेश और नय प्रवेशये दो प्रकरण रचे एवं अभिनव धर्मभूषणयति ने न्यायदीपिका प्रकरण ग्रन्थ की रचना की। *. जैन सन्देश, शोधाङ्क १९, जुलाई १९६४ से साभार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ इसे क्या दिगम्बर और श्वेताम्बर सभी मानते हैं । इसीलिये इन दोनों सम्प्रदायों के मूर्धन्य प्रतिभाशाली आचार्यों ने इस ग्रन्थ पर संस्कृत में बड़ी-बड़ी टीकायें लिखी हैं। दिगम्बर आचार्यों में समन्तभद्र, पूज्यपाद, भट्टाकलङ्कदेव, विद्यानन्द, भास्करनन्दी, श्रुतसागर, विबुध सेनचन्द्र, योगीन्द्रदेव, लक्ष्मीदेव और अभयनन्दी आदि प्रमुख हैं तथा श्वेताम्बर आचार्यों में उमास्वाति, सिद्धसेन, हरिभद्र, देवगुप्त, मलयगिरि, चिरन्तनमुनि, वाचक यशोविजय और गणि यशोविजय आदि । इनके अतिरिक्त अनेक मनीषियों ने कन्नड़, हिन्दी और गुजराती आदि अनेक प्रान्तीय और अंग्रेजी आदि पाश्चात्य भाषाओं में टीकाएँ लिखी हैं। इससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी ग्रन्थ पर सातवीं-आठवीं शताब्दी में भट्टाकलङ्कदेव ने, जिन्हें केवल एक बार पढ़ लेने से कोई ग्रन्थ कण्ठस्थ हो जाता था, एक वार्त्तिक ग्रन्थ लिखा, जिसका नाम तत्त्वार्थवार्त्तिक रखा जो बाद में राजवार्त्तिक के नाम से प्रख्यात हुआ। इसमें तत्त्वार्थसूत्र के ३५५ सूत्रों में से इधर-उधर के सरलतम केवल २७ सूत्रों को छोड़कर शेष सभी पर गद्यवार्त्तिकों की रचना की गई, जिनकी संख्या दो हजार छह सौ सत्तर है। इन वार्त्तिकों में सूत्रकार के सूत्रों पर जिन विप्रतिपत्तियों की कोई कभी थोड़ी सी श्री कल्पना कर सकता था, उन सभी का समुचित निराकरण करके भट्टाकलङ्कदेव द्वारा ग्रन्थकार गृद्धपिच्छ के हृदय में प्रविष्ट होकर उनके ग्रन्थ का रहस्य खोला गया है। पर इन वार्त्तिकों में कहीं कम और कहीं अधिक गूढ़ता छिपी हुई थी। इसी को दूर करने के लिए वार्त्तिककार भट्टाकलङ्कदेव ने वार्त्तिकों पर वृत्ति की रचना की जा आवश्यकतानुसार कहीं संक्षिप्त और कहीं विस्तृत है। इसका धवला और न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थों में भाष्य के रूप में उल्लेख किया गया है। भट्टाकलङ्कदेव ने अष्टशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लघीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रह - इन पाँच अन्य ग्रन्थों की भी रचना की तथा इनमें से कुछ पर विवरण भी लिखे। पर इन सभी ग्रन्थों तथा विवरणों की संस्कृत क्लिष्ट है। यदि विद्यानन्द ने अष्टशती पर अष्टसहस्री नाम की टीका न लिखी होती तो विद्वानों को अष्टशती का अर्थ समझना टेढ़ी खीर हो जाता है । पर प्रस्तुत भाष्य की संस्कृत उक्त सभी ग्रन्थो से सर्वथा विपरीत — अत्यन्त सरल है। भाष्य लिखने की परम्परा ही ऐसी रही जो वे सरल संस्कृत में लिखे जाते थे। पातञ्जल महाभाष्य, शाबरभाष्य और न्यायभाष्य आदि इसी ढंग से लिखे गये । प्रस्तुत भाष्य की सरलता का अनुमान इसकी इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है 'संसारिणः पुरुषस्य सर्वेस्वर्थेषु मोक्षः प्रधानम् प्रधाने च कृतो यत्नः फलवान् भवति। तस्मात्तन्मार्गोपदेशः कार्यः तदर्थत्वात् । ' १ - १ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ भट्टाकलङ्कदेव की मौलिक प्रतिभा का निदर्शन है। इसके देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि भट्टाकलङ्कदेव व्याकरण, साहित्य, कोष, आगम तथा सभी दर्शनों के मर्मज्ञ थे। प्रस्तुत ग्रन्थ के रचने में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र शैली का उपयोग किया है। किसी भी सूत्र पर भाष्य लिखते समय वे उसके कुछ क्लिष्ट एवं श्लिष्ट पदों के अनेक अर्थ बतलाकर उनमें से किसी एक विवक्षित अर्थ को निश्चित करते हैं कि यहाँ यही अर्थ है। जैसे- 'सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च' १-८ इस सूत्र में सत् के चार अर्थ हैं- १. प्रशंसा, २. अस्तित्व, ३ प्रतिज्ञा और ४. आदर। इन चारों से यहाँ अस्तित्व अर्थ ही विवक्षित है। 'रूपिष्वधेः' १-२७ सूत्र में रूप के दो अर्थ हैं- १. रंग और २. स्वभाव। यहाँ पहला अर्थ ही विवक्षित है। विशिष्ट शब्दों की व्युत्पत्तियाँ भी प्रस्तुत ग्रन्थ में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती हैं। सूत्रों का उल्लेख करते समय पूज्यपादकृत जैनेन्द्रव्याकरण को प्रमुखता दी गई है। सर्वार्थसिद्धि की भाँति इस भाष्य में भी परिष्कृत लक्षणों का निर्माण किया गया है। किसी भी प्रश्न का उत्तर देते समय युक्ति, आगम और अनेकान्त का आश्रय लिया गया है। संस्कृत भाषा का प्रवाह आदि से अन्त तक एक जैसा दिखलाई पड़ता है। प्रस्तुत-ग्रन्थ में बिलकुल सरल रीति से प्रश्न उठाकर उनके उत्तर दिये गये हैं प्रश्न (पृष्ठ १)- ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्राणि मोक्षमार्गः' १-१ इस सूत्र में मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है जो उचित नहीं, पहले मोक्ष का स्वरूप बतलाना चाहिए था, बाद में उसके मार्ग पर प्रकाश डालना चाहिए था, पर सूत्रकार ने ऐसा नहीं किया, सो क्यों? उत्तर- मोक्ष के बारे में किसी को विवाद नहीं, क्योंकि मोक्ष को प्राय: सभी आस्तिक मानते हैं, पर उसके मार्ग के बारे में ही उन्हें विवाद है। पटना नगर के अस्तित्व में किसी को भी विवाद नहीं हो सकता, विवाद हो सकता है तो उसके मार्ग के बारे में; क्योंकि भिन्न-भिन्न दिशाओं में रहने वाले पटना पहुँचने का जो भी मार्ग बतलायेंगे उनमें भिन्नता होना स्वाभाविक है। कोई केवल दर्शन को, कोई केवल ज्ञान को और कोई केवल चारित्र को ही मोक्ष का मार्ग-उपाय मानते हैं। अतः सूत्रकार ने प्रथमत: मार्ग ही बतलाया है। सूत्रकार का यहाँ यह अभिप्राय है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र- इन तीन गुणों की एकता ही मोक्ष का मार्ग है। भिन्न रहकर वे मोक्ष के उपाय नहीं हो सकते। ये तीनों एक साथ हों तभी रोग मूल से जा सकता है। प्रश्न (पृष्ठ २)- पहले बन्ध होता है बाद में मोक्ष, अत: पहले बन्ध के कारण - बतलाने थे बाद में मोक्ष के। ऐसा क्यों नहीं किया गया? उत्तर- जैसे जेल में बन्द कैदी को वहाँ से छूटने के उपाय सुनते ही प्रसन्नता Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ होती है और उसे धैर्य बंधता है, उसी तरह अनादिकाल से इस संसार रूपी जेल में यातनाएँ सहने वाले व्यक्ति को यदि संसार से छूटने के उपाय बतलाये जायें तो वह प्रसन्न होगा और उसे ढाढस भी बंधेगा। बस, यही सोचकर सूत्रकार ने पहले बन्ध के कारण न बतलाकर मोक्ष के कारण बतलाये, बाद में आठवें अध्याय में बन्ध के कारण बतला दिये हैं। प्रश्न (पृष्ठ १९ ) – 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।' १ २ सूत्र में दर्शन का अर्थ श्रद्धान किया गया है। यह ठीक नहीं, क्योंकि दृशिर् धातु से दर्शन शब्द बनता है। यह धातु देखने के अर्थ में है, अतः व्याकरण की दृष्टि से यहाँ दर्शन का अर्थ देखना होना चाहिए न कि श्रद्धान् । उत्तर - यहाँ दर्शन का श्रद्धान् अर्थ ही विवक्षित है, न कि देखना। यदि देखना ही मोक्ष का कारण हो तो सभी चतुरिन्द्रिय और सभी पञ्चेन्द्रिय जीव देखते हैं, अतः इन सभी को मोक्ष हो जाना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता और न हो भी सकता है। प्रकरण के अनुसार ही शब्दों के अर्थ लगाये जाते हैं- 'यादृशं प्रकरणं तादृशोऽर्थः । ' वहाँ व्याकरण की दृष्टि से विरोध हो सो भी बात नहीं; क्योंकि व्याकरण में धातुओं के अनेक "अर्थ देखे जाते हैं। जैसे— अव धातु अठारह अर्थों में प्रयुक्त होता है, हन् धातु दो अर्थों में प्रयुक्त होता है, इसी तरह एक दो नहीं सैकड़ों धातुएँ हैं, जिनका प्रयोग अनेक अर्थों में होता है । दृशिर्, धातु देखने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, यह ठीक है, पर इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि इसके और अर्थ कभी हो ही नहीं सकते। 'सतं द्रष्टुं याति' यहाँ दृशिर् धातु मिलने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अंग्रेजी में भी टू सी का अर्थ मिलना होता है। अतः प्रकरण के अनुसार यहाँ दर्शन का श्रद्धान ही अर्थ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक ऐसे भी विषय हैं, जिन पर भट्टाकलङ्कदेव ने पहली बार प्रकाश डाला है और जो निश्चय ही उनकी देन है सप्तभङ्गी का परिष्कृत स्वरूप – 'प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी । (पृष्ठ ३३) प्रश्न के अनुसार किसी एक ही वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधि और प्रतिषेध की कल्पना (विवक्षा करना ) सप्तभङ्गी है। स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है । जगत् के किसी भी पदार्थ को देखें, उसमें अनेक धर्म मिलेंगे। भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से उन्हीं अनेक धर्मों का एक ही वस्तु में कथन करना स्याद्वाद है। एक ही मनुष्य अपने पिता की अपेक्षा पुत्र, अपने पुत्र की अपेक्षा पिता, अपनी पत्नी की अपेक्षा पति, अपने भानजे की अपेक्षा मामा और अपने मामा की अपेक्षा भानजा है। इसी तरह और भी अगणित सम्बन्धों की दृष्टि से उसमें अगणित धर्म सिद्ध Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ हो सकते हैं। यों पुत्रत्व, पितृत्व, पतित्व, मातुलत्व और भागिनेयत्व आदि धर्म परस्परविरोधी हैं, पर विवक्षा की दृष्टि से वे एक ही मनुष्य में सिद्ध हो जाते हैं। इसी कथन को स्याद्वाद कहते हैं। यह कथन सप्तभंगी के माध्यम से ही हो सकता है। अतएव स्याद्वाद के साथ सप्तभंगी का होना नितान्त आवश्यक है। यों सात भंगों का निर्देश आचार्य कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकाय और प्रवचनसार में और आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में भी किया है, किन्तु सप्तभंगी का परिष्कृत स्वरूप प्रथमत: भट्टाकलंकदेव ने ही किया है। भारतवर्ष शास्त्रार्थियों का गढ़ रहा है। यहाँ जितने भी दर्शन हैं, सब-के-सब परस्पर विरोधी हैं। जिस वस्तु को सांख्य दर्शन नित्य बतलाता है उसी को बौद्धदर्शन अनित्य। शास्त्रार्थ के समय सभी अपने पक्ष को सही और विपक्षी के पक्ष को गलत सिद्ध किया करते थे। फलत: बड़े-बड़े संघर्ष होते रहते थे, जिनमें अनेक मनीषियों को अपमान सहना पड़ता था और उन्हें मृत्यु तक का शिकार होना पड़ता था इसी हिंसा को दूर करने के लिये जैन दर्शन में स्याद्वाद को स्थान दिया गया। __ यदि सभी मनुष्य एक दूसरे की दृष्टि को समझने का प्रयत्न करें तो उनमें संघर्ष की नौबत ही नहीं आ सकती। माना कि नित्य और अनित्य में विरोध है, पर यह नहीं माना जा सकता कि उनमें इतना विरोध है कि वे एक वस्तु में रह ही नहीं सकते। जैसे घड़ें के बारे में ही सोचा जाय तो वह नित्य भी है और अनित्य भी। यहाँ दोनों भी एक के स्थान में ही कर दिया जाय तो अवश्य ही विरोध प्रतीत होने लगेगा, जो झगड़े की जड़ है। घड़े की अवस्था बदल जाती है, अत: वह अनित्य है। किसी का पैर लग जाय या किसी के हाथ से छूटकर गिर जाय तो उसके टुकड़े हो जायेंगे। इन टुकड़ों को घड़ा नहीं कहा जा सकता, कपाल कहा जा सकता है, अत: घड़ा अनित्य है। पर घड़ा पुद्गल द्रव्य से बना हुआ है, फूट जाने पर भी वह पुद्गल बना रहता है। अत: नित्य है। एक ही पहाड़ी मार्ग से परस्पर विरुद्ध दिशाओं में जाने वाले दो व्यक्तियों को उसका दो प्रकार का अनुभव होगा। जो ऊँचाई की ओर जा रहा है, उसे यह अनुभव होगा कि इस मार्ग में चढ़ाव-ही-चढ़ाव है और जो नीचे की ओर जा रहा है, उसे यह अनुभव होगा कि इस मार्ग में उतार ही उतार है। ऊँचाई और नीचाई में भले ही हम विरोध समझें पर वे रहती हैं एक ही मार्ग में। इसी तरह प्रत्येक पदार्थ में अपेक्षा भेद से अनेक धर्मों का प्रतिपादन करना स्याद्वाद का काम है। इसका रहस्य इतना ही है कि एक वस्तु के बारे में अनेक व्यक्तियों को दृष्टिभेद से जो अनेक प्रकार के अनुभव होंगे, वे भले ही आपस में विरुद्ध हों, पर हैं तो एक ही वस्तु के, अत: उन सभी - में समन्वय की भावना रखनी चाहिए। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सातों भङ्गों का प्रयोग करते समय आपाततः विरोध भले ही प्रतीत हो, पर उसे विरोधाभास सरीखा ही जानना चाहिए ___ 'तत्र स्वात्मना स्याद् घट: परात्मना स्याद् अघटः।' (पृष्ठ ३३) इसका अभिप्राय इतना ही है कि घड़ा अपने स्वरूप की दृष्टि से घड़ा है न कि कपड़े के स्वरूप की दृष्टि से। इसी को सरल शब्दों में यों कह सकते हैं कि यह घड़ा है, न कि कपड़ा। 'स्याद् घटोऽस्ति' इस प्रथम तथा 'स्याद् घटो नास्ति' इस द्वितीय भङ्ग का यही निष्कर्ष है। यदि 'स्याद् घटोऽस्ति' और 'स्याद् घटो नास्ति' इन दोनों भङ्गों को एक ही साथ कहना चाहें तो नहीं कह सकते, ऐसी अवस्था में घड़ा अव्यक्तव्य हो जाता है। 'स्याद अस्ति' 'स्याद् नास्ति' और स्याद् अवक्तव्य- ये तीन मूल भङ्ग हैं। इन्हीं के संयोग से चार भङ्ग और हो जाते हैं- 'अस्ति नास्ति', 'अस्ति अव्यक्तव्य', 'नास्ति अवक्तव्यम्' और 'आस्ति नास्ति अव्यक्तव्य'। इन चारों में तीन द्विसंयोगी और अन्तिम त्रिसंयोगी हैं। इन सातों भङ्गों का प्रयोग लोकव्यवहार में आज भी हो रहा है, पर इस ओर हमारा ध्यान न जाय, यह बात ही अलग है। इसे यों समझा जा सकता है- एक व्यक्ति पुरानी खांसी का मरीज है। उसे उसका एक मित्र किसी अच्छे वैद्य के पास लिवा ले जाता है और उसे खांसी की दवा दिलवा देता है। सुबह, दोपहर और शाम को एक-एक खुराक अपने सामने खिलाकर वह अपने घर चला जाता है। अगले दिन सबेरा होते ही वह अपने मित्र के पास जाकर उससे लाभ-अलाभ के बारे में पूछता है। पूछने पर वह उत्तर देता है--- १. कुछ लाभ हुआ; क्योंकि रात्रि के एक बजे तक खूब सोया। २. एक बजे से सबेरे तक खूब खांसी उठी, अत: विशेष लाभ नहीं हुआ। ३. अभी विशेष नहीं कह सकता। ४. कुछ लाभ हुआ भी है और कुछ नहीं भी। ५. कुछ लाभ हुआ है, किन्तु अभी विशेष कुछ नहीं कह सकता। ६. विशेष लाभ नहीं हुआ फिर भी अभी विशेष कुछ नहीं कह सकता। ७. कुछ लाभ हुआ भी है, कुछ नहीं भी हुआ तो भी अभी विशेष कुछ नहीं कह सकता। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो खांसी के मरीज ने उत्तर देते समय सातो भङ्गो का क्रम से उपयोग किया है। कुछ लोग यह सोचते हैं कि स्याद्वाद-सिद्धान्त केवल वाक्छल है। किन्तु यह सोचना ठीक नहीं; क्योंकि वाक्छल में दूसरों को छकाने का ही प्रयत्न होता है। जैसे 'नव कम्बलोऽयं देवदत्त:' देवदत्त के पास नया कम्बल है। यहाँ नव का अर्थ नया है। यदि कोई यहाँ नव का नौ अर्थ करे और यह कहे कि देवदत्त के पास चार भी कम्बल नहीं हैं, नौ कैसे बतला रहे हैं? --- यह वाक्छल है। स्याद्वाद का सिद्धान्त इससे सर्वथा भिन्न है। स्याद्वाद वस्तु के धर्मों का निश्चित रूप से प्रतिपादन करता है, किसी को छकाता नहीं। जहाँ भी वाक्छल का प्रयोग होता है, वक्ता के अभिप्राय को बदलने के लिये उसके शब्दों का कुछ का कुछ अर्थ कर दिया जाता है। पर स्याद्वाद में यह बात नहीं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बजे रात तक गहरी नींद आने से मरीज यह कहता है कि कुछ लाभ हुआ और फिर जब उसका ध्यान एक बजे के बाद की स्थिति पर जाता है तो वह यह भी कहता है कि विशेष लाभ नहीं हुआ- ये दोनों उत्तर भले ही परस्पर विरुद्ध प्रतीत हों, पर वक्ता के अनुभव को ठीक-ठीक बतलाने के कारण बिलकुल सही हैं। इसी तरह अनेकान्तवाद के ऊपर और भी जो दूषण लगाये जाते थे, भट्टाकलङ्कदेव ने उन सभी का युक्तिपूर्वक निरसन किया है। अनेकान्त में सप्तभङ्गी की योजना एकान्त के सम्यगेकान्त तथा मिथ्र्यकान्त और अनेकान्त के सम्यगनेकान्त और मिथ्यानेकान्त- ये भेद, सिद्धसेन द्वारा स्वीकृत मति-श्रुत के अभेद की आलोचना, प्रत्यक्ष परोक्ष के परिष्कृत लक्षण, बारह अङ्गों का स्वरूप, अवधिज्ञान के छह भेदों का स्पष्ट विवेचन, साधारण पारिणामिक भावों का कथन, लक्षण के आत्मभूत और अनात्मभूत- ये भेद, आर्यों और म्लेछों के उत्तर भेद, लेश्याओं के अंशों का निरूपण, सकलादेश और विकलादेश के लक्षण, स्यात्कार का प्रयोजन, काल आदि आठ के आधार से क्रम और योगपद्य का कथन, क्रिया-मात्र ही काल है, इसकी समालोचना- आदि अनेक विषय प्रस्तुत ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होते हैं, जो अकलङ्कदेव की देन हैं। तत्त्वार्थसूत्र के किसी भी सूत्र का ठीक-ठीक रहस्य प्रस्तुत ग्रन्थ के बिना ज्ञात नहीं हो सकता। प्रतिभाशाली मनीषिमूर्धन्य स्व० डाक्टर महेन्द्रकुमार जी के सुन्दर सम्पादन तथा हिन्दी सार के कारण यह ग्रन्थ सभी के लिये उपादये हो गया है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य अजितसेन और उनकी अमरकृति 'अलङ्कारचिन्तामणिः'* - - (लक्षण ग्रन्थों में प्रमुख पाँच सम्प्रदायों की चर्चा आती है- (१) रस, (२) अलङ्कार, (३) रीति, (४) वक्रोक्ति, (५) और ध्वनि। इनके प्रवर्तक है क्रमश: (१) भरत, (२) भामह, (३) वामन, (४) कुन्तक और (५) आनन्दवर्धन। अजितसेन ने अपने ग्रन्थ में इन पाँचों का समन्वय किया है, जैसा कि उनके काव्यलक्षण से स्पष्ट है। - सं०) भारतीय साहित्य में अलङ्कारशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राजशेखर के मत में अलङ्कारशास्त्र वेदों का सातवाँ अङ्ग है। अलङ्कारों के स्वरूप को जाने बिना वेदों को अर्थ समझ में नहीं आ सकता। ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर अब तक इस शास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले लगभग सात सौ ग्रन्थ रचे जा चुके हैं। जैन आचार्यों ने भी अनेक ग्रन्थ रचकर इस शास्त्र के महत्त्व को बढ़ाया है। आचार्य अजितसेन उन्हीं में से एक हैं। इन्होंने 'अलङ्कारचिन्तामणिः' नामक एक श्रेष्ठ ग्रन्थ की रचना की है। रचयिता के नाम में भ्रम- स्वर्गीय श्री रावजी सखाराम जी दोशी ने इस ग्रन्थ को पहली बार शोलापुर से प्रकाशित किया था। इस मुद्रित प्रति के मुख पृष्ठ पर 'अलङ्कार चिन्तामणिः, भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीतः' छपा है, जो गलत है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रणेता महापुराणकार भगवज्जिनसेनाचार्य नहीं हो सकते; क्योंकि इसमें हरिचन्द्र, वाग्भट, जयदेव और अर्हद्दास आदि अनेक अर्वाचीन आचार्यों के श्लोक उद्धृत हैं। पृष्ठ चौवालीस की पहली पंक्ति में ग्रन्थकार ने अपना नाम दिया है। 'अत्रैकाद्यङ्कक्रमेण पठिते सति अजितसेनेन कृतचिन्तामणि....' प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में परिशिष्ट पृष्ठ दस में भी जो चक्रबन्ध प्रकाशित है, उसमें भी अजितसेन लिखा हुआ है। अत: यह निश्चित है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक अजितसेन हैं, भगवज्जिनसेन नहीं। रचना काल-प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन मनीषियों के श्लोक उद्धृत हैं, उनमें महाकवि अर्हद्दास भी हैं। इनका निश्चित समय विक्रम की चौदहवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग है। इन्होंने अपने 'मुनिसुव्रतकाव्यम्' 'पुरुदेवचम्पू:' और 'भव्यजनकण्ठाभरणम्' इन तीनों ग्रन्थों में पण्डित आशाधर का उल्लेख किया था। अत: अर्हद्दास का समय विक्रम *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की चौदहवीं शताब्दी का प्रथम चरण माना गया है। इनके ‘मुनिसुव्रत काव्यम्' के प्रथा सर्ग का चौंतीसवाँ श्लोक यत्रावित्वं फलिताटवीषु पलाशिताद्रौ कुसुमें परागः। निमित्तमात्रे पिशुनत्व मासीनि रौष्ठ्यकाव्येष्वपवादिता च।। प्रस्तुत ग्रन्थ के पृष्ठ एक्कानवे पर उद्धृत है। अत : अजितसेन ने 'अलङ्कार चिन्तामणि' की रचना अर्हद्दास के बाद की थी, यह निश्चित है। जब तक और प्रमाण नहीं मिलते तब तक अजितसेन का समय विक्रम की चौदहवीं शताब्दी का मध्यभाग माना जाना चाहिए। आभ्यन्तर परिचय- प्रस्तुत ग्रन्थ पाँच परिच्छेदों में विभाजित है। पहला परिच्छेद सबसे छोटा है। इसमें कुल एक सौ तीन श्लोक हैं। उनमें कविता करने के उपाय एवं कवि बनाने वाले को शिक्षा दी गई है। समस्यापूर्ति कैसे की जाय, इस पर भी कुछ प्रकाश डाला गया है। दूसरे परिच्छेद में शब्दालङ्कार के चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक के चार भेद बतलाकर चित्रालङ्कार का विस्तार से वर्णन किया है। तीसरे परिच्छेद में वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। चौथे परिच्छेद में उपमा, अन्वय, उपमेयोपमा, स्मृति, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान्, अपह्नव, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, अतिशय, सहोक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, व्याजोक्ति, मीलन, सामान्य, तद्गुण, असद्गुण, विरोध, विशेष, अधिक, विभाव, विशेषोक्ति, असङ्गति, चित्र, अन्योन्य, तुल्य योगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदर्शना, व्यतिरेक, श्लेष, परिकर, आक्षेप, व्याजस्तुति, अप्रस्तुतस्तुति, पर्यायोक्त, प्रतीप, अनुमान, काव्यलिङ्ग, अर्थान्तरन्यास, यथासंख्य, अर्थापत्ति, परिसंख्या, उत्तर, विकल्प, समुच्चय, समाधिक, भाविक, प्रेय, रस्य, ऊर्जस्वी, प्रत्यनीक, व्याघात, पर्याय, सूक्ष्म, उदात्त, परिवृत्ति, कारणमाला, एकावली, मालादीपक, सार, संसृष्टि और सङ्कर इस तरह कुल सत्तर अर्थालङ्कारों का विस्तार से वर्णन किया है। पाँचवें परिच्छेद में नौ रस, चार रीति, दो पाक-द्राक्षा और शय्या, शब्द का स्वरूप, शब्द के भेद- रूढ़, यौगिक और तन्मिश्र, तीन प्रकार के अर्थवाच्य, लक्ष्य और व्यंग्य, चार प्रकार की लक्षणा-जहल्लक्षणा, ऊजहलक्षणा, सारोपालक्षणा और साध्यवसाना लक्षणा, चार प्रकार की वृत्तियाँ- कौशिकी, आरभटी, सात्वती और भारती, पाब्दचित्र, अर्थ, चित्र, व्यङ्गयार्थ के परिचायक संयोगादि, गुण, दोष और अन्त में नायक-नायिका भेद-प्रभेद विस्तार से वर्णित हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में वक्रोक्ति अलङ्कार का वर्णन दो बार किया गया है। पहले तीसरे .. परिच्छेद में और फिर चौथे में। क्योंकि वक्रोक्ति दो प्रकार की होती है पहली शब्दशक्ति मूलक और दूसरी अर्थशक्तिमूलक। पहली का वर्णन तीसरे परिच्छेद में और दूसरी का Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथे में किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में वे सभी विषय आ गये हैं, जिनका वर्णन अलङ्कार शास्त्र में होता है। हाँ, दो विषय नहीं आ सके, पहला नाटक या दृश्य काव्य सम्बन्धी और दूसरा ध्वनि सम्बन्धी। पहला विषय क्यों छोड़ दिया, इसका हेतु ग्रन्थकार ने नहीं दिया, पर दूसरे के बारे में लिखा है कि विस्तृत होने से हम ध्वनि का निरूपण नहीं करेंगे'ध्वनि विशेषं न ब्रूमो विस्तरत्वात्', पृष्ठ – एक सौ चौबीस । ध्वनि के साथ 'विशेष' पद जुड़ा हुआ है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में अभिधा मूलक और लक्षणा मूलक ध्वनि के भेदों तथा उनके भी अवान्तर भेदों का वर्णन नहीं किया जायगा, पर सामान्य रूप से तो उनकी चर्चा की जायगी। प्रस्तुत ग्रन्थ के पञ्चम परिच्छेद में ग्रन्थकार ने काव्य के तीन भेद किए हैं(१) ध्वनि, (२) गुणीभूत व्यङ्गय और (३) चित्र । पहला उत्तम, दूसरा मध्यम और तीसरा अधम काव्य कहलाता है। वाच्यार्थ से व्यङ्ग्यार्थ के प्राधान्य होने पर 'ध्वनि ' व्यवहार होता है, वाच्यार्थ से व्यङ्ग्यार्थ के अप्राधान्य होने पर 'गुणीभूत व्यङ्गय' व्यवहार है और व्यङ्गार्थ के अस्फुट होने पर 'चित्र' व्यवहार होता है गौणागौणास्फुटत्वेभ्यो व्यङ्ग्यार्थस्य निगद्यते । काव्यस्य तु विशेषोऽयं त्रेधा मध्यो वरोऽधरः । । २७ व्यङ्ग्यस्यामुख्यत्वेन मध्यमकाव्यं गुणीभूतव्यङ्गयमित्युच्यते । प्राधान्ये उत्तमं काव्यं ध्वनिरितीष्यते। अस्फुटत्वेऽधमं तच्चित्रमिति निरूप्यते।' पृष्ठ — एक सौ तेईस । प्राचीन सम्प्रदायों का समन्वय - लक्षण ग्रन्थों में प्रमुख पाँच सम्प्रदायों की चर्चा आती है- (१) रस, (२) अलङ्कार, (३) रीति, (४) वक्रोक्ति और (५) ध्वनि । इनके प्रवर्तक हैं क्रमश:- (१) भरत, (२) भामह, (३) वामन, (४) कुन्तक और (५) आनन्दवर्धन। अजितसेन ने अपने ग्रन्थ में इन पाँचों का समन्वय किया है, जैसा कि उनके काव्य के लक्षण से स्पष्ट है — शब्दार्थालंकृतीद्ध नवरसकलितं रीतिभावाभिरामं व्यङ्गयाद्यर्थ विदोषं गुणगणकलितं नेतृसद्वर्णनाढ्यम् । लोकद्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात् काव्यमग्र्यंसुखार्थी नानाशास्त्रप्रवीणः कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोरुहेतुम्।। पृष्ठ एक प्रस्तुत ग्रन्थ के तीन अंश प्रस्तुत ग्रन्थ को तीन अशों में विभक्त किया जा "सकता है— पहला मूल कारिकाओं का अंश है, जिनमें लक्षण दिए गए हैं, दूसरा वृत्ति का अंश है, जिसमें कारिकाओं के कठिन विषय स्पष्ट किए गए हैं और तीसरा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंश है उदाहरणों का। उदाहरण प्राचीन जैन ग्रन्थों से लिए गए हैं। दो-चार उदाहरण जैनेतर ग्रन्थों से भी लिए गए जान पड़ते हैं। उदाहरणों के अन्वेषण में अजितसेन को घोर परिश्रम करना पड़ा है। अनेक अलङ्कारिकों ने पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कार ग्रन्थों को सामने रख कर उनके उदाहरणों की नकल टीपी है। इस पद्धति को विश्वनाथ कविराज ने भी अपनाया है, जो अठारह भाषाओं को जानते थे, कविराज विश्वनाथ ने काव्यप्रकाश को सामने रखकर साहित्यदर्पण का निर्माण किया था। अजितसेन ने इस पद्धति को अपनाना उचित नहीं समझा। प्रस्तुत ग्रन्थ की विशेषता- प्रस्तुत ग्रन्थ में आरम्भ से अन्त तक सरलता ओत-प्रोत है, जिससे पाठक को ग्रन्थ का हृदय समझने में कठिनाई का अनुभव नहीं करना पड़ता। सम्प्रति चन्द्रालोक, साहित्यदर्पण, काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक और रसगङ्गाधर इन पाँच ग्रन्थों का बहुत प्रचार है, किन्तु इनमें कवि शिक्षा तथा शब्दालङ्कारों का इतना सुन्दर वर्णन नहीं जितना अलङ्कारचिन्तामणि में अजितसेन ने किया है। उपमालङ्कार का विवेचन भी जो अजितसेन ने किया है वह उक्त पाँचों ग्रन्थों में नहीं मिलता। अलङ्कारशास्त्र के सभी ग्रन्थं एक दूसरे के पूरक हैं। अलङ्कारशास्त्र के अभ्यासी को अपनी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए सभी ग्रन्थ अध्येतव्य हैं। अलङ्कारचिन्तामणिके अध्ययन के बिना आलङ्कारिकों की अलङ्कारविषयक चिन्ता दूर नहीं हो सकती. कुछ विशेषताओं का उल्लेख कविता का अभ्यास- जो कविता करना चाहते हैं, वे पहले छन्दों का अभ्यास करें। प्रथमत: जो भी दृष्टि के सामने हो, उसी का वर्णन छन्दों में करना चाहिए। जैसे(१) अम्भोभिः सम्भृतः कुम्भः शोभते पश्य भोः सखे! । दभ्रः शुभ्रपटो भाति सितिमानं प्रपश्य भोः।। पृ. २ मित्र, देखो यह जल से भरा हुआ घड़ा कैसा सुन्दर लग रहा है। यह पतला सफेद वस्त्र सुशोभित हो रहा है। मित्र, इसकी सफेदी तो देखो। (२) वधु रमेव भातीयं नरो भाति स्मरो यथा। उखा भात्यन्नपूर्णेयं सखा भाति विधूपमः।। पृ. २ यह दुलहिन लक्ष्मी सरीखी प्रतीत हो रही है, दूल्हा कामदेव-सा लग रहा है, अन्न से भरी हुई बटलोई अच्छी लग रही है और मित्र चन्द्रमा की भाँति सुशोभित हो रहा है। (३) शय्योत्थितः कृतस्नानो वराक्षतसमन्वितः। गत्वा देवार्चनं कृत्वा श्रुत्वा शास्त्रं गृहं गतः।। पृ० २ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शय्या से उठकर उसने स्नान किया, फिर चावल लेकर वह देवालय में गया, वहाँ उसने देवपूजा की, इसके पश्चात् शास्त्र सुनकर वह अपने घर चला गया। प्रारम्भ में कविता करने वालों को बहुत कठिनाई प्रतीत होती है। इसे दूर करने के लिए अजितसेन ने बतलाया है कि पहले अनुष्टुप छन्द का अभ्यास करना चाहिए। जो भी दृष्टिगोचर हो, उसी का वर्णन करना चाहिए। प्रारम्भ में वर्णनीय विषय की विशेष चिन्ता नहीं करनी चाहिए। सभी छन्दों का अभ्यास करके महाकाव्य बनाने का प्रयत्न करे। इसके लिए पहले यह देख ले कि महाकाव्य में किन-किन विषयों का वर्णन होना चाहिए और यह भी देख ले कि राजा, रानी, मन्त्री और पुरोहित आदि के वर्णन में क्या-क्या लिखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त कवियों के सिद्धान्त भी जान लेने चाहिए। प्रथम परिच्छेद में इन विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। चित्र काव्य- चित्रकाव्य में मुख्यतः शब्दों का चमत्कार होता है, न कि अर्थ का। दूसरे परिच्छेद में पद्मबन्ध, गोमूत्रिकाबन्ध, नागपाशबन्ध, मुरजबन्ध, सर्वतोभद्रबन्ध, चक्रबन्ध, दर्पणबन्ध, तालवृन्तबन्ध, पट्टबन्ध, निस्सालबन्ध, ब्रह्मदीपिकाबन्ध, शृङ्गारबन्ध, छत्रबन्ध और हारबन्ध आदि तीस-पैंतीस बन्धों का दिग्दर्शन कराया गया है। साथ में और भी अनेकप्रकार के चित्र काव्य का चमत्कार दिखलाया गया है। इसमें कुछ कठिनाई अवश्य आ गई है, पर कहीं-कहीं सरलता भी पर्याप्त मात्रा में दृष्टिगोचर होती है। अक्षरच्युत प्रश्नोत्तर का नमूना देखिये, कितना सरल है 'कः पञ्जरमध्यास्ते? कः परुषनिस्वनः?। कः प्रतिष्ठाजीवानां? कः पाठ्योऽक्षरच्युत:?।।' पृ० ३२ पञ्जर में कौन रहता है? कठोर शब्द वाला कौन होता है? जीवों का आश्रय क्या है और अक्षर छोड़कर क्या पढ़ा जाता है? उक्त श्लोक के चारों चरणों के प्रारम्भ में एक-एक अक्षर बढ़ा देने पर चारों प्रश्नों के उत्तर निकल आते हैं-- (१) तोता, (२) कौआ, (३) लोक, (४) श्लोक। एक-एक अक्षर बढ़ाने पर श्लोक की रचना यों हो जायगी-- “शुकः पञ्जरमध्यास्ते काकः परुषनिस्वनः। लोकः प्रतिष्ठा जीवानों श्लोकः पाठ्योऽक्षरच्युतः।।' पृ० ३२ चौथे परिच्छेद में अर्थालङ्कारों का विस्तृत विवेचन है। उसके पहले पृष्ठ बावन तिरेपन में उनका साम्य और वैषम्य वर्णित है। यों खोजने पर अन्य ग्रन्थों में भी साम्य और वैषम्य मिल सकता है, पर एक ही स्थल में किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिल सकता। अतः प्रस्तुत ग्रन्थ के चतुर्थ परिच्छेद का प्रारम्भिक अंश विशेष रूप से दृष्टव्य है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अर्थालङ्कारों में साम्य- रस और भाव आदि की प्रतीति होने से प्रेय, रसवत्, अजस्वी और समाहित में साम्य है। चमत्कारजनक प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति न होने से उपमा, विनोक्ति, विरोध, अर्थान्तरन्यास, विभावना, उक्तनिमित्तविशेषोक्ति, विषम, सम, चित्र, अधिक, अन्योन्य, कारणमाला, एकावली, दीपक, व्याघात, काव्यलिङ्ग, अनुमान, यथासंख्य, अर्थापत्ति, सार पर्याय परिवृत्ति, समुच्चय, परिसंख्या, विकल्प, समाधि, प्रत्यनीक, विशेष, मलीन, सामान्य, असङ्गति तद्गुण, अतद्गुण, व्याजोक्ति, प्रतिपदोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक और उदात्त इन अलङ्कारों में साम्य है। प्रतीयमान अर्थात् व्यङ्ग्य अर्थ में रहने से व्याजस्तुति, उपमेयोपमा, समासोक्ति, पर्यायोक्ति, आक्षेप. परिकर, अनन्वय, अतिशयोक्ति, अप्रस्तुत, प्रशंसा और अनुरक्त निमित्त विशेषोक्ति में साम्य होता है। उपमा व्यङ्ग्य होने से परिणाम, सन्देह, रूपक, भ्रान्तिमान्, उल्लेख, स्मरण, अपह्नव, उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, दीपक, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, व्यतिरेक, निदर्शना, श्लेष और सहोक्ति अलङ्कारों में साम्य होता है। प्रकारान्तर से साम्य- अध्यवसाय-मूलक होने से अतिशय और उत्प्रेक्षा में साम्य है। विरोध-मूलक होने से विषम, विशेषोक्ति, विभावना, चित्र, असङ्गति, अन्योन्य, व्याघात, तद्रुण, भाविक और विशेष इन अलङ्कारों में साम्य है। वाक्य न्यायमूलक होने से परिसंख्या, अर्थापत्ति, विकल्प, यथासंख्य और समुच्चय में साम्य है। लोकव्यवहार-मूलक होने से उदात्त, विनोक्ति, स्वभावोक्ति, सम, समाधि, पर्याय, परिवृत्ति, प्नत्यनीक और तद्गुण अलङ्कारों में साम्य है। तर्कन्याय-मूलक होने से अर्थान्तरन्यास, काव्यलिङ्ग और अनुमान में साम्य है। शृङ्खला की विचित्रता के कारण दीपक, सार, कारणमाला और एकावली अलङ्कारों में समानता है। अपह्नव-मूलक होने से मीलन, वक्रोक्ति और व्याजोक्ति अलङ्कारों में सादृश्य होता है। विशेषणों की विचित्रता के कारण परिकर तथा समासोक्ति में समानता होती है। अलङ्कारों में वैषम्य- परिणाम और रूपक में आरोप होता है, इस दृष्टि से दोनों में साम्य है, किन्तु परिणाम में आरोप्य (उपमान) का प्रकृत में उपयोग होता है और रूपक में आरोप्य का प्रकृत में प्रयोग नहीं होता- “परिणाम रूपकयोरारोपगर्भत्वेऽपि, आरोप्यरूप प्रकृतेपयोगानुपयोगाम्यां भेदः।' पृष्ठ ५३। 'मुखं चन्द्र इत्यादौ मुखमारोपस्य विषय आरोप्यश्चन्द्रः। उपरञ्जकमित्येतेन परिणामालङ्कारनिरासः। तत्र प्रकृतोपयोगित्वेनारोप्यमाणस्यान्वयो न प्रकृतोरञ्जक तया।' पृष्ठ ६४। 'आरोपविषयत्वेनारोप्यं यत्रोपयोगि च। प्रकृते परिणामोऽसौ... .................।।' पृष्ठ ६७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है अर्थात् 'मुखं चन्द्रः' 'मुख चन्द्रमा है' यह रूपक का उदाहरण है। यहाँ मुख आरोप का विषय अर्थात उपमेय है और चन्द्रमा आरोप्य अर्थात उपमान। यहाँ उपमान उपमेय का उपरञ्जक (शोभाधायक) है। यहाँ उपरञ्जक कहने से परिणामालङ्कार का निरास होता है। जहाँ आरोप्य (उपमान) आरोप विषय (उपमेय) के रूप में प्रकृत का उपयोगी हो वहाँ परिणामालङ्कार होता है। ‘आरोप्यं प्रकृतोपयोगीत्यनेन सर्वेभ्योऽलङ्कारेभ्यो वैल्क्षण्य मस्म'। पृष्ठ ६७ इसी प्रकार से प्रस्तुत ग्रन्थ में और-और भी पचासों अलङ्कारों में अन्तर बतलाया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेकानेक ऐसे भी विषय हैं जो अन्य ग्रन्थों में कम मिलेंगे। सन्दर्भ ‘शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्दोविचितिः, ज्योतिषं च षडङ्गानि' इत्याचार्याः। उपकारकत्वादलङ्कारः सप्तममङ्घम् इति यायावरीयः। ऋते च तत्स्वरूपपरिज्ञानाद्वेदार्थानवगतिः। – काव्यमीमांसा, अध्याय २. 'आरोप्यमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणाम:।' - अलङ्कारसर्वस्व, पृष्ठ ५१. २. 'आ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रभचरित और महाकवि वीरनन्दी प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं में निबद्ध प्राचीन एवं अर्वाचीन काव्यों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उनके चरितान्त नाम रखने की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। उपलब्ध काव्यों में विमलसूरि का ‘पउमचरियं' प्राकृतचरित' काव्यों में, अश्वघोष का 'बुद्धचरितम्' संस्कृत काव्यों में तथा स्वयम्भू कवि का पउमचरिउ अपभ्रंश काव्यों में सर्वाधिक प्राचीन है। इन तीनों में प्रारम्भ के दो काव्य ई० की प्रथम शती के तथा तीसरा ई० की सातवीं शती का है। प्रस्तुत महाकाव्य का नाम इसी परम्परा के अनुकूल है। विषय- प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय चन्द्रप्रभ का जीवनवृत्त है, जो इसके अठारह सर्गों में समाप्त हुआ है। प्रारम्भ के पन्द्रह सर्गों में चरितनायक के छह अतीत भवों का और अन्त के तीन सर्गों में वर्तमान भव का वर्णन किया गया है। सोलहवें सर्ग में गर्भकल्याणक, सत्रहवें में जन्म, तप और ज्ञान तथा अठारहवें में मोक्ष कल्याणक वर्णित हैं। महाकाव्योचित प्रासङ्गिक वर्णन और अवान्तर कथाएँ भी यत्र-तत्र गुम्फित हैं। सभी सर्गों के अन्तिम पद्यों में 'उदय' शब्द का सन्निवेश होने से यह 'उदयाङ्क' कहलाता है। चन्द्रप्रभचरित की कथावस्तु का संक्षिप्तसार-चन्द्रप्रभचरित में चरितनायक के राजा श्रीवर्मा, श्रीधरदेव, सम्राट अजितसेन, अच्युतेन्द्र, राजा पद्मनाभ, अहमिन्द्र और चन्द्रप्रभ- इन सात भवों का विस्तृत वर्णन है, जिसका संक्षिप्तसार इस प्रकार है १. राजा श्रीवर्मा- पृष्करार्ध द्वीपवर्ती सुगन्धि' देश में श्रीपुर नामक पुर था। जहाँ राजा श्रीषेण निवास करते थे। उनकी पत्नी श्रीकान्ता पुत्र न होने से सदा चिन्तित रहा करती थी। किसी दिन गेंद खेलते बच्चों को देखते ही उसके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। उसकी सखी से इस बात को सुनकर राजा श्रीषेण उसे समझाते हुए कहते हैं- देवि, चिन्ता न करो। मैं शीघ्र ही विशिष्ट ज्ञानी मुनियों के दर्शन करूंगा, और उन्हीं से पुत्र न होने का कारण पूछंगा। कुछ ही दिनों के पश्चात् वे अपने उद्यान में अचानक आकाश से उतरते हुए चारणऋद्धि के धारक मुनिराज अनन्त के दर्शन करते हैं। तत्पश्चात् प्रसङ्ग पाकर वे उनसे पूछते हैं- 'भगवन्! मुझे वैराग्य क्यों नहीं हो रहा है?।' उन्होंने उत्तर दिया- 'राजन्! पुत्र प्राप्ति की इच्छा रहने से आपको वैराग्य *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ नहीं हो रहा है। अब शीघ्र ही पुत्र होगा। अभी तक पुत्र न होने का कारण आपकी पत्नी का पिछले जन्म का अशुभ निदान है।' घर जाकर वह अपनी पत्नी के पत्र होने की उक्त बात को सुनाता है। वह प्रसन्न हो जाती है। दोनों धार्मिक कार्यों में संलग्न रहने लगते हैं। इतने में ही आष्टाह्निक पर्व आ जाता है। दोनों ने आठ-आठ उपवास किये, आष्टाह्रिक पूजा की और अभिषेक भी। कुछ ही दिनों के बाद रानी गर्भ धारण करती है। धीरे-धीरे गर्भ के चिह्न प्रकट होने लगे। नौ मास बीतने पर पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है। उसका नाम श्रीवर्मा रखा गया। वयस्क होने पर राजा उसका विवाह करके युवराज बना देता है। उल्कापात देखकर राजा को वैराग्य हो जाता है। फलतः वह श्रीवर्मा को अपना राज्य सौंपकर श्रीप्रभ मुनि से जिनदीक्षा लेकर घोर तप करता है और फिर मुक्ति कन्या का वरण करता है। पिता के वियोग से यह कुछ दिनों तक शोकमग्न रहता है। शोक के कम होने पर वह दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है। उसमें वह पूर्ण सफल होकर घर लौटता है। शरत्कालीन मेघ को शीघ्र ही विलीन होते देखकर उसे वैराग्य हो जाता है। फलत: वह अपने पुत्र श्रीकान्त को अपना उत्तराधिकार देकर श्रीप्रभ मुनि के निकट जाकर दीक्षा ग्रहण करता है और घोर तपश्चरण करने लगता है। २. श्रीधरदेव- घोर तपश्चरण के प्रभाव से श्रीवर्मा पहले स्वर्ग में श्रीधरदेव होता है। वहाँ उसे दो सागरोपम आयु प्राप्त होती है। उसका अभ्युदय अन्य देवों से कहीं अच्छा है। देवियों की दृष्टि उसे स्थायी उत्सव समझती है। ३. सम्राट अजितसेन-घातकी खण्ड द्वीप के अलका नामक देश में कोशला नगरी है। वहाँ राजा अजितंजय और रानी अजितसेना' निवास करते हैं। श्रीधरदेव इन्हीं का पुत्र-अजितसेन होता है, जो वयस्क होते ही युवराटीका ज. बना दिया जाता है। अजितंजय के देखते-देखते उसके सभाभवन से अजितसेन को कुख्यात चण्डरुचि नामक असुर पिछले जन्म के वैर के कारण उठा ले जाता है। राजा व्याकुल होकर मूर्च्छित हो जाता है। इसी बीच तपोभूषण मुनि पधारते हैं और यह कहकर वापिस चले जाते हैं कि युवराज कुछ दिनों के बाद सकुशल घर आ जायगा। ११ उधर वह असुर उसे बहुत ऊँचाई से एक तालाब में गिरा देता है। मगरमच्छों से जूझता हुआ वह किसी तरह किनारे पर पहुँच जाता है। वहाँ से वह ज्यों ही परुषा नामकी अटवी में प्रवेश करता है त्यों ही एक भयङ्कर आदमी से द्वन्द्व छिड़ जाता है। पराजित होने पर वह अपने असली रूप को प्रकट कर कहता है- 'युवराज, मैं मनुष्य नहीं देव हूँ। मेरा नाम हिरण्य है। मैं आपका मित्र हूँ, पर आपके पौरुष के परीक्षण के लिए मैंने ऐसा व्यवहार किया है, क्षमा कीजिए। पिछले तीसरे भव में आप सुगन्धि देश के नरेश थे। आपकी राजधानी में एक दिन शशी ने सेंध लगाकर सूर्य के सारे धन को चुरा लिया था। पता लगने पर आपने शशी को कड़ा दण्ड दिया, जिससे वह मर गया और चह Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चण्डरुचि असुर हुआ। इसी वैर के कारण उसने आपका अपहरण किया। बरामद धनउसके स्वामी को वापिस दिलवा दिया। युवराज, वही शशी मरने के बाद हिरण्य नामक देव हुआ, जो इस समय आपसे बात कर रहा है।' १२ तत्पश्चात् युवराज विपुलपुर की ओर प्रस्थान करता है। वहाँ के राजा का नाम जयवर्मा, रानी का जयश्री और उसकी कन्या का शशिप्रभा था। महेन्द्र नामक एक राजा जयवर्मा से उसकी कन्या की मंगनी करता है, पर किसी निमित्तज्ञानी से उसे अल्पायुष्क जानकर वह स्वीकृति न दे सका। इससे क्रुद्ध होकर महेन्द्र जयवर्मा को युद्ध के लिए ललकारता है। युवराज जयवर्मा का साथ देता है और युद्ध में महेन्द्र को मार डालता है। इससे प्रभावित होकर जयवर्मा युवराज के साथ अपनी कन्या शशिप्रभा का विवाह करना चाहता है। इतने में विजया की दक्षिण श्रेणी के आदित्यपुर का धरणीध्वज जयवर्मा को सन्देश भेजता है कि वह अपनी कन्या का विवाह मेरे (धरणीध्वज के) साथ करे। इसके लिए जयवर्मा तैयार नहीं होता। फलत: भयङ्कर युद्ध छिड़ जाता है। पूर्वचर्चित हिरण्यदेव के सहयोग से युवराज अजितसेन धरणीध्वज को भी युद्धभूमि में स्वर्गवासी बना देता है। इसके उपरान्त जयवर्मा शुभमुहूर्त में युवराज अजितसेन के साथ अपनी कन्या का विवाह कर देता है। फिर उसके साथ अपने नगर की शोभा बदला है। वहाँ अजितंजय उसे अपना उत्तराधिकार सौंप देते हैं। चक्रवर्ती होने से वह चौदह रत्नों एवं नौ निधियों का स्वामित्व प्राप्त करता है। तीर्थङ्कर स्वयंप्रभ के निकट अजितंजय जिन दीक्षा ले लेता है और सम्राट के हृदय में सच्ची श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) जाग उठती है। दिग्विजय में पूर्ण सफलता प्राप्त करके सम्राट अजितसेन राज्य का संचालन करने लगता है। किसी दिन एक उन्मत्त हाथी ने एक मनुष्य की हत्या कर डाली, इस दुःखद घटना को देखकर सम्राट को वैराग्य उत्पन्न हो जाता है, फलत: वह अपने पुत्र जितशत्रु को उत्तराधिकार सौंपकर शिवंकर१४ उद्यान में गुणप्रभ मुनि के निकट जिनदीक्षा ग्रहण कर लेता है और घोर तपश्चरण करता है। ४. अच्युतेन्द्र- घोर तपश्चरण करने से वह अच्युतेन्द्र हो जाता है। वहाँ वह बाईस सागरोपम आयु की अन्तिम अवधि तक दिव्यसुख का अनुभव करता है। ५. राजा पद्मनाभ- आयु समाप्त होने पर अच्युतेन्द्र अच्युत स्वर्ग से चयकर धातकीखण्डवर्ती मङ्गलावती देश के रत्नसंचयपुर में राजा कनकप्रभ१५ के यहाँ उनकी पट्टरानी सुवर्णमाला१६ की कुक्षि से पद्मनाभ नामक पुत्र होता है। किसी दिन एक बूढ़े बैल को दलदल में फँसकर मरते देखकर कनकप्रभ को वैराग्य हो जाता है। १७ फलत: वह अपने पुत्र पद्मनाभ को राज्य दे देता है और श्रीधर मुनि से जिनदीक्षा लेकर दुर्धर तप करता है। पिता के विरह से वह कुछ दिन दुःखी रहता है। फिर मन्त्रियों के प्रयत्न.. से वह अपने राज्य का संचालन करने लगता है। कुछ काल बाद अपने पुत्र को युवराज बनाकर वह अपनी रानी सोमप्रभास के साथ आनन्दमय जीवन बिताने लगता है। किसी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ दिन माली द्वारा श्रीधर मुनि के पधारने के शुभ समाचार सुनकर पद्मनाभ उनके दर्शनों के लिए मनोहर उद्यान में जाता है। दर्शन करने के पश्चात् वह उनके आगे अपनी तत्त्वजिज्ञासा प्रकट करता है । वे तत्त्वोपप्लव आदि दर्शनों के मन्तव्यों की विस्तृत मीमांसा करते हुए तत्त्वों के स्वरूप का निरूपण करते हैं । उसे सुनकर पद्मनाभ का संशय दूर हो जाता है। इसके पश्चात् पद्मनाभ के पूछने पर वे उसके पिछले चार भवों का विस्तृत वृत्तान्त सुनाते हैं। इस वृत्तान्त की सत्यता पर कैसे विश्वास हो ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए मुनिराज ने कहा- 'राजन्! आज से दसवें दिन एक मदान्ध हाथी अपने झुण्ड से बिछुड़कर आपके नगर में प्रवेश करेगा। उसे देखकर मेरे कथन पर विश्वास हो जायगा।' इसके उपरान्त मुनिराज से व्रत ग्रहण कर वह अपनी राजधानी में लौट आता है। ठीक दसवें दिन एक मदान्ध हाथी सहसा राजधानी में घुसकर उपद्रव करने लगता है। पद्मनाभ उसे अपने वश में कर लेता है और उस पर सवार होकर वनक्रीड़ा के लिए चल देता है। इसी निमित्त से उस हाथी का 'वनकेलि' नाम पड़ जाता है। क्रीड़ा के पश्चात् पद्मनाभ उसे अपनी गजशाला में बँधवा देता है । १९ राजा पृथ्वीपाल इस हाथी को अपना बतलाकर वापिस करवाना चाहता हैं। पद्मनाभ के इनकार करने पर दोनों में युद्ध छिड़ जाता है। युद्ध में पृथ्वीपाल मारा जाता है। इसके कटे सिर को देखकर 'पद्मनाभ को वैराग्य हो जाता है, फलतः यह श्रीधर मुनि से जिनदीक्षा लेकर सिंहनिष्क्रीडित आदि व्रतों व तेरह प्रकार के चारित्र का परिपालन करता हुआ घोर तप करता है। कुछ ही समय में वह द्वादशाङ्गश्रुत का ज्ञान प्राप्त करता है और सोलह कारण भावनाओं के प्रभाव से तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध कर लेता है। ६. वैजयन्तेश्वर — आयु के अन्त में संन्यासपूर्वक भौतिक शरीर को छोड़कर पद्मनाभ वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र होते हैं और तैंतीस सागरोपम आयु की अन्तिम अवधि तक वहाँ वे दिव्य सुख का अनुभव करते हैं। ७. तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ— इनका जन्मस्थान पूर्वदेश की चन्द्रपुरी १ है । माता-पिता- इनकी माता का नाम लक्ष्मणा २२ और पिता का नाम महासेन है । यह पट्टरानी थीं। इक्ष्वाकुवंशीय महासेन अनेकानेक गुणों की दृष्टि से अनुपम रहे । दिग्विजय के समय इन्होंने अङ्ग, आन्ध्र, औढ्र, कर्णाटक, कलिङ्ग, कश्मीर, कीर, चेटी, टक्क, द्रविण, पाञ्चाल, पारसीक, मलय, लाट और सिन्धु आदि अनेक देशों के नरेशों को अपने अधीन किया था । रत्नवृष्टि - दिग्विजय के पश्चात् चन्द्रपुरी में राजा महासेन के राजमहल में चन्द्रप्रभ के गर्भावतरण के छः मास पहले से जन्म दिन तक प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वृष्टि होती रही । गर्भशोधन आदि - रत्नवृष्टि को देखकर महासेन को आश्चर्य होता है, पर कुछ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही समय के पश्चात् इन्द्र की आज्ञा से आठ दिक्कमारियाँ उनके यहाँ रानी लक्ष्मणा की सेवा के लिए उपस्थित होती हैं। उनके साथ हुए वार्तालाप से उनका आश्चर्य दूर हो जाता है। महासेन से अनुमति लेकर वे उनके अन्तःपुर में प्रवेश करती हैं और लक्ष्मणा के गर्भशोधन आदि कार्यों में संलग्न हो जाती हैं। शुभ स्वप्न- महारानी सुखपूर्वक सोयी हुई थीं, इतने में उन्हें रात्रि के अन्तिम प्रहर में सोलह२३ शुभ स्वप्न हुए। प्रभात होते ही वे अपने पति के पास पहुँचती हैं। स्वप्नफल- पत्नी के मुख से क्रमश: सभी स्वप्नों को सुनकर महासेन ने उनका शुभफल बतलाया, जिसे सुनकर उसे अपार हर्ष हुआ। गर्भावतरण- आयु के समाप्त होते ही पूर्वचर्चित अहमिन्द्र वैजयन्त नामक अनुत्तर विमान से चयकर प्रशस्त (चैत्र कृष्णा पञ्चमी के)२४ दिन महारानी लक्ष्मणा के गर्भ में प्रवेश करता है। गर्भकल्याणक महोत्सव-इसके पश्चात् इन्द्र महासेन के राजमहल में पहुंचकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। माता के चरणों की अर्चना करके वे वहाँ से वापिस चले जाते हैं, पर श्री, ह्री और धृति देवियाँ वहीं रहकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करती है। जन्म- पौष कृष्णा एकादशी२५ के दिन लक्ष्मणा सुन्दर पत्र- चन्द्रप्रभ को जन्म देती हैं। इस शुभ बेला में दिशाएँ स्वच्छ हो जाती हैं; आकाश निर्मल हो जाता है; सुगन्धित वायु का संचार होता है; दिव्यपुष्पों की वृष्टि होती है; कल्पवासी देवों के यहाँ मणिघण्टिकाएँ, ज्योतिष्कों के यहाँ सिंहनाद, भवनवासियों के यहाँ शङ्ख और व्यन्तरों के यहाँ दुन्दुभि बाजे स्वयमेव बजने लगते हैं- इन हेतुओं तथा आसन के कम्पन से इन्द्र चन्द्रप्रभ के जन्म को जानकर देवों के साथ चन्द्रपुरी की ओर प्रस्थान करते हैं। अभिषेक- इन्द्राणी माता के निकट मायामयी शिशु को सुलाकर वास्तविक शिशु को राजमहल से बाहर ले आती है। सौधर्मेन्द्र शिशु को दोनों हाथों में लेकर ऐरावत पर सवार होता है और सभी देवों के साथ सुमेरु पर्वत की ओर प्रस्थान करता है। वहाँ पाण्डुक शिला पर शिशु को बैठाकर देवों द्वारा लाये गये क्षीरसागर के जल से अभिषेक करता है और विविध अलंकारों से अलंकृत करके उनका चन्द्रप्रभ नाम रख देता है। इसके उपरान्त सौधर्मेन्द्र अन्य इन्द्रों के साथ चन्द्रप्रभ की२६ स्तुति करता है और फिर उन्हें माता के पास पहुँचाकर महासेन से अनुमति लेकर वापिस चला जाता है। ___ बाल्यकाल- शिशु अमृतलिप्त अपनी अंगुलियों को चूसकर ही तृप्त रहता है, उसे माँके दूध की विशेष लिप्सा नहीं होती। चन्द्रकलाओं की भाँति उसका विकास होने लगता है। धीरे-धीरे वह देव कुमारों के साथ गेंद आदि लेकर क्रीड़ा करने योग्य Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ हो जाता है। इसके पश्चात् वह तैरना, हाथी-घोड़े पर सवारी करना आदि विविध कलाओं में प्रवीण हो जाता है। विवाह संस्कार– वयस्क होते ही महासेन उनका विवाह संस्कार करते हैं, जिसमें सभी राजे-महाराजे सम्मिलित होते हैं। राज्य-संचालन-पिता के आग्रह पर चन्द्रप्रभ राज्य संचालन स्वीकार करते हैं। इनके राज्यकाल में प्रजा सुखी रही, किसी का अकाल मरण नहीं हुआ, प्राकृतिक प्रकोप नहीं हुआ तथा स्वचक्र या परचक्र से कभी कोई बाधा नहीं हुई। दिन-रात्रि के समय को आठ भागों में विभक्त करके वे दिनचर्या के अनुसार चलकर समस्त प्रजा को नयमार्ग पर चलने की शिक्षा देते रहे। विरोधी राजे-महाराजे भी उपहार ले-लेकर उनके पास आते और उन्हें नम्रतापूर्वक प्रणाम करते रहे। इन्द्र के आदेश पर अनेक देवाङ्गनाएँ प्रतिदिन उनके निकट गीत-नृत्य करती रहीं। अपनी कमला आदि अनेक पत्नियों के साथ वे चिरकाल तक आनन्दपूर्वक रहे। वैराग्य- किसी दिन एक वृद्ध लाठी टेकता हुआ उनकी सभा में जाकर दर्दनाक अब्दों में कहता है- 'भगवन्! एक निमित्तज्ञानी ने मुझे मृत्यु की सूचना दी है। मेरी रक्षा कीजिए, आप मृत्युञ्जय हैं, अत: इस कार्य में सक्षम हैं।' इसके बाद वह अदृश्य हो जाता है। चन्द्रप्रभ समझ जाते हैं कि यह वृद्ध के वेष में देव आया था, जिसका नाम था धर्मरुचि। इसी निमित्त से वे भोगों से विरक्त हो जाते हैं२८ और दीक्षा लेने का निश्चय करते हैं। इतने में ही वहाँ लोकान्तिक देव आ जाते हैं और 'साधु' 'साधु' कहकर उनके वैराग्य की सराहना करते हैं। इसके उपरान्त ही वे अपने पुत्र वरचन्द्र को राज्य सौंप देते हैं। तप-- तत्पश्चात् इन्द्र और देव चन्द्रप्रभ को 'विमला' नाम की शिविका में बैठाकर सकलर्तु२९ वन में ले जाते हैं, जहाँ वे (पौष कृष्णा एकादशी के १ दिन) दो उपवासों का नियम लेकर सिद्धों को नमन करते हुए एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा लेकर तप करते हैं। इसी अवसर पर वे पाँच दृढ़ मृष्टियों से केश लुञ्चन करते हैं। देवेन्द्र और देव मिलकर तप कल्याण का उत्सव मनाते हैं और उन केशों को मणिमय पात्र में रखकर क्षीरसागर में प्रवाहित करते हैं। पारणा- नलिनपुर३२ में राजा सोमदत्त३ के यहाँ वे पारणा करते हैं। इसी अवसर पर वहाँ पाँच आश्चर्य प्रकट होते हैं। कैवल्य प्राप्ति- घोर तप करके वे शुक्लध्यान का अवलम्बन लेकर (फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन) कैवल्य- पूर्णज्ञान की प्राप्ति करते हैं। समवसरण- कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् इन्द्र का आदेश पाकर कुबेर साढ़े आठ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ योजन के विस्तार में वर्तलाकार समवसरण का निर्माण करता है। ३५ इसके मध्य गन्ध कुटी में एक सिंहासन पर भगवान् चन्द्रप्रभ विराजमान हुए और चारों ओर वर्तुलाकार बारह प्रकोष्ठों में क्रमश: गणधर आदि। दिव्य देशना- इसके अनन्तर गणधर (मुख्य शिष्य) के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् चन्द्रप्रभ ने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- इन सात तत्त्वों के स्वरूप का विस्तृत निरूपण ऐसी भाषा में किया, जिसे सभी श्रोता आसानी से समझते रहे। गणधरादिकों की संख्या- दस सहज, दस केवल ज्ञान कृत और चौदह देवरचित अतिशयों तथा आठ प्रातिहार्यों से विभूषित भगवान् चन्द्रप्रभ के समवसरण में तिरानवे गणधर, दो हजार ६ कुशाग्रबुद्धि पूर्वधारी, दो लाख चौरासी३७ उपाध्याय, आठ हजार३८ अवधिज्ञानी, दस हजार३९ केवली, चौदह हजार४० वैक्रिय ऋद्धिधारी साधु, आठ हजार मन:पर्ययज्ञानी साधु, सात हजार १ छ: सौ वादी, एक लाख अस्सी हजार २ आर्यिकाएँ, तीन लाख सम्यग्दृष्टि श्रावक और पाँच लाख ३ व्रतवती श्राविकाएँ रहीं। यत्र-तत्र आर्यक्षेत्र में धर्मामृत की वर्षा करते हुए भगवान् चन्द्रप्रभ सम्मेदाचल (शिखर जी) के शिखर पर पहुँचते हैं। भाद्रपद शुक्ला सप्तमी के दिन अवशिष्ट चार अघातिया कर्मों को नष्ट करके दस लाख पूर्व प्रमाण आयु के समाप्त होते ही वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। चन्द्रप्रभचरित की कथावस्तु का आधार 'चन्द्रप्रभचरितम्' की कथावस्तु के आधार के विषय में इसके रचयिता ने स्वयं कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया। प्रस्तुत कृति के प्रारम्भ (१,६) में जहाँ आचार्य समन्तभद्र का स्मरण किया है, वहाँ किसी एक भी पुराणकार का नहीं। हाँ, इसके प्रथम सर्ग (१, ९-१०) में गुरुपरम्परा से प्राप्त दुष्प्रवेश पुराणसागर में स्वयं प्रवेशार्थ उद्यत होने की चर्चा वीरनन्दी ने अवश्य की है। यह इस बात को ध्वनित करती है कि प्रस्तुत कृति की सामग्री के संकलन के लिये वीरनन्दी ने अनेक विशालकाय पुराणों का परिशीलन किया था। ____ अब देखना यह है कि वे विशालकाय पुराण कौन से हैं, जो विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में वीरनन्दी के सामने रहे। सम्प्रति जो पुराण उपलब्ध हैं, उनमें तीन विशालकाय हैं- पद्मपुराण, हरिवंशपुराण और महापुराण। चन्द्रप्रभचरित के. परिशीलन से ज्ञात होता है कि वीरनन्दी के समक्ष इन तीनों के अतिरिक्त अन्य पुराण भी रहे, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुए। For Privaté & Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वीरनन्दी का अन्वेष्य विषय चन्द्रप्रभ का जीवनवृत्त था, जो उन्हें उत्तरपुराण से पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हुआ। यों यह पद्मपुराण में भी स्वल्पतम मात्रा में विद्यमान है, पर हरिवंश की तुलना में सर्वथा नगण्य है। हरिवंश में इसका जो थोड़ा-बहुत अंश सूत्र रूप में उपलब्ध है, वह उत्तरपुराण की तुलना में अपर्याप्त है। उत्तरपुराण के बाईस (४४-६५) पृष्ठों पर चन्द्रप्रभ का साङ्गोपाङ्ग जीवनवृत्त दो सौ छिहत्तर सुन्दर पद्यों में अङ्कित है। हरिवंशपुराण में चन्द्रप्रभ के जन्मादि स्थानों, पारिवारिक व्यक्तियों, विभूतियों, अतिशयों, पञ्चकल्याणकमितियों और गणधरादिकों की संख्या आदि का ही मुख्यतया उल्लेख है। लगभग इसी ढंग का अत्यन्त ही स्वल्प उल्लेख पद्मपुराण में है। जिनरत्नकोश (पृष्ठ ११९) आदि ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि आचार्य गुणभद्र के अतिरिक्त अन्य कवियों के भी भिन्न-भिन्न भाषाओं में निबद्ध चन्द्रप्रभचरित के सन्दर्भ मिलते हैं। निष्कर्ष यह कि वीरनन्दी के 'पुराणसागरे' पद से उन्हें जो विपुल पुराणवाङ्मय विवक्षित है, उनमें सम्प्रति उत्तरपुराण ही ऐसा है, जिसे उनकी कृति चन्द्रप्रभचरित की कथावस्तु का आधार माना जा सकता है। उत्तरपुराण और चन्द्रप्रभचरित के प्रतिपाद्य विषय में जहाँ-कहीं थोड़ा-बहत वैषम्य है, वहाँ हरिवंशपुराण आधार है और जहाँ उक्त दोनों से यो वैषम्य है, सम्भव है वहाँ कवि परमेश्वर का ‘वागर्थसंग्रहः' नामक पुराण आधार रहा हो, जिसके अनेक पद्य वीरनन्दी के समकालीन चामुण्डराय ने अपने पुराण में उद्धृत किये हैं। आदिपुराण के आधार पर निर्मित पुरुदेवचम्पू में यत्र-तत्र आदिपुराण के अनेक श्लोकों को थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ अपनाया गया है। ऐसा चन्द्रप्रभचरित में नहीं किया गया। उत्तरपुराण को कथावस्तु का आधार बनाकर वीरनन्दी ने अपनी कृति में अथसे इति तक सर्वत्र अपनी मौलिक प्रतिभा का उपयोग किया है। चन्द्रप्रभचरित के केवल एक स्थल में उत्तरपुराण के दो पदों का थोड़ा-सा साम्य है, जो अकस्मात् हुआ जान पड़ता है। चन्द्रप्रभचरित के 'गरुसेतुवाहिते' (१,१०) में 'गुरु' का अर्थ टीकाकार ने 'गणधर' और पञ्जिकाकार ने 'श्रीजिनसेनादि' किया है। यदि पञ्जिकाकार का अर्थ साधार हो तो उत्तरपुराण को चन्द्रप्रभचरित का आधार मानने की बात और पुष्ट हो जाती है; क्योंकि उत्तरपुराण जिनसेन की कृति का ही अङ्ग है। अथवा 'श्रीजिनसेनादि' में दिये गये 'आदि' से गुणभद्र को लिया जा सकता है। जो कुछ भी हो, यह सुनिश्चित है कि वीरनन्दी ने उत्तरपुराण से पर्याप्त लाभ उठाया है। इसके लिए उत्तरपुराण और चन्द्रप्रभचरित का साम्य ही साधक है, जो इस प्रकार हैसाम्य १. कथानक - दोनों का एक सा कथानक। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सातभव- दोनों में १. श्रीवर्मा, २. श्रीधरदेव, ३. अजितसेन, ४. अच्युतेन्द्र, ५. पद्मनाभ, ६. वैजयन्तेश्वर और ७. चन्द्रप्रभ - इन सात भवों का एक जैसा उल्लेख। आयु- दोनों में श्रीधरदेव, अच्युतेन्द्र और वैजयन्तेश्वर की आयु आदि की समानता। ४. नाम- दोनों में श्रीवर्मा, अजितसेन, पद्मनाभ और चन्द्रप्रभ के जन्मादिस्थानों एवं पारिवारिक व्यक्तियों के प्राय: समान नाम। मुनिदर्शन-- दोनों में चिन्ता मिटाने के लिए राजाओं के मुनिदर्शन का प्रायः समान वर्णन। मुनिदीक्षा— दोनों में पुत्र के वयस्क होने पर पिता के दीक्षित होने का एक-सा वर्णन। संख्या - दोनों में चन्द्रप्रभ के गणधरों, पूर्वधारियों, उपाध्यायों, अवधिज्ञानियों, वैक्रियर्द्धिक महर्षियों, मनापर्ययज्ञानियों, वादियों, आर्यिकाओं, श्रावकों और श्राविकाओं की समान संख्या। छन्द- दोनों में चरित की समाप्ति में शार्दूलविक्रीडित छन्द में निबद्ध दो-दो श्लोकों की रचना। ९. भवों का उल्लेख- दोनों में एक-एक पद्य में सतों भवों का एक-सा उल्लेख।६ वैषम्य चन्द्रप्रभचरित तथा उत्तरपुराण में भ० चन्द्रप्रभ के सातों भवों के वर्णन में जो वैषम्य है, उसका विवरण इस प्रकार हैविषय चन्द्रप्रभचरित उत्तरपुराण १. पुत्र न होने पर चिन्तित श्रीषेण की पत्नी श्रीकान्ता श्रीषेण २. चिन्तित होने पर चारणमुनि अनन्त के दर्शन पुरोहित से भेंट ३. पत्र न होने का कारण श्रीकान्ता का पिछले जन्म x का निदान ४. गर्भाधान से पहले श्रीकान्ता को चार स्वप्न ५. श्रीषेण के दीक्षागुरु श्रीप्रभ मुनि श्री पद्मजिन ६. श्रीषेण का दीक्षोद्यान शिवंकर - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ विषय चन्द्रप्रभचरित उत्तरपुराण ७. अजितंजय की राजधानी कोशला अयोध्या ८. गर्भधारण से पूर्व अजितसेना को आठ स्वप्न ९. अजितसेन का अपहर्ता चण्डरुचि असुर १०.परुषाटवी के निकट हिरण्यदेव से अजितसेन की भेंट ११.अजितसेन के वैराग्य मृत पुरुष का अवलोकन x का कारण १२.अजितसेन के द्वारा आहार - मासोपवासी अरिंदम मुनि को २३.कनकप्रभ की प्रधान रानी सुवर्णमाला कनकमाला १४. पद्मनाभ की रानी एक अनेक १५. पद्मनाभ की राजधानी में वन्यगज का प्रवेश १६. पद्मनाभ का युद्ध पृथ्वीपाल से १७. चन्द्रप्रभ का जन्मस्थान चन्द्रपुरी चन्द्रपुर १८.कल्याणकों की तिथियाँ केवल दो (जन्म और मोक्ष) पाँचों की । आनन्द नाटक स्पष्ट अस्पष्ट १९.चन्द्रप्रभ के जन्माभिषेक के समय २०. चन्द्रप्रभ के विवाह विषयक श्लोक २१. चन्द्रप्रभ की पत्नियाँ २२. चन्द्रप्रभ के वैराग्य का अनेक देव कारण अस्पष्ट दर्पण में मुख की विकृति सर्वर्तुक ऐशानेन्द्र द्वारा १२३. चन्द्रप्रभ का दीक्षावन २४.समवसरण में चन्द्रप्रभ की स्तुति सकलर्तु x Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय चन्द्रप्रभचरित २५. चन्द्रप्रभ के गणधरादिकों पहले उपाध्याय फिर की संख्या में अवधिज्ञानी उत्तरपुराण पहले अवधिज्ञानी फिर उपाध्याय इस वैषम्य पर विचार-(१) पुत्र के न होने पर राजा श्रीषेण का चिन्तित होना उत्तरपुराण में वर्णित है। ठीक ऐसे ही प्रसंग में रघुवंश (१,३३-३४) में दिलीप का, रघुवंश (१०,२-४) में दशरथ का और धर्मशर्माभ्युदय (२,६९-७४) में महासेन का चिन्तातुर होना लिखा है। किन्तु चन्द्रप्रभचरित (३,३०-३५) में श्रीकान्ता का चिन्तामग्न होना चर्चित है। इसका आधार उत्तरपुराण के स्थान में गुणभद्र की दूसरी कृति 'जिनदत्तचरितम्' है, जिसमें पुत्र के न होने से जीवंजसा की चिन्ता का वर्णन है।४७ अतएव प्रथम वैषम्य के आधार पर यह सिद्ध नहीं होता कि उत्तरपुराण, चन्द्रप्रभचरित की कथावस्तु का आधार नहीं है। (२) उत्तरपुराण में श्रीषेण पुरोहित से पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछते हैं, पर चन्द्रप्रभचरित में वे चारण मुनि अनन्त का दर्शन करते हैं, जिससे वे चिन्ता से मुक हो जाते हैं। सूक्ष्म विचार करने पर ज्ञात होता है वीरनन्दी ने जैनसंस्कृति की अनुकूलता को ध्यान में रखकर यह परिवर्तन किया। . (७) उत्तरपुराण के अनुसार अजितंजय की राजधानी का नाम अयोध्या और चन्द्रप्रभचरित के अनुसार कोशला है। कोषों के ८ अनुसार दोनों का अर्थ एक ही है, अत: कोई विरोध नहीं है। (९-१०) चन्द्रप्रभचरित में अजितसेन का अपहरण चण्डरुचि असुर करता है, और बाद में पुरषाटवी के निकट हिरण्य देव से भेंट होती है- यह उत्तरपुराण में चर्चित नहीं है। इन घटनाओं का स्रोत अन्यत्र न मिलें तो यह मानना होगा कि वीरनन्दी ने गुणभद्र के जिनदत्तचरितम् से सहायता ली है। वह इस प्रकार दधिपुर के उद्यान में जिनदत्त का उसके स्वामी सेठ समुद्रदत्त से परिचय हो जाता है। जिनदत्त के वृक्षायुर्वेद के ज्ञान का अपने उद्यान में चमत्कार देखकर समुद्रदत्त उनसे प्रसन्न हो जाता है। फलत: वह वसन्तोत्सव में जिनदत्त का खूब सम्मान करता है और फिर उसे अपने साथ व्यापार के निमित्त सिंहलद्वीप में लिवा ले जाता है। सिंहलद्वीप के राजा मेघवाहन की पुत्री श्रीमती के शयनागार की रक्षा की लिए जो पहरेदार नियुक्त होता है वह रात्रि में मारा जाता था। इससे मेघवाहन हैरान था। जिनदत्त ने प्रयत्न करके उस भयंकर सर्प का पता लगाकर पिटारी में बन्द कर दिया, जो प्रतिदिन पहरेदार को प्राणों का अपहरण करता रहा। इससे प्रसन्न होकर मेघवाहन ने अपनी कन्या श्रीमती का जिनन्दत्त के साथ विवाह कर दिया। सिंहलद्वीप से लौटते समय जिनदत्त की पत्नी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ को देखकर सेठ समुद्रदत्त की दृष्टि दूषित हो जाती है, फलत: वह जिनदत्त को समुद्र में गिराकर अपने जलयान को द्रुतगति से आगे बढ़ा ले जाता है। जिनदत्त एक लकड़ी का सहारा लेकर तट की ओर बढ़ने का यत्न करता है। इतने में दो व्यक्ति आकाशमार्ग से वहाँ पहुँचकर उसे धमकाने लगते हैं पर उस (जिनदत्त) के वीरतापूर्ण वचनों को सुनकर वे पानी-पानी हो जाते हैं और उसे अशोकश्री नामक विद्याधर के पास लिवा जाते हैं। वह अपनी कन्या शृङ्गारमती का उसके साथ ब्याह कर देता है। चन्द्रप्रभचरित में चर्चित हिरण्यदेव पहले अजितसेन को धमकाता है, पर बाद में उसकी वीरता से प्रसन्न होकर उसकी सहायता करता है। राजा जयवर्मा के प्रतिद्वन्द्वी धरणीध्वज को मारने में अजितसेन को यही देव सहयोग देता है। अन्ततोगत्वा राजा जयवर्मा प्रसन्न होकर अपनी कन्या शशिप्रभा का अजितसेन के साथ विवाह कर देता है। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर जिनदत्तचरित और चन्द्रप्रभचरित की उक्त घटनाओं में पर्याप्त समानता है, अत: यह स्पष्ट है कि वीरनन्दी ने जिनदत्तचरित से भी सहायता थी। गुणभद्र ने जिन घटनाओं से जिनदत्त का उत्कर्ष सिद्ध किया है, उन्हीं जैसी घटनाओं से वीरनन्दी ने अजितसेन का। (१३,१७,२३) सुवर्णमाला, कनकमाला; चन्द्रपुरी, चन्द्रपुर; सकलर्तु, सर्वर्तक-ये नाम कुछ भिन्न से प्रतीत होते हैं, पर इनका अभिप्राये भिन्न नहीं है। सुवर्ण कनक का, पुरी पुर का और सकल सर्वका पर्यायवाचक है। इनमें छन्द के अनुरोध से थोड़ा-सा अन्तर आया है। (१५) पद्मनाभ की राजधानी में एक जंगली हाथी के प्रवेश की घटना जो चन्द्रप्रभचरित में वर्णित है, उसका आधार उत्तरपुराण के स्थान में जिनदत्तचरित (६,८१-९१) प्रतीत होता है। इन दोनों कृतियों में वर्णित घटनाओं में अत्यधिक साम्य है। उक्त घटनाओं के अतिरिक्त दोनों में पद्यगत साम्य भी यत्र-तत्र हैं। चन्द्रप्रभचरितम् और जिनदत्तचरितम् के कतिपय पद्यों की क्रमश: तुलना कीजिए- चन्द्रप्रभचरित १,१७, २,१२४; २,११६; ३,३१; ३,३२, ३,६७, ३,७४; ६,१७, ६,१९; ६,२१, ११,७६-९० क्रमश: जिनदत्तचरित १,१३, २,७; ३,७४; १,६१; १,६३; १,७२; १,७५-७६; ६,७, ६,९; ६,१३, ६,७७-९१। अतएव यह स्पष्ट है कि चन्द्रप्रभचरित का कथानक गुणभद्र के उत्तरपुराण से तथा कतिपय घटनाओं के स्रोत उन्हीं के जिनदत्तचरित से लिये गये हैं। 4 (१८) चन्द्रप्रभचरित में उत्तरपुराण की भाँति पाँच कल्याणकों की पाँच मितियाँ न देकर 'नेमिनिर्वाणम्' की भाँति केवल दो ही मितियाँ दी गयी हैं। इसका कारण कौन-सी परम्परा रही है, यह ज्ञात नहीं हो सका। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ शेष विषमताओं के विषय में सम्भव है वीरनन्दी के सामने कोई अन्य आधार रहा हो। जो कुछ भी हो, तुलनात्मक सूक्ष्म अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि चन्द्रप्रभचरित की कथावस्तु का मुख्य आधार उपलब्ध पुराणों में उत्तरपुराण ही है। (४) चन्द्रप्रभचरित की प्रासङ्गिक कथाएँ (१) सुनन्दा का निदान- सुगन्धि देश के श्रीपुर नगर में देवाङ्गद वणिक् रहता था, जिसकी पत्नी का नाम श्री और पुत्री का नाम सुनन्दा था। किसी दिन वह एक गर्भवती नवयुवती के श्रीहीन शरीर को देखकर जन्मान्तर में भी युवावस्था के प्रारम्भ में उस जैसी न होने का निदान बाँध लेती है और आजीवन गृहस्थधर्म का परिपालन करती है। मृत्यु के पश्चात् यह सौधर्म स्वर्ग में देवी होती है। वहाँ से चयकर राजा दुर्योधन की पुत्री तथा राजा श्रीषेण की पत्नी श्रीकान्ता होती है। पिछले जन्म के अशुभ निदान के कारण उसे प्रारम्भिक नवयौवना में सन्तान की प्राप्ति नहीं होती। (चन्द्रप्रभचरित ३,५३-५५) (२) दो किसान- सुगन्धि नामक एक देश था। उसमें किसी समय राजा श्रीषेण का शासन रहा। उनके शासनकाल में उन्हीं की राजधानी- श्रीपुर में दो किसान गृहस्थ रहते थे। उनमें से एक का नाम शशी था और दूसरे का सूर्य। शशी ने किसी दिन सेंध लगाकर सूर्य का सारा धन चुरा लिया। पता लगने पर राजा ने बरामद हुआ धन सूर्य को दिलवाया और शशी को प्राणदण्ड। चोरी करने से शशी नाना कुयोनियों के दुःख भोगकर चण्डरुचि नामक असुर होता है और सूर्य सत्कर्म करने से योनियों के सुख भोगकर हिरण्य नामक देव (चन्द्रप्रभचरित ६,३३-३५) इन कथाओं का स्रोत उत्तरपुराण में नहीं है। ५. चन्द्रप्रभचरित में सैद्धान्तिक विवेचन वीरनन्दी ने चन्द्रप्रभचरित के अन्तिम सर्ग में भ० चन्द्रप्रभ की दिव्य देशना का प्रसङ्ग पाकर जिन सैद्धान्तिक विषयों का विवेचन किया है, उनमें मुख्य हैं-सात तत्त्व, नौ पदार्थ, छः द्रव्य, चार गतियाँ, आठ कर्म, बारह तप, चार ध्यान, रत्नत्रय और चौंतीस अतिशय। इस विवेचन से अभिव्यक्त होता है कि वीरनन्दी सिद्धान्तविद् भी रहे। इस विवेचन का आधार कुन्दकुन्द साहित्य, तत्त्वार्थसूत्र और उसके व्याख्याग्रन्थ आदि हैं, न कि उत्तरपुराण। ६. चन्द्रप्रभचरित में तत्त्वोपप्लव आदि इतर दर्शनों की आलोचना __ चन्द्रप्रभचरित (२,४३-११०) में तत्त्वोप्लव दर्शन की विस्तृत आलोचना की गयी है और इसी के प्रसङ्ग से चार्वाक, सांख्य, न्याय-वैशेषिक, बौद्ध और मीमांसा दर्शनों की भी। - तत्त्वोपप्लव दर्शन की मान्यता है कि विचार करने पर लोक प्रसिद्ध Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ पृथ्वी आदि तत्त्व भी जब सिद्ध नहीं किये जा सकते तब (जैन दर्शन-मान्य) अन्य तत्त्वों की तो बात ही क्या है; (क्योंकि वे सभी बाधित हैं) --- 'पृथिव्यादीनि तत्त्वानि लोके प्रसिद्धानि, तान्यनि विचार्यमाणानि न व्यवतिष्ठन्ते किं पुनरन्यानि? -- तत्त्वोपप्लवसिंह, पृ०१। चार्वाक दर्शन देह को ही आत्मा मानता है, जो उसी के साथ उत्पन्न होता है और उसी के साथ समाप्त भी हो जाता है— जन्मान्तर ग्रहण नहीं करता। सांख्यदर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, पर वह उसे कूटस्थनित्य और अकर्ता बतलाता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन आत्मा को जड़ मानता है- आत्मा स्वयं ज्ञानवान नहीं है, ज्ञान के समवाय से ज्ञानवान् है। मीमांसा दर्शन को मोक्ष के विषय में विप्रतिपत्ति है (चन्द्रप्रभचरित २,९०)। चन्द्रप्रभचरित की संस्कृत टीका से इसके दो अर्थ प्रतिफलित होते हैं- १. मीमांसा दर्शन के आचार्यों को मोक्ष के विषय में विवाद है और २. मोक्ष नहीं है। दोनों अर्थ सङ्गत हैं। १. महर्षि जैमिनीय ने अपने सूत्रों में मोक्ष की चर्चा नहीं की। इनके उत्तरवर्ती भट्ट और प्रभाकर के मोक्ष के मन्तव्यों में वैषम्य है। २. नित्य कर्मों का अनुष्ठान ही मोक्ष है- नियोगसिद्धिरेव मोक्षः- प्रकरणपञ्जिका, पृ० १८८-१९०। जैमिनीयसम्मत मोक्ष का लक्षण लिखते हुए सोमदेवसूरि ने कहा है- कोयला और कज्जल की भाँति स्वभावत: मलिन चित्तवृत्त कभी शुद्ध नहीं हो सकती- यशस्तिलक, उत्तरार्ध २६९। बौद्धधर्म ज्ञान की धारा को ही आत्मा मानता है। इस तरह उक्त दर्शनों की मान्यताओं की वीरनन्दी ने समालोचना की है। इसकी विशेष जानकारी के लिए पाठक प्रस्तुत ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद और 'तत्त्वसंसिद्धिः' देख लें। इस प्रसङ्ग को आद्योपान्त पढ़कर वीरनन्दी के दार्शनिक वैदुष्य का अनुमान लगाया जा सकता है। (७) चन्द्रप्रभचरित की जैन व जैनेतर ग्रन्थों से तुलना (अ) जैन ग्रन्थ (१) आचार्य कुन्दकुन्द (ई० की पहली शती) और वीरनन्दी चं०च० - १८,६९,१८,६८;१८ . पञ्चस्तिकाय - ८५ ६;१८,७८-७९ नियमसार - ३४,१६,२०-२४. (२) आचार्य उमास्वामी (वि० १-३ शती) और वीरनन्दी चं०च० - १८,२,१८,७-८ तत्त्वार्थसूत्र – १,४; ३,१ (३) पूज्यपादस्वामी (वि० ५वीं शती) और वीरनन्दी चं०च० – १८,४,१८,२-३५०-५१; सर्वार्थसिद्धि – १,४; १,४ १८,१२५-१२७ पृ. ३ (ज्ञानपीठ संस्करण) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) अकलङ्कदेव (वि० ७वीं शती) और वीरनन्दी चं०च० – १८,४३,१८,२३-२६; तत्त्वार्थवार्तिक- अ.३ पृ. २०१(ज्ञा.सं.) १७,७५ अ. ३ पृ. २०८ (ज्ञा.सं.) अ. ३ पृ. ४८२ (ज्ञा.सं.) (५) भगवज्जिनसेन (ई० ८वीं शती) और वीरनन्दी चं०च० -१८;१८,७६-७७ आदिपुराण- पर्व १,३१-३२; पर्व, ३,७; पर्व २४, १४७ (६) नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (वि. ११वीं शती का प्रारम्भ) और वीरनन्दी चं०च० – १८,२०-२१ गोम्मटसार जीवकाण्ड -- गा. ८५ . (७) महाकवि असग (वि. ११वीं शती का प्रारम्भ) और वीरनन्दी चं०च० – २,१४२;२,१३८-१४०; वर्धमानचरित-५,१२,५,१४,५,१८; १,२६,४, ४८ ७ ,६४ । (८) महाकवि हरिचन्द्र५२ (वि० १२वीं शती) और वीरनन्दी - चं०च० – १८,२,१८,३,१८,७५; धर्मशर्माभ्युदय-२१,८,२१,९; । १८,१३२ २१,८९,२१,१६६-६७ (९) विबुध श्रीधर (वि० १२-१३वीं शती) और वीरनन्दी चं०च० -१५,२७-३०;१५,३२-३४ पासणाहचरिउ५३-संधि ३कड़. १६-१७; संधि ४ कड़. ६ (आ) जैनेतर ग्रन्थ (१) महाकवि कालिदास (ई० ४-५ शती) और वीरनन्दी चं०च० -३,४;३,६४;३,७३; रघुवंश- १,२४;३,८;३,१६; ८,८८ ७,८ (२) महाकवि भारवि (ई० ७वीं शती) और वीरनन्दी चं०च० – ३,४८;५,८५,१२,१५; किरातार्जुनीय- ३,७,३,१२; १२,८९ २,४१;१,४२ (३) महाकवि माघ (ई० ७वीं शती का अन्तिम चरण) और वीरनन्दी चं०च० - १५,६०,५,७६-७७; शिशुपालवध- ५,४४; १,१४-१५; ६,२२; ८,५८; २,१३; ८,६६; १४,४७, ५,२७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन व जैनेतर ग्रन्थों के साथ की गयी चन्द्रप्रभचरित की इस संक्षिप्त तुलना से वीरनन्दी के व्यापक अध्ययन का पता चलता है। ८. चन्द्रप्रभचरित की साहित्यिक सुषमा - 1 चन्द्रप्रभचरित एक महाकाव्य — निर्दोष, सगुण, सालङ्कार और कहीं (जहाँ रस आदि की स्पष्ट प्रतीति हो) निरलङ्कार भी शब्द और अर्थ दोनों का जहाँ सुन्दर सन्निवेश हो उसे काव्य कहते हैं । ५४ दृश्य की भाँति श्रव्यकाव्य की भी अनेक विधाएँ हैं । महाकाव्य उन्हीं में से एक है। आठ सर्गों से अधिक सर्गबद्ध रचना को महाकाव्य कहते हैं । इसमें देव या धीरोदात्तत्व आदि गुणों से विभूषित कुलीन क्षत्रिय एक नायक होता है । कहीं एक वंश के कुलीन अनेक राजा भी नायक होते हैं। इसमें शृङ्गार, वीर और शान्तइन तीनों में से कोई एक रस अङ्गी (प्रधान) होता है और शेष अङ्ग (अप्रधान) । नाटकों की भाँति इसमें भी मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण - ये पाँच सन्धियाँ होती हैं। इसकी कथा ऐतिहासिक या लोकविख्यात सज्जन से सम्बद्ध होती है। इसमें धर्म आदि चारों पुरुषार्थों की चर्चा रहती है, पर फल का सम्बन्ध एक से ही रहता है। इसका आरम्भ आशीर्वाद, नमस्कार या वर्ण्य वस्तु के निर्देश से होता है, इसमें दुर्जनों की निंदा और सज्जनों की प्रशंसा रहती है। प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग रहता है, पर उसके अन्त में अन्य छन्दों का भी । किसी एक सर्ग में अनेक छन्द भी प्रयुक्त होते हैं। सर्ग के अन्त में अगले सर्ग की कथा की सूचना रहती है । ५५ इसके वर्ण्य विषय हैं— राजा, ५७ रानी, ५८ पुरोहित, ५९ कुमार, ६० अमात्य, सेनापति, देश, ६१ ग्राम, पुर, सरोवर, समुद्र, ६५ सरित्, ६६ उद्यान, ६७ पर्वत, ६८ अटवी,' मन्त्रणा, दूत, प्रयाण,७२ मृगया-अश्व,७३ गज, ७४ ऋतु, ७५ सूर्य, ७६ चन्द्र, ७७ आश्रम, ७८ युद्ध, ७९ विवाह, वियोग, सुरत, १ स्वयंवर, पुष्प वचय' और जलक्रीड़ा। ८३ आलङ्कारिकों के अभिप्रेत महाकाव्य के लक्षण की कसौटी पर चन्द्रप्रभचरित का महाकाव्यत्व खरा उतरता है, जो सर्वमान्य है । ६ ६२ ६३ ६४ ६९ ७० ७१ ८० ४७ नामकरण— साहित्यदर्पण (६, ३२४) के अनुसार महाकाव्य का नाम कवि के नाम पर, जैसे माघ; वर्ण्यविषय के नाम पर, जैसे कुमारसम्भव; नायक के नाम पर, जैसे विक्रमाङ्कदेव चरित; अथवा रघुवंश आदि की भाँति वंश आदि के नाम पर भी रखा जाता है। प्रस्तुत चन्द्रप्रभचरित का नामकरण इसके नायक चन्द्रप्रभ के नाम के आधार पर हुआ है, जो सद्वंश क्षत्रिय रहे । मङ्गलाचरण ४- काव्यादर्श (१,१४) के अनुसार महाकाव्य का प्रारम्भ आशीर्वादात्मक किंवा नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण से या सीधे वस्तु निर्देश से भी होता है । चन्द्रप्रभचरित का प्रारम्भ आशीर्वादात्मक (तीन पद्य) और नमस्कारात्मक (चतुर्थ पद्य) मङ्गलाचरण से हुआ है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ चन्द्रप्रभचरित का तुलनात्मक अध्ययन- रघुवंश, किरातार्जुनीयम्, माघ् और नैषधीयचरित - इन चार महाकाव्यों की विद्वत्संसार में विशेष ख्याति है । यहाँ इन्हीं के साथ चन्द्रप्रभचरित के कुछ अंशों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है । १. मङ्गलाचरण - किरात, माघ और नैषध का प्रारम्भ वस्तुनिर्देश से हुआ है। इसी में मङ्गलाचरण की कल्पना की गयी है, जैसा कि उनकी टीकाओं से ज्ञात होता है। रघुवंश में कालिदास ने नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण किया है। इसमें उन्होंने अपने आराध्य पार्वती और परमेश्वर (शिवजी) का अभिवादन किया है। इसका मुख्य उद्देश्य शब्द अर्थ का ज्ञान प्राप्त करना है। वीरनन्दी ने जगत्कल्याण के उद्देश्य से चन्द्रप्रभचरित के प्रथम पद्य में ऋषभदेव को, लोकशान्ति के उद्देश्य से द्वितीय पद्य में चन्द्रप्रभ को, आत्मशान्ति के उद्देश्य से तीसरे पद्य में शान्तिनाथ को और विशिष्ट गुणों की प्राप्ति के उद्देश्य से चौथे पद्य में महावीर को नमस्कार किया है। मङ्गलाचरण के इन पद्यों से अभिव्यक्त उदात्तभावना की दृष्टि से वीरनन्दी कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष - इन चारों कवियों से आगे हैं। २. सज्जन - दुर्जनों का वर्णन - रघुवंश आदि चारों महाकाव्यों में सज्जन - दुर्जनों का वर्णन नहीं है, पर चन्द्रप्रभचरित ( १, ७-८ ) में है। इस प्रसङ्ग में एक मार्मिक बात यह भी द्रष्टव्य है कि वीरनन्दी ने दुर्जनों को भी गुरु मानकर नमन किया है । ८५ काव्येतर ग्रन्थ अपने नियत विषयों का ही प्रतिपादन करते हैं, पर काव्य की यह विशेषता है कि वह प्रसङ्गतः अन्यान्य विषयों पर भी प्रकाश डालता है। नीरस विषय भी काव्य के सम्पर्क से सरस बन जाते हैं। इसी दृष्टि से वीरनन्दी ने सज्जन- दुर्जनों का भी आकर्षक वर्णन किया है। ३. द्वीप वर्णन - चन्द्रप्रभचरित में कनकप्रभ आदि सभी राजाओं के अन्य वर्णन के साथ उनके द्वीपों की भी चर्चा की गयी है, पर रघुवंश आदि चारों महाकाव्यों में राजाओं के द्वीपों की, जिनके वे निवासी रहे, चर्चा नहीं है । चन्द्रप्रभचरित की भाँति उनकी भी कथावस्तु पौराणिक है, अतः पुराणों के आधार पर उनमें भी यह चर्चा दी जा सकती थी । ४. देश - पुर- वर्णन - चन्द्रप्रभचरित में मङ्गलावती आदि अनेक देशों एवं रत्नसञ्चय आदि पुरों का सजीव वर्णन द्रष्टव्य है। इनके वर्णन के प्राय: अन्तिम पद्यों में परिसंख्यालङ्कार में वहाँ की सामाजिक स्थिति पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। जैसे२, १२२; २, १३८-३९ आदि। यह बात रघुवंश आदि चारों में नहीं है। ५. नायकवर्णन - महाकाव्य में उसके नायक का उत्कर्ष दिखलाना कवि का मुख्य लक्ष्य होता है। चन्द्रप्रभचरित में इसकी जितनी पूर्ति की गयी है, रघुवंश आदि - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ चारों में दृष्टिगोचर नहीं होती । चन्द्रप्रभचरित में नायक का क्रमिक उत्कर्ष, पिछले सातवें जन्म से शुरू होता है जो चन्द्रप्रभ के भव में चरम सीमा तक पहुँचता है। वाग्भट, असग, वादिराज, हरिचन्द्र और अर्हद्दास आदि जैन महाकवियों ने अपने महाकाव्यों में इसी ढंग से नायकों का उत्कर्ष सिद्ध किया है। कादम्बरी में इसकी आंशिक झलक मिलती है, पर वह महाकाव्य में नहीं है। रघुवंश में दिलीप से लेकर अग्निवर्ण पर्यन्त राम की अनेक पीढ़ियों का वर्णन है, न कि उनकी भवावली का । माघ (१,४२-६८) में शिशुपाल के पिछले भवों का वर्णन है, पर वह नायक नहीं, प्रतिनायक है। कुमारसम्भव (१,२१) में पार्वती के पिछले भव का उल्लेख है, किन्तु वह भी नायक नहीं है। निष्कर्ष यह कि नायक का उत्कर्ष दिखलाने वाली भवावली जिस तरह चन्द्रप्रभचरित में वर्णित है, उस तरह रघुवंश आदि चारों में नहीं है । भवावली के वर्णन से महाकाव्य में पुराणत्व आ जायेगा, यह बात सर्वमान्य नहीं हो सकती। किसी भी व्यक्ति के वर्तमान जीवन के उत्कर्ष में उसके पिछले जन्मों की साधना का प्रभाव रहता है। वर्तमान जीवन की भी पिछली साधना उसके भावी उत्कर्ष का हेतु होती है- यह स्वाभाविक है। अतएव उत्तरपुराण के आधार पर चन्द्रप्रभचरित में नायक के पिछले छः भवों का जो वर्णन किया गया है, वह उस (चन्द्रप्रभचरित) के वैशिष्ट्य का परिचायक है। ६. नायिका वर्णन चन्द्रप्रभचरित में चन्द्रप्रभ की पत्नी के अतिरिक्त उनके पिछले जन्मों से सम्बद्ध सुवर्णमाला, श्रीकान्ता, अजितसेना आदि का भी वर्णन है। इनकी विशेषता यह है कि किसी का भी नखशिख वर्णन नहीं किया गया, सभी के शील आदि गुणों पर प्रकाश डाला गया है। इसके लिए चन्द्रप्रभचरित के १,५५; ३,१६ आदि पद्य द्रष्टव्य हैं। रघुवंश, माघ और किरात में मुख्य नायिकाओं का नाम मात्र का ही वर्णन है । नैषध दमयन्ती का नखसिख वर्णन है, न कि शील आदि का । अतः चन्द्रप्रभचरित का नायिका वर्णन प्रस्तुत चारों महाकाव्यों से विलक्षण है। ७. नायिकाओं की चेष्टाओं का वर्णन - किसी विशिष्ट व्यक्ति के आने पर उसे देखने के लिए स्वाभाविक कौतूहल ( वह इच्छा, जिसे रोका न जा सके) वश नायिकाओं में अनेक चेष्टाएँ उत्पन्न होती हैं। इनका सजीव चित्रण चन्द्रप्रभचरित (७, ८२-९०), रघुवंश (७,६-१२), माघ (१३, ३१-४८) और नैषध (१६, १२६-१२७) द्रष्टव्य है । किरात में इस प्रसङ्ग के पद्य दृष्टिगोचर नहीं हुए। इस प्रसङ्ग का चन्द्रप्रभचरित (७,८७) का पद्य अत्यन्त सुन्दर है, जिसका भाव है— कोई अन्य नायिका अंगुलियों अंगुलियाँ मिलाकर दोनों बाहुओं को अपने सिर पर रखकर जमुहाई लेने लगी, जिससे वह ऐसी जान पड़ी मानो सम्राट् अजितसेन को देखकर हृदय में प्रवेश करने वाले कामदेव Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के निमित्त से माङ्गलिक तोरण तैयार कर रही हो। ऐसी अनूठी कल्पना रघुवंश आदि.. में खोजने पर भी नहीं मिली। चन्द्रप्रभचरित इस प्रसङ्ग के अन्य पद्य भी अभिनव कल्पनाओं से अनुस्यूत हैं, अत: चन्द्रप्रभचरित का यह प्रसङ्ग रघुवंश आदि चारों काव्यों के समीक्ष्य सन्दर्भ से कहीं अधिक स्तुत्य है। । प्रस्तुत प्रसङ्ग के नैषध (१६, १२७), माघ (१३,३५), रघुवंश (७,११) तथा चन्द्रप्रभचरित (७,८७) के पद्यों में क्रमश: चमत्कृति अधिक है। नैषध का यह पद्य अनेक दृष्टियों से दोषपूर्ण भी है। यों नैषध श्रेष्ठ महाकाव्यों में से एक है, पर उक्त पद्य उसके रूप के अनुरूप नहीं है। ८. ऋतुवर्णन-ऋतुओं का वर्णन प्राय: सभी महाकाव्यों में रहता है। रघुवंश (९, २४-४७) में वसन्त, किरात (१०,१९-३६) में वर्षा, हेमन्त, वसन्तं और ग्रीष्म एवं (४,१-३६) में शरद्, माघ (६,१-७९) में सभी तथा चन्द्रप्रभचरित (८.१-५१) में वसन्त वर्णित है। नैषध (१,७५-१०६) में नल के क्रीडावन में एक ही साथ अनेक ऋतुओं के फूल, फल और पक्षी वर्णित हैं, इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र ऋतु वर्णन नहीं किया गया। इस प्रसंग के पद्यों में भारवि और श्रीहर्ष को छोड़कर शेष (कालिदास, माघ और वीरनन्दी) ने यम का प्रयोग किया है। रघुवंश के प्रसंग के पद्यों के केवल उत्तरार्ध में, माघ के उत्तरार्ध के साथ किसी-किसी पद्य के पूर्वार्ध में भी यमक प्रयुक्त है, पर चन्द्रप्रभचरित के सभी पद्यों के पूवार्ध और उत्तरार्ध दोनों में ही। चन्द्रप्रभचरित के द्वितीय सर्ग (११-२३) में राजा पद्मनाभ के उद्यान में युगपद् सभी ऋतुओं के फल-फूल और पक्षी वर्णित हैं। इस सन्दर्भ में चमत्कारपूर्ण अर्थालङ्कारों का प्रयोग हुआ है। इसकी एक झलक नैषध (१,७५-१०६) में दृष्टिगोचर होती है, जो किरात में नहीं के बराबर है। अत: इस प्रसंग की रचना में चन्द्रप्रभचरित का अपना स्वतन्त्र वैशिष्ट्य है। ९. पर्वत वर्णन- अलङ्कारशास्त्र के निर्देशानुसार महाकाव्यों के वर्ण्य विषयों में पर्वत भी है, पर रघुवंश और नैषध में इसके वर्णन के लिए स्वतन्त्र सर्ग दृष्टिगोचर नहीं होते। किरात, माघ और चन्द्रप्रभचरित में क्रमश: हिमालय, रैवतक (गिरनार) और मणिकूट पर्वत के वर्णन के लिए पाँचवें, चौथे तथा चौदहवें सर्ग का स्वतन्त्र उपयोग किया गया है। इस सन्दर्भ में भारवि ने चौदह और माघ ने उन्नीस छन्दों का प्रयोग किया है तो वीरनन्दी ने बीस का। जलोद्धृतगति, द्रुतविलम्बित, पुष्पिताग्रा, प्रहर्षिणी, प्रमिताक्षरा, मालिनी, वसन्ततिलका, शालिनी और मालिनी, इन नौ छन्दों का उक्त तीनों महाकवियों ने पर्वत वर्णन के प्रसंग में समान रूप से उपयोग किया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में भारवि ने कान्तोत्पीडा और प्रभा का, माघ ने आर्यागीति, कुरीरुता, पथ्या, मत्तमयूर वंशस्थ, सुमंगला एवं स्रग्विणी का तथा वीरनन्दी ने अतिरुचिरा, इन्द्रवज्रा, पृथ्वी, मन्दाक्रान्ता और रथोद्धता छन्दों का एक-दूसरे से भिन्न प्रयोग किया है। इन तीनों Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ महाकाव्यों के प्रस्तुत प्रसंग के प्रायः सभी पद्य चमत्कारपूर्ण हैं, पर स्वाभाविकता की दृष्टि से वीरनन्दी कहीं-कहीं दोनों से आगे चले जाते हैं। १०. सूर्यास्त आदि का वर्णन - कालिदास ने रघुवंश में यत्र-तत्र प्रभात आदि का संक्षिप्त वर्णन किया है, पर इसके लिए किसी पूरे सर्ग का उपयोग नहीं किया । श्रीहर्ष ने नैषध के उन्नीसवें सर्ग में प्रभात का वर्णन किया है, जो माघ की तुलना में फीका है। भारवि ने किरात के नवम सर्ग में और माघ ने माघ के तीन (९-११) सर्गों में सूर्यास्त से प्रभात तक का, जिसमें गोष्ठी, मधुपान, प्रणयालाप तथा सम्भोग शृङ्गार भी सम्मिलित हैं, आकर्षक वर्णन किया है। वीरनन्दी ने चन्द्रप्रभचरित के दशम सर्ग में मधुपान को छोड़कर शेष सभी का चमत्कारपूर्ण वर्णन किया है, जो किरात और माघ से भी अच्छा है। इस प्रसङ्ग के पद्यों का पाठक वीरनन्दी की श्लाघा किये बिना नहीं रह सकता । सूर्यास्त के प्रसंग में किरात (९, १), माघ (९, १) और चन्द्रप्रभचरित (१०,१) को ध्यान से पढ़ने पर तीनों की चमत्कृति का उत्तरोत्तर प्रकर्ष ज्ञात होने लगता है। केवल एक ही पद्य नहीं दसवाँ सर्ग पूरा का पूरा चमत्कारों से भरा हुआ है, चमत्कार का मूलकारण उक्ति वैचित्र्य है । इस दृष्टि से वीरनन्दी प्रस्तुत अन्य कवियों से कहीं अधिक सफल हुए हैं। ११. युद्ध वर्णन - महाकाव्य में युद्ध जैसे भयावह विषय का भी सरस वर्णन किया जाता है। रघुवंश के तीन ( ३, ७, १२) सर्गों के कुछ पद्यों में युद्ध का संक्षिप्त किन्तु सारगर्भ वर्णन है । किरात के पूरे पन्द्रहवें तथा माघ के उन्नीस - बीसवें सर्गों में युद्ध का वर्णन किया गया है । चन्द्रप्रभचरित के पूरे पन्द्रहवें सर्ग में युद्ध का विस्तृत वर्णन है। रघुवंश की भाँति अन्य सर्गों में भी इसका जो संक्षिप्त वर्णन है, वह इससे भिन्न है । किरात और माघ की भाँति चन्द्रप्रभचरित में वर्णित युद्ध के अर्धचन्द्र, असि, कुन्त, कवच, गदा, चक्र, चाप, परशु, प्रास, बाण, मुद्गर, यष्टि, वज्रमुष्टि, शङ्कु और शक्ति आदि अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग का उल्लेख है। कालिदास ने युद्ध-वर्णन के पद्यों में अर्थचित्र को और भारवि तथा माघ ने शब्दचित्र को मुख्यता दी है, पर वीरनन्दी ने इस सन्दर्भ में मध्यमार्ग का आश्रय लिया है। इसीलिए इन्होंने एक पद्य में एकाक्षर चित्र, एक पद्य में ट्र्याक्षर चित्र तथा कुछ पद्यों में यमक का प्रयोग किया और शेष में अर्थचित्र का | शब्दचित्र के प्रदर्शन में भारवि और माघ दोनों पटु हैं, पर इसमें माघ अधिक सफल हुए हैं। रघुवंश की भाँति चन्द्रप्रभचरित के युद्धवर्णन में वीर रस का जो आस्वाद प्राप्त होता है, किरात और माघ में नहीं । चन्द्रप्रभचरित का वर्ण्यविषय किरात और माघ जैसा है, पर भाषा और शैली रघुवंश जैसी । यही कारण है कि युद्ध जैसे विषय में भी वीरनन्दी को कालिदास की ही भाँति सफलता प्राप्त हुई है। चैन्द्रप्रभचरित के प्रस्तुत प्रसंग में एक विशेष बात यह भी है कि रणाङ्गण में विजय पाने वाले राजा पद्मनाभ को जब उसके एक सैनिक ने प्रतिद्वन्द्वी राजा पृथ्वीपाल का Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 कटा हुआ सिर दिखलाया तो उसे उसी समय वैराग्य हो गया। इस अवसर पर उसके मुख से जो उद्गगार निकले वे स्तुत्य हैं। अन्त में वह पृथ्वीपाल का राज्य उसके पत्र को और अपना राज्य अपने पुत्र को देकर श्रीधर मुनि के निकट जिन दीक्षा ले लेता है। माघ के अन्तिम सर्ग में भ० कृष्ण द्वारा युद्ध में शिशुपाल के सिर काटने का उल्लेख है, पर उसके बाद चन्द्रप्रभचरित जैसे विचारों का वर्णन नहीं है। इस ढंग का वर्णन रघुवंश, किरात या अन्य किसी महाकाव्य में अभी तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ। किसी भी अच्छे या बुरे काम के बाद उसके करने वाले व्यक्ति के हृदय में कुछ-न-कुछ विचार अवश्य उत्पन्न होते हैं। सत्कवि द्वारा उनकी चर्चा अवश्य की जानी चाहिए। निष्कर्ष यह कि चन्द्रप्रभचरित का युद्धवर्णन भी अपने ढंग का एक है। १२. चतुर्थ पुरुषार्थ का वर्णन- भामह ने (काव्या० १,२) में काव्य-प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है- सत्काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, कला प्रवीणता, आनन्द एवं कीर्ति प्रदान करती है। विश्वनाथ ने (साहित्यदर्पण१,२) में लिखा है कि अल्पमति व्यक्तियों को भी विशेष परिश्रम किये बिना धर्म आदि पुरुषार्थों के फल की प्राप्ति काव्य से ही हो सकती है, अत:.....। इस प्रयोजन की दृष्टि से वीरनन्दी अपने काव्य निर्माण में पूर्ण सफल हुए हैं। काव्योचित अन्यान्य विषयों के साथ चन्द्रप्रभचति में चारों पुरुषार्थों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। चन्द्रप्रभचरित के अन्तिम सर्ग में केवल चतुर्थ पुरुषार्थ का ही वर्णन है। इसमें सात तत्त्व, मोक्ष का स्वरूप और उसके प्राप्त करने के उपाय- इन विषयों का विस्तृत वर्णन है। इसका सीधा सम्बन्ध चन्द्रप्रभ की दिव्य देशना से है। नायक की मुक्ति प्राप्ति पर प्रस्तुत महाकाव्य की समाप्ति हुई है। सत्काव्यों के अध्ययन से चतुर्वर्ग रूप फल की प्राप्ति अलङ्कार ग्रन्थों में बतलायी गयी है तो धर्म से लेकर मोक्ष पर्यन्त चारों वर्गों या पुरुषार्थों का वर्णन भी सत्काव्यों में होना चाहिए, जैसा कि चन्द्रप्रभचरित में है। रघुवंश आदि चारों जैनेतर काव्यों में यह दृष्टिगोचर नहीं होता। किसी एकाध पद्य से इसका सम्बन्ध जोड़ दिया जाये तो वह अलग बात होगी। चन्द्रप्रभचरित का अङ्गी रस शान्त है, जिसका फल मोक्ष है, अत: इसमें मोक्ष पुरुषार्थ का वर्णन आवश्यक था, जिसे वीरनन्दी ने पूरा किया। इस तुलनात्मक संक्षिप्त अध्ययन से यह स्पष्ट है कि वीरनन्दी अपने महाकाव्य के निर्माण में कालिदास, भारवि, माघ और श्रीहर्ष आदि महाकवियों की अपेक्षा कहीं अधिक सफल हुए हैं। वीरनन्दी यदि जैन न होते तो इनका महाकाव्य भी रघुवंश आदि की भाँति ख्याति प्राप्त करता और प्रचार में भी आ जाता। ९. चन्द्रप्रभचरित में रस योजना ‘स कविर्यस्य वचो न नीरसम्' (चन्द्रप्रभचरित १२, १०८)- इस उक्ति से स्पष्ट है कि वीरनन्दी की दृष्टि में श्रेष्ठ कवि वह है, जिसका काव्य सरस हो। यही कारण Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ है कि चन्द्रप्रभचरित में आदि से अन्त तक रस की अविच्छिन्न धारा प्रवाहित है। यहाँ इसके मुख्य रसों का उल्लेख प्रस्तुत है। शान्तरस- चन्द्रप्रभचरित का अङ्गी (प्रधान) रस शान्त है, जो इसके प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पञ्चम, एकादश, पञ्चदश (१३३-१६१), सप्तदश और अन्तिम अष्टादश सर्ग में प्रवाहित है। इन सर्गों में विरक्ति के कारणों के मिलने पर संसार, शरीर, यौवन, जीवन और विषयों की अनित्यता, मनिदर्शन, दीक्षा, तपस्या, दिव्य देशना और मुक्ति की प्राप्ति वर्णित है। उदाहरण के लिए १, ७८; ४, २५; ११, १७; १५, १३५; १७, ६९ इत्यादि पद्य द्रष्टव्य हैं। शृङ्गाररस- चन्द्रप्रभचरित के सप्तम सर्ग के बयासीवें पद्य से लेकर दशम सर्ग के अन्त तक शृङ्गार रस प्रवाहित है। सप्तम सर्ग के उक्त अंश में दिग्विजय के उपरान्त सम्राट् अजितसेन अपनी राजधानी में प्रवेश करते हैं। इन्हें देखने वाली नायिकाओं की विविध चेष्टाएँ शृङ्गार रस (पूर्वराग) को अभिव्यक्त करती हैं। अष्टम सर्ग में वसन्त ऋतु, नवम में उपवन यात्रा, उपवन विहार एवं जलक्रीड़ा तथा दशम में यंकाल, अन्धकार, चन्द्रोदय और रात्रिक्रीड़ा (सुरत) वर्णित हैं, जिनमें सम्भोग और विप्रलम्भ दोनों का आस्वाद मिलता है। अन्य सर्गों में भी न्यूनाधिक मात्रा में शृङ्गार रस विद्यमान है। ७, ८३, ८, ३९; ९, २४; १०, ६० इत्यादि पद्य शृङ्गार रस के उदाहरण के रूप में द्रष्टव्य हैं। पति-पत्नी के हृदय में विद्यमान रति (स्थायीभाव) यदि एक-दूसरे के प्रति हो तो वह विभाव, अनुभाव और सञ्चारी भाव के संयोग से शृङ्गार रस के रूप में परिणत हो जाती है। यदि यही रति देव, मुनि या राजा आदि के विषय में हो तो वह 'भाव' रूप में परिणत होती है। इसके उदाहरण इस प्रकार हैं। देव विषया रति-१७, ३२; मुनिविषया रति ११, ४२; राजविषया रति - १२-६८।। वीररस- ग्यारहवें सर्ग (८५-९२) में तथा पन्द्रहवें (१-१३१) में वीररस है। ग्यारहवें सर्ग के अन्त में राजा पद्मनाभ द्वारा अदम्य उत्साहपूर्वक, राजधानी में प्रलय मचाने वाले एक जंगली हाथी को वश में लाने का वर्णन है और पन्द्रहवें सर्ग के इसी हाथी को अपना बतलाकर अपमानजनक व्यवहार करने वाले राजा पृथ्वीपाल के साथ पद्मनाभ के युद्ध का वर्णन है, जो वीररस से आप्लावित है। १५, ३६; १५, ४८; १५, ५८; १५, ९९ इत्यादि पद्य इसके उदाहरण के लिए अवलोकनीय हैं। रौद्ररस- चन्द्रप्रभचरित के छठे सर्ग में कुख्यात चण्डरुचि नामक असुर पिछले *वैर के कारण राजकुमार अजितसेन का अपहरण करके उसकी हत्या का दुष्प्रयास करता है। राजा महेन्द्र राजा जयवर्मा की अनुपम सुन्दरी कन्या शशिप्रभा को बलात् छीनने के लिए युद्ध छेड़ देता है और इसके पराजित होने पर धरणीध्वज भी शशिप्रभा को Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पाने के उद्देश्य से युद्ध के मैदान में उतर आता है, पर जयवर्मा महेन्द्र की भाँति इसके भी छक्के छुड़ा देता है। इन तीनों प्रसंगों में रौद्ररस का परिपोष हुआ है। वीभत्सरस— चन्द्रप्रभचरित के (१५, ५३) आदि कतिपय पद्यों में वीभत्सरस अभिव्यक्त है, जिसमें मांस एवं रक्तासव के सेवन से उन्मत्त डाकनियों का घडों के साथ नाचना है। करुणरस- • चन्द्रप्रभचरित (५, ५५-७१ ) में करुण रस६ प्रवाहित है, जहाँ अपहृत पुत्र के शोक में उसके पिता अजितंजय का विलाप वर्णित है। इसके उदाहरण के लिए ५, ५८, ५, ६२ आदि पद्य द्रष्टव्य हैं। अद्भुतरस— चन्द्रप्रभचरित (५, ७२-७३) में अद्भुत रस का आस्वाद होता है, जहाँ आकाश मार्ग से उतरते हुए दीप्तिसम्पन्न एक चारण मुनि को अकस्मात् देखते ही अजितंजय और उसकी सभा का विस्मित होना वर्णित है। वात्सल्यरस— चन्द्रप्रभचरित ( १७, ४३-४८) में वात्सल्य रस का भी परिपोष हुआ है, जहाँ शिशु चन्द्रप्रभ की बाललीला को देखकर उनके माता-पिता आनन्दा अनुभव करते हैं। भरत मुनि की भाँति विश्वनाथ कविराज (साहित्यदर्पण ३, २५१) इसे स्वतन्त्र र माना है। यदि यह रस वीरनन्दी को मान्य न रहा हो, तो उक्त सन्दर्भ में पुत्रविषयक रतिभाव स्वीकार्य होना चाहिए । भक्तिरस, लौल्यरस और स्नेहरस आदि सर्वमान्य नहीं हैं, अतः चन्द्रप्रभचरित में इन्हें खोज निकालना निष्फल होगा। इस तरह चन्द्रप्रभचरित में अङ्गाङ्गीभाव से प्रायः सभी रस प्रवाहित हुए हैं। १०. चन्द्रप्रभचरित में अलङ्कार योजना चन्द्रप्रभचरित में जिन अलङ्कारों का सन्निवेश है, उनका एक-एक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है। (क) शब्दालङ्कार छेकानुप्रास - दिव्यान् दिव्याकारकान्तासहायो भोगान् भोगी निर्विशन्निर्विशङ्कः । राज्यभ्रंशिताकारलोकश्चक्रे राज्यं यहाँ व्यञ्जनों की एक-एक बार आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है। इसमें स्वरसाम्य नहीं देखा जाता। वृत्त्यनुप्रास ― चक्री पूर्वपुण्योदयेन । । ७,९४ इत्थं नारी: क्षणरुचिरुचः क्षोभयन्नीतिरक्षः क्षीणक्षोभः क्षपितनिखिलारातिपक्षोऽम्बुजाक्षः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षोणीनाथो विनिहितमहामङ्गलद्रव्यशोभं प्रापत्तेजोविजिततपनो मन्दिरद्वारदेशम् । ।७,११ यहाँ व्यञ्जनों की अनेक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास और आनुनासिक वर्णों की आवृत्ति के कारण श्रुत्यानुप्रास भी है। इनके अतिरिक्त लुप्तोपमा (अर्थालङ्कार) भी विद्यमान है। श्रुत्यनुप्रास नयेन नृणां विभवेन नाकिनां गतस्पृहाणां विनयेन योगिनाम् । महीभुजामेष निजेन तेजसा तनोति चित्ते सततं चमत्कृतिम् । । ११,५२ आनुनासिक वर्णों की आवृत्ति होने से यहाँ श्रुत्यनुप्रास है और उत्तरार्ध में 'त' की अनेक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास भी । इनके अतिरिक्त दीपक (अर्थालङ्कार) भी है। अन्त्यानुप्रास मानोन्मादव्यपनयचतुराश्चैत्रारम्भे विदधति मधुराः । यूनामस्मिन् घटितयुवतयो दूतीकृत्यं परभृतरुतयः । । १४, ३० पूर्वार्ध के चरणों में 'रा:' और उत्तरार्ध के दोनों चरणों के अन्त में 'तय' की आवृत्ति होने से यहाँ अन्त्यानुप्रास है। अथवा ५५ सहसैव समुद्भिद्य सुस्रुवे करिणां कटैः । भेजे कोऽपि महोत्साहो रोमाञ्चकवचैर्भटैः : ।।१५,२९ पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के अन्त में 'टै:' की आवृत्ति होने से यहाँ अन्त्यानुप्रास है। पदयमक भूरिभैरवधीराया रुष्ठैः प्रतिगजश्रुतेः भूरिभैरवधीरायाः समदानैः स्वपाणिना । ।१५,१० यहाँ प्रथम और तृतीय चरणों में अयुतावृत्तिमूलक पादयमक है। यहाँ विसर्गकृत दोष नहीं है, जैसा कि वाग्भटा० (१,२०) में बतलाया गया है। पादयमक - शस्त्रप्रहारैर्गुरुभिः समुदा येन योजितः । तेनामर्षात् पुनः सोऽस्त्रसमुदायेन योजितः ।।१५,४५ यहाँ द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में अयुतावृत्तिमूलक पदयमक है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पदयमक_सेना सेना यती बद्धराजिराजिसमुत्सुका। चक्रे चक्रेषुखङ्गाखसारा सारातिसाध्वसम्।। १५,२० यहाँ संयुतावृत्तिमूलक प्रतिपादादि पदयमक है। पदयमकवणिक्पथस्तूपितरलसंचयं समस्ति तस्मिन्नथ रत्नसंचयम्। पुरं यदालानितमत्तवारणैर्विभाति हम्यैश्च समत्तवारणैः।।१,२१ यहाँ अयुतावृत्तिमूलक प्रत्यर्धभागभिन्न पादान्त्य पदयमक है। पदयमक - यथा पलाशास्तत्रेश शोभन्ते नवकिंशुकैः। तथैव जम्बूतरवो विराजन्ते न किंशुकैः।।२,१७ यहाँ अयुतावृत्तिमूलक पद्यार्धान्त्य पदयमक है। पदयमक - भयात् पलायमानस्य कामस्य गलितः करात्। बाणावलिरिवाभाति बाणावलिरितस्ततः।।२,२० यहाँ अयुतावृत्तिमूलक तृतीय-चतुर्थ पादादिगत पदयमक है। पदयमक तत्र शासति महीं जनतायास्त्रातरि क्रमसरोजनतायाः। मोदयन्मधुरभून्मधुपानां संततिं कृतगलन्मधुपानाम्।। ८, १ यहाँ अयुतावृत्तिमूलक प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थपादान्तगत पदयमक है। चन्द्रप्रभचरित के आठवें, चौदहवें तथा पन्द्रहवें सर्ग में ऐसे ही उदाहरण और भी हैं। वर्णयमक- सपौरः ससुहृद्वर्गः सकलत्रः सबान्धवः । सतनूजः ससामन्तः स चचाल ससैनिकः।। २,३० यहाँ अयुतावृत्तिमूलक आद्यन्त वर्णयमक है। एकाक्षरचित्र- रैरोरा रैररैरेरी रोरो रोरुररेररि रुरूरूरुरुरूरूरोरारारीरैरुरोररम्।।१५,३९ आदि से अन्त तक केवल 'र' व्यञ्जन के होने से यहाँ एक व्यञ्जनचित्र या Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाक्षरचित्र है। व्यक्षरचित्र- धीरधीरारिरुधिरैरुरुधाराधरैररम्। धरा धराधराधारा रुरुधेऽधोऽधराधरा।।१५,४९ आदि से अन्त तक 'ध' और 'र' - इन दो व्यञ्जनों के रहने से यहाँ द्विव्यञ्जनचित्र या व्यक्षर चित्र है। काकुवक्रोक्ति विशदामसमुज्झितान्वयां नयसारामविहीनसौष्ठवाम्। गिरमेष कदाचिदीदृशीमभिदध्यादथवा बृहस्पतिः।।१२, १०० 'अथवा बृहस्पति भी कभी ऐसे वचन कह सकते हैं?' - इस तरह कण्ठध्वनि के परिवर्तन के साथ अर्थ करने पर यहाँ ‘काकुवक्रोक्ति' अलङ्कार घटित होता है। (ख) अर्थालङ्कार , चन्द्रप्रभचरित में जिन अर्थालङ्कारों का प्रचुर मात्रा में सन्निवेश है, उनके नाम इस प्रकार हैं- पूर्णोपमा (१,३१), मालोपमा, (१६,१७), लुप्तोपमा (११,१५), उपमेयोपमा (१०,२७), प्रतीप (३,३), रूपक (१५,५३), परम्परितरूपक(१.१०), परिणाम (५,६०), भ्रान्तिमान् (१,२६;१,२७,६,९;९,३०,१५,५,१४,३२,१४,३८ आदि), अपहृति (५,४३), कैतवापहृति (१४,६४), उत्प्रेक्षा (१,१३), अतिशयोक्ति (१६,३६), अन्तदीपक (१,४५), तुल्ययोगिता (१५,१३५), प्रतिवस्तूपमा (१,६३), दृष्टान्त (११,२१), निदर्शना (४,२४), व्यतिरेक (१,४४), सहोक्ति (३,६६), समासोक्ति (१,१६), परिकर (१७,६२), श्लेष (२,१४२), अप्रस्तुतप्रशंसा (१५,१३४), पर्यायोक्त (१६,२६), अन्य प्रकार का पर्यायोक्त (९,२४), विरोधाभास (१,३७), विभावना (१,५९), अन्य प्रकार की विभावना (६,६६), विशेषोक्ति (४,६), विषम (१५,१३०), अधिक (२,२४), अन्योन्य (१४,१४), कारणमाला (४,३७; ४,३८), एकावली (१,३५), परिवृत्ति (९,४३), परिसंख्या (२,१३८), समुच्चय (३,४९), अर्थापत्ति (१,७३), काव्यलिङ्ग (४,१९), अर्थान्तरन्यास (४,११), तद्गुण (१४,२९), लोकोक्ति (२,२६), स्वभावोक्ति (१४,६३), उदात्त (२,१२८), अनुमान (९,१३), रसवत् (१५,८), प्रेय (१५, १४४), ऊर्जस्वित् (८,२०), समाहित (८,४५), भावोदय (८,२१), संसृष्टि (१,१०) और सङ्कर८७ (८,४३)। ११. चन्द्रप्रभचरित में छन्द योजना चन्द्रप्रभचरित में एक मात्रिक (औपच्छन्दसिक) और तीस वर्णिक छन्द प्रयुक्त Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ हुए हैं, जिनके नाम निम्नलिखित हैं (१) अतिरुचिरा, (२), अनुष्टुप् (३) इन्द्रवज्रा, (४) उद्गता, (५) उपजाति, (६) उपेन्द्रवज्रा, (७) औपच्छन्दसिक, (८) क्षमा, (९) जलधरमाला, (१०) जलोद्धतगति, (११) द्रुतविलम्बित, (१२) नर्कुटक, (१३) पुष्पिताग्रा, (१४) पृथ्वी, (१५) प्रमिताक्षरा, (१६) प्रहर्षिणी, (१७) भ्रमरविलसित, (१८) मन्दाक्रान्ता, (१९) मालिनी, (२०) रथोद्धता, (२१) वंशस्थ, (२२) वंशपत्रपतित, (२३) वसन्ततिलका, (२४) वसन्तमालिका, (२५) शार्दूलविक्रीडित, (२६) शालिनी, (२७) शिखरिणी, (२८) सुन्दरी, (२९) स्रग्धरा, (३०) स्वागाता, (३१) हारिणी । ८८ १२. चन्द्रप्रभचरित की समीक्षा वीरनन्दी को चन्द्रप्रभ का जो संक्षिप्त जीवनवृत्त स्रोतों से समुपलब्ध हुआ, उसे उन्होंने अपने चन्द्रप्रभचरित में खूब ही पल्लवित किया है । चन्द्रप्रभ के जीवनवृत्त को लेकर बनायी गयीं जितनी भी दिगम्बर - श्वेताम्बर कृतियाँ सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनमें वीरनन्दी की प्रस्तुत कृति ही सर्वाङ्गपूर्ण है। इसकी तुलना में उत्तरपुराणगत चन्द्रप्रभचरित भी संक्षिप्त-सा प्रतीत होता है, जो उपलब्ध अन्य सभी चन्द्रप्रभचरितों से, जिनमें हेमचन्द्र का चन्द्रप्रभचरित भी शामिल है, विस्तृत है। अतः केवल कथानक के आधार पर ही विचार किया जाये तो भी यह मानना पड़ेगा कि वीरनन्दी को सबसे अधिक सफलता प्राप्त हुई है। सरसता की दृष्टि से तो इनकी कृति का महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है । वीरनन्दी का चन्द्रप्रभचरित अपनी विशेषताओं के कारण संस्कृत महाकाव्यों में विशिष्ट स्थान रखता है। कोमल पदावली, अर्थ सौष्ठव, विस्मयजनक कल्पनाएँ, अद्भुत घटनाएँ, विशिष्ट संवाद, वैदर्भी रीति, ओज, प्रसाद तथा माधुर्य गुण, विविध छन्दों और अलङ्कारों की योजना, रस का अविच्छिन्न प्रवाह, प्राञ्जल संस्कृत, महाकाव्योचित प्रासंगिक वर्णन और मानवोचित शिक्षा आदि की दृष्टि से प्रस्तुत कृति अत्यन्त श्लाघ्य है। प्रस्तुत कृति में वीरनन्दी की साहित्यिक, दार्शनिक और सैद्धान्तिक विद्वत्ता की त्रिवेणी प्रवाहित है। साहित्यिक वेणी (धारा) अथसे इति तक अविच्छिन्न गति से बही है । दार्शनिक धारा का सङ्गम दूसरे सर्ग में हुआ है और सैद्धान्तिक धारा सरस्वती की भाँति कहीं दृश्य तो कहीं अदृश्य होकर भी अन्तिम सर्ग में विशिष्ट रूप धारण करती है । पर कवि की अप्रतिम प्रतिभा ने साहित्यिक धारा को कहीं पर भी क्षीण नहीं होने दिया। फलतः दार्शनिक और सैद्धान्तिक धाराओं में पूर्ण सरसता अनुस्यूत है। अश्वघोष और कालिदास की भाँति वीरनन्दी को अर्थ चित्र से अनुरक्ति है । यों इन तीनों महाकवियों की कृतियों में शब्दचित्र के भी दर्शन होते हैं, पर भारवि और Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'माघ की कृतियों की भाँति नहीं, जिनमें शब्द चित्र आवश्यकता की सीमा से बाहर चले गये हैं। बुद्धचरित, सौन्दरनन्द, रघुवंश और चन्द्रप्रभचरित इन चारों की रचना शैली में पर्याप्त साम्य है, फिर भी इतना अवश्य है कि वीरनन्दी को कालिदास की अपेक्षा अश्वघोष ने अधिक मात्रा में प्रभावित किया है। जान पड़ता है कि चन्द्रप्रभचरित का नामकरण बुद्धचरित से और सर्ग संख्या सौन्दरनन्द की सर्ग संख्या से प्रभावित है। बुद्धचरित में वर्णित भगवान बुद्ध के जन्म से निर्वाण तक के जीवनवृत्त की भाँति चन्द्रप्रभचरित में चन्द्रप्रभ का जीवन वृत्त वर्णित है। हाँ, चन्द्रप्रभचरित में वर्णित चन्द्रप्रभ के पिछले जन्मों का वृत्त उसकी अपनी विशेषता है, जो जैनेतर काव्यों में नहीं है। अश्वघोष की कृतियों में बौद्ध धर्म के अनुसार जिस तरह मानव जन्म के लाभ, सांसारिक सुख की असारता बतलायी गयी है, दार्शनिक चर्चा की गयी है और पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है, उसी तरह वीरनन्दी की कृति चन्द्रप्रभचरित में जैन धर्म के अनुसार। अथ च अश्वघोष की भाँति वीरनन्दी को भी शान्तरस अभिप्रेत है। इसी आधार पर जान पड़ता है कि वीरनन्दी अश्वघोष से अधिक प्रभावित रहे। चन्द्रप्रभचरित में वर्णित चन्द्रप्रभ का जीवनवृत्त अतीत और वर्तमान की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रारम्भ के पन्द्रह सर्गों में अतीत का और अन्तिम तीन सर्गों में वर्तमान का वर्णन है। इसलिए अतीत के वर्णन से वर्तमान का वर्णन कुछ दब-सा गया है। चन्द्रप्रभ की प्रधान पत्नी का नाम कमलप्रभा है। नायिका होने के नाते इनका विस्तृत वर्णन होना चाहिए था, पर केवल एक (१७,६०) पद्य में इनके नाममात्र का ही उल्लेख किया गया है। इसी तरह इनके पुत्र वरचन्द्र की भी केवल एक (१७,७४) पद्य में ही नाममात्र की चर्चा की गयी है। दोनों के प्रति बरती गयी यह उपेक्षा खटकने वाली है। दूसरे सर्ग में की गयी दार्शनिक चर्चा अधिक लम्बी है। इसके कारण कथा का प्रवाह कुछ अवरुद्ध-सा हो गया है। इतना होते हुए भी कवित्व की दृष्टि से प्रस्तुत महाकाव्य प्रशंसनीय है। क्लिष्टता और दूरान्वय के न होने से इसके पद्य पढ़ते ही समझ में आ जाते हैं। इसकी सरलता रघुवंश और बुद्धचरित से भी कहीं अधिक है। १३. महाकवि वीरनन्दी का परिचय चन्द्रप्रभचरित के अन्त में मुद्रित ग्रन्थकार की प्रशस्ति (श्लोक १-४) से उनका निम्नलिखित परिचय प्राप्त होता है४ (क) संघ और गण- ग्रन्थकार वीरनन्दी ‘नन्दी' संघ के ‘देशीय' गण में हुए हैं। मूल संघ अर्थात् दिगम्बर सम्प्रदाय की चार शाखाएँ हैं- (१) नन्दी, (२) सिंह, (३) सेन और (४) देव। इन शाखाओं की प्रतिशाखाएँ गण, गच्छ आदि नामों से Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रसिद्ध हैं। नन्दी संघ में जो कई गण, गच्छ आदि हैं, देशीय गण उन्हीं में से एक है। (ख) गुरुपरम्परा-- वीरनन्दी के गुरु का नाम अभयनन्दी और दादा गुरु का नाम ‘विबुध' गुणनन्दी था। वीरनन्दी असाधारण विद्वान् थे, जैसा कि उनकी कृति के अध्ययन एवं अन्य ग्रन्थों के उल्लेखों से ज्ञात होता है। विद्वत्ता तथा प्रभाव (क) विद्वत्ता-चन्द्रप्रभचरित के क्रियापदों के देखने से स्पष्ट है कि वीरनन्दी का व्याकरणशास्त्र पर पूर्ण अधिकार रहा। द्वितीय सर्ग (श्लोक ४४-११०) यह सिद्ध करता है कि वीरनन्दी जैन व जैनेतरदर्शनों के अधिकारी विद्वान् थे। तत्त्वोपप्लव दर्शन की समीक्षा के सन्दर्भ में उन्होंने जो युक्तियाँ दी हैं, वे अष्टसहस्री आदि विशिष्ट दार्शनिक ग्रन्थोंमें भी दृष्टिगोचर नहीं होती। अन्तिम सर्ग वीरनन्दी की सिद्धान्तमर्मज्ञता को व्यक्त करता है। चन्द्रप्रभचरित के तत्तत्प्रसङ्गों में चर्चित राजनीति, गजवशीकरण अॅने शकुन-अपशकुन आदि विषय उनकी बहुज्ञता को प्रमाणित करने में सक्षम हैं। (ख) प्रभाव- अभयनन्दी के शिष्य होने के नाते वीरनन्दी, नेमिचन्द्र. सिद्धान्तचक्रवर्ती के सतीर्थ रहे, जिन्होंने शौरसेनी प्राकृति में गोम्मटसार (जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड), त्रिलोकसार, लब्धिसार और क्षपणासार आदि विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की थी, फिर भी उन्होंने कर्मकाण्ड में अपने को वीरनन्दी का ‘वच्छो' ८९ (वत्स) लिखा है, और एकाधिक बार उनका नामोल्लेख किया है। वीरनन्दी के नाम के आगे ‘णाह' (नाथ) और चंद्र (चन्द्र) का प्रयोग और मङ्गलाचरण के प्रसङ्ग में उनका बार-बार स्मरण किया जाना उनके प्रभाव का द्योतक है। वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथचरित में नामोल्लेखपूर्वक उनकी कृति- चन्द्रप्रभचरित की सराहना की है। कविवर दामोदर ने अपने चन्द्रप्रभचरित में उन्हें 'कवीश' बतलाया है और वन्दन९२ भी किया है। पण्डित गोविन्द ने अपने पुरुषार्थानुशासन में उनका उल्लेख धनञ्जय, असग और हरिश्चन्द्र से भी पहले किया है और उनके काव्य की प्रशंसा भी। ९३ पण्डितप्रवर आशाधर ने उनके चन्द्रप्रभचरित ,के एक (४,३८) पद्य को उधृत करके अपने सागारधर्मामृत के न्यायोपात्त- इत्यादि (१,११) श्लोक में चर्चित कृतज्ञता गुण का समर्थन किया है और इष्टोपदेश की अपनी टीका में चन्द्रप्रभचरित का एक पद्य उद्धृत किया है। जीवन्धरचम्पू तथा धर्मशर्माभ्युदय के कर्ता महाकवि हरिश्चन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय की रूपरेखा चन्द्रप्रभचरित को सामने रखकर बनायी। चन्द्रप्रभचरित और धर्मशर्माभ्युदय की मङ्गलाचरणपद्धति, पुराणों के आश्रय की सूचना, दार्शनिक चर्चा और धर्मदेशना Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायः एक-सी है। धर्मदेशना के कतिपय पद्यों के चरण-के-चरण मिलते हैं। ५४ यदि अनुक्रम और भाव की समानता पर ध्यान दिया जाय तो लगभग आधी धर्मदेशना दोनों की एक जैसी ही सिद्ध होगी। अतएव यह स्पष्ट है कि समकालीन और उत्तरकालीन अनेक विद्वानों पर वीरनन्दी की विद्वत्ता का महान् प्रभाव रहा है। प्रशस्त विचारधारा वीरनन्दी साधु थे, अत: उनका मन विरागता से प्रभावित रहा। इसका आभास उनके चन्द्रप्रभचरित में ही यत्र-तत्र उपलभ्य है। लगभग आठ स्थलों पर उन्होंने विरक्ति के विचारों एवं नरेशों के दीक्षित होने का वर्णन किया है। प्राय: ऐसे ही प्रसङ्गों में उनकी प्रशस्त विचारधारा की झलक मिलती है, जो इस प्रकार है प्रत्येक जन्तु का जीवन-मरण से और यौवन-बुढ़ापे से आक्रान्त है- इसे देखता हुआ भी जड़ मनुष्य अपने हित की ओर ध्यान नहीं देता, यह खेद और आश्चर्य की बात है।।१,६९।। यह मनुष्य जन्म अशुभ कर्मोदय की मन्दता से किसी तरह काकतालीय न्याय से प्राप्त हुआ है। अत: इसे पा कर चतुर्गतिपरिभ्रमण के वृत्तान्त को समझने वाले व्यक्ति को आत्महित के विषय में प्रमाद करना उचित नहीं है।।४,२६।। अनिष्ट संयोग और इष्टवियोग समान रूप से सभी के साथ लगे हुए हैं- इस बात को सोचकर बुद्धिमान् मानव विषाद करके अपने मन को खिन्न नहीं करता।।५,८७।। बुद्धिमान् मानव खूब आगा-पीछा सोचकर कार्य करता है या फिर उसका आरम्भ ही नहीं करता; क्योंकि सहसा कार्य करना पशुओं का धर्म है, वह मानव में कैसे हो सकता है? ||१२,१०२।। पुत्र वह है, जो अपने कुल का विस्तार करे; मित्र वह है, जो विपत्ति में साथ दे; राजा वह है, जो प्रजा की रक्षा करे और कवि वह है, जिसके वचन नीरस न हो।।१२,१०८।। प्रेम से बढ़कर कोई बन्धन नहीं है; विषय से बढ़कर कोई विष नहीं है; क्रोध से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है और जन्म से बढ़कर कोई दुःख नहीं है।।१५,१४३ ।। ऐसे विचार चन्द्रप्रभचरित में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। विस्तार का भय न होता तो उन सभी का संकलन यहाँ प्रस्तुत किया जाता। ___ अन्य वीरनन्दी- प्रस्तुत वीरनन्दी के अतिरिक्त अन्य वीरनन्दी भी हुए है। (१) आचारसार के प्रणेता, जो मेघचन्द्र विद्य के शिष्य थे, (२) महेन्द्रकीर्ति के शिष्य एवं कलधौतनन्दी के प्रशिष्य। (३) 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' उपाधि से विभूषित और (४) पण्डित महेन्द्र के शिष्य। वीरनन्दी का समय चन्द्रप्रभचरित के रचयिता वीरनन्दी ने अपनी इस कृति में कहीं पर भी अपने समय का उल्लेख नहीं किया, पर अन्य आचार्यों के, जिन्होंने अपनी कृतियों में उनके Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ नाम का उल्लेख किया है, समय के आधार पर उनका समय सुनिश्चित है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अपने कर्मकाण्ड में उनके नाम का तीन बार उल्लेख किया है जैसा कि पीछे लिखा जा चुका है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वे नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के समकालीन हैं। प्रेमीजी ने नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का समय विक्रम की ग्यारहवीं शती का पूर्वार्द्ध सिद्ध किया है, अत: चन्द्रप्रभचरित के कर्ता का भी यही समय सिद्ध होता है।९५ बलदेव उपाध्याय ने चन्द्रप्रभचरित के कर्ता वीरनन्दी का समय १३०० ई० लिखा है१६ और डॉ० बहादुरचन्द ने भी लगभग यही समय बतलाया है,९७ जो भ्रममूलक है। वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथचरित में वीरनन्दी और उनके चन्द्रप्रभचरित की प्रशंसा ८ की है, जिसकी समाप्ति शक सं० ९४७ (वि०सं० १०८२) में समाप्त९९ हुई थी। अत: वीरनन्दी इनसे पूर्ववर्ती ही ठहरते हैं। ऐसी स्थिति में वीरनन्दी का सुनिश्चित समय विक्रम की ग्यारहवीं शती का पूर्वार्द्ध ही सिद्ध होता है। १४. चन्द्रप्रभचरित की संस्कृत व्याख्या नाम- प्रस्तुत ग्रन्थ के साथ मुद्रित संस्कृत व्याख्या का सम्पादन जिन आदई हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर किया गया है, उनके पुष्पिकावाक्यों के अनुसार यह 'व्याख्या' नहीं 'व्याख्यान' है और इसका नाम 'विद्वन्मनोवल्लभ' है, पर 'श' प्रति (सर्ग ११) के पुष्पिकावाक्य को ध्यान में रखकर सौन्दर्य की दृष्टि से चन्द्रप्रभचरित के ऊपर व्याख्या का नाम 'विद्वन्मनोवल्लभा प्रकाशित किया गया है और अन्दर 'विद्वन्मनोवल्लभ', यद्यपि समस्यन्त पद के कारण इतना सूक्ष्म अन्तर बाद में ज्ञात हो पाता है। विशेषता- प्रस्तुत व्याख्या साधारण-सी ही है। विज्ञ पाठकों को इसमें स्वयं व्याख्याकार की कुछ अशुद्धियाँ दृष्टिगोचर होंगी। अलङ्कारों के निर्देश भी यत्र-तत्र भ्रान्तिपूर्ण हैं। पर इसकी सबसे बड़ी विशेषता शुद्ध पाठों की बहुलता है, जिसके कारण मूल ग्रन्थ के सम्पादन में बड़ी सहायता मिली है। मूल ग्रन्थ के पदों को अन्वय के अनुसार रखकर उनकी व्याख्या की गयी है। इसके साहाय्य से दार्शनिक अंश को छोड़कर प्राय: पूरे मूलग्रन्थ का अर्थ खुल जाता है। व्याकरण और कोष आदि ग्रन्थों के इसमें जो उद्धरण दिये गये हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं। इसकी तुलना अर्हद्दास के मुनिसुव्रतकाव्य की संस्कृत टीका-'सुखबोधिनी' से की जा सकती है। व्याख्याकार का परिचय- इस व्याख्या के रचयिता का नाम 'मुनिचन्द्र' है। इन्होंने अपने को 'विद्यार्थी' लिखा है। ‘कन्नडप्रान्तीय-ताड़पत्र-ग्रन्थ सूची' (पृ० १२३).... के अनुसार ये अलगंचपुरी के निवासी द्विजोत्तम देवचन्द्र के पुत्र थे। . Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याकार का समय प्रस्तुत व्याख्या में अनेकार्थध्वनिमञ्जरी, अनेकार्थसंग्रह, अभिधानचिन्तामणि, अमरकोष, नाममाला, नानार्थकोष (गद्यात्मक), नीतिवाक्यामृत, वाग्भटालङ्कार, विश्वप्रकाश, विश्वलोचन, वैजयन्ती, शाकटायन और समवसरण स्तोत्र - इत्यादि ग्रन्थों अवतरण हैं। इनमें अनेकार्थसंग्रह और अभिधानचिन्तामणि के रचयिता आ० हेमचन्द्र (वि० १२वीं शती) हैं, अतः व्याख्याकार इनके उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं | चन्द्रप्रभचरित (१८,१; पृष्ठ ४२९) की व्याख्या में 'गंभीरं मधुरं ......' इत्यादि पद्म उद्धृत हैं, जो अज्ञातसमय विष्णुसेन के समवसरण - - स्तोत्र ( प० २९) और वि०सं० की १३वीं शती के आचारसार (४,९५) में पाया जाता है। यदि यह पद्य आचारसार का ही सिद्ध हो जाये तो व्याख्याकार इनके बाद के सिद्ध होते हैं। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'कन्नड़ प्रान्तीय-ताड़पत्र - ग्रन्थसूची ( पृ० १२३) के अनुसार व्याख्याकार का समय 'प्रमोदूत' (प्रमोद) संवत्सर माघ शु० प्रतिपद् रोहिणी नक्षत्र है, जिसे पं० कमलाकान्तजी शुक्ल, प्राध्यापक ज्योतिष विभाग, सम्पूर्णानन्द सं०वि०वि०, वाराणसी ने वि० सं० १५६० (शक०सं० १४२५) माघ शुक्ला प्रतिपदा शनिवार प्रमाणित किया है । १० २ १५. चन्द्रप्रभचरित संस्कृत पञ्जिका ६३ प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम परिशिष्ट में संस्कृत पञ्जिका भी मुद्रित की गयी है। संस्कृत व्याख्या की भाँति यह भी अभी तक अप्रकाशित रही। जिसमें ग्रन्थ के क्लिष्ट पदों का अर्थ खोला जाये, उसे पञ्जिका कहते हैं— 'विषमपदपञ्जिका' यह परिभाषा प्रस्तुत पञ्जिका में अक्षरशः घटित होती है। द्वितीय सर्ग के दार्शनिक पद्यों पर इसमें अच्छा प्रकाश डाला गया है, जिससे पञ्जिकाकार का दार्शनिक वैदुष्य व्यक्त होता है। प्रारम्भिक दो सर्गों की पञ्जिका व्याख्या का काम करती है। इसकी रचना अपेक्षाकृत प्रौढ़ है । पञ्जिकाकार का नाम- जिन आदर्श प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया गया है, उनमें इसके रचयिता का नाम अङ्कित नहीं है, पर डॉ० कस्तूरचन्द्र जी कासलीवाल, जयपुर ने अपने यहाँ की हस्तलिखित प्रतियाँ देखकर इनका नाम गुणनन्दी बतलाया है, जो 'जिनरत्नकोश' (भाग १, पृष्ठ १२० ) में भी दिया गया है। पञ्जिकाकार का समय- 'जिनरत्नकोश' (भाग १, पृष्ठ १२० ) में पञ्जिकाकार का समय वि०सं० १५९७ दिया गया है। पञ्जिका में अनगारधर्मामृत, अनेकार्थध्वनिमञ्जरी, अमरकोष, आत्मानुशासन, आप्तमीमांसा, कामन्दकीयनीतिसार, १०१ काव्यादर्श, तत्त्वार्थसूत्र, पञ्चसंग्रह, पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका, माधवनिदान, रघुवंश और वाग्भटालङ्कार आदि ग्रन्थों के उद्धरण दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें से अनगारधर्मामृत की रचना वि० सं० १३०० में समाप्त हुई। इससे पञ्जिकाकार आशाधर के उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं । पञ्जिकाकार ने प्रथम को छोड़कर शेष सभी सर्गों की पञ्जिका के प्रारम्भ में Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रुतमुनि का जयघोष किया है और उनके वैदुष्य की श्लाघा भी। वि० सं० १३९५ में समाप्त परमागमसार के रचयिता का नाम भी श्रुतमुनि है। यदि इन्हीं का जयघोष पञ्जिकाकार ने किया हो तो वे इनसे परवर्ती ही ठहरते हैं। ऐसी स्थिति में जिनरत्नकोश (भा०१, पृष्ठ १२०) में दिया गया इनका समय (वि० सं० १५९७) सही-सा प्रतीत होता है। विशेष निर्णय के लिए अन्य सामग्री की अपेक्षा है। सन्दर्भ : १. पुराणसारसंग्रह (७६,२) में देश का नाम यन्त्रिल लिखा है। २. पुराणसार (७६,३) में श्रीमती नाम दिया है। ३. उत्तरपुराण (५४,४४) में राजा का चिन्तित होना लिखा है। ४. उत्तरपुराण (५४,५१) में गर्भधारण करने से पहले चार स्वप्न देखने का उल्लेख है और पुराणसारसंग्रह (७६,५) में पाँच स्वप्न देखने का। पुराणसारसंग्रह में गर्भचिह्नों की चर्चा नहीं है। उत्तरपुराण (५४,७३) में मुनि का नाम श्रीपद्म और पुराणसारसंग्रह (७८,१९.) में श्रीधर लिखा है। जिस वन में दीक्षा ली थी, उसका नाम उत्तरपुराण में शिवङ्कर और पुराणसारसंग्रह में प्रियङ्कर दिया है। ७. पुराणसारसंग्रह (७८,१९) में श्रीकान्त के स्थान में श्रीधर लिखा है। ८. उत्तरपुराण (५४;८७) में और पुराणसारसंग्रह (८०,२२) में नगरी का नाम अयोध्या लिखा है। पुराणसारसंग्रह (८०,२३) में रानी का नाम श्रीदत्ता लिखा है। १०. उत्तरपुराण (५४,८९) में श्रीधर देव के गर्भ में आने से पहले रानी के आठ शुभस्वप्न देखने का भी उल्लेख है। ११. इस घटना का उल्लेख उत्तरपुराण और पुराणसारसंग्रह में नहीं है। १२. इस घटना का उल्लेख उत्तरपुराण और पुराणसारसंग्रह में नहीं है। १३. इस घटना का उल्लेख उत्तरपुराण और पुराणसारसंग्रह में नहीं है। इन दोनों में सम्राट द्वारा अरिंदम मुनि को आहार दिये जाने का उल्लेख है, जो चन्द्रप्रभचरित में नहीं है। १४. उत्तरपुराण (५४-१२२) में उद्यान का नाम 'मनोहर' लिखा है। १५. पुराणसारसंग्रह (८२-३२) में कनकाभ नाम लिखा है। १६. पुराणसारसंग्रह (८२-३२) के अनुसार रानी का नाम कनकमाला है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. इस घटना की चर्चा उत्तरपुराण और पुराणसारसंग्रह दोनों में नहीं है। १८. उत्तरपुराण (५४-१४१) में पद्मनाभ की अनेक रानियाँ होने का संकेत है। १९. उत्तरपुराण और पुराणसारसंग्रह में इस घटना का तथा इसके बाद होने वाले युद्ध का उल्लेख नहीं है। २०. वाराणसी से आसाम तक का पूर्वी भारत 'पूर्वदेश' के नाम से प्रख्यात रहा। - उत्तरपुराण, पुराणसारसंग्रह, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और त्रिषष्टिस्मृति में इस देश का उल्लेख नहीं है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (२९६,१३) में इस नगरी का नाम 'चन्द्रानना', उत्तरपुराण (५४,१६३) में 'चन्द्रपुर', पुराणसारसंग्रह (८२,३९) में 'चन्द्रपुर', तिलोयपण्णत्ती (४,५३३) में 'चन्द्रपुर' और हरिवंश (६०,१८९) में 'चन्द्रपुरी' लिखा है। सम्प्रति इसका नाम 'चन्द्रवटी' 'चन्द्रौटी' या 'चन्दरौटी' प्रसिद्ध है। यह वाराणसी से १८ मील दूर गङ्गा के बायें तटपर है। यहाँ दिगम्बर व श्वेताम्बर सम्प्रदाय के दो अलग-अलग जैनमन्दिर हैं। सहे. तिलोयपण्णत्ती (४,५३३) में माता का नाम 'लक्ष्मीमती' लिखा है। २३. उत्तरपुराण, पुराणसारसंग्रह और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में केवल स्वप्नों की संख्या का ही उल्लेख है। गुणभद्र और दामनन्दी ने स्वप्नों की संख्या १६ और हेमचन्द्र ने १४ दी है। हेमचन्द्र की दृष्टि से १४ स्वप्न ये हैं- गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी- अभिषेक, माला, चन्द्र, सूर्य, कुम्भ, ध्वज, सागर, सरोवर, विमान, रत्नराशि और अग्नि। सिंहासन और नाग-विमान ये दो स्वप्न दिगम्बर साहित्य में अधिक हैं। २४. यह मिति उत्तरपुराण (५४,१६६) के आधार पर दी है; क्योंकि तिलोयपण्णत्ती, हरिवंश और पुराणसारसंग्रह की भाँति प्रस्तुत चन्द्रप्रभचरित में इसका उल्लेख नहीं है। उत्तरपुराण में जो मिति दी गयी है वह त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (२९६,२९) में भी दृष्टिगोचर होती है। २५. यही मिति उत्तरपुराण, हरिवंश तथा तिलोयपण्णत्ती में अङ्कित है, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (२९७,३२) में पौष कृष्णा द्वादशी लिखी है, पर पुराणसारसंग्रह (८४,४४) में केवल अनुराधायोग का ही उल्लेख मिलता है। २६. उत्तरपुराण (५४,१७४) में स्तुति का उल्लेख नहीं है, 'आनन्द' नाटक का उल्लेख है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में नाटक का नहीं, स्तुति का उल्लेख है। २७. उत्तरपुराण (५४,२१४) में और पुराणसारसंग्रह (८६,५७) में क्रमश: निष्क्रमण के अवसर पर अपने पुत्र वरचन्द्र, व रवितेज को चन्द्रप्रभ के उत्तराधिकार सौंपने का उल्लेख है पर दोनों में उनके विवाह के स्पष्ट उल्लेख करने वाले पद्य नहीं Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (२९८,५५) में चन्द्रप्रभ की अनेक पत्नियों का उल्लेख है, जो चन्द्रप्रभचरितम् (१७,६०) में भी पाया जाता है। २८. चन्द्रप्रभ के वैराग्य का कारण तिलोयपण्णत्ती (४,६१०) में अध्रुव वस्तु का और उत्तरपुराण (५४, २०३) तथा त्रिषष्टिस्मृत (२८, ९) में दर्पण में मुख की विकृति का अवलोकन लिखा है। त्रिषष्टिशलाकपुरुषचरित और पुराणसारसंग्रह में वैराग्य के कारण का उल्लेख नहीं है। हरिवंशपुराण (७२२,२२२) में शिविका का नाम 'मनोहरा', त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित (२९८,६१) में मनोरमा, पुराणसारसंग्रह (८६,५८) में 'सुविशाला' लिखा है। ३०. तिलोयपण्णत्ती (४,६५१) में वन का नाम 'सर्वार्थ', उत्तरपुराण (५४,२१६) में ‘सर्वर्तुक', त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (२९८,६२) में एवं पुराणसारसंग्रह (८६,५८) 'सहस्राम्र' लिखा है। ३१. चन्द्रप्रभचरितम् में मिति नहीं दी, अत: हरिवंशपुराण (७२३, २३३) के आधार पर यह मिति दी है। उत्तरपुराण (५४,२१६) में भी यही मिति है, पर कृष्ण पक्ष का उल्लेख नहीं है। पुराणसारसंग्रह (८६,६०) में केवल अनुराधा नक्षत्र का ही उल्लेख है और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (२९८,६४) में पौष कृष्ण त्रयोदशी मिति दी गयी है। ३२. हरिवंशपुराण (७२४,२४०) में और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (२९८,६६) में पुर का नाम 'पद्मखण्ड' दिया है एवं पुराणसारसंग्रह (८६,६२) में 'नलिनखण्ड'। ३३. हरिवंशपुराण (७२४,२४६) में और पुराणसारसंग्रह (८६,६२) में राजा का नाम 'सोमदेव' दिया है। ३४. चन्द्रप्रभचरितम् में मिति नहीं दी, अत: उत्तरपुराण (५४,२२४) के आधार पर दी गयी है। चन्द्रप्रभचरितम् में चन्द्रप्रभ के जन्म और मोक्ष कल्याणकों की मितियाँ दी हैं, शेष तीन कल्याणकों की नहीं। ३५. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (२९८,७५) में समवसरण का विस्तार एक योजन लिखा है। ३६. तिलोयपण्णत्ती (४,११२०) में पूर्वधारियों की संख्या चार हजार दी है। ३७. तिलोयपण्णत्ती (४,११२०) में उपाध्यायों की संख्या दो लाख दस हजार चौरासी दी है। ३८. तिलोयपण्णत्ती (४,११२१) में अवधिज्ञानियों की संख्या दो हजार लिखी मिलती है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. तिलोयपण्णत्ती (४,११२१) में केवलियों की संख्या अठारह हजार दी है। ४०. तिलोयपण्णत्ती (४,११२१) में वैक्रिय ऋद्धिधारियों की संख्या छ: सौ दी है; और हरिवंशपुराण (७३६,३८६) में दस हजार चार सौ। ४१. तिलोयपण्णत्ती (४,११२१) में वादियों की संख्या सात हजार दी है। ४२. तिलोयपण्णत्ती (४,११६९) में आर्यिकाओं की संख्या तीन लाख अस्सी हजार दी है और पुराणसारसंग्रह (८८,७५) में भी यही संख्या दृष्टिगोचर होती है। ४३. पुराणसारसंग्रह (८८,७७) में श्राविकाओं की संख्या चार लाख एकानवे हजार दी है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में दी गयी संख्याएँ इनसे प्रायः भिन्न हैं। ४४. उत्तरपुराण (५४,२७१) में चन्द्रप्रभ के मोक्षकल्याणक की मिति फाल्गन शक्ला सप्तमी दी गयी है, पुराणसारसंग्रह (९०,७९) में मिती नहीं दी गयी केवल ज्येष्ठा नक्षत्र का उल्लेख किया है। ४५. ग्रामाः कुक्कुटसंपात्याः सारा बहुकृषीबला:। पशुधान्यधनापूर्णा नित्यारम्भा निराकुलाः।। - उत्तरपुराण, पृष्ठ ४५, श्लोक १५. . ग्रामैः कुक्कुटसंपात्यैः सरोभिर्विकचाम्बुजैः। सीमभिः सस्यसंपनैर्यः समन्ताद्विराजते।। - चन्द्रप्रभचरित, सर्ग २, श्लोक ११८. ४६. श्रीवर्मा श्रीधरो देवोऽजितसेनोऽच्युताधिपः। पद्मनाभोऽहमिन्द्रोऽस्मान् पातु चन्द्रप्रभः प्रभुः।। उत्तरपुराण, पृष्ठ ६५, श्लोक २७६। यः श्रीवर्मनृपो बभूव विबुधः सौधर्मकल्पे ततस्तस्माच्चाजितसेनचक्रभृदभूद्यश्चाच्युतेन्द्रस्ततः । यश्चाजायत पद्मनाभनृपतियों वैजयन्तेश्वरो य: स्यात्तीर्थंकर: स सप्तमभवे चन्द्रप्रभः पातु नः।। - चन्द्रप्रभचरित, पृष्ठ ४६१, प्रशस्ति श्लोक ६. ४७. अशोकस्तवकेनेव यौवनेन ममामुना। रागिणा केवलं किन्नु न यत्र फलसंभवः ।। वारिधेरिव लावण्यं विरसं मम सर्वथा। न यत्रापत्यपद्मानि तेन कान्तजलेन किम्।। नाममात्रेण सा स्त्रीति गुणशून्येन कीर्त्यते। पुत्रोत्पत्त्या न या पूता यथा शक्रवधूटिका।। प्रसादोऽपि न मे भर्तुः शोभायै सूनुना विना। शब्दानुशासनेनैवं विद्वत्ताया विजृम्भितम्।। साहं मोहतमश्छन्ना निशेवोद्वेगदायिनी। दीयते यदि नो पुत्रप्रदीप: कुलवेश्मनि।। चिन्तयन्तीति सा बाला कपोलन्यस्तहस्तका। पातयामास सभ्यानां नेत्रभृङ्गान् मुखाम्बुजे।। - जिनदत्तचरित १,६१-६६। ४८. 'साकेतं कोशलायोध्या' अभिधानचिन्तामणि ४,४१। ४९. इसी तरह से चन्द्रप्रभचरित के अन्तिम सर्ग का लगभग आधा भाग उमास्वामी * के तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर बनाया गया है। ५०. 'पुण्यपापयोर्बन्धेऽन्तर्भावान्न भेदेनाभिधानम्।' इति हरिभद्रकृतायां वृत्तौ, पृष्ठ २७ (सूरत संस्करण)। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ५१. 'पुण्यपापपदार्थोपसंख्यानमिति चेत्, न; आस्रवे बन्धे वान्तर्भावात्।' इद्धि तत्त्वार्थवार्तिक अ०१, पृष्ठ २७ (ज्ञा० सं०)। ५२. महाकवि हरिचन्द्र का 'धर्मशर्माभ्युदयम्' अथ से इति तक चन्द्रप्रभचरित से प्रभावित है। इसके अन्तिम सर्ग का लगभग आधा भाग चन्द्रप्रभचरित का ऋणी है। ऊपर केवल नमूने के लिए ४-५ पद्यों की ही तुलना की गयी है। खरकों का शब्द साम्य हरिचन्द्र को हेमचन्द्र का उत्तरवर्ती सिद्ध करता है। ५३. यह सूचना पं० रतनलालजी कटारिया, केकड़ी (अजमेर) के दिनाङ्क २२/४/६८ के पत्र से प्राप्त हुई। ५४. काव्यप्रकाश, १,१. ५५. साहित्यदर्पण, ६,३१५-३२१. ५६. अलङ्कारचिन्तामणि, १,२४; चन्द्रप्रभचरित के वर्ण्य-विषय. ५७. राजा-कनकप्रभ १, ३९-५४; श्रीषेण ३,१-१३; अजितंजय ५,२३-२५; महासेन १६, ११-१५; चन्द्रप्रभ १७,५२-६०. ५८. रानी-सुवर्णमाला १,५५-५७; श्रीकान्ता ३, १४-१८; अजितसेना ६, ३६-३९; लक्ष्मणा १६, १६-१९; कमलप्रभा १७,६०. ५९. पुरोहित ७,१४. ६०. कुमार-पद्मनाभ १,५८-६३; श्रीवर्मा ४, १-१४; अजितसेन ५,४०-४४; चन्द्रप्रभ १७,५०। ६१. देश मङ्गलावती १, १२-२०; सुगन्धिदेश २, ११४-१२४; अलका ५, २-११; अरिंजय ६,४१; पूर्वदेश १६, १-५. ६२. ग्राम १,२०, २, ११८. ६३. पुर-रत्नसंचय १, २१-३८; श्रीपुर २, १२५-१३२; कोशला ५, १२-२२; विपुलपुर ६, ४२; आदित्यपुर ६, ७५; चन्द्रपुरी १६, ६-९. ६४. सरोवर-मनोरम ६,१. ६५. समुद्र ४, ६५; १६, २९-३०. ६६. सरित्-जलवाहिनी १३, ५३-६२. ६७. उद्यान-मनोहर २, १२-२३. ६८. पर्वत ६, १२; मणिकूट १४, १-४०. ६९. अटवी-परुषा ६, ५-१०. ७०. मन्त्रणा १२, ५७-१११. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ ७१. दूत १२, १-२४. ७२. प्रमाण ४, ४७-५१; ७, ५९-८०; १३. १-५२; १६, २४-५३. ७३. अश्व १४, ५१-५४. ७४. गज १४, ५५-६२. ७५. ऋतु ८, १-५१. ७६. सूर्योदय १०, ७६-७९; सूर्यास्त १०, १-३. ७७. चन्द्रोदय १०, १७-४१; चन्द्रास्त १०, ६३. ७८. आश्रम ११, ३४. ७९. युद्ध १५, १-१३२. ८०. वियोग १०, ७०-७३. ८१. सुरत १०, ४२-६१. ८२. पुष्पावचय ९, २२-२६. ८३. जलक्रीड़ा ९, २७-५८. मन्त्रणा के प्रसङ्ग में अमात्यों और प्रमाण के प्रसङ्ग में सेनापतियों की चर्चा की गयी है, पर स्वयंवर तथा विवाह की भाँति इनका भी स्वतन्त्र रूप से कोई वर्णन चन्द्रप्रभचरित में नहीं किया गया। मृगया के स्थान में पुष्पावचय वर्णित है, जो अलङ्कारशास्त्र की दृष्टि से ठीक है। चन्द्रप्रभचरित के मङ्गलाचरण के क्रम में विशेषता है। इस युग के आदि में प्रथमत: धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने से ऋषभदेव को, प्रस्तुत कृति के नायक होने से चन्द्रप्रभ को, कृति की निर्विघ्न समाप्ति के लिए शान्तिनाथ को और वर्तमान धर्मतीर्थ के नायक होने से महावीर को नमस्कार किया गया है, जो युक्तिसङ्गत है। वीरनन्दी के इस क्रम ने इनके उत्तरवर्ती हरिचन्द्र एवं अर्हद्दास आदि अनेक कवियों को प्रभावित किया है। चन्द्रप्रभचरित का प्रारम्भ 'श्री' शब्द से हुआ है। जहाँ तक मैं जानता हूँ यह परम्परा भारवि से प्रारम्भ हुई है। आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन (श्लो० १४१) में लिखा है--- कोई गुरु शिष्टतावश अपने शिष्य के दोषों का, जो औरों को ज्ञात हैं, यह सोचकर उद्घाटन न करे-- छिपाये रहे कि सन्मार्ग में प्रवर्तन कराने से कभी यह स्वयं ही उन्हें छोड़ देगा और इसी बीच यदि वह दिवंगत हो जाता है तो उसका वह शिष्य सदोष ही बना रहेगा। फिर कभी कोई मुँहफट खल, जो दूसरों के अणुप्रमाण भी दोषों को पर्वताकार में देखता है, उसके दोषों को प्रकट कर दे तो उसके मन में यह बात घर किये बिना नहीं रहेगी कि उसके गुरु तो कोरे गुरु ही रहे, ८४. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० सच्चा गुरु तो यह खल है जिसके निपुण समीक्षण से उसकी आँखे खुली दोषों का भान हुआ। ८६. मृत्यु के उपरान्त करुण रस की अभिव्यक्ति होती है। यहाँ अजितसेन की मृत्यु नहीं हुई, अनिष्ट की प्राप्ति हुई— इसी दृष्टि से करुण रस अभिव्यक्त हआ है। 'इष्टनाशादनिष्टाप्तेः करुणाख्यो रसो भवेत्' (साहित्यदर्पण ३, २२२)। काव्यानुशासन (२, पृष्ठ ९१) और अलङ्कारचिन्तामणि (५, १०१) से भी इसका समर्थन होता है, अत: चन्द्रप्रभचरित के उक्त सन्दर्भ में करुणरस मान्य है। ८७. सभी अलङ्कारों के लक्षण घटाने में प्राय: कुवलयानन्द का उपयोग किया गया है। ८८. सभी छन्दों के लक्षण वृत्तरत्नाकर के अनुसार घटाये गये हैं। ८९. जस्स पायपसायेण णंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो। वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं।।गा० ४३३।। ९०. णमिऊण अभयणंदिं सुदसागरपारगिंदणंदिगुरुं। वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं गोच्छं।।गा०७५८।। णमह गुणरयणभूसणसिद्धंतामियमहद्धिभवभावं। वरवीरणंदिचंद णिम्मलगुणमिदंणदिगुरुं। ।गा०८९६।। ९१. चन्द्रप्रभाभिसंबद्धा रसपुष्टा मनः प्रियम्। कुमुद्वतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः।।१.३०।। ९२. चन्द्रप्रभजिनेशस्य चरितं येन वर्णितम्। तं वीरनन्दिनं वन्दे कवीशं ज्ञानलब्धये।। १.१९।। ९३. श्रीवीरनन्दिदेवो धनञ्जयासगौ हरिश्चन्द्रः। व्यधुरित्याद्याः कवयः काव्यानि सदुक्तियुक्तीनि।। – 'जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह', पृष्ठ १२७ से उद्धृत. ९४. तुलना कीजिए- चन्द्रप्रभचरित १८, २ तथा धर्मशर्माभ्युदय २१, ८; चन्द्रप्रभचरित १८,७८ तथा धर्मशर्माभ्युदय २१, ९०; चन्द्रप्रभचरित १८,८८ तथा धर्मशर्माभ्युदय २१, ९९ इत्यादि. ९५. इससे उक्त दोनों ग्रन्थों के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और उनके सहयोगियों- वीरनन्दी, इन्द्रनन्दी, कनकनन्दी- का समय भी विक्रम की ग्यारहवीं सदी का पूर्वार्ध ठहरता है।- जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ २७४. वीरनन्दी (१३०० ई०)- चन्द्रप्रभचरित। -- संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ २७३. ९७. संस्कृत साहित्य का इतिहास (१३वीं शताब्दी के महाकाव्य) पृष्ठ ८६८. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ ९८. 'चन्द्रप्रभाभिसंबद्धा रसपुष्टा मनः प्रियम् । कुमुद्वतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः । । पार्श्वनाथचरित १, ३०।। ९९. 'शाकाब्दे नगवार्धिरन्ध्रगणने संवत्सरे क्रोधने, मासे कार्त्तिकनाम्नि बुद्धिमहिते शुद्धे तृतीयादि । सिंहे पाति जयादिके वसुमतीं जैनी कथेयं मया, निष्पत्तिं गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये।। पार्श्वनाथचरित, प्र०प०५ ।। १००. प्रस्तुत 'प्रमोदूत' (प्रमोद) संवत्सर वि० सं० १५६० (शक सं० १४२५) माघ शुक्ल प्रतिपदा शनिवार घटी ५३ / ४८ श्रवण नक्षत्र में सिद्ध होता है। जिसका नियामक ग्रहलाघवीय ऋणाहर्गण १८९० तथा मध्यम सूर्य ९ / १८ / ४२/४७ त्रिफल चन्द्रमा ९ / १९/४६ है। विशेष- माघ शुक्ल प्रतिपदा को रोहिणी नक्षत्र का होना सम्भव नहीं है, जैसा कि सूर्यसिद्धान्त मान अध्याय श्लोक १६ से ज्ञात होता है - 'कार्तिकादिषु संयोगे कृत्तिकादिद्वयं द्वयम् । अन्त्योपान्त्यौ पञ्चमश्च त्रिधा मासत्रयं स्मृतम् ।।' इस आधार पर माघ शुक्ल पूर्णिमा को श्लेष या मघा का होना सम्भव नहीं है। इससे पूर्व पन्द्रहवें दिन प्रतिपदा को श्रवण या घनिष्ठा नक्षत्र हो सकता है, न कि रोहिणी. १०१. जैन साहित्य का बृहद इतिहास (भाग ५, पृष्ठ २४१ ) के अनुसार 'कामन्दकीयनीतिसार:' का संकलन उपाध्याय भानुचन्द्र के शिष्य सिद्धिचन्द्र (अकबर बादशाह के समकालीन) ने किया था । यदि यह प्रमाणित हो जाय तो पञ्जिकाकार के समय पर पर्याप्त प्रकाश पड़ सकता है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि अर्हद्दास और उनकी रचनाएँ * विपुल संस्कृत वाङ्मय की श्रीवृद्धि में जिन मनीषियों ने हाथ बटाया है, उनमें महाकवि अर्हद्दास का नाम भी उल्लेखनीय है । संस्कृत साहित्य के सहृदय अध्येता इनकी उपलब्ध कृतियों को पढ़ कर आनन्द विभोर हुए बिना नहीं रह सकते समय - महाकवि अर्हद्दास ने यद्यपि अपनी कृतियों में, जो उपलब्ध हैं, कहीं पर भी अपने समय का संकेत नहीं दिया, पर उनके अन्तः साक्ष्यों के आधार पर उनके समय का परिज्ञान आसानी से हो जाता है इन्होंने अपनी कृतियों में आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलङ्क, जिनसेन और गुणभद्र के अतिरिक्त पण्डितप्रवर आशाधर का भी उल्लेख किया है। f आचार्यकल्प पण्डितप्रवर आशाधर का समय सुनिश्चित हैं, जैसा कि श्रद्धे.. स्व० पं० नाथूरामजी प्रेमी ने अपने जैन साहित्य और इतिहास ( पृ० ३४१-३५८) में लिखा है। आशाधरजी ने 'अनगारधर्मामृतम्' की टीका विक्रम संवत् १३०० में समाप्त की। अतः कविवर अर्हद्दास १३ वीं शती से पूर्व नहीं हुए। इनकी उत्तरावधि का निश्चय अजितसेन की महत्वपूर्ण कृति — 'अलङ्कारचिन्तामणि:' से हो जाता है, जिसमें इनके 'मुनिसुव्रतकाव्यम्' के प्रथम सर्ग का ३४वां पद्य श्लेषगर्भा परिसंख्या के उदाहरण के रूप में दिया गया है। अलङ्कारचिन्तामणिकार का समय विक्रम की १४वीं शती है । अतएव यह सुनिश्चित है कि महाकवि अर्हद्दास का समय विक्रम की १३वीं शती का अन्त और १४वीं का आद्य चरण है। कृतियों का परिचय १. भव्यजन कण्ठाभरणम् — प्रस्तुत कृति ३४२ पद्यों में समाप्त हुई है। इसमें प्राय: उपजाति छन्द का प्रयोग किया गया है। इसमें देव, शास्त्र, गुरु और रत्नत्रय का वर्णन किया गया है। साथ ही जैनेतर प्रायः सभी देवी-देवताओं की समीक्षा विस्तार से की गई है। जिससे प्रस्तुत कवि के हिन्दू पुराणों के अध्ययन का अनुमान सहज में ही लग जाता है। वैदिकी हिंसा की समीक्षा के प्रसङ्ग में मद्य- माँस के दोषों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त बौद्धों, श्वेताम्बरों एवं कतिपय दिगम्बर संघों की भी समालोचना की गई है। पद्यों के नमूने डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त. *. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • तथागतो वीक्ष्य खरान् स्मरान् तपोबलाच्चारुभगा खरी सन्। तदा रतिं तैस्तनुते स्म रागात्ततः स जातो भगवत्समाख्यः ।। ५७।। अर्थात्- कतिपय काम पीड़ित गदहों को देख कर तथागत-गौतमबुद्ध ने तपोबल से सुन्दर गदही का रूप धारण किया और फिर राग पूर्वक उनके साथ रति की-उनकी काम पिपासा को शान्त किया, इसीलिए वे 'भगवान' कहे जाने लगे। भग अर्थात् योनि से युक्त हो जाने से वे भगवान् (योनिमान्) हुए। (इसका उल्लेख वादीभसिंह सूरि ने अपनी ‘गद्यचिन्तामणि:' के प्रथम लम्भ में किया है। अन्तर केवल इतना है कि इन्होंने खरी के स्थान में ऊंटनी (वालेयी) लिखा है।) सिताम्बराः सिद्धिपथच्युतास्ते जिनोक्तिपु द्वापरशल्यविद्धाः । निरञ्जनानामशनं यदेते निर्वाणमिच्छन्ति नितम्बिनीनाम् ।।७४।। अर्थात्-जिन भगवान के वचनों में सन्देह करने वाले वे श्वेताम्बर जैन मुक्तिमर्ग से च्युत हैं, जो केवली को कवलाहारी और औरतों को मोक्ष मानते हैं। त्यक्ताखिलज्ञोदितमुख्यकालद्रव्यास्तिता द्राविडसंघिनो ये। निःसंयमा ये च निरस्तपिच्छा निष्कुण्डिका ये च निरस्तशौचाः ।।७६।। अर्थात्-सर्वज्ञभाषित निश्चयकाल को न मानने वाले द्रविड़ संघ के अनुयायी (सिद्धान्त पथ से दूर हैं), जो निष्पिच्छ संघ के अनुयायी पिच्छी नहीं रखते वे संयमी नहीं हो सकते और जो निष्कुण्डिका संघ के अनुगन्ता हैं वे शौच के लिए कमण्डलु नहीं रखते अत: शौच अर्थात् पवित्रता से दूर हैं। शवा भवन्तीह मृताङ्गिसत्त्वाः श्मशानमेषां पचनस्थली हि।। ततो ध्रुवं मांसभुजः शवादास्तदीयगेहं नियतं श्मशानम् ।।९।। अर्थात्- मृत प्राणियों के शरीर इस संसार में शव कहे जाते हैं और इनके जलाने की भूमि श्मशान-इस दृष्टि से मांस भक्षी लोग शवभक्षी सिद्ध होते हैं और उनका घरजहां मांस पकाया जाता है-निश्चय ही श्मशान है। प्रस्तुत कृति समन्तभद्र, आशाधर और हरिचंद्र की रचनाओं से प्रभावित है और कवित्व की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण नहीं कही जा सकती, फिर भी अथ से इति तक पढ़ने योग्य है। इसमें समालोचना की ऐसी विशेषता है, जो ग्रन्थान्तरों में दृष्टिगोचर नहीं होती। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ४ जान पड़ता है कविवर की यह प्रथम रचना है जो उन्होंने आशाधर जी से प्रभावित होते ही तैयार की थी। २. मुनिसुव्रतकाव्यम् प्रस्तुत महाकाव्य दस सर्गों में समाप्त हुआ है, जिनके श्लोकों की संख्या क्रमश: ५४+३४+३३+४७+४२+४४+३१+२३+३५+६५=कुल ४०८ है। इसमें बीसवें तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत का जीवनवृत्त विविध छन्दों में वर्णित है। प्रसङ्गतः देश, नगर एवं ऋतुओं का भी अलंकृत संस्कृत भाषा में सजीव वर्णन किया गया है। प्रस्तुत महाकाव्य धनञ्जय, वीरनन्दी, हरिचन्द्र एवं असग आदि महाकवियों के महाकाव्यों की तुलना में छोटा है, फिर भी इसका महत्त्व कम नहीं है। इसका वर्ण्य विषय संक्षिप्त होकर भी सारगर्भ है। इसमें महत्त्व का कुछ अनुमान निम्नलिखित कतिपय पद्यों से लगाया जा सकता है प्रबन्धमाकर्ण्य महाकवीनां प्रमोदमायाति महानिहैकः। विधूदयं वीक्ष्य नदीन एव विवृद्धि मायाति जडाशया न ।। - मुनिसुव्रतकाव्यम् - १/१६ अर्थात्- महाकवियों के प्रबन्धकाव्य को सुनकर कोई महान् पुरुष ही प्रसन्न होते हैं, न कि सब। देखिए न चन्द्रोदय को देखकर केवल समुद्र ही वृद्धिगत होता है, न कि जलाशय-नदी-नाले आदि। इस पद्य में श्लेषगर्भ 'जडाशयाः' पद कम चमत्कारजनक नहीं है। इसका एक अर्थ ‘जलाशय' है और दूसरा मूर्ख। उत्तुङ्गगोत्र प्रभवा भवत्यो, भजन्तु भूचक्रबहिष्कृतं किम्। इति स्रवन्नरुदधिं सरन्ती रवैभि यत्रालिंगणों रुणाद्धि ।। १।। २५।। इस पद्य में बिहार प्रान्त की नदियों पर बनाये गये पुलों का सरस वर्णन किया गया है। जान पड़ता है वे पुल समुद्र की ओर जाने वाली नदियों को यह कह कर रोक रहे हैं कि आप समुन्नत पर्वतों से जन्मी हैं-उनकी कुलीन कन्याएँ हैं, फिर उसका आश्रय कैसे ले रही हैं जो भूमण्डल से बहिष्कृत (भूण्डल की सीमा से बाहर-तिरस्कृत) है। प्रस्तुत पद्य में उत्प्रेक्षा के साथ समासोक्ति के आ जाने से चमत्कार बढ़ गया है। जहां प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के व्यवहार का आरोप हो वहां समासोक्ति अलङ्कार होता है। यहां नदियों में कुलीन कन्याओं के व्यवहार का आरोप है, समुद्र में बहिष्कृत परपुरुष. का और पुलों पर सखिवर्ग का। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत महाकाव्य में अथ से इति तक प्राय: सभी श्लोकों में अलङ्कारों का चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। प्रसाद गुण से गुम्फित होने से अर्थ लगाने में कोई कठिनाई नहीं प्रतीत होती है। प्रस्तुत महाकाव्य की रचना ‘भव्यजनकण्ठाभरणम्' की तुलना में प्रौढ है, अत: जान पड़ता है कि अर्हद्दास की यह दूसरी रचना है। ३. पुरुदेवचम्पू:- कविवर अर्हद्दास की तीसरी कृति 'पुरुदेवचम्पू:' है। इसके दस स्तवकों में, जिनमें गद्यांशों के बीच-बीच में क्रमश: ७४+७१+६५+७१+४१+ ४८+४४+४६+३८+५०= कुल ५४८ पद्य भी हैं। इसमें 'मुनिसुव्रतकाव्यम्' से १४० पद्य अधिक हैं। इसमें प्राय: सभी प्रसिद्ध छन्दों का प्रयोग किया गया है। __ आदिपुराण के आधार पर इस चम्पूकाव्य में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का जीवनवृत्त अलंकृत संस्कृत भाषा में वर्णित है। आदि से अन्त तक शैली इतनी मनोहारिणी है कि सहृदय पाठक का मन कहीं ऊब नहीं सकता।। . अर्हद्दास ने अपनी इस कृति की कविता के बारे में लिखा है- “कि मेरी यह कवितालता भगवान् की भक्ति के बीच से उत्पन्न हुई है। अत्यन्त सुन्दर कोमल शब्द इसके पत्ते हैं; विविध छन्द इसकी कोपलें हैं; अलङ्कारों की चमत्कृति इसके फूल हैं, इस पर व्यङ्ग्यार्थ की निराली छवि छाई हुई है और यह भगवान् ऋषभदेवरूपी कल्पवृक्ष का आश्रय पाकर बढ़ रही है। (कितना सुन्दर रूपक बांधा है, पृ० ४) इसी ढंग की रचना प्रस्तुत कृति में प्राय: आदि से अन्त तक है। उपलब्ध २४६ चम्पुओं में प्रस्तुत चम्पू का अपना स्वतन्त्र स्थान है। अर्हद्दास की उक्त तीनों कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं-पहली हिन्दी टीका के साथ और दूसरी संस्कृत और हिन्दी दो टीकाओं के साथ। यदि तीसरी कृति भी संस्कृत एवं हिन्दी टीकाओं के साथ प्रकाशित हो जाय तो जिज्ञासु जैन व जैनेतर साहित्यिकों को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है। केवल हिन्दी अनुवाद से ऐसे ग्रन्थों का चमत्कार प्रकट नहीं किया जा सकता। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य-कल्पलता और कवि-कल्पलता' भारतीय साहित्य बहुत विपुल है। इसके निर्माण में जैन मनीषियों ने जो सहयोग किया है उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता । अलङ्कारशास्त्र भी भारतीय साहित्य का एक अङ्ग है, जिसके विकास में वाग्भट (वाग्भटालङ्कार के कर्ता), हेमचन्द्र, रामचन्द्र, माणिक्यचन्द्र, नमिसाधु, जयसेन, अरिसिंह, अमरचन्द्र और बाणभट्ट (काव्यानुशासन के कर्ता) आदि अनेक जैन विद्वानों का हाथ रहा है। इन विद्वानों में से अरिसिंह ने "काव्य-कल्पलता' की रचना १३वीं शताब्दी में की है। अरिसिंह ने वस्तुपाल की प्रशंसा में 'सुकृतसङ्कीर्तन' ग्रंथ रचा है। वस्तुपाल का काल विद्वानों ने १२४२ ई० सन् निश्चित किया है। काव्य-कल्पलता- इस ग्रंथ में चार प्रतान हैं। पहले प्रतान में ५, दूसरे प्रतान में ४, तीसरे प्रतान में ५ और चौथे में ७ स्तबक हैं, जिनमें अनुष्टुप् आदि छन्दों में कविता का अभ्यास किस प्रकार से किया जाय, सामान्य शब्द कौन से हैं, शास्त्रार्थ में कैसी उक्ति का प्रयोग करना चाहिए, काव्यों में क्या वर्णन करना चाहिए, शब्द कितने प्रकार के होते हैं, श्लिष्ट रचना कैसे की जाय आदि विषयों पर विषद् प्रकाश डाला गया है। काव्य निर्माण करनेवालों के लिए यह ग्रन्थ साक्षात कल्पलता है। वृत्ति- प्रस्तुत ग्रंथ सन् १९३१ में चौखम्भा, वाराणसी से प्रकाशित हुआ था, जिसमें अमरचन्द्र यति की वृत्ति (काव्य-कल्पलता परिमल) भी है। यति जी ने वृत्ति की रचना १४वीं शताब्दी में की थी। इसकी पुष्टि श्री जगन्नाथ शास्त्री ने प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में की है। यति अमरचन्द्र जी अपने समय के महान् विद्वान् थे। उन्होंने सात ग्रन्थों की रचना की थी- (१) जिनेन्द्रचरितम्, (२) स्यादिशब्दसमुच्चयः, (३) बालभारतम्, (४) द्रौपदीस्वयंवरः, (५) छन्दोरत्नावलिः, (६) काव्यकल्पलतापरिमल: और (७) अलंकारप्रबोधः । ___ “काव्यकल्पलता' ने अलंकारशास्त्र के प्रणेताओं के सामने एक नया आदर्श उपस्थित किया। भामह, रुद्रट, उद्भट, वामन, मम्मट, हेमचन्द्र और वाग्भट आदि आलंकारिकों ने अपने-अपने अलंकार ग्रन्थों में काव्य का स्वरूप, दोष, गुण, रीति, अलंकार, रस और ध्वनि आदि विषयों का प्रतिपादन किया है, जब कि अरिसिंह ने *, जैन सन्देश- शोधाङ्क १५, दिसम्बर १९६२ ई. से साभार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी काव्य-कल्पलता में मुख्य रूप से यह प्रतिपादन किया है कि कविता कैसी बनाई जाय और उसे सजाया कैसे जायें? यों इस विषय पर काव्यमीमांसाकार राजशेखर और काव्यानुशासनकार हेमचन्द्र ने भी कलम चलाई है पर अरिसिंह अपनी सूझ-बूझ से उन दोनों से काफी आगे निकल गये? फलत: देवेश्वर को भी "कविकल्पलता' लिखने का प्रयास करना पड़ा और उसे लिखते समय ‘काव्य-कल्पलता' को सामने रखना पड़ा। दोनों ग्रन्थों को आद्यापांत देखने से पाठक को उक्त बात स्पष्ट ही समझ में आ जाती है। दोनों की तुलना देवेश्वर (१४वीं शती) ने अपनी कृति का नाम 'कविकल्पलता' रखा, जो स्पष्ट ही 'काव्य-कल्पलता' नाम से प्रभावित है। काव्य-कल्पलता में चार प्रतान हैं तो कविकल्पता में चार स्तवक हैं। काव्य-कल्पलता के प्रतानों में स्तवक हैं, तो कविकल्पलता के स्तवकों में कुसुम हैं। काव्य-कल्पलता में सबसे पहले छन्द के अभ्यास की शिक्षा दी है, बिलकुल यही शिक्षा कविकल्पलता में भी दी गई है। अन्य विषय भी प्राय: मिलते-जुलते हैं। इना साम्य अकस्मात् नहीं हो सकता। काव्य-कल्पलताकार ने अपने ग्रन्थ के प्रारंभ में अपने इष्टदेव की वाणी को नमस्कार किया है तो कवि-कल्पलताकार ने अपने परमाराध्य देव धूर्जटि (शिवजी) की जटा को नमस्कार किया है। लगता है, कवि-कल्पलता के कर्ता ने काव्य-कल्पलता . का अक्षरशः अनुसरण किया है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामर स्तोत्रः एक विवेचन प्रतिभाभिराम मानतुङ्ग अत्यन्त सौभाग्यशाली जैन आचार्यों में से एक हैं, जिन्हें जैनों के दोनों सम्प्रदाय अपना-अपना मानते आ रहे हैं। 'भक्तामरस्तोत्र' इन्हींकी अमर कृति है, जो भक्तिरस के साथ कवित्व की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। सभी जैन, चाहे वे किसी भी सम्प्रदाय या उसके पन्थ के अनुयायी हों, इसका प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक पाठ करते हैं। पर्व के पवित्र दिनों में कहीं-कहीं इसका अखण्ड पाठ भी होता हैं। अनभ्यास के कारण जो स्वयं पाठ नहीं कर सकते, वे दूसरों से सुना करते हैं। ऐसे भी हजारों व्यक्ति हैं, जो इसका पाठ किये बिना भोजन नहीं करते। श्वेताम्बर आचार्य यशोविजय (१८वीं शती) की माँ जिस दिन इसका पाठ नहीं सुन पाती थीं, उस दिन उपवास करती रहीं। अनेक ऐसे भी व्यक्ति हैं, जिन्हें इसका नियमित पाठ करने से कई रोगों से मुक्ति प्राप्त हुई है। इसके प्रायः प्रत्येक पद्य से विशेष लाभ होने की ख्याति है। कुछ, विद्वानों ने इसके साधना की विधि भी लिखी है। लब्धप्रतिष्ठ प्रसिद्ध जैन स्तोत्रों में इसे प्रथम स्थान प्राप्त है। निम्नलिखित पंक्तियों में उन्हीं आचार्य मानतुङ्ग और उनके 'भक्तामर-स्तोत्र' का परिचय दिया जा रहा है आचार्य मानतुङ्ग-मानतुङ्ग नाम के दो आचार्य हुए हैं- पहले भक्तामर स्तोत्र के रचयिता और दूसरे ‘जयन्तीप्रकरण' या 'जयन्तीचरित' के। इतिहास-ग्रन्थों में पहले आचार्य के नाम के आगे 'दिवाकर'२ तथा दूसरे आचार्य के नाम के आगे 'सूरि३' का उल्लेख मिलता है। समय- आचार्य मानतुङ्ग दिवाकर (दिवाकर उनकी उपाधि प्रतीत होती है) सम्राट हर्षवर्धनकी राजसभा में थे, जैसा कि इतिहास के पृष्ठों में अङ्कित है। हर्षवर्धन का राज्यकाल ६०६ ई० से ६४७ तक सुनिश्चित है, अत: आचार्य मानतुङ्ग का भी यही समय सिद्ध होता है। विशेष परिचय- श्वेताम्बर आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि (सं० १३३४) ने अपने ग्रन्थ-प्रभावकचरित के (१८०-१९१) पृष्ठों में १६९ पद्मों में 'श्रीमानतुङ्गप्रबन्ध' रचा है। इसमें बतलाया गया है कि वाराणसी में, जहाँ का राजा हर्ष था, मानतुङ्ग का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम श्रेष्ठी सेठ धनदेव था। मानतुङ्ग का चरित्र बाल्यकाल से ही निर्मल रहा (श्लो० ५-८)। प्रारम्भ में उन्होंने दिगम्बर दीक्षा ली थी, पर बाद . *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अपनी बहन के, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार व्रतों का परिपालन करती थी, (श्लो० २१) कहने से श्वेताम्बर साधु बन गये थे (श्लो० ३८)। भक्तामर-स्तोत्र का चमत्कार दिखलाने से पहले, एक मन्त्री ने मानतुङ्गाचार्य का प्रथम परिचय देते समय हर्षवर्धन से कहा था कि आपके पुर में बुद्धिमान् एवं प्रभावशाली एक श्वेताम्बराचार्य विद्यमान हैं, जिनका नाम मानतुङ्ग है। आचार्य मानतुङ्ग ने अपने समय में जिनशासन की बड़ी प्रभावना की थी। उनके अनेक सुयोग्य शिष्य भी रहे (श्लो० १६६)। 'श्रीमानतुङ्ग प्रबन्ध' किस आधार पर रचा गया- यह प्रभाचन्द्रसूरि ने अपनी कृति में कहीं सूचित नहीं किया। इस प्रबन्ध के कुछ ही पद्यों का सार यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए दिया गया है। एक कल्पना- 'भक्तामर-स्तोत्र' के ग्यारहवें 'दृष्ट्वा भवन्त......' इत्यादि और इक्कीसवें 'मन्ये वरं........' इत्यादि पद्य से मेरे मन में यह कल्पना उठ रही है कि आचार्य मानतुङ्ग पहले जैनेतर सम्प्रदाय से प्रभावित रहे। जिन तीन पद्यों में भगवान् आदिनाथ को क्रमश: अपूर्व दीप, सूर्य और चन्द्र बतलाया गया है, उनसे ऐसा जान पड़ता है कि वे पहले जिस सम्प्रदाय से प्रभावित रहे, उसमें शाम के समय दीपक को, सबेरे के समय सूर्य को और प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन चन्द्रमा को नमन किया जाता था, जो आज भी चालू है। महाकवि दामोदर भारवि की कृति की, जो 'किरात' नाम से प्रसिद्ध है, (-११) मल्लिनाथी टीका से द्वितीया के चन्द्र को नमन करने की बात की पुष्टि होती है। मानतुङ्ग उस सम्प्रदाय के परमाराध्य देवों के चरित-ग्रन्थों में उनके मन के डिगने की बात पढ़ चुके थे। लगता है कि इसीलिए उन्होंने 'चित्रं किमत्र....' इत्यादि पन्द्रहवें पद्य में भगवान् आदिनाथ के निर्विकार अडिग मन को प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार के माध्यम से सुमेरु शिखर की उपमा दी है। इस कल्पना की पुष्टि प्रस्तुत स्तोत्र के 'त्वामामनन्ति......' इत्यादि तेईसवें पद्य के आधार पर भी की जा सकती है, जो मानतुङ्ग को वेदाभ्यासी सिद्ध करता है; क्योंकि उक्त पद्य की रचना शुक्ल यजुर्वेद के मन्त्र से मिलती-जुलती है। इतनी समानता अकस्मात् कैसे हो सकती है? जब तक पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते तब तक मैं इस विषय में जोर देकर कुछ भी नहीं कह सकता, इसीलिए उक्त बात को 'एक कल्पना' ही लिखा गया है। एक भ्रम- पं० श्री बलदेव जी उपाध्याय ने अपनी कृति 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' (पृष्ठ ३६४) में आचार्य मानतुङ्ग की चर्चा और उन के 'भक्तामर-स्तोत्र' की प्रशंसा की है, पर आगे चलकर (पृष्ठ ५३७) हर्ष की सभा में बाण और मयूर के साथ 'मानतुङ्ग' न लिखकर 'मातङ्ग दिवाकर' लिखा है और उन्हें राजशेखर के एक मद्य के आधार पर नीच (चाण्डाल) जाति का बतलाया गया है।" भ्रम का कारण- उक्त भ्रम का कारण राजशेखर (९वीं शती) का पद्य है, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो ‘सुभाषितरत्नभाण्डागार' (पृष्ठ ३७) में भी मातङ्गदिवाकर की प्रशंसा में राजशेखर के नाम से उद्धृत है। इसी पद्य ने पं० बलदेव जी उपाध्याय और 'सुभाषितरत्नभाण्डागार' के संकलयिता पं० काशीनाथ जी शर्मा आदि को भ्रम में डाला है। जान पड़ता है कि राजशेखर ने जिस कृति के आधार पर अपने पद्य में 'मातङ्ग' शब्द को गुम्फित किया, उसमें लिपिक की अनवधानता से 'मानतुङ्ग' के स्थान में 'मातङ्ग' लिखा गया होगा। हर्ष की सभा में मानतुङ्ग के साथ या उनके स्थान में अन्य मातङ्ग दिवाकर के रहने की बात भी नहीं सोची जा सकती जैसा कि इतिहास ग्रन्थों से स्पष्ट है। यदि मानतुङ्गाचार्य चाण्डाल जाति के होते तो ब्राह्मण कवि बाण और मयूर के साथ राजसभा में एक ही पंक्ति में कैसे बैठते तथा यजुर्वेद का अभ्यास कैसे करते; क्योंकि उस युग में और अभी भी स्त्री और शूद्र को वेदाभ्यास वर्त्य है--- 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्।' अत: यह मानना होगा कि लिपिक की असावधानी ने राजशेखर को भ्रम में डाला और राजशेखर के पद्य ने अन्य विद्वानों को। मानतुङ्गका वैदुष्य- आचार्य मानतङ्ग के दोनों स्तोत्रों के अध्ययन-मनन से यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि संस्कृत और प्राकृत भाषा के साथ वेद, व्याकरण, साहित्य, अलङ्कारशास्त्र और जैन व जैनेतर वाङ्मय के अन्य अनेक विषयों पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। मानतुङ्ग की कृतियाँ- प्रस्तुत भक्तामर स्तोत्र' के अतिरिक्त आचार्य मानतुङ्ग का प्राकृत भाषा में निबद्ध एक 'भयहर-स्तोत्र' भी प्रकाशित हो चुका है, जिसका दूसरा नाम ‘नमिऊण-स्तोत्र' है। इस स्तोत्र के दूसरे पद्य के सत्रहवें पद्य तक क्रमश: दो-दो पद्यों में कष्ट, जल, अग्नि, सर्प, चोर, सिंह, गज और रण इन आठ भयों का उल्लेख है। 'मङ्गलवाणी' (पृष्ठ १५८-१६३) में मुद्रित इस स्तोत्र के ऊपर 'नमिऊण स्तोत्र' अङ्कित है। इस नाम का कारण प्रारम्भ में 'नमिऊण'८ पद का होना है। उन्नीसवीं गाथा से इसका ‘भयहर' नाम सिद्ध होता है। इक्कीसवी गाथा में रचयिता का श्लिष्टर नाम भी दिया गया है। अन्तिम गाथा में बतलाया गया है है कि जो सन्तुष्ट मन से भगवान् पार्श्वनाथ का स्मरण करता है उसे एक सौ आठ व्याधिजन्य भय सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। ११ मेरे सामने जो मङ्गलवाणी है उसमें मुख पृष्ठ सहित प्रारम्भ के एक सौ चौवालीस पृष्ठ नहीं हैं, अत: इसका प्रकाशन स्थान ज्ञात नहीं हो सका। इसमें कुछ दिगम्बर स्तोत्र भी प्रकाशित हैं। ___ 'भयहर-स्तोत्र' मानतुङ्ग दिवाकर की कृति है, न कि मानतुङ्गसूरि की। इसका उल्लेख आचार्य प्रभाचन्द्र सूरि ने ‘मानतुङ्ग प्रबन्ध' (श्लोक १६३) में१२ किया है। इसी विषय में महान् विद्वान् कटारिया जी ने भी प्रकाश डाला है। १३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामर स्तोत्र नाम - इस स्तोत्र के दो नाम हैं। प्रारम्भ में 'भक्तामर' पद होने से इसका 'भक्तामर ' या 'भक्तामर स्तोत्र' नाम पड़ गया है, पर वास्तविक नाम 'आदिनाथ-स्तोत्र' या 'ऋषभस्तोत्र' है; क्योंकि इसमें इस युग के प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् 'आदिनाथ' का संस्तवन किया गया है, जिनके आदिनाथ, ऋषभनाथ, वृषभनाथ, आदिदेव, ऋषभदेव, वृषभदेव और पुरुदेव आदि अनेक नाम व्यवहृत हैं। आद्य स्तुतिकार समन्तभद्र, धनंजय, वादिराज, कुमुदचन्द्र, हेमचन्द्र और जैनेतर कवि पुष्पदन्त आदि अनेक प्राचीन मनीषियों के स्तोत्रों के इसी प्रकार से दो-दो नाम प्रचलित हैं। ८१ पद्य - संख्या - प्रस्तुत स्तोत्र की पद्य - संख्या अड़तालीस है । कतिपय हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों में यद्यपि तीन तरह के चार-चार पद्य और भी उपलब्ध हैं, पर वे पुनरुक्ति तथा रचना वैषम्य के कारण मानतुङ्गकृत नहीं माने जाते । अज्ञातकालिकमुनि रत्नसिंह के प्राणप्रिय नामक खण्डकाव्य से भी, जिसमें भगवान् 'नेमिनाथ' का वर्णन है, उक्त संख्या प्रमाणित होती है; क्योंकि इसमें प्रस्तुत स्तोत्र के सभी चतुर्थ चरणों की अत्यन्त सुन्दर समस्यापूर्ति १४ की गयी है, जो अड़तालीस पद्यों में समाप्त हुई है। इसी स्तोत्र के प्रत्येक चरण की समस्यापूर्ति 'भक्तामर - शतद्वयी' में की गयी है। इससे भी अड़तालीस संख्या का समर्थन होता है । मेघदूत की पद्य संख्या का निर्णय विद्वानों ने पार्श्वाभ्युदय के आधार पर किया है, जिसमें भगवज्जिनसेनाचार्य मेघदूत के पद्यों की समस्यापूर्ति की है । स्थानकवासी आचार्य, कविरत्न श्रीअमरमुनि आदि भी इसी पद्य - संख्या को मान रहे हैं। चौवालीस पद्यों की मान्यता- भक्तामरस्तोत्र के जिन चार (३२-३५) पद्यों में क्रमश: दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामण्डल और दिव्यध्वनि इन चार प्रतिहार्यों का वर्णन है, उन्हें छोड़ कर शेष चौवालीस पद्यों की मान्यता प्रायः श्वेताम्बर जैन समाज में प्रचलित है, यद्यपि आठ प्रातिहार्यों का वर्णन श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी हैं। कल्याण - मन्दिर स्तोत्र में भी आठ (१९ - २६ ) पद्यों में क्रमशः आठों प्रातिहार्यों का वर्णन है, जो दिगम्बर समाज की भाँति श्वेताम्बर समाज को भी मान्य है। मान्यता का आधार- संभवतः मानतुङ्ग-प्रबन्ध इस मान्यता का आधार है, जिसमें आचार्य प्रभाचन्द्र सूरि ने लिखा है कि मयूर कवि ने सूर्यशतक- स्तोत्र का निर्माण कर के सूर्य का संस्तवन किया था, फलतः उस ( मयूर कवि) का कुष्ट नष्ट हो गया था। इस चमत्कार को देखने के पश्चात्, एक मन्त्री के अनुरोध पर सम्राट हर्षवर्धन ने मानतुङ्ग से भी चमत्कार दिखलाने की इच्छा व्यक्त की। उसने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि- आचार्य मानतुङ्ग को बेड़ियों से जकड़ कर एक अँधेरे कमरे में बन्द कर दो। इस आदेश के अनुसार निष्ठुर सिपाहियों ने चौवालीस लौह बेड़ियों से Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैरों से सिर तक पूरे शरीर को जकड़ कर उन्हें लौह यन्त्र जैसा बना दिया और कमरे में बन्द कर दिया। कपाट बन्द करके ताला डाल दिया। गाढ़ अन्धकार में डूब करें वह कमरा पाताल सरीखा हो गया। इसी अवसर पर आचार्य मानतुङ्ग ने एकाग्र चित्त होकर भक्तामर स्तोत्र की रचना की जिसके प्रभाव से सभी बेड़ियाँ तड़तड़ा कर टूट गयीं, ताला टूट गया, फाटक खुल गया और आचार्य मानतुङ्ग भी बाहर आ गये। यह देखकर सम्राट को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसके मनमें जैन धर्म के प्रति श्रद्धा के बीज अङ्करित हो उठे। ऊपर बतलायी गयी बेड़ियों की चौवालीस संख्या ही मेरी दृष्टि से भक्तामर-स्तोत्र की चौवालीस पद्य-संख्या की मान्यता का कारण है। थोड़ेबहुत हेर-फेर के साथ लगभग इसी ढंग का उल्लेख दिगम्बर साहित्य में भी उपलब्ध है, अन्तर संख्या का है। दिगम्बर सम्प्रदाय में अड़तालीस दरवाजों और तालों की अनुश्रुति चली आ रही है। __ साहित्यिक सुषमा रचना की चारुत- राजा जयसिंह के महामात्य वाग्भट की दृष्टि से काव्य रचना की चारुता (सुन्दरता) के चार हेतु हैं.-१. संयुक्त वर्ण को आगे रखकर पिछले वर्ण को गुरु बनाना। २. विसर्गों का लोप न करना। ३. ऐसी सन्धि न करना जिसमें कर्ण कटुता या अश्लीलता आदि दोष आ जाय। ४. बिना सन्धि के प्रयोग न करना। ये चारों 'भक्तामर-स्तोत्र' में विद्यमान हैं। भर्तृहरि अपने समय के महान् विद्वान् रहे, पर उनके 'नीतिशतक' के प्रारम्भ में ही 'मदनं च इमां च मां च' यहाँ पर विसन्धि-गुण सन्धि का अभाव है। 'भक्तामर-स्तोत्र' में कहीं पर भी मानुतुङ्ग से ऐसी चूक नहीं हुई। अत: रचना की चारुता की दृष्टि से भी यह स्तोत्र श्लाघ्य है। __ अलङ्कार-विच्छित्ति- शब्दालङ्कारों में छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास की छटा प्रस्तुत स्तोत्र के प्रत्येक पद्य में है। वर्ण की समानता एक बार हो तो छेकानुप्रास और अधिक बार हो तो वृत्यनुप्रास होता है। प्रथम पद्य के प्रथम चरण में 'ण' का साम्य एक बार है, अत: छेकानुप्रास है। 'आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं' (९) में 'स्त' का साम्य अनेक बार है, अत: वृत्त्यनुप्रास है। इसी ढंग से प्रत्येक पद्य में अनुप्रास की विच्छित्ति मनोहारिणी है। अर्थालङ्कारों में से 'वक्त्रं कृते.....' (१३) में विषमालङ्कार, 'निर्धूमवर्ति......' इत्यादि तीन (१६-१८) पद्यों में व्यतिरेकालङ्कार, कुन्दावदात......' (३०) में पूर्णोपमालङ्कार, 'कल्पान्तकाल......' (४०) में अनुप्रास, उपमा, रूपक और फलोत्प्रेक्षा, ‘स्तोत्रस्रजं.....' (४८) में रूपक, श्लेष और अनुप्रास एवं 'बुद्ध्या विनापि.....' (३) में भ्रान्तिमान् अलङ्कार की ध्वनि चमत्कारजनक है। इनके अतिरिक्त और भी अतियोक्ति, आक्षेप, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा और समासोक्ति आदि अर्थालङ्कारयत्र-तत्र प्रयुक्त हैं। स्वल्पकाय स्तोत्र में इतने अधिक अलङ्कारों की विच्छिति स्तोता के Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलङ्कारिक वैदुष्य को व्यक्त करती है। रस- प्रस्तुत स्तोत्र में आदि से अन्त तक भक्तिरस की अविच्छिन्न धारा अस्खलित गति से प्रवाहित है। विबुधार्चितपादपीठ (३) गुणसमुद्र (४) मुनीश (५) नाथ (८) भुवनभूषण, भूतनाथ (९) त्रिभुवनैकललामभूत (१२) त्रिजगदीश्वर (१४) मुनीन्द्र (१७) विबुधार्चित, धीर, भगवान् (२५) जिन (२६) और जिनेन्द्र (३६) इत्यादि सम्बोधन, जिनमें नाथ, मुनीश और जिनेन्द्र का प्रयोग एकाधिक बार हुआ है, भक्ति रस की अभिव्यक्ति के अनुकूल है। जो आलङ्कारिक भक्ति रस को नहीं मानते उनकी दृष्टि से इसके स्थान में देव विषयक रति भाव है। छन्द- इस स्तोत्र के सभी पद्यों में केवल एक 'वसन्ततिलका' जिसका दूसरा नाम वृत्तरत्नाकर में 'मधुमाधवी' भी दिया गया है, प्रयुक्त है। इसका लक्षण है- 'उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।' जिस में क्रमश: तगण, भगण, जगण और फिर दो गुरु वर्ण हों, वह 'वसन्ततिलका' छन्द कहलाता है। यह वर्ण छन्द है, न कि मात्रा। वछन्द में एक गण में तीन वर्ण होते हैं, अत: 'भक्तामर स्तोत्र' के प्रत्येक चरण में चौदह वर्ण हैं। चारों चरणों में कुल वर्ण छप्पन हैं। अड़तालीसों पद्यों की वर्ण संख्या दो हजार छ: सौ अट्ठासी है। तुलना (क) धातासि धीर! शिवमार्गविधेर्विधानात्। -भक्तामर २५ ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुणभावतः।। - शास्त्रवार्तासमुच्चय, पृ० २०४ आचार्य मानतुङ्ग और आचार्य हरिभद्र (८वीं शती) ने अपने-अपने उक्त दोनों वाक्यों में मुख्य या गौण किसी भी रूप में भगवान् अरिहन्त को कर्ता बतलाया है, जैसा कि इतर दार्शनिक ब्रह्मा या ईश्वर को मानते हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि मानतुङ्ग ने जिसे शिवमार्गविधि कहा है उसे हरिभद्र ने तदुक्तव्रतसेवन। (ख) कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् । उद्यच्छशाङ्कशुचिनिर्झरवारिधार मुच्चैस्तटं सुरगिरेखि शातकौम्भम् ।। भक्ता० ३० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ प्रकीर्णकयुगं भाति त्वां जिनोभयतो धुतम् । पतन्निर्झरसंवादि शशाङ्ककरनिर्मलम् ।। आदिपुराण ७.२९६ मानतुङ्ग और भगवज्जिनसेन (९वीं शती) के इन पद्यों में 'निर्झर' और 'शशाङ्क' पदों के साम्य के साथ उपमा का सन्निवेश भी द्रष्टव्य है । इसी विषय में कटारिया जी ने भी लिखा है । १५ (ग) राजा जयसिंह सिद्धराज (१२वीं शती) के समकालीन १६ आचार्य कुमुदचन्द्र का जिन्हें युगवीर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने दिगम्बर सिद्ध किया है१७, कल्याणमन्दिर-स्तोत्र' दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य है । कवित्व की दृष्टि से जैनेतर मनीषी भी इसे नितान्त अभिनन्दनीय मानते हैं । १८ तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट है कि आचार्य कुमुदचन्द्र ने अपने 'कल्याणमन्दिर-स्तोत्र' का अनुक्रम भक्तामर स्तोत्र के आधार पर बनाया। वसन्ततिलका छन्द, आरम्भ में युग्मश्लोक, आत्मलघुता का प्रदर्शन, स्तोव्य के गुणों के वर्णन के विषय में अपने असामर्थ्य का कथन, जिननाम के स्मरण या संकीर्तन की महिम्य हरिहरादि देवों का उल्लेख, जिनेन्द्र के संस्तवन या ध्यान से परमात्मपद की प्राप्ति, आठ प्रातिहार्यों का वर्णन, स्तुति का फल - मोक्ष और अन्तिम पद्य में श्लिष्ट नामकुमुदचन्द्र-इत्यादि साम्य भक्तामर स्तोत्र को देखे बिना अकस्मात् होना कथमपि संभव नहीं है। इस तुलना से स्पष्ट है कि भक्तामर स्तोत्र ने उत्तरकालीन अनेक कृतियों को अवश्य ही प्रभावित किया है। भक्तामर स्तोत्र के अवतरण - वाग्भट ( १२वीं शती) की कृति वाग्भटालङ्कार (१.१७) की सिंहदेव गणीकृत संस्कृत टीका में भक्तामर स्तोत्र का 'तुभ्यं नभः इत्यादि' (२६वाँ) पद्य प्रमाण रूप से उद्धृत है और अड़तीस कृतियों के प्रणेता श्रुतसागर सूरि (१६वीं शती) की, आशाधर के जिनसहस्रनाम ग्रन्थ की संस्कृत टीका ( पृ० २३५) में 'नात्यद्भुतं .....' इत्यादि (१० वाँ) पद्य । अन्वेषण करने पर अन्य कृतियों या उनकी टीकाओं में और भी अवतरण मिल सकते हैं। जहाँ तक स्मरण है 'वृत्तरत्नाकर' की एक जैन टीका में भी इसके अनेक पद्यों के अवतरण हैं, जो इस समय मेरे सामने नहीं हैं। भक्तामर से सम्बद्ध कृतियाँ भक्तामर स्तोत्र के चौथे तथा चारों चरणों को लेकर लिखे गये समस्यापूर्त्यात्मक दो (प्राणप्रिय काव्य और भक्तामर - शतद्वयी) काव्यों के अतिरिक्त ज्ञानभूषण भट्टारक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ (वि० १६वीं शती) ने भक्तामरोद्यापन तथा भक्तामरपूजा- इन दो कृतियों का निर्माण किया है एवं विश्वभूषण भट्टारक (वि० १८वीं शती) तथा पं० निनोदीलाल ने भक्तामरचरित का । सोमसेनाचार्य ने भक्तामर - महामण्डल - पूजा की रचना की । 'भक्तामर - कथा' का नाम भी सुनते हैं, पर वह भी इस समय मेरे सामने नहीं है । इस तरह तुलना, अवतरण और सम्बद्ध कृतियों से भक्तामर स्तोत्र के व्यापक प्रभाव का पता चलता है। भक्तामर की टीकाएँ हूंवणज्ञातीय व्रती श्रावक रायमल्ल ने, जिनकी माँ का नाम चम्पा और पिता का मह्य था, सं० १६६७ में प्रस्तुत स्तोत्र की संस्कृत टीका रची थी, जो भक्तामर - वृत्ति नाम से प्रसिद्ध है और सं० १८७० में जयचन्द्र ने इसकी संस्कृत एवं हिन्दी में दो टीकाएँ रचीं एवं हेमराज ने हिन्दी पद्यानुवाद की रचना की । इनके अतिरिक्त अनेक आधुनिक विशिष्ट दिगम्बर - श्वेताम्बर विद्वानों ने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी एवं अनेक प्रान्तीय भाषाओं में सुन्दर गद्य-पद्यात्मक अनुवाद लिखे हैं, फिर भी स्व० पन्नालालजी धर्मालङ्कार, प्रोफेसर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के आग्रह पर यह अनुवाद सन् १९५० में किया गया। सन्दर्भ : १. भक्तामर स्तोत्र दोपहर से पहले ही पढ़ना चाहिए, सूर्योदय के समय सबसे उत्तम है । वर्ष भर निरन्तर पढ़ना शुरु करना हो तो श्रावण, भाद्रपद, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष या माघ में करें । तिथि पूर्णा, नन्दा और जया हो । शुक्ल पक्ष हो । उस दिन उपवास रखे या एकाशन करे । ब्रह्मचर्य से रहे । भक्तामर का दूसरा काव्य लक्ष्मी प्राप्ति और शत्रु विजय के लिए है। इसी प्रकार ६ बुद्धि प्रकाश के लिए, १० वचन सिद्धि के लिए, ११ खोई हुई वस्तु की पुन: प्राप्ति के लिए, १५ ब्रह्मचर्य, स्वप्नदोष की निवृत्ति, राजदरबार में सम्मान, प्रतिष्ठा और लक्ष्मी की वृद्धि के लिए, १९ दूसरों के द्वारा किए हुए जादू, भूत- - प्रेत का असर दूर हो, रोजगार अच्छा लगे, भाग्यहीन पुरुष भी भूखा न रहे, पुत्र की प्राप्ति हो, २१ स्वजन और परजन सबका प्रेम प्राप्त हो, २८ सब प्रकार की मन की शुभ इच्छा पूर्ण हो, ३६ सम्पत्ति का लाभ हो, ४५ सब प्रकार का भय और उपसर्ग दूर हो, तेज प्रताप प्रकट हो, सब प्रकार के रोगों की शान्ति हो, ४६ राजा का भय दूर हो, जेलखाने से छूटे | २० ऊपर के काव्यों का जाप एक माला प्रतिदिन प्रातः काल के समय करना चाहिए। यह भक्तामर स्तोत्र महाप्रभावशाली है । सब प्रकार से आनन्द मङ्गल करने वाला Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८द है। पाठ पूर्व और उत्तर दिशा की तरफ मुख करके करना ठीक है। __ - मङ्गलवाणी पृ० २८०-२८२ (मङ्गलवाणी संभवत: स्थानकवासियों के यहाँ से प्रकाशित है) २. बाण के अतिरिक्त अन्य कई कवि हर्ष की सभा में विद्यमान थे। ‘सूर्यशतक' या 'मयूरशतक' के रचयिता मयूर कवि तथा 'भक्तामर-स्तोत्र' नामक स्तोत्रकाव्य के कर्ता मानतुङ्ग दिवाकर भी बाण के साथ हर्ष की राजसभा में थे। - संस्कृतकविदर्शन, डॉ० भोलाशङ्कर व्यास, पृ० ४८३-८४. ३. 'जयन्ती प्रकरण' को 'जयन्तीचरित' भी कहते हैं। भगवतीसूत्र के १२ वें शतक के द्वितीय उद्देशक के आधार से मानतुङ्ग सूरि ने ‘जयन्तीप्रकरण' की रचना की है। - प्राकृत साहित्य का इतिहास, डॉ० जगदीशचन्द्र, पृ० ५६६. ४. जैनः श्वेताम्बराचार्यो मानतुङ्गाभिधः सुधीः । महाप्रभावसम्पन्नो विद्यते तावके पुरे ।। १२४।। वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।। - शुक्ल यजुर्वेद, अध्याय ३१ कण्डिका (मन्त्र) १८. ६. अहो प्रभावो वाग्देव्या यन्मातङ्गदिवाकरः । श्री हर्षस्याभवत् सभ्य: समो बाणमयूरयोः।। सुना जाता है कि दिवाकर (मानतुङ्ग) का जन्म नीच (चाण्डाल) जाति में हुआ था परन्तु ये अपनी गुणगरिमा से बाण और मूयर के समान ही राजा के आदरपात्र थे। नमिऊण पणय-सुरगणचूडामणिकिरणरंजियं मुणिणो। चलणजुगलं महाभयपणासणं संथवं वुच्छं।। ९. एवं महाभयहरं पासजिणंदस्स संथवमुआरं। भवियजणाणंदयरं कल्लाणपरं पर-निहाणं।।१९।। १०. जो पढइ जो य निसुणई ताणं कइणो य माणतुंगस्स। पासो पावं पसमेउ सयलभुवणच्चिअच्चलणो।।२१।। ११. पासह समरण जो कुणइ संतुट्ठहियएण। अद्वृत्तरसयवाहिभय नासइ तस्स दूरेण।।२४।। १२. ततस्तदनुसारेण स्तवनं विदधे प्रभुः। ख्यातं भयहरं नाम तदद्यापि प्रवर्तते।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ १३. प्राकृत में २३ गाथात्मक एक 'भयहर-स्तोत्र' पाया जाता है, जो श्वेताम्बरों के यहाँ से 'जैन-स्तोत्र - सन्दोह' द्वितीय भाग में प्रकाशित हुआ है। यह स्तोत्र भी मानतुङ्ग की ही कृति बतलाया जाता है; क्योंकि 'भक्तामर स्तोत्र' की तरह इसके भी अन्तिम पद्य में (श्लेषात्मक) मानतुङ्ग शब्द पाया जाता है। 'भक्तामर स्तोत्र' में जिस तरह ८ भयों का वर्णन है, उसी तरह 'भयहर-स्तोत्र' में भी । जैन निबन्ध रत्नावली, पृष्ठ, ३३५. १४. प्राणप्रियं नृपसुता किल रैवताद्रिशृङ्गासंस्थितमवोचदिति प्रगल्भम् । अस्मादृशामुदितनीलवियोगरूपेऽवालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।।१।। १५. अगर यह ठीक है तो आदिपुराण पर्व ७ श्लोक २९३ से ३०१ का जो वर्णन 'भक्तामर स्तोत्र' से मिलता हुआ है वह आचार्य जिनसेन ने संभव है 'भक्तामरस्तोत्र से लिया हो । जैन निबन्ध रत्नावली, पृ० ३३८. - १६. राजा जयसिंह सिद्धराज को दार्शनिक शास्त्रार्थ सुनने का बड़ा शौक था, स्याद्वादरत्नाकर के कर्ता आचार्य देवसूरि के साथ उसने अपनी राजसभा में ही कल्याणमन्दिर - स्तोत्र के रचयिता कर्णाटक के दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र का महत्त्वपूर्ण वाद कराया था। • भारतीय इतिहास: एक दृष्टि- डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, पृ० २०७. १७. 'प्राग्भारसंभृतनभांसि रजांसि इत्यादि तीन पद ऐसे हैं जो पार्श्वनाथ को दैत्यकृत उपसर्ग से युक्त प्रकट करते हैं, जो दिगम्बर मान्यता के अनुकूल और श्वेताम्बर मान्तया के प्रतिकूल हैं; क्योंकि श्वेताम्बरीय आचाराङ्ग-निर्युक्ति में वर्धमान को छोड़ कर शेष २३ तीर्थङ्करों के तप: कर्म को निरुपसर्ग वर्णित किया है। इससे भी प्रस्तुत कल्याण - मन्दिर दिगम्बर कृति होनी चाहिए । जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ० ५१६. १८. 'कल्याणमन्दिर-स्तोत्र' में केवल ४४ पद्य हैं परन्तु काव्यदृष्टि से यह नितान्त अभिनन्दनीय हैं । कविता बड़ी प्रासादिक तथा नैसर्गिक है । कवि की उक्तियों में बड़ा चमत्कार है । संस्कृत साहित्य का इतिहास - पं० बलदेव उपाध्याय, पृष्ठ ३६४. - , Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वसंसिद्धि और उसकी वचनिका : एक विवेचन तत्त्वसंसिद्धि तत्त्वसंसिद्धि विक्रमकी ११वीं शतीके पूर्व भाग के प्रसिद्ध महाकवि वीरनन्दीके महाकाव्य-‘चन्द्रप्रभचरितम्' का एक विशिष्ट अंश है। इस महाकाव्यका प्रतिपाद्य विषय अष्टम तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ का जीवन वृत्त है, पर इसके प्रासङ्गिक विषयों में दार्शनिक चर्चा भी है, जो ६८ (२, ४३-११०) श्लोकों में पायी जाती है। इसमें मुख्यतः तत्त्वोपप्लव दर्शन की तथा प्रसङ्गतः चार्वाक, वेदान्त, सांख्य, न्याय-वैशेषिक, बौद्ध और मीमांसा दर्शनों की कतिपय तात्त्विक मान्यताओं की समीक्षा करके जैनदर्शन के मान्य जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्त्वों की सिद्धि प्रबल युक्तियों के आधार पर की गयी है। तत्त्वोपप्लव दर्शन' का पूर्व पक्ष तत्वोपप्लव दर्शनके अनुसार कोई जीव नामक प्रामाणिक पदार्थ नहीं है, अत: उसके अभाव में अजीव पदार्थ कैसे सिद्ध हो सकता है? क्योंकि अजीव जीवकी अपेक्षा रखता है। स्थूल और सूक्ष्मकी भाँति जीव और अजीव परस्पर सापेक्ष हैं-कोई स्थूल हो तो उसकी अपेक्षासे कोई सूक्ष्म भी हो सकता है और कोई सूक्ष्म हो तो उसकी अपेक्षासे कोई स्थूल भी हो सकता है। इसी तरह कोई जीव हो तो उसकी अपेक्षासे कोई अजीव भी हो सकता है। जब जीव है ही नहीं तो अजीवका अभाव ही मानना पड़ेगा। अतएव जीवके धर्म बन्ध और मोक्ष आदि भी कैसे हो सकते हैं? क्योंकि धर्मी (पदार्थ) के होने पर ही उसके धर्म (स्वभाव या गुण) होते हैं, न कि उसके अभाव में। इस कारणसे सभी तत्त्व ग्रन्थों में ही छिपे रहें तो ठीक है। अन्यथा ज्यों-ज्यों उनपर विचार किया जायेगा त्यों-त्यों वे जीर्णवस्त्रकी भाँति खण्डित होते जायँगे। सड़ा-गला कपड़ा जब तक तह किया हुआ रखा रहता है तब तक अच्छा प्रतीत होता है, पर जब तह खोलकर फैलाया जाने लगता है तब वह छिन्न-भिन्न होने लगता है और उसमें उलझनें भी आने लगती हैं। बिल्कुल यही स्थिति तत्त्वों की है। जो दार्शनिक जीवको स्वीकार भी कर लेते हैं, वे भी उसके धर्म या स्वरूपके विषयमें विवाद करते देखे जाते हैं; क्योंकि उनके संस्कार अपने-अपने आगमसे प्रभावित रहते हैं। जैसे *. डॉ०कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (क) वेदान्त दर्शन की मान्यता-वेदान्त दर्शन का कहना है कि आत्मा कूटस्थ नित्य है। (ख) सांख्य दर्शन की मान्यता- सांख्य दर्शन का कथन है कि आत्मा अकर्ता है। (ग) न्याय-वैशेषिक दर्शन की मान्यता- न्याय-वैशेषिक दर्शन आत्मा को जड़-ज्ञानशून्य मानता है। (घ) बौद्ध दर्शन की मान्यता- बौद्ध दर्शन ज्ञान की सन्तानको आत्मा बतलाता है। इस तरह जब आत्माके धर्मोके विषयमें प्राय: सभी दर्शन एक-दूसरेसे विपरीत ही प्रतिपादन करते हैं, तब किसी एकको भी सत्य नहीं माना जा सकता। अत: इस विपरीत कथनके कारण भी आत्मा का अभाव ही सिद्ध होता है; क्योंकि जब कोई धर्म सिद्ध हो तभी तो धर्मीको स्वीकार किया जा सकता है। उत्तर पक्ष- 'जीव नहीं है'- यह तत्त्वोपप्लव दर्शनका कथन प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे खण्डित है। फिर इसे सिद्ध करनेके लिए हेतका प्रयोग करके कौन अपना परिहास करायेगा? जीव नहीं है; क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती- जीवो नास्ति तदनुपलब्धेः। यहाँ जीव पक्ष है; नास्ति (नास्तित्व) साध्य है और अनुपलब्धेः हेतु है। प्रत्येक प्राणी को अपने-अपने सुख-दुःख आदिकी अनुभूति होती है.---'मैं सुखी हूँ या मैं दुःखी हूँ—यह अनुभव सभी को होता है। जीव सुख-दुःख आदि अवस्थाओंसे युक्त है, अत: इसका अनुभव स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के आधार सभीको होता है। मैं सुखी हूँ-इत्यादि अनुभूतियोंमें मैं का वाच्यार्थ आत्मा ही है। ऐसी स्थितिमें वह (आत्मा) नहीं है- यह कहना अपना परिहास कराना ही तो है। जो भी व्यक्ति वस्तुका प्रत्यक्ष अनुभव होनेपर भी उसका निषेध करता है, उसका परिहास ही हुआ करता है। यदि यह कहा जाये कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता ही नहीं; क्योंकि कोई भी ज्ञान स्वयंको नहीं जानता। कारण कि ज्ञान वेद्य है, जैसे कलश आदि। कलशको सभी जान लेते हैं, पर वह किसीको भी नहीं जान सकता। बिलकुल यही स्थिति ज्ञानकी भी है। यह कथन ठीक नहीं; क्योंकि जैसे दीपक अपनेको और अन्य पदार्थको भी प्रकाशित करता है, इसी तरह ज्ञान भी अपने साथ अन्य पदार्थोंको भी जानता है। यदि ज्ञान अपनेको नहीं जाने तो वह अन्य पदार्थों को भी नहीं जान सकता। यदि यह कहा जाये कि प्रथम ज्ञान को दूसरा ज्ञान और दूसरे ज्ञानको तीसरा ज्ञान जान लेता है, तो इस परम्पराका कभी अन्त ही नहीं आ सकेगा। ऐसी स्थितिमें अनवस्था हो जायगी। फिर यह भी एक प्रश्न होगा कि उत्तरवर्ती ज्ञान स्वयंको जानता है या नहीं? यदि नहीं जानता, तो वह अपने पूर्ववर्ती ज्ञानको भी नहीं जान सकता। अतश्च किसी भी पदार्थका ज्ञान नहीं हो सकेगा। यदि परोक्ष ज्ञानसे भी पदार्थका ज्ञान होता है- यह कहा जाये, तो यह भी असङ्गत है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० यदि इसे सङ्गत माना जाये तो एक व्यक्ति जिस पदार्थ को जान रहा है, उसे दूसरेके द्वारा भी ज्ञात मानना पड़ेगा। अतएव इन आपत्तियोंके कारण ज्ञानको स्वसंवेदी-अपनेको जाननेवाला ही मानना चाहिए, जो कि युक्तिसङ्गत है। फलत: तत्त्वोपप्लववादीके इस कथनमें कि जीव नहीं है प्रत्यक्ष बाधा है। अत: ‘जीव है' यह सुतरां सिद्ध है।। प्रश्न- स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के आधार पर गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त जीव का रहना सिद्ध है- यह हम (चार्वाक) मान लेते हैं, किन्तु गर्भ से पहले और मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व कैसे सिद्ध हो सकता है? ___ उत्तर- जो वस्तु सत् हो तथा जिसका कोई उत्पादक न हो, वह नित्य होती है और इसीलिए वह अनादि और अनन्त होती है। जीव सत् है और किसीसे उत्पन्न भी नहीं होता, अत: नित्य है; अनादि है; अनन्त है। दृष्टान्त के लिए पृथ्वी, जल, तेज और वायु, जिन्हें आप स्वयं अनादि और अनन्त मानते हैं। यदि आप यह कहें कि पृथिवी आदि चारों तत्त्व जीवकी उत्पत्ति में हेतु हैं, अत: वह न नित्य है; न अनादि है; न अनन्त हैं तो हम (जैन) आपसे पूछते हैं कि पृथ्वी आदि चारों तत्त्व सम्मिलित रूपमें जीवको उत्पन्न करते हैं या एक-एक करके। दोनों ही पक्ष असङ्गत हैं। क्यों? सुनिए- यदि चारों में से किसी एकको जीवकी उत्पत्ति में हेतु मानते हैं, तो जीवमें उसकी संख्याका प्रसङ्ग आयेगा-जिस भूतसे जीवकी उत्पत्ति होगी, उसके प्रत्येक कणमें जीवोत्पादनकी शक्ति होगी या उनके समुदायमें? यदि प्रत्येकमें, तो कणों की जितनी संख्या होगी, उतनी ही जीवोंकी संख्या होगी। पर किसी एक शरीरमें अनेक जीवों की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं; क्योंकि सभी जीवोंकी अलग-अलग इच्छाएँ होंगी, फलत: उनकी पूर्तिके लिए सभी जीवोंमें सदा महाभारत छिड़ा रहेगा। यदि इससे बचनेके लिए किसी एक या चारों भूतोंके कण समुदायमें जीवोत्पादनकी शक्ति मानें, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि चाहे एक भूतके कण हों, चाहे चारोंके, वे सब के सब अचेतन हैं, अत: उनसे चेतनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है, जो अचेतनसे चेतनकी उत्पत्ति को सिद्ध करनेमें सहायक हो। प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति में उपादान और निमित्त ये दो कारण होते हैं। उपादान कारण सदा सजातीय ही होता है, यह नियम है। जो कारण स्वयं कार्यरूपमें परिणत हो जाये, वह उपादान कारण कहलाता है और अन्य सहायक कारणोंको निमित्त कारण कहते हैं। घड़ेकी उत्पत्ति में मिट्टी और कपड़ेकी उत्पत्तिमें तन्तु उपादान कारण होते हैं। जबतक घड़े तथा कपड़ेका अस्तित्व रहता है तबतक मिट्टी और तन्तुओंका साथ बना रहता है। जैसे छाया मनुष्यका अनुगमन करती है वैसे ही मिट्टी और तन्तु घड़े और कपड़ेका अनुगमन करते हैं। शङ्का-उपादान कारण सदा सजातीय ही होता है, यह कहना निर्दोष नहीं हैव्यभिचरित है; क्योंकि सींग बाणका सजातीय नहीं है, फिर भी उससे बाणकी उत्पत्ति देखी जाती है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ समाधान- सींग और बाण दोनों ही पौद्गलिक हैं, अत: सजातीय हैं, इसलिये कोई दोष नहीं। प्रश्न- पृथ्वी, जल, तेज और वाय- ये चारों विजातीय होकर भी चेतन को उत्पन्न कर दें तो क्या हानि है? गोबर विजातीय होकर भी बिच्छू को उत्पन्न कर देता है। उत्तर- यदि ऐसा मान लिया जाये तो पानी से भी पृथ्वी उत्पन्न हो जाये और ऐसी स्थिति में आप (चार्वाक) के तत्त्वोंकी संख्या चार नहीं रह सकती। गोबर बिच्छू के शरीरकी उत्पत्तिमें कारण हो सकता है, न कि उसके आत्मा की उत्पत्ति में। __ आत्माकी उत्पत्तिके लिए कोई अन्य उपादान कारण हो-यह भी बात नहीं है। यदि यह बात होती तो पृथ्वी आदि चार तत्त्वोंको सहकारी कारण माना जा सकता था। यदि आप यह कहें कि 'आत्माकी उत्पत्तिमें शरीर उपादान कारण है', तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि शरीरमें उपादानका स्वभाव नहीं है। यदि शरीर उपादान होता, तो शरीरके ज्यों-के त्यों बने रहने पर आत्मामें विकार नहीं होना चाहिए, पर होता तो है। शरीरके ठीक रहते हुए भी, आत्मा उसे छोड़कर चल देता है-मृत्यु हो जाती है। घटके उपादान कारण मिट्टी में यह बात नहीं देखी जाती। घड़ेकी मिट्टी जबतक ठीक रहती है, तबतक घड़ा बना ही रहता है। अतएव स्वसंवेदन प्रत्यक्षके अतिरिक्त अनुमान भी आत्माके अभावका बाधक है। अनुमान का आकार यह है- 'आत्मा अनादि और अनन्त है; क्योंकि वह सत् पदार्थ है' (श्लो० २१)। तत्त्वोपप्लववादीने आत्मा का अभाव सिद्ध करनेके लिए जो अनुपलब्धि होने से–'अनुपलब्धे:' हेतु दिया है, वह भी असिद्ध है; क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे उस (आत्मा) का सद्भाव सिद्ध है। __ आत्मा और पृथ्वी आदि एक ही जातिके तत्त्व हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इनके स्वरूपमें भेद है-पृथ्वी आदि तत्त्व अचेतन हैं और आत्मा चेतन। भिन्न-भिन्न प्रतिभासके आधार पर जिस तरह आप पृथ्वी आदि चारों तत्त्वोंको पृथक्पृथक् मानते हैं, उसी तरह पृथ्वी आदि तत्त्वोंसे आत्मतत्त्वको भी पृथक् मानिये। इस तरह आत्माकी सत्ता सिद्ध होती है। आत्माकी कूटस्थ नित्यताका निरसन- वेदान्ती आत्माको कूटस्थनित्य (ब्र० स० शाङ्करभाष्य, पृ० २०) मानते हैं, पर उनका यह मानना सङ्गत नहीं है; क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष से ही बाधा है। वह इस तरह कि प्रत्येक प्राणी कभी सुख की तो कभी 'दु:खकी अवस्था (पर्याय) का स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अनुभव करता है। सुख-दुःख आदि अवस्थाएँ आत्माकी हैं, जो उससे भिन्न नहीं हैं- अवस्था और अवस्थावान्में अभेद होता Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ है। ऐसी स्थितिमें आत्मा अपनी इन अवस्थाओंकी अनित्यताके कारणसे स्वयं भी कथंचित् अनित्य है। प्रश्न-सुख-दुःख आदि अवस्थाएँ आत्मासे भिन्न हैं, अत: इनकी अनित्यताके आधारपर आत्माको कथंचित् अनित्य कैसे माना जा सकता है? उत्तर- सुख-दु:ख आदि अवस्थाएँ आत्मासे भिन्न नहीं मानी जा सकती; क्योंकि उनके भिन्न होने पर ये अवस्थाएँ आत्माकी हैं? इस प्रकारका सम्बन्ध नहीं हो सकेगा। __ यह कहना भी ठीक नहीं कि अवस्थाओंके भिन्न रहने पर भी समवायके आधार पर ये अवस्थाएँ आत्माकी हैं'-यह सम्बन्ध बन जायेगा; क्योंकि समवाय नित्य है, अत: वह ऐसा उपकार नहीं कर सकता। एक बात यह भी है कि समवाय जिस उपकारको करेगा, वह उसका है यह कैसे सिद्ध होगा? यदि इसके लिए अन्य समवायकी कल्पना की जाये तो उसके किये हुए उपकार का भी उसके साथ सम्बन्ध सिद्ध करनेके लिए पुनः एक अन्य समवाय की आवश्यकता पड़ेगी, जो अनवस्थाको उत्पन्न कर देगी; क्योंकि उपकारके बारेमें उत्तरोत्तर ऐसे ही सम्बन्धों के लिए नये-नये समवायकी कल्पना करनी पड़ेगी। अत: नित्य समवायसे किसी उपकारकी आशा नहीं की जा सकती। उपकारके आश्रय पर ही तो सम्बन्ध माना जाता है। अतएव सुख-दुःख आदि अवस्थाओंसे अभिन्न होनेके कारण आत्मा परिणमनशील है। फलत: वह कूटस्थ नित्य नहीं हो सकता। आत्माकी जड़ताका निराकरण- न्याय-वैशेषिक दर्शन आत्माको जड़ (ज्ञान शून्य) मानता है। उसकी दृष्टि से संसारी आत्मा ज्ञान गुणके समवायसे ज्ञानवान् होता है, पर मुक्तात्मामें उसका उच्छेद हो जाता है। यह मान्यता सङ्गत नहीं है; क्योंकि आत्माका उसकी चिद्रूप सुख-दुःखादि अवस्थाओंके साथ अभेद है। यदि इन अवस्थाओंसे आत्माको मुक्त माना जाये तो वह नि:स्वरूप हो जायेगा। आत्माके अकर्तृत्वका निरसन- सांख्य आत्मा को कर्ता नहीं मानते, केवल भोक्ता ही मानते हैं। उनका यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि आत्मा अच्छे-बुरे कर्मोंका कर्ता नहीं है, तो उसके पुण्य-पापका बन्ध कैसे होगा? 'आत्मा भोक्ता-भोगनेकी क्रियाका कर्ता है'-- यह स्वीकार करते हुए भी, उसके कर्तृत्वका अपलाप करना अनुचित है। प्रधानके कर्मबन्ध होता है-यह मान्यता भी ठीक नहीं; क्योंकि प्रधान (प्रकृति) अचेतन है। अत: आत्माको अकर्ता मानना पाप है। सत्यका अपलाप करके असत्यका प्रतिपादन करना पाप क्या, महापाप है। आत्मा की चित्तसन्तानता का खण्डन-बौद्ध केवल चित्तसन्तति (ज्ञान धारा) को आत्मा मानते हैं। उनका यह मानना अयुक्त है; क्योंकि सन्तानवान् के बिना सन्तानका Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ अस्तित्व नहीं रह सकता । ज्ञान आत्माका गुण है। वह आत्माके बिना नहीं रह सकता, तो फिर उसकी स्वतन्त्र सन्तान कैसे बन सकती है? यदि सन्तानको स्वतन्त्र माना जाये, तो प्रश्न होता है कि वह नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य माना जाये तो सभी वस्तुओंको क्षणिक माननेकी प्रतिज्ञा ही खण्डित हो जायगी। यदि अनित्य माना जाये तो कृतका नाश और अकृतका अभ्यागम हो जायेगा; क्योंकि वर्तमान सन्तान क्षण अच्छे-बुरे कर्मको करके तुरन्त ही विलीन हो जायेगा, अतः उसका किया हुआ कर्म यों ही नष्ट हो जायगा और अगला सन्तान क्षण अपने बिना किये हुए भी उस कर्मके फलको प्राप्त कर लेगा । पूर्वापर क्षण बौद्धोंकी दृष्टिसे निरन्वय होते हैं, अतः यह भी नहीं हो सकता कि जो सन्तान क्षण वर्तमानमें जिस कर्मको करता है, वही अगले क्षणमें उसके फलको भी प्राप्त कर लेगा । आत्माकी व्यापकताका अपाकरण- अनेक जैनेतर दर्शन आत्माको व्यापक मानते हैं, पर उनका यह मानना घटित नहीं होता; क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे उनकी अनुभूति शरीरके अन्दर होती है, न कि बाहर । यदि सभीकी आत्माको व्यापक ही मान लिया जाये, तो एक व्यक्तिके सुख-दुःख आदिकी अनुभूति दूसरेको भी होनी चाहिए, पर होती नहीं है, अतः आत्माको व्यापक मानना उचित नहीं है । उपसंहार - उपर्युक्त आत्म-विषयक समीक्षणसे स्पष्ट है कि आत्म-तत्त्वके विषयमें तत्त्वोपप्लववादीने अनेक दर्शनोंकी जो मान्यताएँ उसके अभावको प्रमाणित करनेकी दृष्टिसे उपस्थित की हैं, वे भ्रान्तिमूलक हैं। वस्तुतः आत्मा अनादि, अनन्त, निजदेहप्रमाण, कर्ता, भोक्ता और चित्स्वरूप है, जैसा कि युक्ति और प्रमाणोंके आधारपर सिद्ध होता है। आत्माका सद्भाव सिद्ध होनेसे उसकी अपेक्षा रखनेवाले अजीव आदि अन्य तत्त्व भी सिद्ध हो जाते हैं, 'इसलिए सभी तत्त्व उपप्लुत (बाधित) हैं'- यह मान्यता खण्डित हो जाती है । मोक्ष मीमांसकों की विप्रतिपत्ति जीव आदिको स्वीकार करके भी मीमांसक मोक्षका अभाव बतलाते हैं । " विप्रतिपत्तिका निरसन — मीमांसकोंकी यह विप्रतिपत्ति कि मोक्ष नहीं है, ठीक नहीं है; क्योंकि इसमें अनुमानसे बाधा आती है। ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोंके क्षयको मोक्ष कहते हैं जो कि अनुमानसे सिद्ध है। अनुमानों का क्षय हो जाता है; क्योंकि आवरणों का क्षय हुए बिना उसमें सर्वज्ञता नहीं हो सकती । कार्यको देखकर उसके कारणका सद्भाव मान लेना अनिवार्य होता है। यहाँ सर्वज्ञता कार्य है और समस्त कर्मोंका क्षय उसका कारण । सर्वज्ञताका बाधक कोई प्रमाण नहीं है, अतः उस ( सर्वज्ञता ) को Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ असिद्ध नहीं ठहराया जा सकता। इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षसे किसी भी अतीन्द्रिय पदार्थका सद्भाव या असद्भाव सिद्ध नहीं हो सकता, अत: चाक्षुष प्रत्यक्ष सर्वज्ञका बाधक नहीं हो सकता। शंका- कोई व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि वह पुरुष है, जैसे कोई राहगीर-इस अनुमानसे बाधा आनेके कारण सर्वज्ञता का सद्भाव कैसे माना जाये? समाधान- जिस तरह पुरुषत्व के रहते हुए भी किसी व्यक्तिमें समस्त वेदोंके अर्थज्ञानका अतिशय प्रकट हो जाता है, उसी तरह पुरुषत्व आदिके रहते हुए भी किसी विशिष्ट व्यक्तिमें समस्त पदार्थ जान लेनेका अतिशय प्रकट हो सकता है, अत: मीमांसकोंकी उक्त शङ्का ठीक नहीं है। इसी तरह उपमान, अर्थापत्ति और पौरुषेय आगम सर्वज्ञताके अभावको सिद्ध नहीं कर सकते। यदि अभाव प्रमाणसे सर्वज्ञका अभाव बतलाया जाये, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जिसे एक बार देख लिया जाये उसीका अभाव सिद्ध किया जा सकता है। सर्वज्ञको जब देखा ही नहीं तो उसका अभाव कैसे बतलाया जा सकता है? यदि उसे देखकर भी अभाव बतलाया जाये तो इसे असत्य ही माना जायगा। अतएव सर्वज्ञताके सिद्ध हो जानेपर मोक्ष भी सुतरां सिद्ध हो जाता है और मोक्षके सिद्ध होनेपर जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा इन तत्त्वोंकी भी संसिद्धि हो जाती है। वचनिका- प्रस्तुत कृति-'तत्त्वसंसिद्धिः' के साथ ढंढारी भाषामें निबद्ध वचनिका भी मुद्रित है, जो अभी तक अप्रकाशित रही। इसमें तत्त्वसंसिद्धिः के पद्योंका तात्पर्य दिया गया है। वचनिकाका सम्पादन ज द ध ब- इन वर्गों से संकेतित चार हस्त लिखित प्रतियोंके आधारपर किया गया है। ज प्रति जयपुर, ब ब्यावर और द ध देहलीसे प्राप्त हुई थीं। वचनिका के रचयिता-- प्रस्तुत वचनिकाके रचयिताका नाम पं० जयचन्द, गोत्र छावड़ा और जाति खण्डेलवाल है। आपका जन्म जयपुर (राजस्थान) के निकट 'फागई' ग्राममें श्री मोतीरामजी लेखपाल-पटवारी के यहाँ वि०सं० १७९५ में हुआ था। ग्यारह वर्षकी अवस्था में आप जयपुरमें पण्डितप्रवर टोडरमल, 'पण्डितराय' दौलतराम, ब्रह्मरायमल्ल और व्रती महारामके सम्पर्कमें आये। इनकी तत्वचर्चाके सुननेसे प्रभावित होकर आप अपने समयको शास्त्र स्वाध्यायमें लगाने लगे। तत्कालीन राजा जगतेशके स्नेहभाजन श्रीरायचन्द्रके सौजन्यसे आप अन्य चिन्ताओंसे मुक्त रहकर चौंसठ २ वर्षकी आयु तक शास्त्रीय चिन्तनमें संलग्न रहे। फलत: आपको प्राय: चारों अनुयोगोंके Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ प्रसिद्ध ग्रन्थोंका अभ्यास हो गया। इसके पश्चात् आपने तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, द्रव्यसंग्रह, अष्टपाहुड, समयसार, ज्ञानार्णव, प्रमेयरत्नमाला, आप्तमीमांसा, पत्रपरीक्षा और चन्द्रप्रभचरित (केवल दार्शनिक अंश-तत्त्वसंसिद्धिः) आदि अनेक ग्रन्थोंपर प्रामाणिक वचनिकाएँ रची, जिनमेंसे अधिकांश मुद्रित भी हो चुकी हैं। पं० टोडरमलजीकी भाँति आप भी अपने समयके लब्ध प्रतिष्ठ विशिष्ट विद्वान् रहे। यह सौभाग्य की बात है कि सर्वार्थसिद्धिकी वचनिकाके अन्तमें आपने अपना थोड़ा सा परिचय पद्यात्मक प्रशस्तिमें अङ्कित कर दिया था, जो आज इतिहासका काम दे रहा है। जीवनको अन्तिम अवधि (वि० सं० १८८१-८२) तक आपका लेखन कार्य जारी रहा। सन्दर्भ : १. चार्वाक दर्शन अत्यधिक प्राचीन है। जैन व जैनेतर दर्शनों के अतिरिक्त रामायण और महाभारत में भी इसकी चर्चा पायी जाती है। महाभारल (शान्ति पर्व) के अनुसार इस नास्तिक दर्शनका सूत्रपात चार्वाक नामक राक्षसने किया था। लोकप्रचलित हो जानेसे बाद में इसकी ‘लोकायत' संज्ञा पड़ी। बृहस्पति इस दर्शनके प्रमुख आचार्य हुए, अत: इन्हीं के निमित्तसे इसका ‘बार्हस्पत्यदर्शन' नाम पड़ गया। बृहस्पति ने अपने सूत्रों में बतलाया है कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार ही तत्त्व हैं। इन्हींसे संयोग से देह के साथ चैतन्य उत्पत्र होता है, जो उसी के साथ नष्ट हो जाता है। उसे अगला जन्म नहीं लेना पड़ता। परलोक में जाने वाला कोई नहीं, अत: परलोक भी नहीं है। मरण ही मोक्ष है। सम्भोगजन्य सुख ही स्वर्ग है। कण्डकादिजन्य दुःख ही नरक है। राजा ही ईश्वर है। दण्डनीति ही एक विद्या है। प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है। इन्द्रियगोचर जगत् ही वास्तविक जगत् है। अतएव खाओ, पीओ और उड़ाओ। गांठमें पैसे न हों तो ऋण लेकर घी पीओ। ऋण चुकाने की चिन्ता करना व्यर्थ है; क्योंकि देहके भस्म होने पर फिरसे जन्म तो होता नहीं, जो अगले जन्ममें ऋण चुकाना पड़े-यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् (वर्तमान समयके अनुसार ‘हत्वा हत्वा सुरां पिबेत्')। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।' इत्यादि। आगे चल कर यह दर्शन अनेक शाखाओंमें विभक्त हो गया। इन्हीं शाखाओंमें तत्त्वोपप्लव दर्शन या वाद भी है, जो चार्वाकदर्शन की मान्यताओं का भी खण्डन करता है। सम्प्रति चार्वाक दर्शनका एक भी मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, पर तत्त्वोपप्लव दर्शनका एक ग्रन्थ- 'तत्त्वोपप्लवसिंहः' उपलब्ध है। यह १०वीं शतीका समझा जाता है। संभवत: पूर्वपक्ष लिखते समय यह ग्रन्थ वीरनन्दीके सामने रहा होगा। (चार्वाक दर्शनके अनुसार) पृथ्वी आदि (चार) तत्त्व लोकप्रसिद्ध हैं, पर वे भी जब विचार करनेपर सिद्ध नहीं होते, तब अन्य (जैन आदि दर्शनोंके मान्य) तत्त्व Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ क्या सिद्ध हो सकते हैं?-'पृथिव्यादीनि तत्त्वानि लोके प्रसिद्धानि, तान्यपि विचार्यमाणानि न व्यवतिष्ठन्ते, किं पुनरन्यानि?'-भट्ट जयराशि-तत्त्वोपप्लवसिंह पृ० १। पुरुष (आत्मा) अविनाशी है; क्योंकि उसके विनाशका कोई कारण नहीं है और वह कूटस्थ नित्य भी है; क्योंकि उसके विकारका कोई हेतु नहीं है- 'पुरुषो विनाशहेत्वभावादविनाशी, विक्रियाहेत्वभावाच्च कूटस्थनित्यः।' ब्र०सू० शाङ्करभाष्य, पृ०-२०, निर्णयसागर प्रकाशन। चन्द्रप्रभचरितम्की पञ्जिकामें आत्मा की कूटस्थनित्यताको सांख्यदर्शनकी और अकर्तृताको मीमांसा दर्शनकी मान्यता बतलाया है, पर सूक्ष्म विचार करनेपर यह सङ्गत प्रतीत नहीं होता; क्योंकि मीमांसा श्लोकवार्तिकमें आत्मा को एकाधिक स्थलोंपर कर्ता बतलाया गया है। जैसे- कर्ता तावत्स्वयं पुमान् श्लो० ७६, पृ० ७०९, चौखम्भा प्रकाशन। इसके लिए उक्त ग्रन्थके ७५ तथा ८२ आदि अन्य श्लोक भी द्रष्टव्य हैं। यों सांख्यदर्शन भी आत्मा को कूटस्थनित्य मानता है, पर ७वें श्लोक के पूर्वार्ध में 'केचित्' का दो बार उल्लेख हुआ है। ऐसी स्थितिमें पहले 'केचित्' से वेदान्त दर्शनको लेना चाहिए और दूसरे 'केमि' से सांख्य दर्शनको; क्योंकि मीमांसा दर्शन आत्माको अकर्ता नहीं, कर्ता मानता है। तत्त्वसंसिद्धिः (श्लोक ४८) में कहा गया है कि मीमांसक जीव-अजीव, पुण्य-पाप और सुख-दुखको स्वीकार करके भी मोक्षके विषयमें विवाद करते हैं (विप्रतिपद्यन्ते) पर अगले (४९-६७) श्लोकों से स्पष्ट है कि मीमांसक मोक्षके सद्भावको स्वीकार नहीं करते। महर्षि जैमिनिके सूत्रोंमे मोक्षकी चर्चा दृष्टिगोचर नहीं होती। सोमदेव सूरिने मीमांसकोंका एक उद्धरण दिया है'अङ्गाराञ्जनादिवत्स्वभावादेव कालुष्योत्कर्षप्रवृत्तस्य चित्तस्य न कुतश्चिद्विशुद्धचित्तवृत्तिः' -(यशस्तिलकचम्पू, भाग २, पृष्ठ २६९)। यही उद्धरण भास्करनन्दिविरचित तत्त्वार्थवृत्ति-सुखबोधा (पृष्ठ ३) में भी उपलब्ध है। इसका अर्थ है-कोयले एवं कज्जल की भांति स्वभावसे ही अत्यन्त मलिन मनकी वृत्ति किसी भी कारणसे शुद्ध नहीं हो सकती।-यह जैमिनीयों- मीमांसकोंका अभिमत है। इसी अभिप्राय का एक अन्य पद्य भी धूमध्वजके नामसे सोमदेवने उद्धृत किया है-'घृष्यमाणो यथाङ्गारः शुक्लतां नैति जातुचित्। विशुद्धयति कुतश्चितं निसर्गमलिनं तथा।।' (यशस्तिलकचम्पू, भाग २, पृष्ठ २५०)-जैसे घिसा गया कोयला कभी सफेद नहीं हो सकता वैसे स्वभाव से मलिन मन भी कैसे शुद्ध हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता (अत: इसके लिए तपस्याका प्रयास व्यर्थ है।) मनकी शुद्धिके बिना आत्मशुद्धि नहीं हो सकती और आत्मशुद्धिके बिना - Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ मोक्ष भी नहीं हो सकता-- इसी दृष्टिसे वीरनन्दीने मीमांसकोंके मोक्षाभावको पूर्वपक्षमें रखकर उसका निरसन किया है। महर्षि जैमिनि (३०० वि० पू०) ने मोक्षका निरूपण नहीं किया, पर कुमारिल भट्ट (लगभग ८वीं शती) ने मीमांसा श्लोकवार्तिक में किया है- इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। जान पड़ता है अन्य दर्शनों का प्रभाव ही इसमें कारण है, जैसा कि आधुनिक जैनेतर मनीषियोंके उल्लेखों से स्पष्ट है(१) वैदिक-कर्मोंका फल स्वर्ग प्राप्ति माना जाता है। निरतिशय सुखका नाम स्वर्ग है 'स्वर्गकामो यजेत' वाक्यमें यज्ञ कर्मोके सम्पादनका उद्देश्य स्पष्ट रूपसे स्वर्गकी कामना दिया गया है। परन्तु अन्य दर्शनोंमें मानव जीवनका लक्ष्य मोक्ष बतलाया गया है। फलत: मीमांसामें भी मोक्षकी भावनाने प्रवेश किया।आचार्य श्रीरामशर्मा-मीमांसादर्शन, भूमिका, पृष्ठ १३।। (२) वैदिक कर्मोका फल है स्वर्ग की प्राप्ति। निरतिशय सुखका ही अपर नाम स्वर्ग है। 'स्वर्गकामो यजेत' वाक्य यज्ञका सम्पादन स्वर्गकी कामनाके लिए विधान करता है, परन्तु अन्य दर्शनोंमें मोक्ष ही मानव जीवनका लक्ष्य माना गया २ है। फलत: यहाँ भी मोक्षकी भावनाने प्रवेश किया।' - पण्डित बलदेव उपाध्याय-भारतीय दर्शन, पृ० ४१९. अतएव यह मानना पड़ेगा कि प्रस्तुत विषय में वीरनन्दी का पूर्वपक्ष सर्वथा संगत है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनिर्वाण : एक अध्ययन* भारतीय संस्कृत साहित्य में जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यों साहित्य में सभी विषयों का समावेश हो जाता है, किन्तु प्रस्तुत लेख में केवल काव्य साहित्य की चर्चा अपेक्षित है। समस्त वाङ्मय की रचना मानवमात्र के हित की दृष्टि से की गई है, किन्तु अन्य शास्त्रों की कठिनाई को देख कर आचार्यों ने मानव को सरल रीति से शिक्षा देने के लिए काव्य शास्त्र का निर्माण प्रारम्भ किया। अन्य शास्त्र एक-एक विषय की शिक्षा देते हैं, पर काव्य शास्त्र संक्षेप में सभी शास्त्रों का सार, सरल और सरस शब्दों में बतलाने का प्रयत्न करता है। चौदहवीं शताब्दी के विद्वान् श्री विश्वनाथ ने जो चौदह भाषाएं जानते थे-लिखा है “अल्प बुद्धिवालों को भी चूंकि काव्य से ही सुखपूर्वक धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के फल की प्राप्ति, बिना परिश्रम के ही हो जाती है, अत: मैं उस (काव्य) के स्वरूप का निरूपण कर रहा हूँ" चर्तुवर्गफल प्राप्तिः सुखादल्पधियामपिं । काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ।। - साहित्यदर्पण १-२ दसवीं शताब्दी के विद्वान् श्री ममम्ट ने— जो वाग्देवता के अवतार माने जाते हैं- लिखा है “काव्य वंश का जनक, अर्थ का उत्पादक, व्यवहार का बोधक, अमङ्गल का विनाशक, शीघ्र ही आनन्द का जनक और स्त्री के समान सरसता से उपदेश प्रदान करने वाला है।" काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहार विदे शिवेतर अत ये। सद्यः परिनिर्वृतयु कान्तासम्मित तयोपदेश युजे।। - काव्यप्रकाश १-२ मम्मट के पूर्ववर्ती अलङ्कारिकों ने भी यही बात कही है और अग्निपुराण तथा विष्णुपुराण में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। जिस बात में रस हो-जो बात सरस हो उसे सभी सुनना चाहते हैं न कि नीरस को। व्याकरण आदि शास्त्रों की बातें नीरस होती हैं, जब कि काव्य की बातें रस से *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ ओत-प्रोत होती हैं। सरस वाक्य का ही नाम तो काव्य है। जैसा कि विश्वनाथ कविराज ने लिखा है- 'वाक्य रसात्मक काव्यम्, साहित्यदर्पण १ - ३ । सरस होने के कारण ही काव्य 'काव्यशास्त्र' कहे जाने लगे और इनका खूब ही प्रचार हुआ। पौराणिक कथाओं का आश्रय लेकर खण्डकाव्य, महाकाव्य, नाटक, चम्पू, आख्यान, आख्यायिका और गद्य काव्यों की रचना की गई। कुछ विद्वानों ने कल्पित कथाओं को आधार बनाकर भी काव्य रचे । फलतः चारों ओर यह सुनाई पड़ने लगा कि 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्' । अलङ्कारशास्त्र में नौ रसों की चर्चा आती है। उन रसों में शृङ्गार प्रधान माना जाता है— 'शृङ्ग प्राधान्यम् ऋच्छति गच्छतीति शृङ्गारः । इसी रस का पुट देकर कुछ कवियों ने ऐसे काव्यों का भी निर्माण किया, जिन्हें पढ़कर मानव का मन विकृत हुए बिना नहीं रह सकता । राजा-महाराजा भी ऐसे काव्यों को पसन्द करने लगे। फलतः काव्यों से लाभ के स्थान में हानि होने लगी। यह देखकर कुछ लोग यह स्पष्ट कहने लगे कि 'शास्त्र काव्यने हन्यते' और कुछ लोग तो यहां तक कहने लगे कि 'रण्ड गीतानि काव्यानि । ऐसी स्थिति में जैन विद्वानों ने बहुत सतर्क होकर काव्य रचना की। जैन कौव्यों को ध्यान से पढ़ने पर यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर जैन काव्य में अनेक विशेषताएं ज्ञात हो जाती हैं। महाकवि कालिदास ने 'मेघदूत' की रचना की। यह खण्डकाव्य उनकी प्रतिभा का अद्भुत नमूना है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। किसी मार्ग का इतना सरस वर्णन करना कालिदास के लिए ही सम्भव था । कालिदास की लेखन शैली पाठक के हृदय को बरबस आकृष्ट कर लेती है। किन्तु कालिदास ने अपनी रचना में शृङ्गार की अति कर दी। इसीलिए इनका मेघदूत जब भगवज्जिनसेनाचार्य के सामने पहुंचा तो उन्होंने शान्त रस का पुट देकर उसका कायाकल्प ही कर डाला उसे पार्श्वनाथ का चरित बना दिया । मेघदूत के जिन पद्यों से रामटेक से लेकर कैलास पर्वत तक का मार्ग ज्ञात होता है, उन्हीं से जैनों के तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के जीवन वृत्त का परिचय मिलना एक असम्भव सी बात है । किन्तु जिनसेन ने मेघदूत की समस्या पूर्ति कर के इसे सम्भव बना दिया। मेघदूत में विप्रलम्भ शृङ्गार है, जब कि उसकी समस्यापूर्ति - पार्श्वाभ्युदय में शान्त रस । महाकवि धनञ्जय ने रामायण और महाभारत की कथा का आधार लेकर 'राघव पाण्डवीयम्' महाकाव्य की रचना की । इस महाकाव्य में श्लेष का चमत्कार आरम्भ से अन्त तक है । एक अर्थ से राम - कथा और दूसरे पाण्डव-कथा निकलती है । प्रत्येक श्लोक से दो-दो अर्थ निकलते हैं। इसीलिए इस महाकाव्य का दूसरा नाम द्विसन्धानम् है, जो विद्वत्संसार में प्रचलित है। इस महाकाव्य में आदि से अन्त तक वेदर्दी रीति Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० का आश्रय किया गया है। बारहवीं शताब्दी में आचार्य हेमचन्द्र ने 'कुमारपालचरित' की, जिसका दूसरा नाम 'द्वयाश्रयकाव्य' है, रचना की। इसके प्रारम्भ के बीस सर्गों में संस्कृत और अन्त के आठ सर्गों में प्राकृत भाषा का आश्रय लिया गया है। हेमचन्द्र ने इससे अपने संस्कृत और प्राकृत व्याकरणों के उदाहरणों को प्रदर्शित किया है। इसी तरह के और भी अनेक जैन काव्य प्रकाशित हो चुके हैं जो अपनी विशेषताओं के कारण विद्वत्संसार में समाहित हैं। 'नेमिनिर्वाणम्' उन्हीं महाकाव्यों में से एक है। यह महाकाव्य ऊपर लिखे तीन काव्यों की शैली से विभूषित नहीं है, किन्तु इसमें अनेक विशेषताएं हैं, जो अन्य काव्यों में नहीं पाई जाती । लेखक का परिचय- नेमिनिर्वाण के कर्ता ने अपने महाकाव्य के अन्त में अपना संक्षिप्त परिचय दिया है, जिससे ज्ञात होता है कि वे अहिच्छत्र के निवासी थे। उनकी जाति पोरवाड थी। उनके पिता का नाम छाहड और उनका स्वयं का नाम वाग्भट था अहिच्छत्र पुरोत्पन्न प्राग्वाट कुलशालिनः । द्राहडस्य युतश्चक्रे प्रबन्धं वाग्भटः कविः ।। ___ (हस्तलिखित प्रति के आधार से) इनका अनुमानित समय ग्यारहवीं शताब्दी है। नाम में भ्रम- वाग्भट के नाम से अनेक कवि हुए हैं, जिनके नाम के बारे में विद्वानों को भ्रम हो जाता है। किन्तु पिता का नाम ज्ञात होने से उनके बारे में उत्पन्न भ्रम दूर हो जाता है। प्रस्तुत कवि के पिता का नाम छाहड था, जैसा कि ऊपर के पद्य से स्पष्ट है। काव्यानुशासनकार के पिता का नाम नेमिकुमार, वाग्भटालङ्कार के कर्ता के पिता का नाम सोम और अष्टाङ्गहृदय के रचनाकार के पिता का नाम सिंहगुप्त था। विशेष जानकारी के लिए इनके ग्रन्थ और श्रद्धेय प्रेमीजी का जैन साहित्य और इतिहास द्रष्टव्य है। ग्रन्थ का विषय- प्रस्तुत महाकाव्य के पन्द्रह सर्गों में जैनों के बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ का जीवन वृत्त वर्णित है। उनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण इन पांच कल्याणकों में अन्तिम निर्वाण मुख्य है, अत: इसी के आधार पर प्रस्तुत महाकाव्य का नाम 'नेमिनिर्वाणम्' रखा गया है। रस, रीति और गुण- प्रस्तुत महाकाव्य में शान्तरस है। यों बीच-बीच में। प्रसङ्गवश और रस भी हैं, किन्तु वे सब अङ्क (गौण) हैं शान्त रस अङ्गी (प्रधान) है। रीति वैदर्थी है। आरम्भ से अन्त तक प्रस्तुत ग्रन्थ में असमस्त पदों का प्रयोग किया Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ गया है। कहीं समस्त पद भी हैं, किन्तु लम्बे-लम्बे समस्त पद नहीं हैं। ग्रन्थ में आदि से अन्त तक प्रसाद और माधुर्य इन दो गुणों का सम्मिश्रण स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। अलङ्कारशास्त्र के अनुसार शान्त रस के साथ इन्हीं दो गुणों का होना उचित है। प्रस्तुत महाकाव्य की विशेषताएं (१) भगवान् नेमिनाथ के चचेरे भाई भगवान् कृष्ण थे। कृष्ण के ऊपर ब्राह्मण कवियों ने अनेक ग्रन्थ रचे हैं, जिनमें कुछ महाकाव्य भी हैं। 'शिशुपालवध' इन में से एक है। इसके रचनाकार महाकवि माघ थे। इनका समय लगभग आठवीं शताब्दी है, क्योंकि इनके महाकाव्य के 'रम्या इति प्राप्तवती: पताकाः' इत्यादि पद्य नवमी शताब्दी में निर्मित ध्वन्यालोक में उद्धत हैं। यह काव्य भारवि के काव्य (किरातार्जुनीयम्) के बाद का है, किन्तु उससे अच्छा है। मल्लिनाथ ने इसका बहुत समय तक अध्ययन किया था—'माघे मेधे गतं वध:'। काव्य सभी दृष्टियों से अच्छा है। किन्तु 'शिशुपालवध' इस नाम में वध उचित नहीं जान पड़ता है। इसीलिए विद्वत्संसार में इस महाकाव्य का 'माघ' नाम प्रचलित हो गया है। वाङ्गभट ने देखा भगवान् कृष्ण के बारे में तो माघकवि महाकाव्य रच चुके हैं, किन्तु उनके बड़े भाई नेमिनाथ के बारे में किसी ने कुछ भी नहीं रचा, इसी कमी को पूरा करने के लिए उन्होंने 'नेमिनिर्वाणम्' महाकाव्य रचा। ‘वध' अमङ्गल सूचक है, अत: वाग्भट ने अपने महाकाव्य का मङ्गल सूचक 'नेमिनिर्वाण' नाम रखा। यह प्रस्तुत महाकाव्य की पहली विशेषता है। प्रस्तुत महाकाव्य में प्रारम्भ के चौबीस पद्यों में क्रमश २४ तीर्थङ्करों को नमस्कार किया गया है, जिनके पढ़ने से उन (तीर्थङ्करों) का विराग होना व्यक्त होता है। जैनेतर काव्यों के प्रारम्भ में ऐसे भी मङ्गल श्लोक हैं, जिनसे उनके परमाराध्य देवों की सरागता व्यक्त होती है। विरागता ही मुक्ति की जननी है और सरागता संसार की, इसीलिए जैन ग्रन्थों में विरागता या वीतरागता की महिमा वर्णित है। इसका पुट प्रस्तुत महाकाव्य में मङ्गल पद्यों में भी है। यह इसकी दूसरी विशेषता है। (३) महाकाव्य के वर्णनीय विषयों में अलङ्कार शास्त्र के अनुसार राजा और रानी का वर्णन आवश्यक है, जैसा कि अलङ्कारचिन्तामणिकार ने आचार्य जयसेन 'भूमुक्पत्नी' इत्यादि पद्य में सूचित किया है। रानी का वर्णन करते समय उसका नख-शिख शृंगार ब्यौरे बार लिखा जाता है, यहां तक कि कुछ तो योनि तक का भी वर्णन कर डालते हैं। किन्तु प्रस्तुत महाकाव्य इसका अपवाद है। इसमें नायिका का इस ढंग से से वर्णन नहीं किया गया। यह इसकी तीसरी विशेषता है (२) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ (४) काव्यों में नायक की अनेक पत्नियों का वर्णन मिलता है, किन्तु इस काव्य में वह भी नहीं है। प्रस्तुत महाकाव्य के नायक भगवान् नेमिनाथ हैं। उन्हें व्याह के समय ही वैराग्य हो गया था, अतः वे बाल ब्रह्मचारी ही रह गये। उनके विरक्त हो जाने से राजुल भी विरक्त हो गई । शास्त्रीय दृष्टि से छः फेरे तक कन्या व्यवहार होता है। राजुल को तो एक भी फेरा नहीं फिरा था, अतः उसका विवाह हो जाता तो भी उचित था, पर उसने विवाह नहीं किया। इस घटना का पढ़ने वालों के ऊपर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ता है। आज के युग में लोग राग के सागर में गोते लगाते दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अत; ऐसे काव्यों की आवश्यकता है जो जनता को रागसागर में डूब मरने से बचा सकें । कवि प्रजापति के समान माना जाता है— 'अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः' । कवि जनता की भावना को चाहे जैसा उभार सकता है। यदि वह स्वयं शृङ्गारी है तो जनता को शृङ्गारी और विरागी है तो जनता को भी विरागी बना सकता है । इस दृष्टि से आज के युग में नेमिनिर्वाण महाकाव्य बहुत ही उपयोगी है। यह उसकी चौथी विशेषता है। T (५) आज लोग धर्मशास्त्र को उपेक्षा-दृष्टि से देखने लगे हैं। धर्मशास्त्र में वर्णित शिक्षाएं यदि काव्य के माध्यम से हो जायें तो पाठकों के ऊपर अवश्य ही प्रभाव पड़ता है। प्रस्तुत महाकाव्य में बीच-बीच में सुन्दर धार्मिक शिक्षाएं दी हैं जो मानव को प्रभावित करने वाली हैं। उनमें अहिंसा की शिक्षा मुख्य है- "जो अपने शरीर को पुष्ट करने के लिए प्राणियों का वध करता है, वह दुष्ट जाड़े से बचने के लिए निश्चय ही धधकती हुई आग में प्रवेश करता है । जैसे अग्नि में प्रवेश करने से दुःख होता है इसी तरह हिंसा करने से भी दुख होता है, क्योंकि हिंसा सभी प्रकार के दुःखों का उदय कराने के लिए मूल मन्त्र है"निःशेष दुःखोदय मूलमन्त्र, यौ देह पुष्टयै वद्यमादधाति । नूनं स शीतार्तिभिदे दुरात्मा, प्रवेशमग्नो ज्वलिते करोति ।। नेमिनिर्वाण १३-१५ "यदि कोई हिंसा करता है तो उसके तप और दान करने के प्रयत्न व्यर्थ हैं और यदि वह कभी भी हिंसा नहीं करता तथा न ही उसे आदर की दृष्टि से देखता है तो उसे तप और दान के लिए प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता ?” वधं विधत्ते यदि जातु जन्तुरलं, तपोदान विधाम यत्नैः । तमेव चेन्नाद्रियते कदाचिदलं, तपो दान विधान यत्नै ।। . वही १३-१८ - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ "यदि कोई व्यक्ति सैकड़ों तप कर ले और निरन्तर दान भी देता रहे किन्तु यदि उसके मन में भी कभी हिंसा का भाव उत्पन्न हो जाय तो उसकी सब तपस्याओं और दान पर पानी फिर जाता है।" तनोत् जन्तुः शतरास्तपांसि दतातु दानानि निरन्त करोति चेत्प्राणिवधे ऽ भिलाषं, कर्थानि सर्वाण्यपि तानि दया अमृत के समान है और हिंसा मद्य के । यद्यपि ये दोनों ही आत्मारूपी महा समुद्र में उत्पन्न होती हैं, किन्तु इन दोनों में से एक (कृपा) मानव को अमर बनाने में कारण और दूसरी (सुरा) उसे कुगतियों में गिराने वाली मूर्च्छा प्रदान करती हैकृपा सुधेवात्म सुधाम्बुराशौ हिंसा सुरेव द्वयमम्यु देति । एका नाराण ममरत्व हेतु रन्यातु, मूर्च्छा पतनाय दत्ते ।। वही १३-२१ प्रस्तुत अहिंसा के विचार भगवान् नेमिनाथ के हैं, जो उनके मन में जूनागढ़ के बाड़े में घिरे हुए पशुओं के करुण क्रन्दन को सुनने से उत्पन्न हुए थे। इनके छोटे भाई भगवान् कृष्ण गो रक्षा का समर्थन करते किन्तु भगवान् नेमिनाथ की दृष्टि में सभी प्राणी रक्षणीय थे। यह बात प्रस्तुत प्रकरण को पढ़ने से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। यह इसकी पांचवी विशेषता है। राणि । तस्य । । वही १३-१८ (६) छन्दों का प्रयोग — प्रस्तुत महाकाव्य के सातवें सर्ग में आर्या आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया गया है, जिनकी संख्या ४० से भी ऊपर है। श्लोकों में छन्दों के नाम भी कवि ने बड़ी कुशलता से दे दिये हैं, जिनका अर्थ प्रस्तुत कथा के साथ लगता चला जाता है। कहीं-कहीं तो छन्दों की विशेष बातें और परिभाषाएं भी आ गई हैं। जैसे— वृत्तं व्रजति न भङ्ग यदीयत त्वैक चेतसां विदुषाम् । जन्म मयास्तर सास्ते भान्त्येतस्मिन् गणाः ख्याताः । । ७-१ पहला अर्थ - इस रैवतक (गिरनार) पर्वत पर प्रसिद्ध साधुओं के सङ्ग विराजमान हैं। उनकी आत्मा जन्म आदि के भय से मुक्त है। जो विद्वान् हृदय से उनके स्वरूप का चिन्तन करते हैं, चरित्र उनका निर्मल हो जाता है। दूसरा अर्थ - छन्दशास्त्र में जगण, नगण, मगण, भगण, यगण, सगण, तगण " और रगण ये आठ गण प्रसिद्ध हैं। जो विद्वान् इन आठ गणों के स्वरूप को हृदय से समझ लेते हैं, उनका छन्द, भङ्ग (छन्दो भङ्ग) नहीं होता । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ मुनिगण से व्या गुरुण युक्तार्या जयति सामुन्न । चरण गतम खिलमेव स्फुरति तरां लक्षणं यस्याः ।।७-२ पहला अर्थ- इस पर्वत पर आर्यिका जी विराजमान हैं। उनकी मान्यता मुनियों के समान है। उनके साथ उनकी गुरु-प्रधान आर्यिका भी हैं। उनके चिह्न चरणायोग के अनुकूल हैं। आर्यिकाओं में वे सर्वोत्कृष्ट हैं। उन्हें हमारा नमस्कार हो। दूसरा अर्थ- आर्यछन्द, सभी छन्दों में उत्कृष्ट है- (आर्या तथैव भार्या.......)। उसके पूवार्द्ध में सात गण (मुनिगण) और एक गुरु होता है। उसके प्रत्येक चरण का पूरा का पूरा लक्षण कवि को अन्य छन्दों की अपेक्षा शीघ्र ही स्फुरित हो जाता है। रघुवंश, कुमारसंभव, किरात, शिशुपालवध, नैषध, धर्मशर्माभ्युदय, द्विसन्धान और चन्द्रप्रभ आदि प्रचलित महाकाव्यों में ‘चण्डवृष्टि' छन्द का प्रयोग देखने में नहीं आया। प्रस्तुत महाकाव्य के सप्तम सर्ग के ४६ वें पद में इसका प्रयोग किया है। यह इसकी छठी विशेषता है। (७) अलङ्कारों का चमत्कार प्रस्तुत महाकाव्य के प्रणेता को अलङ्कारों का पूर्ण ज्ञान था। वे उनके प्रयोग में अत्यन्त कुशल हैं। उन्होंने अलङ्कार की परिभाषा को ध्यान में रखकर काव्य नहीं बनाया, किन्तु उनके काव्य में वे स्वयं आते गये। उनकी योजना के लिए कवि को स्वतन्त्र प्रयत्न नहीं करना पड़ा। यही कारण है जो वाग्भटालङ्कार के प्रणेता ने प्रस्तुत महाकाव्य के पद्यों को अपनी कृति में उदाहरण रूप दिया है। अभी तक उपलब्ध अलङ्कार ग्रन्थों में ऐसा एक भी नहीं, जिसमें किसी एक ही ग्रन्थ से उदाहरण लिए गए हों। यह सौभाग्य केवल नेमिनिर्वाण के प्रणेता को ही प्राप्त है। वाग्भटालङ्कार में दोषों का प्रकरण भी है, पर उसमें प्रस्तुत महाकाव्य का एक भी उदाहरण नहीं, केवल अलङ्कार-प्रकरण में, विशेषत: यमक के प्रकरण में इसके पचीसों पद्य उद्धृत हैं। इससे ज्ञात होता है कि वाग्भटालङ्कार के प्रणेता की दृष्टि में प्रस्तुत महाकाव्य सर्वथा निर्दोष था। यह इसकी सातवीं विशेषता है। (८) उत्प्रेक्षाओं की विच्छिति। अन्य अलङ्कारों की अपेक्षा उत्पेक्षा को विशिष्ट महत्व दिया जाता है। उपमा का प्रयोग आसानी से हो जाता है, पर उत्प्रेक्षा के प्रयोग में बड़ी कठिनाई पड़ती है। इस बात को वे ही समझ सकते हैं जो स्वयं सत्कवि हैं। प्रस्तुत महाकाव्य में जो उत्प्रेक्षायें। की गई हैं, उनमें चमत्कार है। जैसे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं विधां तां निजराजधानी निर्मापयामीति कुत्हलेम। छाया छलादच्छजले पयौधौ प्रचेतसा या लिखितेव भाति।। १-३८ द्वारका पुरी समुद्र के बीच में है। समुद्र के स्वच्छ जल में उसकी छाया पड़ रही है। इसके ऊपर कवि की उत्प्रेक्षा (कल्पना) है कि वरुण ने उसका नक्शा खींच लिया है, यह सोचकर कि मैं (वरुण) भी अपने लिए इसी तरह की राजधानी बनवाऊँगा। वरुण पश्चिम दिशा का स्वामी है। वह समुद्र में निवास करता है। यह कवि संसार में प्रसिद्ध है। इसी आधार से कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है। यह इसकी आठवीं विशेषता है। (९) प्रस्तुत महाकाव्य के अन्त में भगवान् नेमिनाथ की दिव्यदेशना का संक्षेप में वर्णन है। अलङ्कार शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि काव्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की शिक्षा देते हैं। मोक्ष पुरुषार्थ का सहायक धर्म पुरुषार्थ है। अत: काव्यों में इसका उपदेश होना नितान्त आवश्यक है। प्रस्तुत महाकाव्य के अन्तिम सर्ग में इसका उपदेश है। मेरा अनुमान है कि जैन काव्यों में सबसे पहले वाग्भट से ही इसे प्रारम्भ किया। द्विसंधानमहाकाव्य प्रस्तुत महाकाव्य से पहले बन चुका था, पर उसमें यह बात-अन्तिम सर्ग कर्मोपदेश नहीं है। प्रस्तुत महाकाव्य में है। बाद में चन्द्रप्रभचरित्र और धर्मशर्माभ्युदय आदि काव्यों के अन्तिम सर्गों में धर्मोपदेश का वर्णन है। जैनेतर काव्यों में यह बात दृष्टिगोचर नहीं होती। प्रस्तुत महाकाव्य की यह नवीं विशेषता है। प्रस्तुत महाकाव्य में भगवान् नेमिनाथ के पूर्व भवों का वर्णन है। पूर्व भवों के पढ़ने से पाठक को यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि अच्छे कर्मों का अच्छा और बुरे कर्मों का बुरा फल होता है। इससे पाठक का आत्मा से अस्तित्ववाद के ऊपर भी दृढ़विश्वास हो जाता है। नायक की भवावली का वर्णन जैनेतर काव्यों में नहीं के बराबर मिलता है। महापुराण आदि जैन पुराणों में भवान्तरों का वर्णन मिलता है। मेरा ख्याल है कि भवान्तरों का वर्णन महाकाव्य में वाग्भट ने पहले किया। इनके बाद इस शैली को वीरनन्दी और हरिचन्द्र आदि ने भी अपने महाकाव्यों में अपनाया। इस विषय में अभी छान-बीन की अपेक्षा है। यदि मेरा ख्याल ठीक है तो यह प्रस्तुत महाकाव्य की दसवीं विशेषता है। इसी तरह सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो और भी अनेक विशेषताएं ज्ञात हो सकती हैं। ज्ञात विशेषताओं के आधार पर यह स्पष्ट है कि नेमिनिर्वाणमहाकाव्य उच्चकोटि के महाकाव्यों में से एक है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रतिहत शक्ति भगवान् महावीर* इस युग के प्रारम्भ में प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव ने अपने जन्म से अयोध्यापुरी को पवित्र किया था। इनका विस्तृत वर्णन श्रीमद्भागवत (स्क०५, अ० २-६) में भी समुपलब्ध है। इन्हीं के पौत्र मरीचि, जो धर्मप्राण भारतवर्ष के प्रथम सम्राट भरत के ज्येष्ठ पुत्र रहे, अनेक जन्म लेने के उपरान्त चौबीसवें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर हुए। जैन वाङ्मय में इनके चार अन्य नाम भी व्यवहत हैं-वर्धमान, सन्मति, वीर और अतिवीर, पर इतिहास लेखकों ने अपने ग्रन्थों में प्राय: महावीर नाम का उल्लेख किया है, जो सम्प्रति सर्वत्र प्रचलित है। गर्भावस्था से जीवन के अन्त तक देहधारियों के सामने न जाने कितनी भीषण बाधाएं आया करती हैं, जो उनकी शक्ति को प्रतिहत करके उन्हें सन्मार्ग से विचलित होने को बाध्य कर देती हैं, पर भगवान् महावीर के बहत्तर वर्ष के जीवन काल में दि से अन्त तक ऐसी एक भी बाधा उनके सामने नहीं आयी, जो उनकी शक्ति को कुण्ठित करके उनके दृढ़ निश्चय पर तनिक भी प्रभाव डाल सकी हो। - भगवान् महावीर स्वयंबुद्ध थे। उनके विशिष्ट ज्ञान को देखकर उस समय के विशिष्ट विद्वान् भी आश्चर्य की अनुभूति करते रहे। विजय और संयज नाम के दो चार ऋद्धिधारी मुनियों के मन में एक शास्त्रीय शङ्का थी। उसका सटीक समाधान उन्हें भगवान् महावीर के अवलोकन मात्र से प्राप्त हुआ था, फलत: उन्होंने इनका सन्मति नाम रख दिया। विषधर सर्प से भी भयभीत न होने के कारण लोग उन्हें वीर कहने लगे। भगवान् महावीर जन्म से ही अनुपम सुन्दर थे। यौवन के आते ही उसमें और भी निखार आ गया। उनके दिव्यदेह की ऊंचाई सात हाथ थी। उनका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक एवं प्रभावशाली था। उनके माता-पिता उनके विवाह हेतु कन्या की तलाश करने लगे। अनेक राजेमहाराजे उसी विषय को लेकर राजा सिद्धार्थ के पास आये। माता-पिता परिणयन के पश्चात् भगवान् महावीर को राज्य सौंपना चाहते थे, पर वे इन दोनों कार्यों के लिए तैयार नहीं हुए। मां के अत्यधिक आग्रह को भी उन्होंने स्वीकार नहीं किया। अत: विवाह का बन्धन उन्हें बांध न सका। यौवन में काम पर विजय पाना टेढ़ी खीर है। युवक । *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ अन्य प्रतिद्वन्दियों को जीत सकता है पर वह स्वयं काम के द्वारा जीत लिया जाता है। भगवान् महावीर इसके अपवाद रहे अतः प्रजाजन इन्हें अतिवीर कहने लगे। तीस वर्ष की भरी जवानी में भगवान् महावीर ने घर छोड़ दिया और निर्जन वन में जाकर ईसा से ५६९ वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी के दिन दीक्षा ले ली। दीक्षा के उपरान्त लगातार बारह वर्षों तक भगवान् महावीर ने घोर तपश्चरण किया। कड़ाके की सर्दी, गर्मी और बरसात में भी वे तपश्चरण के मार्ग से विचलित नहीं हुए । जब शीतलहर की मात्रा प्रबल हो जाती है तब रात भर के बिछुड़े चकवा - चकवी शरीर के अकड़ जाने से प्रभात की मिलन बेला में इच्छा रहते हुए भी अपने - अपने स्नेह को व्यक्त नहीं कर पाते। भूखे हंस शैवाल को चोंचों में दबाते ही छोड़ देते हैं। बर्फ जैसी शीतलता के कारण वह उनके गले के अन्दर नहीं पहुँच पाती। हाथी धूलि को उठाकर भी अपने शरीर पर नहीं डाल पाते। सिंह पंजों की अकड़न के कारण सामने आये हुए हाथी पर आक्रमण नहीं कर पाता । हिरन भूख से व्याकुल होकर भी हरी घास खाने में असमर्थ हो जाते हैं । * भीष्म ग्रीष्म के समय प्रचण्ड मार्तण्ड अपनी प्रखर किरणों से सारी पृथ्वी को चूल्हे पर चढ़े हुए तवा की भाँति गरम कर देता है। आकाश से आग बरसने लगती है। अग्नि और अनल एक जैसे प्रतीत होने लगते हैं। जलाशयों का जल काढ़े की तरह खौलने लगता है। पावस के मौसम में मेष अपनी इच्छानुसार कभी फूल बरसाते हैं तो कभी पत्थर और अग्नि भी। उपल वृष्टि कभी इतनी जोर की होती है कि भीमकाय हाथियों की भी हड्डियाँ चटक जाती हैं। नदियों में इतनी बाढ़ आ जाती है कि मछलियाँ भी उन्नत वृक्षों की शाखाओं तक पहुँच जाती हैं। झंझावत बड़े-बड़े पहाड़ों के शिखरों को भी हिला देता है और वृक्षों को अपने साथ उड़ा ले जाता है। रात्रि के समय अन्धकार इतना गाढ़ हो जाता है कि उसमें सूई की नोंक भी नहीं कोंची जा सकती। मूसलाधार वर्षा सारी पृथ्वी को जलमयी बना डालती है। इस तरह के तीनों मौसम भगवान् महावीर के तपश्चरणकाल में १२ बार आये पर उनके ऊपर तनिक भी विपरीत प्रभाव नहीं डाल सके। वे ऐसे मौसमों में भी अप्रतिहत शक्ति बने रहे। * इस तरह के घोर तपश्चरण की अग्नि में पड़कर भगवान् महावीर की आत्मा कंचन की भाँति निर्मल एवं पवित्र हो गयी। फलतः ई० से ५५७ वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल दशमी के दिन भगवान् महावीर को केवल ज्ञान (पूर्ण ज्ञान) की प्राप्ति हुई। आभ्यान्तर शत्रु- चार घातिया कर्मों पर विजय प्राप्त करने पर उन्हें यह सफलता मिली, अतः अब Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ उनका महावीर नाम पड़ गया। पूर्णज्ञान की प्राप्ति होने पर तीर्थङ्करों की देशना प्रारम्भ हो जाती है, पर योग्य शिष्य के अभाव में भगवान् महावीर की देशना प्रारम्भ नहीं हुई और ६६ दिनों तक वे मौन पूर्वक विहार करते रहे । विहार करते-करते वे मगध की राजधानी राजगृह में पहुँचे और वहां उन्होंने विपुलाचल को अलङ्कृत किया। इस शुभ समाचार को सुनते ही राजा श्रेणिक (बिम्बसार) और उनके प्रजाजनों ने उनके दर्शनों लिए अपने-अपने स्थान से प्रस्थान कर दिया। भगवान् महावीर की सर्वज्ञता की बात को सुनकर वहां के प्रतिभाशाली महान् इन्द्रभूति गौतम को, जो ब्राह्मण थे, विश्वास नहीं हुआ, फलतः वे भी उनकी सर्वज्ञता को परखने के लिए जीवतत्वविषयक जटिल शङ्काओं को लेकर अपने पांच सौ शिष्यों के साथ विपुलाचल पर गये। उन्हें आते देख कर भगवान् महावीर ने दूर से ही कहा- आओ गौतम, आओ ! गौतम सोचने लगे कि आस-पास में बैठे हुए किसी स्थानीय व्यक्ति से उन्हें मेरा सगोत्र नाम ज्ञात हुआ होगा। पास में जाकर ज्यों ही वे बैठे त्यों ही भगवान् महावीर ने बिना पूछे ही उनकी शङ्काओं को बतलाकर उनका विस्तृत सटीक समाधान दे दिया। इससे गौतम इतने अधिक प्रभावित हुए कि तत्काल उनके शिष्य बन कर दीक्षित हो गये। इनके पश्चात् वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्मा, मौर्य, मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अन्धवेला और प्रभास भी शिष्य बन गये और दीक्षा ग्रहण कर ली। इन ग्यारह शिष्यों - गणधरों में प्राधान्य गौतम को प्राप्त हुआ । इसीलिए प्रवचन के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण में भगवान् महावीर के बाद उन्हीं को मङ्गल रूप में स्मरण किया जाता है, जैसा कि निम्नाङ्कित श्लोक से स्पष्ट है मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी । मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।। इसके उपरान्त श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पूर्वाह्न की मङ्गलबेला में अभिजित नक्षत्र में भगवान् महावीर की प्रथम देशना वहीं पर हुई । लोकहिताय भगवान् महावीर की यह देशना उनकी बयालीस वर्ष की आयु से बहत्तर वर्ष की आयु पर्यन्त यत्र-तत्र लगातार तीस वर्षों तक चालू रही। इस देशना का संकलन भगवान् महावीर के प्रथम गणधर गौतम ने किया, जो आज द्वादशाङ्गवाणी या विपुल जैन वाङ्मय के रूप में समुपलब्ध है। 7 भगवान् महावीर ने अपनी देशना में बतलाया कि सभी प्राणी सुख के अभिलाषी होते हैं और उसी के लिए वे सतत् प्रयत्नशील भी रहते हैं । दुःख किसी को भी इ नहीं होता । अतः मानव को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे किसी को दुःख Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ हो । दुःख का कारण हिंसा है, अत: हिंसा सभी पापों से बढ़कर है। जो आज दूसरे प्राणी की हत्या करता है, वही आगे जाकर उसके द्वारा मारा जाता है। पाप का फल इस जन्म के साथ अगले जन्मों में भी भोगना पड़ता है। अतः हिंस्य के साथ हिंसक भी दुःख का पात्र बनता है । केवल हिंसा का परित्याग करने से झूठ, चोरी, व्यभिचार एवं अतिसंचय जैसे पापों से भी छुटकारा मिल जाता है; क्योंकि जिसके बारे में असत्य बात कही जाएगी, जिसका धनबाह्यप्राण चुराया जायगा और जिसकी बहू-बेटी के साथ व्यभिचार किया जायगा, उसे घोर कष्ट होगा, जो हिंसा ही तो है। पूर्व संचय के बावजूद जो भी धनिक लोभवश, बाजार में आये हुए माल को अत्यधिक मात्रा में खरीद कर रख लेगा वह अवश्य ही उस काल की मंहगाई का कारण बनेगा, इससे निर्धन व्यक्तियों को कष्ट हुए बिना नहीं रहेगा। अतः मानव जाति को सुखी बनाने के लिए हिंसा का मनसा वाचा कर्मणा परित्याग किया जाना चाहिए। जिन वस्तुओं के खान-पान से हिंसा हो वे भी सर्वथा त्याज्य हैं। मांस बिना हत्या किये प्राप्त नहीं हो सकता। मांस कच्चा हो या अग्नि पर पकाया गया हो, पर उसमें प्रतिपल असंख्य सूक्ष्म जीव उत्पन्न हुआ करते हैं, अतः मांस की जरा सी डली के भूषण करने से एक ही साथ अगणित प्राणियों का घात हो जाता है। मद्य का निर्माण अनेक मादक वस्तुओं को सड़ा कर किया जाता है, अतः इसमें अगणित जीवों की राशियां उत्पन्न हो जाती हैं, फलतः एक बिन्दु मद्य के पान करने से भी असीम जीवों का विनाश हो जाता है। हिंसा के अतिरिक्त भी मद्य-मांस के सेवन से दोष होते हैं, जो शराबियों और कबाबियों को पतन के गर्त में गिरा देते हैं। शहद मधुमक्षिकाओं का वमन है। यह जिस छाते को निचोड़कर निकाली जाती है, उसमें मधुमक्खियों के करोड़ों अण्डे भी होते हैं, निचोड़ने से उन सब का संहार हो जाता है। बड़, पीपल, पाकर, कठूमद और अंजीर आदि क्षीरवृक्षों के फलों में असंख्य जीव रहते हैं, जो प्रत्यक्षगोचर होते हैं, अतः इनके सेवन करने वाले हिंसा से लिप्त हो जाते हैं। अनगालित जल के पीने से उसमें रहने वाले जीवों की हिंसा हो जाती है। रात्रि में सावधानी बरतने पर भी न जाने कितने जीव भोजन के साथ पेट में चले जाते हैं। इससे उनकी हिंसा हो जाती है और भोजन करने वाले अनेक रोगों के शिकार भी बन जाते हैं। मांस आदि उक्त वस्तुओं के परित्याग को मूल गुण कहते हैं । जैसे जड़ के बिना वृक्ष नहीं होता उसी प्रकार इन मूल गुणों के बिना मानव भी सच्चा मानव नहीं हो पाता । हिंसात्मक धार्मिक अनुष्ठान अपनी पवित्रता से वञ्चित हो जाते हैं और उनका फल भी जैसा सोचा जाता है उससे सर्वथा विपरीत ही होता है । 'ज्ञान के बांध से घिरे हुए, ब्रह्मचर्य और दया के जल से भरे हुए, पाप के मैल को हटाने वाले अत्यन्त निर्मल आत्म-तीर्थ में स्नान करके इन्द्रिय-दमन की वायु से प्रज्वलित जीवकुण्डस्थ ध्यानाग्नि में असत्कर्मों की आहुति देकर उत्तम कोटि का अग्नि Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० होत्र किया जाना चाहिए। धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों को नष्ट करने वाले दुष्ट कषायरूपी पशुओं से शम- मन्त्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ होना चाहिए, जो कि विद्वानों द्वारा विहित है । ' यह उचित है; क्योंकि जो धार्मिक अनुष्ठानों में हिंसा से धर्म की कामना किया करते हैं वे जहरीले काले नाग के मुख के ऊपरी भाग में स्थित विष की पोटली से सुधावृष्टि की इच्छा करते हैं। धर्म उसे कहना चाहिए, जिसमें अधर्म का तनिक भी संसर्ग न हो, सुख उसे समझना चाहिए, जिसमें दुःख की संभावना तक न हो; ज्ञान उसे जानना चाहिए, जो अज्ञान से संयुक्त न हो और गति वह है जहाँ फिर आने का चक्कर न हो । यों सारे आकाश में जीव राशि व्याप्त हैं, इसलिए उठते-बैठते, चलते-फिरते हिंसा हो जाया करती है फिर भी यत्नपूर्वक ऐसे ढंग से चले-फिरे, उठे-बैठे जिससे हिंसा से बचाव हो सके। हिंसा की भावना नहीं होती, अतः वह हिंसा के दोष से बच जाता है। वैचारिक हिंसा भी हिंसा है। उससे बचने का उपाय स्याद्वाद है । जगत् की छोटी या बड़ी चेतन या अचेतन सभी वस्तुएं नानाधर्मात्मक हैं, इसीलिए उनकी सार्थक संज्ञा अनेकान्त है। अन्त शब्द का अर्थ धर्म भी होता है। किसी एक धर्म की विवक्षा से उसका कथन करना एवं अन्य धर्मों का निषेध न करना स्याद्वाद है । स्यात् शब्द का अर्थ 'शायद' नहीं है। एक व्यक्ति अपने पिता का पुत्र है, पर अपने पुत्र का पिता भी तो है। पिता के सामने वह पुत्र ही है और पुत्र के सामने पिता ही । अतएव उसे शायद पिता है या शायद पुत्र है- यह कहना सही नहीं है, क्योंकि वह अपने पिता का पुत्र और पुत्र का पिता ही है । यह पिता ही है, पुत्र नहीं किसी भी दृष्टि से ऐसा नहीं कहा जा सकता अन्यथा लोक व्यवहार भी नहीं चल सकेगा जैसा कि सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है। भारत वर्ष में शास्त्रार्थ का बड़ा प्रचार रहा है। इसमें हिंसा भी खूब हुआ करती थी। भगवान् महावीर ने शास्त्रार्थियों को समन्वय की नयी दृष्टि प्रदान की। सांख्यदर्शन वस्तु को सर्वथा नित्य मानता है और बौद्ध दर्शन सर्वथा अनित्य । पर जैन दर्शन की दृष्टि से वस्तु द्रव्य की दृष्टि से नित्य भी है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य भी । प्रत्येक वस्तु परिणमनशील है, अत: उसकी अवस्थाएं बदलती रहती हैं, उसका समूल नाश कभी नहीं होता। गेहूँ इन्द्रिय ग्राह्य है या यों कहिये उनमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों गुण विद्यमान हैं, अत: वे पुद्गल हैं। गेहूं पिस कर आटा बन जाता है, अतः उसकी अवस्था, जिसका दूसरा नाम पर्याय है, बदल जाती है पर पुद्गलत्व तो बना ही रहता है। उस दृष्टि से गेहूं नित्य भी है और अनित्य भी । इसी दृष्टि से प्रत्येक के विषय में शास्त्रीय विचार करें और 'ही' के स्थान में 'भी' का प्रयोग करते चलें तो 'वस्तु Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु की सही जानकारी प्राप्त होगी और कलह का विराम भी। प्रयत्न करने पर भी जब इष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती तो असफल व्यक्ति दूसरे के मत्थे दोष मढ़ कर उससे झगड़ने लगता है और इसमें हिंसा तक की नौबत आ जाती है। पर असफल व्यक्ति यदि यह सोच ले कि जैसा रहा वैसा ही फल मिला तो झगड़े की नौबत नहीं आ सकती और न हिंसा ही हो सकती है। नींव खोदने वाला नीचे की ओर ही बढ़ता जायगा और दीवार बनाने वाला ऊपर की ओर ही। इसी तरह जिसका जैसा कर्म होता है वैसा ही उसे फल मिलता है । सभी प्राणियों के व्यक्तित्व को अपने ही समान महत्व दिया जाना चाहिए यही वास्तविक साम्यवाद है। जगत् के सभी प्राणी एक दूसरे का उपकार करते हैं, अत: अपने-अपने स्थान में सभी का महत्व है। मानव समाज का जीवन पशुसमाज पर और पशुसमाज का जीवन मानव समाज पर आश्रित है। जन्मजात शिशु को पहले गाय का दूध दिया जाता है, मां का दूध तो उसे चार-पांच दिनों के बाद मिल पाता है। बैलों से खेती में मदद मिलती है। घोड़े आदि मानव की यात्रा में सहायक होते हैं। अत: मानव समाज का जीवन पशु समाज पर आश्रित है। मानव भी उन्हें खिला-पिला कर जलाता है, अत: उनका जीवन मानव समाज पर आश्रित है। मानव का जीवन गर्भावस्था से लेकर श्मशान पहँचने तक पराश्रित ही रहता है। जिनका आश्रय लेना पड़ता है उनमें सभी वर्ग के लोग शामिल हैं। एकेन्द्रिय जीवों को छोटा समझा जाता है, पर वे तो पञ्चेन्द्रिय जीवों से भी अधिक उपकार करते हैं। वनस्पति न हो तो दाल, चावल, गेहूँ, लकड़ी और ईधन आदि कहां से प्राप्त होंगे? जल और वायु न हो तो जीवधारी कैसे जीवित रहेंगें? पृथ्वी न हो तो रहने के लिए आधार किसे बनाया जायगा? इस दृष्टि से सभी प्राणियों के व्यक्तित्व का समादर होना चाहिए। ___ भगवान् महावीर के इस उपदेश में सभी का हित निहित है। इसके परिपालन से सभी अभ्युदय प्राप्त कर सकते हैं। "मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना'-- इस उक्ति के अनुसार भगवान् महावीर के समय में कतिपय ऐसे भी व्यक्ति रहे जो अपने को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी एवं तीर्थ प्रवर्तक मानते थे, यद्यपि उनमें वे विशेषताएं नहीं रहीं जो भगवान् महावीर में विद्यमान थीं। ऐसे व्यक्तियों में पूरण आदि थे जिनका नामोल्लेख आचार्य विद्यानन्द ने आप्तमीमांसा की दूसरी कारिका की व्याख्या करते हुए अष्टसहस्री (पृ० ४) में किया है। पूरण के आगे आदि पद जुड़ा हुआ है जिससे ज्ञात होता है कि आचार्य विद्यानन्द को मक्खलि गोशाल, अजित केशकम्बल, पकुध कात्यायन, संजयवेलठ्ठिपुत्र और * गौतम बुद्ध ये पांच और विवक्षित हैं। इनकी मान्यताएं न केवल भगवान् महावीर से, बल्कि आपस में भी एक दूसरे से भिन्न थीं। पूरण या पूर्ण काश्यप अक्रियवाद के, Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ मक्खलि गोशाल नियतवाद के, अजित केशकम्बल उच्छेदवाद के, पकुधकात्यायन अन्योन्यवाद के, संजयवेलट्ठिपुत्र विक्षेपवाद के और गौतम बुद्ध क्षणभङ्गवाद के समर्थक थे। उवासगदसाओ (उपासकदशाङ्गसूत्र) के प्रथम और द्वितीय अध्ययन के पढ़ने से यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि मक्खलि गोशाल भगवान् महावीर का अधिक विरोध करता था- यत्र-तत्र जा जा कर उनके विरोध में उनके भक्तों को भड़काया करता था। पर इन सभी की मान्यताएं इन्हीं के साथ समाप्त हो गयीं। गौतम बुद्ध को छोड़ कर इनमें से किसी का भी कोई साहित्य आज उपलब्ध नहीं है। इन सबके रहते हुए भी भगवान् महावीर की प्रभावशक्ति तनिक भी प्रतिहत नहीं हुई। भगवान महावीर की तपस्या और देशना पूर्णतः सफल रही। इनकी अहिंसा आदि के कुछ सिद्धान्त भगवान् बुद्ध को भी मान्य रहे, पर भगवान् महावीर और उनके अनुयायियों ने अहिंसा के जिस रूप को अपनाया उसे भगवान् बुद्ध या उनके अनुयायी नहीं अपना सके। भगवान् महावीर की अहिंसा ने महात्मा गांधी भी प्रभावित किया। इसी अहिंसा को शस्त्र बना कर इस देश को दासता की शृङ्खलाओं से छुड़वाने में उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई। कुछ लोगों का ख्याल है कि जैनों की अहिंसा देश की परतन्त्रता का कारण हुई थी। किन्तु यह अवर्णवाद मात्र है। देश की परतन्त्रता का कारण शासकों की विलासिता तथा उनका आपसी विरोध रहा है। देश पर आक्रमण करने वालों के साथ युद्ध करने पर यदि आक्रमणकारियों की हिंसा हो जाये तो वह पाप नहीं है। क्योंकि हिंसा भावना पर आश्रित होती है। ऐसे अवसरों पर देश रक्षा की भावना रहती है, न कि अकारण दूसरों को मारने की। गृहस्थ के लिए चार प्रकार की हिंसाओं में केवल संकल्पी हिंसा ही त्याज्य होती है। लगातार तीस वर्षों तक धर्मामृत की वर्षा करने के उपरान्त भगवान् महावीर बिहार प्रान्त की पावा नगरी में पहुँचे और वहीं से वे बहत्तर वर्ष की आयु में ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व कार्तिक की अमावस्या की अरुणोदय बेला में मोक्ष गये । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर की देन चैत्र मास का अपना स्वतन्त्र महत्त्व है। ऋतुराज वसन्त का प्रादुर्भाव इसी मास में होता है। नूतन वर्ष का प्रारम्भ इसी मास से माना जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम का जन्म इसी मास में हुआ और इसी मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को दयामूर्ति भगवान् महावीर ने अपने जन्म से पवित्र किया। आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले वैशाली (बिहार) में राजा सिद्धार्थ के यहाँ भगवान् महावीर का जन्म हुआ था। उनके जन्म लेते ही सिद्धार्थ की श्री सहसा बढ़ने लगी, अत: उन्होंने अपने पुत्र का नाम वर्धमान रखा। बाल्यकाल में ही विशिष्ट प्रतिभा को देख कर उनका नाम सन्मति पड़ गया था और बाद में राग आदि विषयों पर विजय पाने के कारण वे महावीर नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका यही नाम आज प्रचलित है। - भगवान् महावीर अत्यन्त दयालु थे। वे किसी भी प्राणी के दुःख को नहीं देख सकते थे। उनके समय में भारतवर्ष में यज्ञ-याग का बहुत प्रचार था और उसमें हिंसा भी खूब होती थी। वे बचपन से ही यह चाहते थे कि यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों तथा सामाजिक कार्यों आदि में कहीं भी हिंसा न हो। सभी लोग अहिंसा का पालन करें। जगत् में जितने जीव हैं वे सब एक दूसरे के उपकारी हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पांचों कहने को एकेन्द्रिय जीव हैं, किन्तु ये जितना उपकार करते हैं, उतना पञ्चेन्द्रिय जीव भी नहीं कर सकते। यदि पृथ्वी न हो, या होते हुए भी वह कुछ क्षणों को हिलने डुलने लगे तो सारा संसार हाय-हाय करने लग जायगा। पेय वस्तुएँ बहुत सी हैं, किन्तु जल के बिना प्यास नहीं बुझाई जा सकती और न उसके बिना संसार जीवित ही रह सकता है। अग्नि से कितने काम निकलते हैं, यह सभी जानते हैं। वायु के बिना तो कोई भी जीव जीवित नहीं रह सकता। वनस्पति तो साक्षात् कल्प वृक्ष हैं। खाने, पीने, ओढ़ने, पहनने और रहने के साधनों की पूर्ति वनस्पति से ही होती है। पृथ्वी आदि पांचों प्रकार के उक्त स्थावर जीव सृष्टि के प्रारम्भ से ही नि:स्वार्थ भाव से लोकोपकार में लगे हुए हैं। ___ गाय आदि पशु मानव जाति को अपना दूध पिलाते हैं और अन्न आदि की उत्पत्ति में सहायक होते हैं। हाथी, घोड़े और ऊँट आदि पशु बोझा ढोकर मानव जाति की *. श्रमण, वर्ष ११; अंक ६, अप्रैल १९६० से साभार. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सेवा करते हैं। सिंह आदि पशु भी खेतों की रखवाली में सहायक होते हैं। इस तरह सभी पशु मानव जाति के उपकार में प्रवृत्त हैं। ___मानव समाज को पशु समाज का कृतज्ञ होना चाहिए और उसकी सेवा स्नेह पूर्वक करनी चाहिए। जिस पशु समाज के बिना मानव समाज जीवित नहीं रह सकता, उसे वह दुःख दे, यह उचित नहीं। यज्ञों में पशुओं का हवन होता है, यह बन्द होना चाहिए। आत्म कल्याण के लिए लोग यज्ञ करना चाहते हैं, तो करें, किन्तु हिंसा न करें। भगवान् महावीर ने आत्म यज्ञ का तरीका बतलाया। भगवान् महावीर ने तीस वर्ष की अवस्था में घर बार छोड़ दिया। वे जंगल में चले गए, साधु हो गए और घोर तपश्चरण करने लगे। भगवान महावीर एक सम्मानित राजा के पुत्र थे, अत: उनकी विरक्ति से हजारों मनुष्य विरक्त हो गये और उन्होंने भी निर्मोह होकर दीक्षा ले ली। फलत: भारत के कोने-कोने में इस बात की चर्चा चल पड़ी कि भगवान् महावीर ने भरी जवानी में राज पाट छोड़ दिया और वे निर्जन वन में निर्जल और निराहार रह कर घोर तपश्चरण कर रहे हैं और उन्हें देख कर दूसरे लोग भी उन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं। भगवतू महावीर ने साधना के समय बड़े-बड़े कष्ट सहे और वे तप से तनिक भी न डिगे। यों बारह वर्ष का लम्बा समय निकल गया। बारह वर्ष बीतने पर आत्म शुद्धि होते ही उन्हें केवल ज्ञान हो गया। केवल ज्ञान-पूर्ण ज्ञान के होने पर उन्होंने लगातार तीस वर्ष तक जगत् को अहिंसा धर्म का उपदेश दिया। जिनका विचार है कि जगत् की रचना ईश्वर ने की है। वे नाना प्रकार के पाप करके भी ईश्वर को खुश करने के लिए मूक पशुओं की बलि देते हैं। वे सोचते हैं कि उसके प्रसन्न होने से इस लोक में अभ्युदय की प्राप्ति होगी, स्वर्ग मिलेगा और नरकादि गतियों से छुटकारा। इसलिए भगवान् महावीर ने कहा कि ईश्वर न जगत् का नियन्ता है और न कर्ता। आत्मा जब तक संसार में रहती है, तब तक अशुद्ध रहती है और जब वही आत्मा शुद्ध हो जाती है तो परमात्मा कहलाने लगती है। अन्य लोग उसी को ईश्वर कह सकते हैं, किन्तु वे उसे ईश्वर न मान कर एक स्वतन्त्र ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं। ऐसे ईश्वर को जगन्नियन्ता मान कर लोगों ने उसे रिझाने के लिए हिंसा करना शुरू किया। इस हिंसा को रोकने के लिए भगवान महावीर ने कर्मवाद की स्थापना की। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। कुछ लोग वृक्ष आदि को निर्जीव मानते हैं और कुछ लोग पशु-पक्षियों को सजीव मान कर भी उनके साथ कठोर व्यवहार करते हैं। मानों उनमें जीव ही नहीं है। मनुष्य अधिकार के मद में दूसरों के साथ अनुचित व्यवहार करता है। इस विषम स्थिति को बदलने के लिए। भगवान् महावीर ने साम्यवाद का प्रचार किया। उन्होंने कहा कि सभी के व्यक्तित्व को Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ समान समझो। जो व्यवहार को स्वयं को बुरा लगता हो, वह दूसरों को भी बुरा लगेगा, अत: दूसरों के साथ भी वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। विचारों से भी हिंसा होती है। मनुष्य मननशील प्राणी है, अत: सभी मनुष्य अपने अपने अनुभव के अनुसार अपने विचार बना लेते हैं और उनका प्रचार भी करते हैं। यह अनुचित नहीं, किन्तु अनुचित यह है कि एक व्यक्ति अपने विचारों को सही और दूसरों के विचारों को गलत मान बैठे। वस्तु में अनेक विशेषताएं होती हैं। किसी की दृष्टि एक विशेषता पर पड़ती है तो किसी की दूसरी पर। ऐसी स्थिति में दोनों की विचार धारा अलग-अलग होगी और परस्पर विपरीत भी होगी, पर उनमें से एक सही और दूसरी गलत है, यह नहीं कहा जा सकता। एक ही ढाल रास्ते को, उतार की ओर जाने वाला अच्छा कहता है और चढ़ाव की ओर जाने वाला बुरा। अच्छा और बुरा इन दोनों में बड़ा अन्तर है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दोनों में से एक का कहना सही और दूसरे का कहना गलत। ठीक यही बात दार्शनिक चिन्तन में भी समझनी चाहिए। । इस तरह महावीर ने हिंसा से बचने के लिए अहिंसावाद, कर्मवाद, साम्यवाद, और स्याद्वाद का उपदेश दिया। फलत: वैदिक हिंसा, हिंसा माने जाने लगी और पशुओं का हवन हमेशा के लिये बन्द कर दिया गया। आज भी यज्ञ होते हैं, किन्तु उनमें अश्व आदि पशुओं की बलि नहीं दी जाती। इसका प्रथम श्रेय भगवान् महावीर को है। अत: यह स्पष्ट है कि अहिंसा भगवान महावीर की देन है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशी के कतिपय ऐतिहासिक तथ्य काशी-विद्वत्समाज की अनुपम विभूति महामहोपाध्याय पद्मविभूषण स्व० डॉ० श्रीगोपीनाथ कविराज का काशी की सारस्वत साधना नामक ग्रन्थ बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना से विक्रमाब्द २०२१ में प्रकाशित हुआ था। इसमें १३वीं से १८वीं शती तक के प्रतिभाशाली विशिष्ट आचार्यों, विद्वानों एवं ग्रन्थकारों के प्रामाणिक इतिवृत्त पर विशद् प्रकाश डाला गया है, इनमें ४ जैनों (एक श्रेष्ठी और तीन आचार्य) के भी नाम हैं। चौदहवीं शताब्दी में जैनाचार्य जिनप्रभसूरि यात्रा के लिए काशी आये थे। उस समय काशी नगरी चार भागों में विभक्त थी। उनमें से एक विभाग का नाम था-देव वाराणसी, जिसमें विश्वनाथ-मन्दिर और कई जैनमन्दिर थे। उस समय काशी में धातुवाद, रसवाद, मन्त्र विद्या, व्याकरण, तर्क, नाटक, अलङ्कार, शकुनशास्त्र या निमित्तशास्त्र, ज्योतिष आदि विद्याओं की चर्चा होती थी। काशी की सारस्वत साधना, पृष्ठ ७. इसी शती में नाटककार हस्तिमल्ल दक्षिण भारत से काशी आये। उन्होंने अपने संस्कृत नाटक 'विक्रान्त कौरवम्' में काशी का आंखों देखा हाल विस्तार से लिखा है। इसी नाटक के आधार पर मैंने 'काशी ६०० पूर्व' शीर्षक एक लेख लिखा था, जो काशी के प्रतिष्ठित दैनिक 'आज' के दो विशेषाङ्कों में क्रमश: प्रकाशित हुआ था और दैनिक 'संसार' के एक विशेषाङ्क में। जान पड़ता है कि कविराज जी के अध्ययन कक्ष में प्रस्तुत नाटक नहीं था। अन्यथा वे हस्तिमल्ल की चर्चा अपने उक्त ग्रन्थ में अवश्य करते । सत्रहवीं शताब्दी में फ्रेञ्च पर्यटक वर्नियर भारत पर्यटन करते हए काशी आये थे। उन्होंने काशी के विषय में जो कुछ लिखा है, उससे प्रतीत होता है कि काशी नगरी में उस समय बहुत से विद्यालय थे, जिनमें ब्राह्मण और भक्त पठन-पाठन में निरत रहते थे एवं अध्यापक अपने घरों में अथवा भक्त धनी लोगों के उद्यानों में अध्यापन करते थे। प्रत्येक अध्यापक के निकट प्राय: ४ से १५ तक विद्यार्थी रहते थे। सब विद्यार्थी १०-१५ वर्ष गुरु के समीप रहकर विद्याभ्यास करते थे। वे पहले व्याकरण पढ़ते थे तदनन्तर पुराण, उसके बाद दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष प्रभृति विषयों का भी अध्ययन अध्यापन होता था। सन् १६६७ ई० में वर्नियर ने कवीन्द्राचार्य से भेंट की थी और *. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ उनका विशाल पुस्तकालय भी देखा था। वही, पृ० ६९. उपाध्याय यशोविजय- यह भी प्रसिद्ध है कि रघुदेव न्यायालङ्कार के समीप नव्यन्यायशास्त्र के अध्ययन के लिये प्रसिद्ध जैन पण्डित यशोविजय गणि (१६०८१६८८) काशी आये थे। यह १६२६ ई० की बात है। उस समय यशोविजय जी की अवस्था १८ वर्ष की थी। यह भी प्रसिद्धि है कि उन्होंने वेष बदल कर ब्राह्मण के रूप में १२ वर्ष तक (१६२६-१६३८ई०) काशी में रहकर अध्ययन किया था। उस समय काशी में रघुनाथ शिरोमणि के दीधिति आदि ग्रन्थों के पठन-पाठन का पण्डित समाज में अधिक प्रचार और प्रभाव था। न्यायाम्बुधिर्दीधितिकारयुक्ति कल्लोलकोलाहलदुर्विगाहः। तस्यापि पातुं न पयः समर्थः किं नाम धीमत्प्रतिभाम्बुवाहः।। प्रतीत होता है कि उन्होंने रघदेव से ही न्याय का अध्ययन किया था। इस विषय में और एक बात ज्ञातव्य है-यशोविजयकृत अष्टसहस्री विवरण में रघुदेव का नामोल्लेख है। वही, पृष्ठ ६६। जैन सम्प्रदाय के यशोविजय की स्मृति काशी के साथ सदा मिली हुई है। वही, पृष्ठ ७९। सन् ११९४ ई० में बनारस मुस्लिम-शासन के अधीन था। प्रसिद्ध है कि सुलतान इल्तुत्मिश के समय विश्वनाथ-मन्दिर की पुनः शुद्धि हुई थी। गुजरात के प्रसिद्ध जैन श्रेष्ठी वस्तुपाल ने इस मन्दिर में पूजा के लिये एक लक्ष मुद्राएँ भेजी थीं। वही, पृष्ठ २। वरदराज दीक्षित- वरदराज दीक्षित का नाम इस समय (१७वीं शती) के वैयाकरणों में प्रसिद्ध था। ये भट्टोजी दीक्षित के शिष्य थे। भट्टोजी दीक्षित के विषय में यह प्रसिद्धि है कि उन्होंने तीर्थयात्रा तथा विद्याग्रहण की दृष्टि से दक्षिण भारत की यात्रा की थी। वहां जाकर उन्होंने अप्पयदीक्षित से वेदान्त तथा मीमांसा का अध्ययन किया था। उन्होंने तन्त्र सिद्धान्त में इस प्रकार गुरु को प्रणाम किया है अप्पय्य दीक्षितेन्द्रानशेष विद्यागुरुनहं नौमि। यत्कृति बोधाबोधौ विद्वद्विद्वद्विभाजको पाधी।। भट्टटोजी के ग्रन्थों के नाम-१. व्याकरण में सिद्धान्तकौमुदी (रचना काल संभवत: १६२५ ई०) है। मेघविजय कहते हैं कि भट्टोजी कौमुदी-रचना के विषय में हैमचन्द्र कृत शब्दानुशासन के ऋणी हैं। २. .....। वही, पृष्ठ ४८। ' Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ वरदराज दीक्षित के ग्रन्थ १. व्याकरण में (क) मध्यसिद्धान्तकौमुदी (ख) लघुसिद्धान्त कौमुदी (ग) साररसिद्धान्त कौमुदी । २. साहित्य में गीर्वाणपदमञ्जरी अथवा संस्कृत मञ्जरी। इस ग्रन्थ में काशी के घाटों की नामावली दी गई है। वही, पृष्ठ ५९. घाटों के नाम संस्कृत में हैं, उनके वर्तमान प्रचलित नाम इस प्रकार हैं (नामों की शुरुआत उत्तर की ओर से की है-) राजघाट, त्रिलोचनघाट, ब्रह्माघाट, बिन्दुमाधवघाट, मङ्गलागौरीघाट, रामघाट, अग्नीश्वरघाट, नागेश्वरघाट, वीरेश्वरघाट, सिद्धिविनायकघाट, स्वर्गद्वारप्रवेशघाट, मोक्षद्वारप्रवेशघाट, गङ्गाकेशवघाट, जरासन्धघाट, वृद्धादित्यघाट, सोमेश्वरघाट, रामेश्वरघाट, लोलार्कघाट, अस्सीसंगमघाट, वरुणासंगमघाट, लक्ष्मीघाट, नृसिंहघाट, बिन्दुमाधवघाट, पञ्चगंगेश्वरघाट, आदिविश्वेश्वरघाट (बिन्दुमाधव के निकट) दक्षेश्वरघाट, दूधविनायकघाट, कालभैरवघाट, दशाश्वमेधघाट, चौसट्टीघाट, मानससरोवरघाट तथा केदारघाट। इस प्रकार कविराज जी ने १३ वीं से १८वीं शती तक के प्रमुख आचार्यों एवं विद्वानों के ऐतिहासिक तथ्यों पर विशद् प्रकाश डाला है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र पपौरा तीर्थक्षेत्रों की बहुलता की दृष्टि से बुन्देलखण्ड की पवित्र भूमि वन्दनीय है। इस प्रान्त में सोनागिरि, नैनागिरि, द्रोणगिरि, खजुराहो, अहारजी, थूबौनजी, देवगढ़, बूढ़ी चन्देरी, चन्देरी, कुण्डलपुर आदि अनेक जैन तीर्थ क्षेत्र हैं। पपौरा इन्हीं में से एक है। यह क्षेत्र टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश) से पूर्व की ओर केवल तीन मील की दूरी पर है। यहाँ समतल भूमि पर ८१ गगनचुम्बी जैन मन्दिर हैं जो भिन्न-भिन्न आकृतियों से विभूषित हैं। इन मन्दिरों के नाम आदिनाथ, ऋषभनाथ, संभवनाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, विमलनाथ, शान्तिनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ-इन तीर्थङ्करों के शुभनामों से सम्बन्ध रखते हैं। जैसे आदिनाथमन्दिर, ऋषभनाथमन्दिर आदि। अन्तिम मन्दिर का नाम बाहुबलिमन्दिर है जो अभी-अभी बना है। " यह क्षेत्र दो मील के घेरे में बने हुए परकोटे के अन्दर है। परकोटे के बाहर एक तालाब है और चारों ओर सघन वनावली। अतः यह क्षेत्र प्राकृतिक दृष्टि से भी दर्शनीय है। प्राचीन भोयरा, चौबीसी, चन्द्रप्राभमन्दिर, रथाकारमन्दिर, मेरु, मानस्तम्भ और बाहुबलिमन्दिर इस क्षेत्र के आकर्षण केन्द्र हैं जो दर्शनार्थियों के हृदय को बरबस अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। प्रस्तर-लेखों के आधार पर, जो मूर्तियों के नीचे उत्कीर्ण हैं, यह क्षेत्र ८१९ वर्ष पुराना है। भोयरे की मनोज्ञमूर्ति, जिसके नीचे समय का उल्लेख नहीं, इस क्षेत्र को और भी अधिक प्राचीन सिद्ध कर सकती है। यह चौथे काल की सी जान पड़ती है। प्रस्तर लेखों में मदनवर्मा, उद्येतसिंह, विक्रमादित्य, विक्रमाजीत, धर्मपाल, तेजसिंह, सुजानसिंह, हमीरसिंह, महेन्द्रप्रतापसिंह और वीरसिंह-इन दस राजाओं के नाम भी उत्कीर्ण हैं जिनके शासनकाल में इस क्षेत्र के मन्दिर बने थे। इन नामों में मदनवर्मा का नाम सब से पुराना है। इसका उल्लेख मन्दिर सं० २३ की मूर्ति के पादमूल में उपलब्ध है-- - "संवत् १२०२ आषाढ वदी १० बुधे श्री मदनवर्म देव राज्ये भोपालनगर शरीक *. श्रमण, वर्ष १६, अंक ६, अप्रैल १९६५ ई० से साभार. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० गोलापूर्वान्वये साहु टुड़ा सुत साहु गोपाल तस्य भार्या माहिणी सुत सतु प्रणमन्ति निलां. चरणारविन्दं पुण्यप्रतिष्ठाम्।" इस मूर्ति-लेख में ओरछा, टीकमगढ़ और पपौरा- इन तीनों का उल्लेख नहीं है। संभवत: ये मदनवर्मा वही हैं जिनकी राजधानी मदनेशपुर (आधुनिक नाम अहारजी) में थी। संभव है पपौरा इन्हीं के राज्य में रहा हो। पपौरा और अहारजी में लगभग बारह मील का फासला है। अथवा यह भी हो सकता है कि किसी सङ्कट के समय यह मूर्ति उन (मदनवर्मा) के राज्य के किसी अन्य स्थान से यहाँ लाई गई हो। जो भी हो, इस विषय में अनुसन्धान की आवश्यकता है। उक्त मन्दिर संख्या २३ के बाद संवत् १५२४, १५४२, १५४५, १६८७, १७१६, १७१८, और १७७९ में क्रमश: निर्मित मन्दिर संख्या ३५, ७, ३४, २१, २२, १३ और २७ के मूर्ति-लेखों में भी ओरछा, टीकमगढ़ या पपौरा का उल्लेख नहीं है। हाँ, मन्दिर संख्या २७ में राजा उद्येतसिंह का नाम है, पर टीकमगढ़, ओरछा या पपौरा का नाम नहीं है। इसके पश्चात् संवत् १८६५ में बने मन्दिर संख्या ३९ में राजा विक्रमाजीत और ओरछा का उल्लेख है पर टीकमगढ़ का नहीं है, इसके स्थान में मामौन लिखा है। संवत् १८७२ में बने मन्दिर संख्या १८ में टीकमगढ़ के स्थान में टेहरी का उल्लेख है। इसी तरह संवत् १८७५ तथा १८७६ के प्रस्तरलेखों में भी टेहरी का उल्लेख है। संवत् १८८२ में बने मन्दिर संख्या ४ में सबसे पहले टीकमगढ़ का नाम उत्कीर्ण हुआ जो बाद के सभी मन्दिरों में पाया जाता है। टीकमगढ़ का पुराना नाम टेहरी है, यह निश्चित है, पर इसका 'मामौन' नाम भी रहा, इस विषय में में खोज की आवश्यकता है। यहाँ के ८१ मन्दिरों में से विक्रम की १३वीं शती में १, १६वीं में ३, १७वीं में १, १८वीं में ३, १९वीं में २८, २०वीं में ३७ तथा २१वीं के प्रारम्भ में ४ मन्दिर बने। इनके अतिरिक्त ४ मन्दिर और हैं जिनके समय की जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। मन्दिरों का निर्माण सं. १२०२ से प्रारम्भ हुआ जो वर्तमान समय तक चलता रहा। यहाँ के मूर्ति-लेखों में पपौरा के साथ केवल क्षेत्र शब्द ही उत्कीर्ण मिलता है पर कुछ आश्चर्यजनक घटनाओं के घटने से यह अतिशय क्षेत्र कहा जाने लगा है। जिस समय घटनाएँ घटित होती हैं उस समय उन्हें प्रत्यक्ष देखने वाले अतिशय कहते हैं, पर कुछ काल बाद उन्हीं घटनाओं को केवल सुन सकने वाले लोग अन्यथा समझने लगते हैं। जो कुछ भी हो, यहाँ की कुछ घटनाएँ निम्नलिखित हैं--- यहाँ एक कुआँ है जो ‘पतराखन' के नाम से प्रख्यात है। इसके बारे में सुना जाता है-एक वृद्ध महिला ने यहाँ प्रतिष्ठा करवाई थी। इसी निमित्त से उसने हजारों . यात्रियों को भोजन के लिए आमन्त्रित किया था। संयोग की बात है उस समय भोजन तो कम नहीं हुआ, पर पानी कम पड़ गया-कुआँ खाली हो गया। इस अवसर पर और Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ कोई उपाय न देखकर भगवान् का ध्यान करके वह रस्सियों के सहारे उक्त कुएँ में उतर पड़ीं। ज्यों ही उसने कुछ कूड़ा-कचरा बाहर निकाला त्यों ही पर्याप्त मात्रा में जल निकल आया और उसकी लाज बच गई तभी से उक्त कुआँ ‘पतराखन' कहलाने लगा है। यहाँ एक बावड़ी है जो दान बावड़ी कही जाती है। इसके बारे में सुनते हैं कि पहले यह यात्रियों की मांग के अनुसार उन्हें बरतन दिया करती थी तथा काम होने पर वापस ले लिया करती थी। कुछ समय बाद जब बरतनों के वापस होने में गड़बड़ी होने लगी तो उसने बरतन देना बन्द कर दिया। यहाँ के भोयरे (तलघर) और चन्द्रप्रभमन्दिर के दर्शन करने वालों की कामनाएँ पूरी हुआ करती थीं। ___ यहाँ के सभामण्डप के मन्दिर में शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ तथा अरहनाथ-इन तीन तीर्थङ्करों की मूर्ति को साष्टाङ्ग नमन करने वालों के रोग मिट जाया करते थे। यहां के भोयरे में एक काला नाग कुछ काल तक पहरा देता रहा। वह दर्शनार्थियों को कोई बाधा नहीं पहुँचाता था। दर्शनार्थियों के आने पर वह उनके रास्ते से दूर हो जाला था। यहाँ के ३५वें मन्दिर के निकट एक गर्भवती शेरनी लगातार एक मास तक रही थी। इस अवधि में उसने किसी के ऊपर कभी तनिक भी आक्रमण नहीं किया था। यहाँ ४ बगीचे हैं, १ उदासीनाश्रम है तथा यात्रियों के ठहरने के लिये ४ धर्मशालाएँ भी हैं। वीरनिर्वाण संवत् २४४४ में प्रतिष्ठाचार्य स्वर्गीय पं. मोती लाल जी वर्णी ने यहाँ एक विद्यालय खोला था जिसका नाम वीरविद्यालय है। छात्रों के बौद्धिक विकास के लिये उन्होंने अपनी सम्पत्ति लगाकर यह सरस्वतीसदन खोला था। विद्यालय की स्थापना में उन्हें स्व० गणेश प्रसाद जी वर्णी का पूरा सहयोग प्राप्त हुआ था। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजन और उसका समय बिना भोजन किये कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता। सभी प्राणी निरन्तर भोजन के लिए ही प्रयास करते रहते हैं। मनुष्य इसकी प्राप्ति के लिए नाना प्रकार से परिश्रम करता है; किन्तु स्वस्थ और चिरायु रहने के लिए कैसा भोजन करना चाहिए तथा कब करना चाहिए, इस पर कोई ध्यान नहीं देता। भोजन के बारे में यदि मनुष्य ध्यान दे तो वह कभी बीमार नहीं पड़ सकता और न असमय में मृत्यु का शिकार ही बन सकता है। यदि उचित मात्रा से भोजन किया जाए तो स्वास्थ्य अच्छा रहता है अन्यथा स्वास्थ्य गिरने लगता और मृत्यु का संकट भी उपस्थित हो जाता है। सभी रोग भोजन की गड़बड़ी से उत्पन्न होते हैं। सभी शास्त्रकारों ने इस विषय में गहराई से विचार किया है। अन्य देशों की अपेक्षा भारत इस विषय में बहुत उदासीन है। यही कारण है कि भारतीयों का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता चला जा रहा है। मांस-मछली और अपडे आदि जो पदार्थ दूसरे देशवासी खाते हैं, अब भारतीय भी खाने लगे हैं। केवल जैन समाज ही इन चीजों को अभक्ष्य समझता है। भारत धर्मप्राण देश है और यहाँ गरमी अधिक पड़ती है, इसलिए आध्यात्मिक और शारीरिक दृष्टि से मांस आदि पदार्थ खाने योग्य नहीं माने जा सकते। भारत में अन्न प्रचुर मात्रा में होता है और शास्त्रकारों ने 'अन्नं वै प्राणाः' लिख कर इसकी उपादेयता को समझाया है। अत्र के साथ घी, दूध और शाक का प्रयोग मनुष्य को स्वस्थ, सुखी और चिरजीवी बनाता है। शास्त्रकारों ने लिखा है-'घृतं वै आयुः'-घी निश्चय से आयु है और ‘सद्यः शुक्रकरं पयः' अर्थात् दूध शीघ्र ही वीर्य बढ़ाता है। भोजन कब करना चाहिए- भोजन के समय के बारे में आयुर्वेद में अनेक मत मिलते हैं। चारायण ने रात्रि में, तिमि ने शाम को, धिषण ने दोपहर को और आचार्य चरक ने सबेरे भोजन करने का विधान किया है; पर जैनाचार्य सोमदेव ने लिखा है कि भोजन तब करना चाहिए जब भूख लगे चारायणो निशि तिमिः पुनरस्तकाले मध्ये दिनस्य धिषणश्चरकः प्रभाते। भक्तिं जगाद नृपते! मम चैष सर्गस्तस्याः स एव समयः क्षुधितो यदैव।। - यशस्तिलक, पृष्ठ ५०९. * श्रमण, वर्ष ७, अंक १२, अक्टूबर १९५६ ई. से साभार. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ ' आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में अनेक दृष्टिकोणों से दिन में भोजन करने का विधान किया है- दिन में सूर्य का प्रकाश रहता है, इसलिए दिन के भोजन में जीव-जन्तुओं का उतना डर नहीं रहता, जितना रात में रहता है। यदि भोजन के साथ जीव जन्तु पेट में चले जाएँ तो मनुष्य की बुद्धि और शरीर दोनों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। चींटी पेट में चली जाय तो मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है, चूँ चली जाए तो जलोदर हो जाता है, मक्खी चली जाए तो वमन हो जाती है, मकड़ी चली जाए तो कोढ़ हो जाता है और यदि बाल चला जाय तो स्वर बिगड़ जाता है मेधां पिपीलिका हन्ति, यूका कुर्याज्जलोदरम् । कुरुते मक्षिका वान्तिं कुष्ठरोगं च कोलिकः ।। विलग्नच गले बालः स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टा दोषाः सर्वेषां निशि भोजने ।। --- योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश, पृष्ठ ४८४. आचार्य हेमचन्द्र ने हिन्दू शास्त्रों के आधार से भी रात्रिभोजन को त्याज्य बतलाया है- चूंकि सूर्य में ऋक, साम और यजुर्वेद का तेज निहित है, अत: जितने भी शुभ कर्म हैं, उसकी किरणों से पवित्र कर, करना चाहिए। आहुति, स्नान, श्राद्ध, देवार्चन, दान और खासकर भोजन रात्रि में निषिद्ध है त्रयीतेजोमयो भानुरिति वेदविदो विदुः । तत्करैः पूतमखिलं शुभं कर्म समाचरेत् ।। नैवाहुतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः।। - योगशास्त्र, पृष्ठ ४८७. आयुर्वेद की दृष्टि से भी रात्रि भोजन त्याज्य है 'सूर्य की किरणों के न रहने से रात्रि के समय मनुष्य का हृदयकमल और नाभिकमल संकुचित हो जाता है तथा सूक्ष्म जीव-जन्तु भोजन के साथ पेट में पहुँच जाते हैं, अत: रात्रि के समय भोजन नहीं करना चाहिए' हृन्नाभि-पद्मसङ्कोचश्चण्डरोचिरपायतः ।। अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्म-जीवादनादपि ।। -योगशास्त्र, पृष्ठ ४८९ कामशास्त्र की दृष्टि से भी दिन में भोजन का विधान है Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ 'से भोक्ता वासरे यश्च रात्रौ रन्ता चकोरवत्' –यशस्तिलक पृष्ठ ५१ जो कीड़े दिन में नहीं दिखलाई देते वे सूर्य के अस्त होते ही न जाने कहाँ कहाँ से आ जाते हैं। वर्षा ऋतु में तो उनकी और भी वृद्धि हो जाती है। अत: रात्रि के भोजन से जीव हिंसा का होना स्वाभाविक है और उनके विषाक्त होने के कारण मनुष्य की मृत्यु तक होती देखी जाती है अत: रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकारी पशुओं की यह दुर्दशा! * विश्व के सभी प्राणी सुख चाहते हैं और वे सदा ऐसे साधनों को खोजते हैं, जिनसे उन्हें सुख हो । किन्तु सुख के जितने साधन मनुष्य जुटा लेता है, उतने दूसरे प्राणी नहीं जुटा पाते। मनुष्य अपने सुख के लिए अचेतन के साथ चेतन साधनों का भी संग्रह कर लेता है । किन्तु वह मकान, दुकान, सोना, चाँदी, रुपए-पैसे और वस्त्र आदि अचेतन साधनों की सुरक्षा का जितना ध्यान रखता है उतना गाय, बैल और घोड़े आदि पशुओं का नहीं रखता। मनुष्य पशुओं के साथ बहुत ही निर्दय व्यवहार करता है । यदि मकान का कोई अंश टूट जाये तो मनुष्य शीघ्र ही उसकी मरम्मत करवाता है। किन्तु उपकारी पशुओं में से किसी का कोई अंग टूट जाय तो मनुष्य उसे खाना-पीना भी भरपेट नहीं देता, बल्कि कसाई के हाथ बेच देता है। • आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में लिखा है कि 'संसार का सुख उसे मिल सकता है, जिसके यहाँ खेती होती हो, दूध देने वाली गायें हों, शाक आदि उत्पन्न करने के लिए बाड़ा हो और घर में कुआँ हो । ' मनुष्य को जन्मते ही सबसे पहले भोजन की आवश्यकता पड़ती है। उस समय वह दूध के सिवा अन्य किसी पदार्थ को नहीं खा सकता और न उसे हजम ही कर सकता है। मां का दूध भी उस समय नहीं निकलता। ऐसे अवसर पर गाय का दूध ही दिया जाता है। इसीलिए गाय को माता- - गो माता कहा जाता है। मानव के लिए दूध, दही, मक्खन, मलाई, मट्ठा और घी आदि साक्षात् अमृत हैं। माँ केवल अपने बच्चे को अपना दूध पिलाती है, किन्तु गाय बेचारी अपने बच्चे को भी अपना दूध नहीं पिला पाती। उसका सारा दूध निकाल कर मनुष्य स्वयं पी जाता है या उसे बेच कर धन संचय करता है और स्वयं गुलछर्रे उड़ाता है, पर गाय और उसके बच्चे को भरपेट घास आदि भी नहीं देता। यदि देता है तो तभी तक जब तक कि वह दूध देती है। बुढ़ापे में तो बेचारी को बड़ी यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। जो गाय मानव को जिलाती है, पुष्ट बनाती है, धनी करती है, निरोग रखती है; अपने बच्चों को भी दूध देने और अन्न पैदा कराने के योग्य बनाती है, भोजन पकाने की ईंधन देती है; घर पवित्र करने को गोबर देती है, लीवर की शक्ति बढ़ाने को मूत्र देती है, पंचामृत प्रदान करती है, का सहारा देकर वैतरणी से पार उतार देती है और बढ़िया खाद देती है। यह तो जीवित अवस्था में करती है। मरने पर भी वह मानव की कम सेवा नहीं करती। श्रमण, वर्ष १२, अंक ९, जुलाई १९६१ ईस्वी से साभार *. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मानव के पैरों को कवच प्रदान करती है। गाय से बढ़कर मानव का उपकार करने वाला पशु इस विश्व में नहीं है। किन्तु खेद है कि आज उसकी बड़ी बुरी दुर्दशा है। गाय मनुष्य को अपना स्वस्व देकर जीवन देती है, पर मनुष्य उसे बदले में मौत देता है। यह कहाँ का न्याय है? __ भगवान् कृष्ण गायों को कितना महत्त्व देते थे। भगवान् शंकर ने अन्य वाहनों को छोड़कर नंदी को अपना वाहन बनाया। भगवान् ऋषभदेव ने बैल को अपने पादमूल में आश्रय दिया। राजा दिलीप ने नन्दिनी की सेवा में रहने के लिए इक्कीस दिन तक अपना राज्य छोड़ दिया था। उसे सिंह से बचाने के लिए उन्होंने अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी। भारत वर्ष के इतने बड़े महान् पुरुषों, अवतारों और राजाओं ने एक स्वर से गाय के महत्त्व को प्रकट किया था। इसीलिए भारत वर्ष में घी-दूध की नदियाँ बहा करती थीं और यहाँ के लोग बड़े बलवान होते थे। किन्तु जब से गायों की उपेक्षा होने लगी है; तभी से घी-दूध का भी अकाल पड़ रहा है। भारत वर्ष में घी-दूध आदि बेचना बुरा समझा जाता था। घी-दूध बिना मूल्य के ही मिल जाया करता था। कहीं-कहीं छोटेछोटे गाँवों में आज भी ऐसी स्थिति देखने को मिल सकती है। अभी ऐसे लोग हैं, जो गोरस बेचना पाप समझते हैं। ____ जैन आचार्यों ने लिखा है 'दूध पीने के लिए गाय आदि पशुओं का पालन करना चाहिए, जीविका चलाने के लिए नहीं। जिन पशुओं को पाला जाय, उन्हें रस्सी आदि से बाँधना नहीं चाहिए। यदि कभी बाँधना ही पड़े तो निर्दयतापूर्वक न बाँधे। २ यदि मनुष्य सुख चाहता है तो गाय आदि जितने दूध देने वाले पशु हैं, उन्हें भी सुख दे। उनके सुख से ही मानव समाज सुखी रह सकता है। चेतन सवारियों में सबसे पहले घोड़े का नंबर आता है। जब तक वायुयान, रेल और मोटर का आविष्कार नहीं हुआ था, तब तक घोड़े को बहुत महत्त्व दिया जाता था। लड़ाई के मैदान में भी घोड़े बहुत काम देते थे। आचार्य सोमदेव ने तो यहाँ तक लिखा है कि 'जिस राजा के पास एक भी अच्छा घोड़ा हो, वह संग्राम में विजय प्राप्त करता है, उसके राज्य में वृष्टि समय पर होती है और उसकी प्रजा धर्म, अर्थ और काम के अभ्युदय को प्राप्त करती है। आज के युग में भी घोड़े बहुत काम आते हैं। घोड़ों के कारण लाखों मनुष्य अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। किन्तु मनुष्य उनके साथ बहुत ही निर्दय व्यवहार करता है। उसे भर पेट खाने-पीने को नहीं देता। उसे आराम नहीं करने देता। उसके ऊपर बहुत अधिक बोझा या सवारियाँ लादता है। उसे बहुत ही बुरी तरह पीटता है। उसे इतना दौड़ाता है कि उसके फेफड़े तक फट जाते हैं। अगले दोनों पैर घटने से नीचे बिलकुल टेढ़े पड़ जाते हैं और सूज जाते हैं। फिर भी दुष्ट उन्हें बुरी तरह मारते Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ हैं। कभी-कभी चाबुक उसकी आंखों पर भी मारते हैं, इसके कारण उनकी आंखें खराब हो जाती हैं। कुछ की पीठ में घाव हो जाते हैं, पर दुष्ट उन्हीं घावों पर चाबुक मारते हैं। दुर्घटनावश कभी किसी घोड़े की टांग तक टूट जाती है। जोतने वाले उसे वहीं छोड़ कर चलते बनते हैं। उसकी दवा नहीं करते और न उसे खाने-पीने को ही देते हैं। चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र के कण्टकशोधनप्रकरण में लिखा है कि "....हाथी, घोड़े और रथ को मारने-तोड़ने या चुराने वालों को शूली पर चढ़ा देना चाहिए।' घोड़े की तरह बैल, खच्चर और गदहों की भी बड़ी दयनीय दशा है। हाथियों का भी एक युग रहा। हाथी का दर्शन शुभ समझा जाता रहा। चाणक्य ने अपने धर्मशास्त्र में हाथी और घोड़ों की आरती उतारने का उल्लेख किया है। हाथी का शिकार नहीं किया जाता रहा। पर अब यह आवाज आ रही है कि जंगलों में हाथी बढ़ रहे हैं, उन्हें मार डालना चाहिए। इसी तरह और भी अनेक पालतू पशु हैं, जिनसे मनुष्य खूब काम लेता है और बदले में उन्हें खूब ही सताता है। जो पशु जंगलों में रहते हैं और मनुष्य को कोई हानि नहीं पहुँचाते, उन्हें भी मनुष्य मार कर खा जाते हैं। प्राचीन तपोवनों का वर्णन पढ़ने से ज्ञात होता है कि साधु लोगे जंगली पशुओं के साथ अपने कुटम्बी के समान व्यवहार करते थे। अभिज्ञान शाकुन्तल और रघुवंश आदि में कालिदास ने तथा उनके परवर्ती अन्य कवियों ने भी अपने-अपने काव्यों में इसका सुन्दर वर्णन किया है। विश्व के समस्त प्राणी एक दूसरे के उपकारी हैं। मनुष्य को न केवल मनुष्य ही, वरन् पशु और पक्षी भी सुख देते हैं। अत: मनुष्य का भी कर्तव्य है कि उनके प्रति कृतज्ञ रहे और उनके साथ बुरा व्यवहार न करे। अहिंसा सब धर्मों का सार है। अत: पशुओं की दुर्दशा देखकर मनुष्य को कुछ तो सोचना चाहिए। जो लोग अहिंसा का उद्घोष करते हैं और कहते हैं कि दया से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं, तब वे छोटे प्राणी (जानवर) का मांस कैसे खा सकते हैं? अहिंसक एवं दयालु बनने के लिए मांस-मछली और मदिरा का त्याग तो बहुत छोटी सी शर्त व पहचान है। अहिंसा से सत्य की सिद्धि, चिद् का साक्षात्कार और आनन्द की प्राप्ति होती है। यही मानवता का सच्चिदानन्द रूप में पूर्ण विकास है। सन्दर्भ : १. तस्य खलु संसारसुखं यस्य कृषिर्धेनवः शाकवाट: सद्मन्युदपानश्च। नीतिवाक्यामृत ८/३, वार्ता समुद्देश, पृष्ठ ९३. गवाद्यैर्नष्ठिको वृत्तिं त्यजेद् बन्धादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात् तं योजयेद् वा न निर्दयम् ।। सागारधर्मामृत ४/१६, पृष्ठ १२५ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ३. जयः करे तस्य रणेषु राज्ञः, काले परं वर्षति वासवश्च । धमार्थकामाभ्युदय: प्रजानामेकोऽपि यस्यास्ति हय: प्रशस्त: ।। यशस्तिलक २/२०७. ४. हस्त्यश्वरथानां हिंसकान् स्तेनान्वा शूलानारोहयेयुः।' --- अर्थशास्त्र, अधि० ४, अध्याय ११, पृ० ३६८. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान् यस्य स्फाटिकसन्निभं शुचि मनः शुद्धोपयोगाञ्चितं यस्याणुव्रतदेशनाश्रवणतो वृत्तं श्रिता मानवाः । प्रेक्षाध्यानविधिर्यतः समुदितो लोकोपकारक्षमआचार्यप्रवरस्तनोतु तुलसी श्रेयः सदा नः प्रभुः ।।१।। देशस्यास्य समस्तभूमिरभितो यत्पादचिह्नाङ्किता यस्याचार्यपदस्थितस्य सुमतेरर्धा शताब्दी गता। यस्यामागमवाचना सह तया सम्पादनं चाभवद् आचार्यप्रवरस्तनोतु स सुधीः श्रेयः परं नः प्रभुः।।२।। यच्चित्तस्थतभावनावगमनाद् भक्तैर्जनैः सत्वरं सम्भूयातुलबोधदाननिरता संस्था समुद्घाटिता। मान्यश्चात्र विशिष्टशिक्षणपरोऽसौ विश्वविद्यालयआचार्यप्रवरः सको विजयते लब्धप्रतिष्ठो महान् ।।३।। यच्छिष्योऽवनिभालमण्डननिभः शास्त्राब्धिपारङ्गमोविद्वद्वन्द्यपदारविन्दयुगलः सत्साधुलक्ष्माश्रयः। सत्तर्कप्रतितर्कमण्डितमतिः स्तुन्यो युवाचार्यकआचार्याङ्घ्रिपदारविन्दनिलयो नूनं मिलिन्दोपमः ।।४।। - अमृतलालः पूज्य श्री तुलसी गणी यत्पादाब्जरजोविलिप्तशिरसो भक्ताः पवित्राशया स्वैसन्ध्यं परिपूजयन्तिनियमात् सम्भूय भव्या जनाः । यन्नामाद्य समस्तविश्वविदितं यद्वाङ्मयं विस्तृतं पूज्यः श्री तुलसीगणी विजयते विश्वम्भरा विश्रुतः ।।१।। पूर्वोपात्तविरागतोऽल्पवयसि व्यक्त्वा गृहं दीक्षितो मुक्तारम्भपरिग्रहो गुरुकृपादृष्ट्या च जिज्ञासया । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० लब्धोयेन विशिष्टशास्त्र पठनाद् बोधो बुधाश्चर्यकृत् सोऽयं श्री तुलसीगणी विजयते विश्वम्भरा विश्रुतः।।२।। प्राज्ञा यत्र सहस्रशः प्रतिदिनं देशाद् विदेशात् तथाऽऽ गत्यात्यन्तविनम्रमस्तककरा आराधयन्ति त्रिधा । यद्वाचच निशम्य हृष्ट हृदया गच्छन्ति तृप्तिं परां पूज्यः श्री तुलसी गुरुर्विजयतेज्ञानाब्धिपाङ्गभः ।।३।। यस्याणुव्रतचर्यंया प्रतिदिशं देशोऽद्भुतामुन्नतिं चारित्रस्य गतोऽति धर्मनिरतो जातश्च सन्मानवः । प्रक्षाध्यानविद्यानतश्च नितरां लाभान्वितो दृश्यते पूज्यः श्री वदनासुतः स जयति प्रज्ञाप्रकर्षाश्रयः ।।४।। यच्चितं विमलं विचारचतुरं सद्ध्यानमग्नं सदा यद्वायो मधुराः स्त्रवन्तिसततं पीयूषधारां पराम् । यत्कायोऽपि पवित्रसंयमबलाद् दीप्त्यन्वितो वर्तते सोऽयं श्री तुलसी विभूर्विजयते ज्ञानार्कपूर्वाचलः ।।५।। शिक्षा यत्र न वर्ततेस्म न तथा विज्ञो जनो वा जनी तत्रैवाद्य विशिष्टशिक्षणरताः संस्थाश्चविद्वद्वराः । यद्यत्नाच्च गुरूपमा मुनिजनाः साध्व्यः श्रमण्यस्तथा सोऽयं ज्ञानदिवाकरो जिन इवाचार्यः क्षितौ भासते ।।६।। यावद् वाति नमस्वान् भाति विवस्वान् विराजते हिमगुः । तावन्नवमाचार्यस्तुलसीपादोऽवतात् सर्वान् ।।७।। (पथ्यार्या) श्रीमुदितमुनिः अभिनन्दनपत्रम् सरदारशहरसागर-सज्जाताद्भुतपरार्ध्यरतं यः। जयति महाश्रमणोऽसौ मुदितमुनि म विख्यातः।।१।। यो बाल्यकालेऽपि समंवयस्यैमहामुनीनां सविधं समेत्य । तन्नैवतस्थौ विनयेन तावदायाति यावन्न जनः स्वकीयः ।।२।। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर्ण्य तेषां वचनं सभायामास्यं यदीयं नितरां प्रसन्नम् । संसूचयामास मनः- प्रसस्तिं सभक्तिवन्धो मुदितो मुनिः सः ।।३।। निरस्त निःशेष परिग्रहाणां तेषां मुनीनामभिदर्शनेन । शान्तश्च दान्तश्चभवन् प्रकामं दीक्षामुपादातुमियेष सोऽयम् ।।४।। कुटुम्बिवर्गानुमतिं गृहीत्वा, यो दीक्षितोऽभून्मुदितान्तरात्मा । मनोऽनुकूलं सफलप्रयत्नो, हर्षप्रकर्ष मनुजः प्रयाति ।। ५।। महामुनीनां वरलक्षणानि, सर्वाणि यस्मिन् प्रतिभान्ति तानि । सवन्दनीयो मुदिताभिधानः, प्रणम्रमूर्खा सततं मुनीन्द्रः ।।६।। आचार्यभक्तो विनतः प्रसन्नो निरन्तरं शास्त्रविचारमग्नः । उदात्तचित्तः समभाव युक्तो अभिनन्दनीयो मुदितो मुनीशः ।।७।। भवतो महाश्रमणपदलाभाज्जात प्रसन्नताः सर्वे । कुर्मोवयमभिनन्दनमिहस्थिताः श्रद्धया भवतः ।। रचयिता - अमृतलाल अभिनन्दन पत्रम् साध्वी प्रमुखा श्रीकनकप्रभा पूज्या साध्वी प्रमुखा विदुषी, कनकप्रभा महाश्रमणी। अनुपमगुणमणिभूषा तनोतु नः सन्ततं श्रेयः।।१।। अनन्य सामान्य गुणाभिरामां यां शैशवे विज्ञजना विलोक्य । आश्चर्यपाथोनिधिभग्नचिन्ताः सम्मेनिरे कुम्भसुतां नवांताम् ।।२।। खेलन्ति बाला निखिलाः प्रकृत्या स्वबाल्य कालेऽविदितान्यकार्याः। परन्तु या स्वीयगृहे निलीय सद्ध्यायनमुद्राभिनयं चकार ।।३।। बाल्येविलीनेऽपि विरागता सा लेभे न यस्याः परिवर्तनं तत् । प्रलोभनं नैकविधं जनन्या दत्तं परं जातमपार्थकं तत् ।।४।। पश्चादनुज्ञां समवाप्य पित्रोभृशं प्रसन्ना कनकप्रभाऽभूत् । इष्टं फलं प्राप्य जनो न कोऽत्र हर्षप्रकर्ष प्रकटी करोति ।।५।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ विश्वम्भराव्याप्तयशोभिराममाचार्यवर्यं तुलसीतिसंज्ञम् । आश्रित्य तां भागवती भुवाह दीक्षां प्रमोदात् कनकप्रभा सा ।।६।। आचार्य वर्यस्य वचोऽनुसारमधीत्यशास्त्राणि परिश्रमेण।। पुनश्च तेषां परिशीलनेन सा ज्ञानतोऽनन्य समाऽजनिष्ट ।।७।। प्राकृत-संस्कृत-हिन्दी- भाषास्तिस्रः सरित्रयीतुल्याः। यस्या हृदि प्रसरन्ति तस्मात् साऽस्ति प्रयागतीर्थाभा ।।८।। या शासनेऽनन्य समानशक्तिर्वात्सल्यमूर्तिर्जननीव भाति । यदक्षिसङ्केत भवाप्य सर्वे साध्वीजनाः कार्यरता भवन्ति ।।९।। प्रन्थान् यदीयान् समधीत्यविज्ञा यस्याः कवित्वं कलयन्त्यपूर्वम् । तथैव सम्पादनकौशलञ्च तपः प्रभावात् किमसाध्यमस्ति ।।१०।। निशम्य यस्या वचनं सभायां श्रोतार आनन्दभवाप्नुवन्ति । शङ्कासमाधानमपि प्रमाणपुरस्सरं या करुतेऽतितूर्णम् ।।११।। पदेन कस्यापि जनस्य शोभा पदस्य कस्यापि च तेन शोभा। पदस्य शोभा कनकप्रभात इत्यत्त कस्यापि न संशयः स्यात् ।।१२।। 'महाश्रमणी' - पदलाभज्ञानाम् सञ्जात् हर्षतः सर्वे। कुर्मोवयमभिनन्दनभत्रभवत्या महासत्याः ।।१३।। रचयिता- अमृतलाल Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. अमृतलाल जी शास्त्री : विद्वानों की दृष्टि में ज्ञानदीप पंडित अमृतलाल जैन __ आचार्य दयानन्द भार्गव जैनविद्या के पांडित्य की अनेक धाराएं हैं। प्रथम धारा के अन्तर्गत वे लोग आते हैं जो गृहत्यागी हैं। स्पष्ट है कि इनकी जैनविद्या के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता है तथा सामान्यत: ये समाज से जुड़े लोग हैं। प्राय: इनकी भक्त मंडली भी होती है। दूसरी धारा गृहस्थ . पंडितों की है। ये पंडित सामान्यत: श्रावकाचार का पालन करते हैं और शास्त्रों के गंभीर अध्ययन में रत रहते हैं। तीसरी धारा विश्वविद्यालय के अध्यापकों की है, इनका वैदुष्य समीक्षात्मक दृष्टि की अपेक्षा तो प्रखर होता है किन्तु ग्रन्थ की पंक्ति लगाने में इनकी इतनी गति प्रायः नहीं होती जितनी परम्परागत पंडितों की होती है। चौथी धारा विदेशी विद्वानों की है। इनके जीवन में जैन धर्म के उपदेशों का कोई विशेष प्रभाव देखने में नहीं आता किन्तु समीक्षा और आलोचना के क्षेत्र में वे अत्यन्त निपुण होते हैं। * पंडित अमृतलाल जैन का स्थान दूसरी धारा के विद्वानों में अग्रगण्य है। ऊपर हमने जिन धाराओं का उल्लेख किया है उन सभी धाराओं के विद्या-व्यसनियों को ग्रन्थों की पंक्ति लगाने की आवश्यकता होती है और इस कार्य में इन सबको ही परम्परागत पण्डितों का सहारा लेना पड़ता है। एक प्रौढ़ परम्परागत पंडित होने के नाते न जाने पंडित अमृतलाल जैन ने कितने ही ऐसे विद्या व्यसनियों का उपकार अपने जीवन में किया होगा। उनका जितना सम्मान किया जाय उतना कम है। एक सत्य यह है कि परम्परागत पंडित देता सबसे अधिक है और लेता सबसे कम है, इसीलिए जहाँ अन्य धाराओं के काम करने वालों की संख्या पिछले वर्षों में बढ़ी है वहाँ परम्परागत पंडितों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। पं० अमृतलाल जी जैन जैसे व्यक्तित्व का होना अन्धकार में जलते हुए दीपक के समान है। उनका सच्चा सम्मान तो यह है कि समाज के कुछ तरुण जिज्ञासु उनके ज्ञानदीप से अपना ज्ञानदीप प्रज्ज्वलित करने के लिए आगे आयें जिनके योगक्षेम की व्यवस्था भी समाज करे अन्यथा धीरे-धीरे परम्परागत पाण्डित्य के लुप्त हो जाने की आशंका है और यदि परम्परागत पांडित्य लुप्त हो जाता है तो जैन वैदुष्य की शेष तीन धारा की समृद्धि नहीं रह पायेगी। जैन समाज को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। पूर्व विभागाध्यक्ष जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म और दर्शन जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ संस्मरणों के वातायन में पं० अमृतलाल जैन । डॉ० आनन्द प्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश' जब जब मेरे अन्तर्हदय में निष्काम एवं ऋजुमना व्यक्तित्वों की तस्वीर उभरती है तो उनमें अग्रणी नाम पं० अमृतलाल जैन, बनारस का आता है। मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ कि व्युत्पन्न प्रतिभा के धनी, विद्वत्वरेण्य पंडितजी के साथ लगभग आठ वर्ष तक ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं में कार्य करने का सुअवसर मुझे मिला। जीवन में सादगी, विचारों में उर्वरता एवं सतयोग की प्रवृत्ति से आपूरित है उनका व्यक्तित्व। सरलता उनका शृङ्गार है और उपकार ही उनका लक्ष्य। विद्वानों के वे प्रेरणास्रोत हैं। सचमुच ज्ञान और विनयसम्पन्न उनका व्यक्तित्व सबके लिए अनुकरणीय है। आदरणीय पण्डितजी ने जो कुछ भी मुझे कंठस्थ कराया वह मेरे पास उनकी अक्षुण्ण धरोहर के रूप में सुरक्षित है। पुरातनधर्म-पण्डितजी दूसरों के लिए जीते हैं। दूसरों का हित सदैव ध्यान में रखते हैं। मुझे वह घटना याद आ रही है जब ब्राह्मी विद्यापीठ में एक प्राध्यापक की नियुक्ति हुई कुछ समय बाद उनकी शादी हुई। वे सज्जन शादी करने के लिए गये हुए थे तभी उनकी सेवाओं की जरुरत महसूस नहीं की गयी। यह बात किसी स्रोत से पण्डितजी को ज्ञात हुई। जानकारी होते ही पण्डितजी ने मुझे याद किया और प्रशासन द्वारा उस प्राध्यापक को हटाने की जानकारी मुझे भी दी। मुझे जानकारी ही इसलिए । दी कि मैं अपने स्रोतों से उस प्राध्यापक को बचाने का प्रयास करूँ। पण्डितजी ने मुझसे जैसा कहा मैंने वैसा ही किया और मुझे उन्हें बचाने में सफलता मिली। दूसरों के हित साधने के भी ऐसे अनेक उदाहरण मेरे सामने हैं जिसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि पण्डितजी ने तुलसीदास की उस पंक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ किया था "परहित सरिस धर्म नहिं भाई।" अनासक्त भाव से ब्राह्मी विद्यापीठ में सेवाएं देते हुए पण्डितजी के जिन गुणों से मैं बहुत अधिक प्रभावित हुआ उनमें एक है अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण। मध्यावकाश में प्रायः हम लोग चाय के साथ मिष्ठान और नमकीन मंगाते थे जो सभी को बराबर-बराबर वितरित किया जाता था किन्तु पण्डितजी का यह नियम था कि मिष्ठान और नमकीन में से एक ग्रास के बराबर रखकर सब हमलोगों में वितरित कर देते थे। मिष्ठान, नमकीन या अन्य किसी पदार्थ के प्रति कभी उनके मन में आसक्ति हुई हो, ऐसा कोई दृश्य ध्यान में नहीं है। लौंग खाने का उनका शौक था किन्तु प्रायः सबको लौंग खिलाकर ही स्वयं खाते थे। खान-पान का संयम उनका सदा अनुकरणीय रहा है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ शत-शत वन्दन अभिनन्दन राकेश मणि त्रिपाठी माँ सरस्वती के अमरगायक स्वनामधन्य पं० अमृतलाल जी शास्त्री साहित्य जगत् के एक असाधारण मनीषी हैं। उनका व्यक्तित्व जितना सरल, सरस और उदार है, उतना ही उदार उनका दार्शनिक और साहित्यिक चिन्तन भी है। दर्शन के गूढ़ रहस्यों को जितने सरल ढंग से व्याख्या करने की क्षमता पण्डितजी में दृष्टिगत होती है उतना अन्य में दुर्लभ है। पंडितजी का सम्पूर्ण जीवन शिक्षा के प्रति समर्पित है। पण्डित जी प्राय: कहा करते हैं कि एक अच्छा शिक्षक बनने के लिए एक अच्छा विद्यार्थी बनना आवश्यक है। एक अच्छा विद्यार्थी ही एक अच्छा शिक्षक बन सकता है। पंण्डित जी ने अपनी शिक्षण यात्रा स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी से प्रारम्भ की और अन्त ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं राजस्थान से किया। बीच में न जाने कितने शैक्षणिक पड़ाव आए उन सबका निर्वाह बड़े ही सहज ढंग से किया। जीवन के दार्शनिक और साहित्यिक उतार-चढ़ावों पर चढ़ते-उतरते उनके व्यक्तिव में निखार आया। पण्डितजी केवल जैन दर्शन के ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान हैं। कोई भी दार्शनिक समस्या हो उसका समाधान बड़े ही सहज ढंग से कर दिया करते हैं। दर्शन में न्यायशास्त्र का ज्ञान कठिन समझा जाता है, किन्तु न्यायशास्त्र पर पण्डित जी का एकछत्र अधिकार है। न्याय की पुस्तकों का अध्ययन करने दूर-दूर से लोग उनके पास आते हैं। पण्डितजी व्यक्ति नहीं संस्था हैं। जीवन में ऐसे महापुरुषों के सत्संग का लाभ दुर्लभ है। मैं अपने को धन्य मानता हूँ कि मुझे ऐसे महापुरुष के सम्पर्क में आने का सुअवसर मिला। मैं पण्डित जी के शतायु होने की कामना करता हूँ। व्याख्याता-ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं राजस्थान सारस्वत साधना के धनी डॉ० प्रद्युम्न शाह बनारस में एक लम्बी सारस्वत साधना के साथ अपने वैदुष्य से विद्वानों और विद्यार्थियों के बीच एक आदरणीय स्थान बनाने के बाद पं० अमृतलाल जी जो पं०जी के नाम से जाने जाते रहे हैं-ने अपनी सेवाओं को तेरापंथ धर्मसंघ की विलक्षण संस्था ब्राह्मी विद्यापीठ के लिए अर्पित किया। बनारसवत् पं० जी ने यहाँ भी अपनी ज्ञानगरिमा की छाप छोड़ी। ऋजुमना, उदारमना, सरलमना आदि विशेषण उनके नाम के सामने Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सहज ही लग जाते हैं। लौकिक चीजों के आकर्षण को दर्शन की पैनी धार से उन्होंने विच्छिन्न कर दिया और जीवन के इस स्रोत को साहित्य कीं मन्दाकिनी से जोड़ दिया। पं० जी जैन दर्शन के तो धुरन्धर विद्वान् हैं ही साथ ही अन्य भारतीय दर्शनों में मत्स्यवत् तैरने की उनमें क्षमता है। भारतीय प्राच्यविद्याओं के पुरोधा स्वनामधन्य पं० सुखलाल जी संधव जैसे ख्यात्नाम मनीषी के साथ आपने विभिन्न ग्रंथों के सम्पादन में सहयोग किया है ! उनकी शिष्य परम्परा के विद्वानों के साथ भी आपका नाम जुड़ा है। आप संस्कृत के उच्चकोटि के आशुकवि एवं छन्दः शास्त्र में अप्रतिहत गतिसम्पन्न विद्वान् हैं । सादा जीवन उच्चविचार के धनी आपमें क्षमा-मार्दव- आर्जव शौच-: - सत्य-संयमतप-त्याग- अकिंचन्य और ब्रह्मचर्य धर्म के ये दशों लक्षण मूर्तिमान होते हुए किसी भी द्रष्टा के मन को प्रभावित कर देते हैं। आपका संयममय जीवन आज के इस आपाधापी भरे इस युग में दूसरों के लिए प्रदीपवत् है । आपके अंतरंग और बहिरंग में द्वैतभाव नहीं है। मक्खन की भाँति जिस प्रकार आपका अन्तरंग निर्मल व उज्जवल है उसी प्रकार तन पर श्वेत चोला व धोती आपकी गौरवमयी आभा के अलंकरण हैं। पू० शास्त्री जी के तलस्पर्शी विद्वत्ता का अनुभव मुझे अनेक बार हुआ। वे सभी दर्शनों के कुशल अध्यवसयी और सरस हैं। उनका निश्छल स्वभाव आकर्षक है। मैं आपके दीर्घायु होने की कामना और शतश: अभिनन्दन करता हूँ । सरल और सरस व्यक्तित्व के धनी पं० उदयचन्द जैन जैन दर्शनाचार्य, साहित्याचार्य आदि अनेक उपाधियों के धारक श्रीमान् पं० अमृतलाल शास्त्री का व्यक्तित्व बहुत ही सरल एवं सरस है । उनसे हमारा परिचय सन् १९४० से रहा है जब मैं स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी में अध्ययनार्थ आया। छात्रों से आपका स्नेहपूर्ण सम्बन्ध रहता था । सदा हित-मितप्रिय बोलना, उन्हें पढ़ाना, संस्कृत में सम्भाषण करना, संस्कृत पद्य रचना करना आदि जैसे रचनात्मक कार्यों में ही वे लगे रहते थे। स्याद्वाद महाविद्यालय; जैन कालेज, विदिशा, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी एवं ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं में अध्यापन कार्य करने के बाद आप वाराणसी वापस आ गये और हम लोग पुनः पूर्ववत् मिलने लगे । अन्त में मेरी हार्दिक कामना है कि शास्त्री जी अनेक वर्षों तक स्वस्थ रहकर हम सब पर अपने मधुर स्नेह की वर्षा करते रहें । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ मधुर स्वभाव के धनी जय कृष्ण जैन पूज्य पण्डितजी से मेरा सम्पर्क लगभग ५० वर्ष पूर्व हुआ था। उनसे हमने जैन दर्शन और द्रव्यसंग्रह पढ़ा। पढ़ाने की उनकी शैली अत्यन्त रुचिकर थी। उनके व्यक्तित्व और स्वभाव से भी मैं आकर्षित हुआ। उनके इसी स्वभाव ने हमारे बीच एक पारिवारिक सम्बन्ध सा स्थापित कर दिया। विश्वविद्यालय में अध्यापक हो जाने के बावजूद उनकी दिनचर्या और कार्यशैली में कोई अन्तर नहीं आया, बल्कि उनका मधुर स्वभाव और भी मधुतर होता गया। वे एक शान्त परिणामी अध्यापक हैं और विवादों से सदा दूर रहे हैं। उनके प्रति मेरे पूज्य भाव हैं। उनको मेरा विनम्र अभिनन्दन। वे निरामय होकर शतायु हों यही प्रभु से प्रार्थना है। आत्मश्लाघा से दूर पण्डित जी डॉ० फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी' सम्मान्य पं० अमृतलाल जी शास्त्री सादा जीवन उच्च विचार की प्रतिमूर्ति हैं। शिक्षा जगत् में आप अत्यन्त कुशल शिक्षक के रूप में लोकप्रिय हैं। जितना बन सके दूसरों का उपकार करें, अपकार की भावना का उदय स्वयं के विनाश का कारण हैइस सिद्धान्त पर आपका दृढ़ विश्वास ही नहीं, अपितु इसे अपने जीवन-व्यवहार का अंग भी बनाया है। ७ जुलाई १९१९ में बमराना (ललितपुर) में जन्में गुरुवर शास्त्री जी ने साढूमल, मुरैना और स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी में अध्ययन किया तथा १९४३ में जैन दर्शनाचार्य उत्तीर्ण कर वाराणसी में ही अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर दिया। बाद में १९५९ में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में जैन दर्शन के प्राध्यापक होकर १९७९ तक कार्य किया। तत्पश्चात् १९७९ से १९९७ तक ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं में अपनी सेवायें दी। शास्त्री जी ने अपना सारा जीवन अध्ययन और अध्यापन में निकाला है। आज भी दोनों कार्य ही उनके धर्म बने हुए हैं। पत्नी के देहावसान के बाद मानसिक रूप से वे कुछ टूटे से दिखे पर उनके सुपुत्र अशोक ने अपनी सेवा-सुश्रूषा से उन्हें स्वस्थ कर लिया। इस बीच उन्होंने चन्द्रप्रभचरित, भक्तामरस्तोत्र, संस्कृत काव्य रचना आदि द्वारा साहित्य को भी समृद्ध किया। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ शास्त्री जी का कृतित्व संख्यात्मक दृष्टि से बहुत अधिक न होकर भी गुणात्मक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। आपके अनेक महत्त्वपूर्ण लेख संस्कृत कविता में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और अभिनन्दन ग्रन्थों में प्रकाशित हुए है। आप सदा से ही यश और आत्मश्लाघा से दूर रहकर अधिक कार्य करने, सादा और सरल जीवन जीने, सभी के हित की कामना रखने और स्वयं द्वारा किसी को किञ्चित भी कष्ट न हो- इस प्रकार की जीवन शैली में दृढ़ विश्वास और इसे चरितार्थ करने वालों में से एक हैं। जीवन के अनेक झंझावातों के बाद अब आप अस्सी वर्ष की इस वृद्धावस्था में चार तीथङ्करों से पवित्र इस · वाराणसी नगरी में पार्श्वप्रभु की जन्मभूमि के समीप कश्मीरीगंज स्थित अपने आवास पर स्वस्थ, प्रसन्न और सन्तुष्ट जीवन जी रहे हैं। आप इसी तरह दीर्घायु हों, यही हम सब की कामना है। आदर्श प्राध्यापक पं० अमृतलाल जी शास्त्री डॉ० कमलेश कुमार श्रद्धेय पं० अमृलाल जी शास्त्री बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के रहे हैं। आपका सम्पूर्ण जीवन सादगी और ईमानदारी का एक आदर्श निदर्शन है आप काशी की जैन विद्वत्परम्परा के विद्वच्छिरोमणि तो हैं ही, साथ ही ब्राह्मण विद्वानों में भी आपकी गहरी पैठ है। छात्र जीवन से ही आप संस्कृत भाषा में सम्भाषण एवं संस्कृत कविता कहने में निपुण रहे है कभी भी और किसी भी विषय अथवा विद्वान् को लक्ष्य कर संस्कृत भाषा में कविता करना आप के आशुकवित्व का सूचक है। जैन पूज्य पण्डित जी ने काशीस्थ श्री स्याद्वाद महाविद्यालय में अध्ययन कर सर्वप्रथम अपनी इसी मातृसंस्था में साहित्य प्राध्यापक एवं तत्रस्थ श्री अकलङ्क सरस्वती भवन में पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में अपनी सेवायें दी हैं आपने अपने सतत् अध्यवसाय के फलस्वरूप जो गम्भीर ज्ञानार्जन किया उसे अपने अन्तेवासियों को समान रूप से वितरीत करने में कभी किसी भी प्रकार का संकोच नहीं किया जो भी अध्ययन करने की अभिलाषा से उनके पास गया उसे उन्होंने न केवल अध्ययन कराया, अपितु पुत्रवत् स्नेह देकर उसे सदा के लिये अपना भी बना लिया। जब पूज्य पण्डित जी सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में जैनदर्शन विभागाध्यक्ष थे तब मैंने उनकी प्रेरणा से स्वतन्त्र परीक्षार्थी के रूप में जैनदर्शन विषय में आचार्य करने का संकल्प किया तो उन्होंने मुझे पाठ्यक्रम में निर्धारित ग्रन्थों को पढ़ाकर मेरा निरन्तर मार्गदर्शन किया। किसी भी व्यक्ति का केवल विद्वान् होना ही पर्याप्त Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ नहीं है अपित उस विद्वत्तारूप ज्ञानराशि को छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत कर उसे हृदयङ्गत करा देना ही सफल अध्यापन है और यह गुण पूज्य पण्डित जी में कूट-कूट कर भरा है। हमारा यह परम सौभाग्य है कि आज भी हमें पूज्य पण्डित जी का सान्निध्य प्राप्त है। सम्मान के इस अवसर पर हम उनके चरणों में अपनी विनयाञ्जलि समर्पित करते हुए उनके दीर्घायुष्य की मङ्गलकामना करते हैं। सरल व्यक्तित्व श्री पारसमल भण्डारी ८३ वर्षीय मनीषी श्री पण्डित अमृतलाल जी जैन का अभिनन्दन करते हुए अत्यन्त हर्ष हो रहा है। उनकी सरलता मनमोहनी है। आपका जन्म झांसी जिले के ग्राम बमराना में हुआ था। आपके पिताजी का नाम श्री बुद्धसेन जैन था। आपकी शिक्षा बमाना और मुरैना में हुई। सन् १९३४ में स्याद्वाद महाविद्यालय से जैनदर्शनाचार्य एवं जैन साहित्याचार्य की आपने परीक्षा पास की और सन् १९४४ से १९५९ तक उसी महाविद्यालय में जैनदर्शन एवं साहित्य के अध्यापक रहे। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में आप १९६० में जैन दर्शन के अध्यापक नियुक्त हुए और वहाँ से १९७९ में सेवानिवृत्त हुए इसके पश्चात् आचार्य तुलसी द्वारा स्थापित ब्राह्मणी विद्यापीठ लाडनूं में लगभग १८ वर्ष तक साधु-साध्वी एवं श्रमणियों को जैन धर्म और दर्शन की शिक्षा दी। भगवान पार्श्वनाथ से यही प्रार्थना की पण्डित जी का दीघार्य प्राप्त करे और उनकी धार्मिक भावनाओं की पूर्ति करे। अभिनन्दनमभिनन्दनीयस्य विश्वनाथमिश्रः नात्रमनागपि संशीतिलेशोऽपि यत् वाराणसेये पं.श्री अमृतलाल महोदये वर्तनो चेमे विलक्षणा: समेऽपिगुणाः। अयं खलु महानुभावः अधीती साहित्ये, पारदृश्वा जैनदर्शनस्य, अध्यापयिता पारेसहस्रं छात्राणाम्, उद्घाटयिता शास्त्रीय गूढरहस्यानाम् अग्रेसरो विदग्धानाम्, प्रसिद्ध; कवयिता, लेखको व्याख्याता, भाषकश्चेति प्रथितमेव चित्यशास्त्रावगाहन परितृप्तपरिष्कृतमतीनां विद्वद्वराणाम्। एवं गुणगणैः सम्पूजितः सारल्पप्रतिमूर्तिः, निर्दम्भताया: विमलं दर्पणम् Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० शास्त्रचिन्तनपरायणः, परापवादविमुख: परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य मोदमान: यशसा वर्धमानः, यथा वहिः तथा अन्तर्वर्तिना धवलिम्ना भासमान: श्री अमृतलाल शास्त्री महोदय: चिन्तनचारित्र्यसद्व्यवहारप्रशस्तवातायन सभागतसमीरणसौगन्ध्य सौरस्यसम्पूजितकायो निकायः स्पृहणीयगुणानां वर्तमानो विश्वेश्वरपुण्यपुर्यां ह्लादयति सर्वान्नः इति कियान् नु खलु प्रमोद विषयः। ___यदाहं वाराणस्यां पर्यपठम् तदाऽयं खलु महानुभाव आसीदध्यापयिता तत्रत्ये स्याद्वाद संस्कृत महाविद्यालये। तत्र समायोज्य तेस्म प्रतिवर्ष छात्राणां वाद विवाद प्रतियोगिता। तत्र भागं गृहीत्वा सम्प्राप्यचोत्तमं स्थानं लब्धं भयाऽपि नैकवारं स्वर्णपदकम् तत्रभवत: श्री अमृतलालमहोदयस्य करतला दितिमन्येऽहमात्यानमपिधन्यधन्यम। वर्षीयसानेनातिवाह्यतेऽधुना समय: काश्याम्। सा चेयं काशी विदुषां नगरी। महता पुण्योदयेन लभ्यतेऽवकाशोऽत्र। इत्थं शक्यते वक्तुं यद् पं० श्री अमृतलाल शास्त्री, पुण्यपीयूषपूर्णः, गम्भीरशास्त्रपरिशीलनपरायणोऽपि हासपरिहासकुशल:, स्वच्छहृदय:, दिव्यान्तरात्मा, अनाग्रही, साहित्यशास्त्रे कृतश्रमोऽपि जैनदर्शन पारदृश्वा, अनुवादकः कठिनतरग्रन्थानाम्, आदर्शोऽध्यापकः, सर्वथा सर्वदा अभिनन्दनीयो वन्दनीयश्च सर्वेषां नः, स्वस्थ: निरामयो जीव्याच्च शरदां शतम्। कुर्याच्च कल्याणमात्महितचिकीर्षुणामिति प्रार्थ्यन्तेऽहर्निशं भवानीपतय: शंविधातार: काशीपुराधीश्वराः।। ब्राह्मी विद्यापीठम्, लाडनूं सुहृद्वराणां श्रीअमृतलालजैन महाभागानां शुभाशंसनम् प्रो० बटुकनाथशास्त्री खिस्ते आबाल्याद्गुरुवृन्दपादयुगलीसेवासमिद्धात्मनां , नाना प्राकृत संस्कृतादिरचनावैदुष्यभूषा जुषाम्। पीयूषायित नामलब्धयशसां माधुर्यधुर्यात्मनां, सच्छोस्लामृतपानतृप्तमनसां सौभाग्यमाशास्महे ।। सौजन्यसद्विनयमञ्जुलवाङ्मयश्रीव्याहारचारुवदनस्य शुभाशयस्य । वाग्देवताकरुणयाऽमृतलालनाप्नोमित्रस्य मङ्गलमयं सकलं समीहे ।। सञ्जनः सृहदां स्नेही शाखवित् गुरुसेवकः। जीव्यात्सकुशलं दीर्घममृताख्यो महामतिः ।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી પંચાસરા પાર્શ્વનાથના મન્દિર વિષેના કેટલાક ઐતિહાસિક ઉલ્લેખો પ્રા. ભોગીલાલ જ, સાંડેસર, એમ. એ., પીએચ. ડી. [ પાટણનું શ્રીપંચાસરા પાર્શ્વનાથનું મંદિર એ ગુજરાતનું એક મહત્વનું જૈન તીર્થ છે. એના અનેક જ રિ અત્યાર સુધીમાં થયો છે. લાખોના ખર્ચે થયેલા એના છેલા જર્ણોદ્વાર પછી એમાં પ્રતિષ્ઠાવિધિ આચાર્ય શ્રી વિજયવલ્લભસૂરિના પવિત્ર હરતે થવાની હતી, પણ વિધિનિમિતિ કંઈ જુદી હતી. એ કાર્ય થઈ શકે ત્યાર પહેલાં જ આચાર્યશ્રી કાળધર્મ પામ્યા, અને પ્રતિષ્ઠાવિધિ તેઓશ્રીના શિષ્ય આચાર્યશ્રી વિશ્વસમુદ્રસૂરિના હસ્તે થોડાક માસ પહેલાં સં. ૨૦૧૧ના જેઠ શુદિ પાંચમ, તા. ૨૬મી મે ૧૯૫૫ના રોજ થઈ હતી. પાટણના સ્થાપક ચાવડા વનરાજે બંધાવેલા એ મન્દિર વિના એતિહાસિક ઉલેખો પરની સંકલિત નોધ આચાર્યશ્રી વિજયવલ્લભસૂરિના મારક પ્રસિદ્ધ થતા આ પ્રસ્થમાં સમુચિત થઈ પડશે એમ માનીને અહીં આપીએ છીએ. – સંપાદકો ] અણહિલવાડ પાટણના સ્થાપક વનરાજે પોતાના ગુરુ શીલગુણસૂરિના આદેશથી પાટણમાં શ્રી પંચાસરા પાર્શ્વનાથનું મન્દિર બંધાવ્યું હતું એ ઘટના ઈતિહાસપ્રસિદ્ધ છે. વનરાજનો પિતા પંચાસરમાં રાજય કરતો હતો, તેથી આ મન્દિરમાં પ્રતિષ્ઠિત પાર્શ્વનાથની મૂર્તિને પંચાસરા પાર્શ્વનાથ નામ આપવામાં રાવ્યું હોય, અથવા કેટલાક વિદ્વાનો માને છે તેમ, એ મૂતિ પંચાસરમાંથી લાવીને નવા પાટનગર પાટણમાં પ્રતિષ્ઠિત કરવામાં આવી હોય. પાટણની સ્થાપના સં. ૮૦૨માં થઈ હતી, એટલે ત્યાર પછી થોડા સમયમાં આ મન્દિર બંધાયું હશે એમ અનુમાન કરવું વધારે પડતું નથી. એ રીતે ગુજરાતનાં જૂનામાં જૂનાં, વિદ્યમાન જૈન મંદિરોમાંનું એક તેને ગણવું જોઈએ. જો કે વખતોવખત તેના જીણોદ્ધારો થયો હોવા જોઈએ. વિક્રમના તેરમા શતકમાં મંત્રી વસ્તુપાલે કરાવેલા જીર્ણોદ્ધારની હકીકત તત્કાલીન ઐતિહાસિક કાવ્યોમાંથી મળે છે. હમણાં જ થયેલા છેલ્લા છ દ્વાર પૂર્વે જે મન્દિર હતું તેનું સ્થાપત્ય સોળમાં સૈકાનું જણાતું હતું. વળી આ મન્દિર સૈ પહેલાં તો જૂના પાટણમાં હશે. ત્યાંથી એ પ્રતિમાઓ આદિ નવા પાટણમાં કયારે લાવવામાં આવ્યાં હશે એ વિષે પણ કંઈ આધારભૂત માહિતી મળતી નથી. વનરાજના ગુરુ શીલગુણુસૂરિ નાગેન્દ્ર ગચ્છના ચૈત્યવાસી આચાર્ય હતા અને પંચાસરા પાર્શ્વનાથનું મંદિર સદીઓ સુધી નાગેન્દ્ર ગ૭નું ચૈચ હતું એમ પ્રાપ્ત ઉલેખો ઉપરથી જણાય છે. ગુજરાતની ઐતિહાસિક રાજધાની પાટણના ઈતિહાસ સાથે સંકળાયેલું હોઈ આ મન્દિર એક વિશિષ્ટ ઐતિહાસિક અગત્ય ધરાવે છે. એનો સળગસૂત્ર વૃત્તાન્ત આલેખવા માટેનાં કોઈ સાધનો નથી. સાહિત્યમાં અને ઉત્કીર્ણ લેખોમાં જે પ્રકીર્ણ ઉલ્લેખો મળે છે એને આધારે જ આ મન્દિર વિશે કેટલીક માહિતી પ્રાપ્ત થાય છે અથવા એ પરત્વે રસપ્રદ અનુમાન થઈ શકે છે. આ મન્દિર વિષેના તમામ ઉલેખો બધા ઉપલબ્ધ ગ્રખ્યાદિમાંથી ખોળી કાઢવાનું મર્યાદિત સમપમાં શા નથી, પણ જે ઉલ્લેખો મળી શકયા તે કાલાનુક્રમિક સંદર્ભમાં, યોગ્ય નોંધ સાથે અહીં રજૂ કરું છું. ૧. હરિભસૂરિકૃત “ચન્દ્રપ્રભચરિત' (. ૧૨૧૬ આસપાસ) પંચાસરા પાર્શ્વનાથના મન્દિર વિષેનો પહેલો લિખિત ઉલ્લેખ, એ મન્દિર બંધાવ્યા પછી લગભગ ચારસો વર્ષ બાદ મળે છે. એ ઉલેખ બહદ ગચ્છના આચાર્ય શ્રીચરિના શિષ્ય હરિભદ્રસૂરિના આચાર્ય વિજયવલ્લભસૂરિ સ્મારક-ગ્રન્થ, મુમ્બઈ ૧૯૫૭ સે સાભાર Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૨ ' પ્રાકૃત ચંદ્રપ્રભચરિત'માંથી છે. એ જ ગ્રન્થકારનું અપભ્રંશ · નેમિનાથચરિત' સં. ૧૨૧૬માં રચાયેલું છે, એટલે ઉત ચંદ્રપ્રભચરિત · પણુ એ અરસામાં રચાયું હશે. જો કે સં. ૧૨૨૩ પછી તો એ રચાયું નથી જ, કેમ કે એ વર્ષમાં લખાયેલી એ કાવ્યની તાડપત્રીય પ્રતિ પાટણમાં સંઘવીના પાડાના ભંડારમાં છે. એની પ્રશસ્તિના ઉલ્લેખ પ્રમાણે, જયસિંહદેવ અને કુમારપાલના મંત્રી પૃથ્વીપાલે પોતાનાં માતાપિતાના શ્રેય અર્થે પંચાસર પાર્શ્વગૃહમાં મંડપની રચના કરાવી હતી " . जयसीहएव-सिरिकुमरवालनरनायगाण रज्जेसु । सिरीपुरवालमंती अवितहनामो इमो विहिओ ॥ अह निन्नयकारावियजालिहरगच्छरिसहजिगभवणे । जणयकए जणणीए उण पंचासरपासगिहे ॥ चड्डावलीयमि उ गच्छे मायामहीए मुहहेउं । अहिलवाडयपुरे कराविया मंडवा जेण || ' અર્થાત શ્રીજયસિંહદેવ અને કુમારપાલ નરનાયકોના રાજ્યમાં શ્રી પૃથ્વીપાલ મંત્રી અવિતય નામવાળો થયો. ( પોતાના પૂર્વજ ) નિન્નયે કરાવેલા જાલિહર ગુચ્છના ઋષભજિનભવનમાં તથા પંચાસર પાર્શ્વગૃહમાં પોતાના જનક અને જનનીના (શ્રેય) અર્થે તથા પોતાની માતામહીના સુખ અર્થે તેણે ચડ્ડાવલી ( ચંદ્રાવતી) અને અણહિલવાડપુરમાં માપો કરાવ્યા હતા. ' ૨. અરિસિંહકૃત ‘ સુકૃતસંકીર્તન ’ ( સં. ૧૨૯૮ અને ૧૧૮૭ ની વચ્ચે ) F અરિસિંહ એ ગુજરાતના સુપ્રસિદ્ધ મહામાત્ય વસ્તુપાલનો આશ્રિત કવિ હતો અને વસ્તુપાલનાં સત્કૃત્યો વર્ણવતું ‘ સુકૃતસંકીર્તન ’ નામે મહાકાવ્ય તેણે રચેલું છે. એના પહેલા સર્ગમાં કવિએ ચાવડા વંશના રાજાઓનો કાવ્યમય વૃત્તાન્ત આપ્યો છે. આમાં ખાસ નોંધપાત્ર તો એ છે કે સોલકી અને વાઘેલા યુગમાં રચાયેલાં અનેક ઐતિહાસિક કાવ્યોમાંથી માત્ર અરિસિંહકૃત ‘ સુકૃતસંકીર્તન ’ અને ઉદયપ્રભસૂરિષ્કૃત ‘ સુકૃતકીર્તિકલ્લોલિની'માં જ ચાવડાઓનો ઉલ્લેખ છે; ‘યાત્રય’ કાવ્યમાં ગુજરાતનો ઇતિહાસ આલેખવાનો રીતસર પ્રયત્ન કરનાર આચાર્ય હેમચન્દ્રે પણ ચાવડાઓની વાત કરી નથી. ચાવડાઓની હકૂમત પાટણ આસપાસના થોડા પ્રદેશ ઉપર જ હતી અને તે કારણે ઐતિહાસિક કાવ્યોના લેખકોએ એમને એટલું રાજકીય મહત્ત્વ નહિ આપ્યું હોય. એ રીતે ‘સુકૃતસંકીર્તન’માં આપેલી ચાવડાઓની વંશાવલી મહત્ત્વની છે. ‘ સુકૃતસંકીર્તન'ની રચના સં. ૧૨૭૮ અને ૧૨૮૭ની વચ્ચે કયારેક થયેલી છે.? એ કાવ્યના પ્રથમ સર્ગના ૧૦મા શ્લોકમાં પંચાસરા પાર્શ્વનાથના મન્દિરનો ઉલ્લેખ છે, એટલું જ નહિ પણ એ મન્દિરની તુલના પર્વત સાથે કરી છે, જે એના શિખરની ઊંચાઈ દર્શાવે છે. - अंतर्व सद्घनजनाद्भुतभारतो भूमी भृत्यतादिति भृशं वनराजदेवः । पञ्चासराहूवनवपार्श्वजिनेशवेश्मव्याजादिह क्षितिधरं नवमाततान ૧. પાટણ ભંડારની સૂચિ (ગાયકવાડ્ઝ ઓરીએન્ટલ (સરીઝ), પૃ. ૨૫૫ ૨. જુઓ મારુ પુસ્તક Literary Circle of Mahamatya Vastupala, પૃ. ૬૩ . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૩ વળા એ કાવ્યના છેલા સર્ગમાં (શ્લોક ૨) વસ્તુપાલનાં બાંધકામો વર્ણવતાં કર્તાએ કહ્યું છે કે અણહિલવાડ પાટણમાં પંચાસરા પાર્શ્વનાથના મન્દિરનો જીર્ણોદ્ધાર કરાવીને મંત્રીએ વનરાજની વૃદ્ધ થયેલી કીર્તિને હસ્તાવલંબન આપ્યું હતું – पञ्चासरा हुवमणहिल्लपुरीपुरन्ध्रीसीमन्तरत्नमिवपार्श्वजिनेशवेश्म । उद्धृत्य येन यशसा जनितो जरत्या हस्तावलम्बनविधिर्वनराजकीर्तेः ।। ૩ ઉદયપ્રભસૂરિકૃત “સુતકીર્તિકલ્લોલિની' (સં. ૧ર૭૭) નાગેન્દ્રગચ્છના વિજયસેનસૂરિ જેઓ વસ્તુપાલના માતૃપક્ષે ગુરુ હતા તેમના શિષ્ય ઉદયપ્રભસરિકૃત “સુતકીર્તિકલ્લોલિની” કાવ્ય સં. ૧૨૭૭માં વરતુપાલે કરેલી શત્રુંજયની સંધયાત્રા પ્રસંગે રચાયું હતું, અને વસ્તુપાલે શત્રુંજય ઉપર બંધાવેલા મંડપમાં એક શિલાપટ્ટ ઉપર કોતરીને તે મૂકવામાં આવ્યું હતું. મંત્રીનાં સુકૃતોની પ્રશરિતરૂપે રચાયેલા આ કાવ્યના ૧૪મા શ્લોકમાં કવિ કહે છે કે ગુર્જર ભૂમિરૂ૫ સુન્દરીના મુખ્ય સમાન અણહિલપુરના તિલકરૂ૫ આ પંચાસર ચૈત્ય વનરાજે બંધાવ્યું હતું, જેના શિખરનો ઊંચો કલશ સંથાના મણિ જેવો શોભતો હતો – स्फूर्जद्गुर्जरमण्डलावनिवधूवक्त्रोपमेऽस्मिन् पुरे चैत्ये किञ्च विशेषकं व्यरचयत् पञ्चासराहवं नृपः । यस्योः कलशश्चकास्ति रुचिभिः किञ्चिद्विभिन्नाम्बर• श्यामत्वव्यपदेशकेशपदवीसीमन्तसीमामणिः ।। ૪. ઉદયપ્રભસૂરિકૃત “ધર્માલ્યુદય મહાકાવ્ય (સં. ૧૨૯૦ પહેલાં). ઉપર્યુક્ત ઉદયપ્રભસૂરિએ “ધર્માલ્યુદય” અથવા “સંધ પતિચરિત્ર' નામે પંદર સર્ગનું મહાકાવ્ય રચ્યું છે. એમાં મંત્રી વસ્તુપાલની સંઘયાત્રાનું વર્ણન હોઈ સં. ૧૨૭૭ની મોટી સંધયાત્રા પછી તુરત એ રચાયું હોય એ સંભવિત છે, પણ સં. ૧૨૯૦ પહેલાં તો નિઃશંક એની રચના થયેલી છે, કેમ કે એ વર્ષમાં ખુદ વસ્તુપાલના હસ્તાક્ષરોમાં લખાયેલી એની તાડપત્રીય નકલ ખંભાતના ભંડારમાં છે. એ કાવ્યની પ્રશસ્તિમાં (લોક ૭) નાગેન્દ્ર ગચ્છના આચાયોંની ગુરુપરંપરા આપીને પોતાના ગુરુ વિજયસેનસૂરિ વિષે કર્તા કહે કે તેઓ પંચાસરા નામથી ઓળખાતા વનરાજવિહાર તીર્થમાં વ્યાખ્યાનો આપતા હતા – पञ्चासराहयवनराजविहारतीर्थे प्रालेयभूमिधरभूतिधुरन्धरेऽस्मिन् । साक्षादयःकृतभवा तटिनीव यस्य व्याख्येयमच्युतगुरुक्रमजा विभाति ॥ પંચાસરા પાર્શ્વનાથનું મંદિર બંધાયું ત્યારથી નાગેન્દ્ર ગરછના આચાર્યોનો એ સાથેનો સંબંધ જોતાં આ સ્વાભાવિક છે. વળી પંચાસરાનું મંદિર તે જ વનરાજવિહાર એમ અહીં કર્તાએ સ્પષ્ટ કહ્યું છે. ૩. એ જ, પૃ. ૧. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૪ વસ્તુપાલે એ મન્દિરનો જીર્ણોદ્ધાર કરાવ્યો હતો એનો ઉલ્લેખ પણ કાવ્યના પહેલા સર્ગ(શ્લોક ૨૨)માં છે अणहिलपाटकनगरादिराजवनराज की र्त्तिकेलिगिरिम् । पञ्चासराव जिन गृहमुद्दध्रे यः कुलं च निजम् || ૫. શ્રી પંચાસરા પાર્શ્વનાથના મન્દિરમાંનો સં. ૧૩૦૧ નો શિલાલેખ આ મન્દિરમાંની વનરાજની મૂર્તિ પાસેની ૪૦ આસાકની મૂર્તિ નીચે આ પ્રકારે શિલાલેખ છે (१) सं. १३०१ वर्षे वैशाख सुदि ९ शुक्रे पूर्वमंडली वास्तव्य मोदज्ञातीय नागेंद्र ... (२) सुत श्रे० जालमपुत्रेण श्रे० राजुकुक्षीसमुद्भूतेन ठ० आशाकेन संसारासार... (३) योपार्जित वित्तेन अस्मिन् महाराजश्रीवनराजविहारे निजकीर्तिवल्ली वितान... (४) कारितः तथा च ठ० आसाकस्य मूत्तिरियं सुत ठ० अरिसिंहेन कारिता प्रतिष्ठिता ... (५) संबंधे गच्छे पंचासरातीर्थे श्रीशीलगुणसूरिसंताने शिष्य श्री ... (૬) રેવશ્વન્દ્રસરિમિઃ | મારું મહાશ્રીઃ | જીમ મવતુ || . આ શિલાલેખમાં પણુ પંચાસરા તીર્થનો વનરાજવિહાર તરીકે ઉલ્લેખ છે. પંચાસરાના મન્દિરમાં શીલગુણુસૂરિના શિષ્ય દેવચન્દ્રસૂરિની મૂર્તિ છે. એક મૂર્તિ વનરાજના મામા સુરપાળની ગણાય છે; પણ આખા યે મન્દિરમાંના બીન કોઈ લેખમાં પંચાસરા પાર્શ્વનાથના મન્દિરનો ઉલ્લેખ નથી. એમાં એક માત્ર અપવાદ વનરાજની મૂર્તિ નીચેના લેખનો છે. એ શિલાલેખમાં સં. ૭૫૨ અને સં. ૮પૅરનો નિર્દેશ છે, પણ એની લિપિ એટલી પ્રાચીન લાગતી નથી. આ ઉપરાંત તેમાં સં. ૧૩૦૧ અને સં. ૧૪૧૭ના ઉલ્લેખ અને એક સ્થળે ‘ મહમદ પાતસાહ · અને · પીરોજસાહ'ની પણ વાત છે. એ મૂર્તિની નીચે તથા તેની આસપાસ નીચેના પથ્થર ઉપર ત્રણેક શિલાલેખો ભેગા થઈ ગયા છે અને ધસાયેલા હોવાને કારણે તે વિશેષ દુર્વાંચ્ય બન્યા છે. પૂ. મુનિશ્રી પુણ્યવિજયજી, સ્વ. મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈ અને પં. લાલચંદ ગાંધીએ એ બંધ બેસાડવા પ્રયત્ન કર્યો છે અને તેમણે તૈયાર કરેલી એ લેખની વાચના નાગેન્દ્રગચ્છીય દેવેન્દ્રસરકૃત 'ચન્દ્રપ્રભચરિત્ર'ની પ્રરતાવના( પૃ. ૧૧)માં છપાઈ છે. એનો એકદેશ નીચે મુજબ છે— ' ...સં. ૧૨૦૨...શ્રીપાર્શ્વનાથનૈત્યે શ્રીવનાન...નાનશ્રી જ્વેસવુ (!) શ્રીઅમ છેશ્વર રાવાયતન त्रा पि... ति श्रीवनराजमूर्ति श्रीशीलगुणसूरि सगणे श्रीदेवचंद्रसूरिभिः प्रतिष्ठिता सं. १४१७ वर्षे આ લેખમાંનું · ...પાર્શ્વનાથ ચૈત્ય ’ એટલે · પંચાસરા પાર્શ્વનાથ ચૈત્ય ' એમ ગણવું જો એ. વનરાજે બંધાવેલા અણુહિલેશ્વર મહાદેવના મન્દિર ( ‘ શવાયતન ’)નો પણ એમાં નિર્દેશ છે. વનરાજની મૂર્તિની પ્રતિષ્ઠા દેવચન્દ્રસૂરિના હસ્તે થઈ હોવાનું એમાં જણાવ્યું છે અને તેની જ સાથે સં. ૧૪૧૭નો ઉલ્લેખ છે એનો મેળ બેસતો નથી. આ શિલાલેખની વધારે સારી વાચનાની હજી અપેક્ષા રહે છે. ૬, મેરુત્તુંગાચાર્યકૃત પ્રમન્ત્રચિન્તામણિ (સં. ૧૩૬૧) * ગુજરાતના મધ્યકાલીન ઇતિહાસના સુપ્રસિદ્ધ સાધનગ્રન્થ ‘પ્રબન્ધચિન્તામણિ' અનુસાર, વનરાજે શીલગુણસરને પોતાના સિંહાસન ઉપર બેસાડીને પ્રત્યુપકારશુદ્ધિથી સપ્તાંગ રાજ્ય આપવા માંડયું, Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૫ પણ સરિએ તેનો નિષેધ કર્યો પછી સરિના આદેશથી વનરાજે પંચાસરા પાર્શ્વનાથનું ચિત્ય કરાવ્યું તથા તેમાં પોતાની આરાધક મૂર્તિ પણ સ્થાપિત કરી. *--- पञ्चासरग्रामतः श्रीशीलगुणसूरीन् सभक्तिकमानीय धवलगृहे निजसिंहासने निवेश्य कृतज्ञचूडामणितया सप्ताङ्गमपि राज्यं तेभ्यः समर्पयंस्तैनिःस्पृहद्भ्यो निषिद्धस्तत्प्रत्युपकारबुद्धया तदादेशाच्छ्रीपार्श्वनाथप्रतिमालङ्कतं पञ्चासराभिधानं चैत्यं निजाराधकमूर्तिसमेतं च कारयामास । (આચાર્ય શ્રીજિનવિજયજીની વાચના, પૃ.૧૩) પ્રભાચન્દ્રસૂરિકૃત “પ્રભાવચરિત' (સં. ૧૩૩૪)ના “અભયદેવસૂરિચરિત માં કહ્યું છે કે “નાગેન્દ્રગછરૂપી ભૂમિનો ઉદ્ધાર કરવામાં આદિવરાહ સમાન અને પંચાશ્રય નામે સ્થાનમાં આવેલા ચૈત્યમાં વસતા (THવામિષાનતિનિવાસિના) શ્રીદેવચન્દ્રસૂરિએ વનરાજને બાલ્યકાળમાં ઉછેયો હતો. વનરાજે આ નગર (અણહિલપુર) વસાવીને ત્યાં નવું રાજ્ય સ્થાપ્યું. એ રાજાએ ત્યાં વનરાજવિહાર બંધાવ્યો અને કૃતજ્ઞતાપૂર્વક એ ગુનો સત્કાર કર્યો ” (શ્લોક ૭૨-૭૪). અહીં પ્રજ્ઞાઅમિષાનપિયતત્વ એટલે પાટણનું પંચાસરા પાર્શ્વનાથ ચેત્ય નહિ, પણ પંચાસર ગામમાં જ આવેલું ચૈત્ય, કે જયાં એ આચાર્ય પાટણની સ્થાપના પહેલાં રહેતા હશે. પાટણની સ્થાપના પછી વનરાજે બંધાવેલો “વનરાજવિહાર' એ પંચાસરા પાર્શ્વનાથ ચત્યનું જ બીજું નામ છે એ “ધર્માલ્યુદય'ના ઉલ્લેખથી સ્પષ્ટ છે. આ મંદિરમાં ૦ આસાકની મૂર્તિ નીચેનો શિલાલેખ પણ એ સચવે છે. ૭. જયશેખરસૂરિકૃત પંચાસરા વીનતી (સં. ૧૪૬૦ આસપાસ) * સં. ૧૪૬૨માં સંસ્કૃતમાં “પ્રબોધચિન્તામણિ નામે આધ્યાત્મિક રૂપકન્યિ રચીને પછી એનું છટાદાર ગુજરાતી પદ્યમાં “ત્રિભુવનદીપક પ્રબંધ' નામથી રૂપાન્તર કરનાર અંચલગચ્છીય આચાર્ય જયશેખરસૂરિનું સ્થાન જૂના ગુજરાતી સાહિત્યના સર્વોત્તમ કવિઓમાં છે. એમણે રચેલી કેટલીક પ્રકીર્ણ ગુજરાતી કાવ્યરચનાઓની ૨૧ પત્રની એક પ્રાચીન હસ્તપ્રત પૂ. મુનિશ્રી પુણ્યવિજયજી અને પૂ. મુનિશ્રી રમણીકવિજયજીએ ચાણસ્માના ભંડારમાંથી મેળવી હતી. એ પોથીના પાંચમા પત્ર ઉપર “પંચાસરા વિનતી” એ નામનું પંચાસરા પાર્વિનાથનું એક સુન્દર સંક્ષિપ્ત સ્તુતિકાવ્ય છે. આ પહેલાંના, પંચાસરા પાર્શ્વનાથના મન્દિર વિષેના ઉલ્લેખો, ઉપર સૂચવ્યા તેમ મળે છે, પણ એ વિષેનું ગુજરાતી ભાષામાં આ પહેલે જ ઉપલબ્ધ સ્તવન છે. આ સ્તવન જયશેખરસૂરિએ પાટણમાં રહીને જ રચ્યું હોય એ સંભવિત છે. એની પહેલી કડી નીચે મુજબ છે : સખે પાસુ પંચાસરાધીશ પખઉં, હુયઉ હર્યું કેતઉ ન જાણ૩ સુલેખ3, ક્યિાં પાછિલઈ જમિ જે પુણ્યકાર, ફલિયાં સામટાં દેવ દીકઈ તિ આજુ.” 1. પ્રબન્મચિન્તામણિ - અંતર્ગત કેટલાક પ્રબન્યોનો આશરે ૪૦૦ વર્ષ પર થયેલો સંક્ષેપ “પુરાતન પ્રબન્ધસંગ્રહ'ના પરિશિષ્ટમાં છપાયો છે તેમાં “પ્રબન્યચિન્તામણિ'ના ઉપયંત વૃત્તાન્તનો સારોબાર આપતાં કહ્યું છે (પૃ. ૧૨૮ - બRાર્યકર બીપતિના નિરાષિત જાહેર હિતના આજે પણ આ મરિને સામાન્ય બોલીમાં “પંચાસરા' નામે ઓળખવામાં આવે છે તે આ સાથે સરખાવી શકાય. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૬ ૮. સિદ્ધિસૂરિકૃતિ પાટણ ચૈત્યપરિપાટી (સં. ૧૫૭૬) પાટણનાં જૈન મંદિરોનું વર્ણન કરતી ચાર પ્રાચીન ચૈત્યપરિપાટીઓ અત્યાર સુધીમાં મળેલી છે, જેમાંની બે-લલિતપ્રભસૂરિ અને હર્ષવિજયકૃત–આ પહેલાં શ્રીહંસવિજયજી લાયબ્રેરી, અમદાવાદ તરફથી પ્રકટ થયેલી છે. જુદા જુદા મહોલ્લા, શેરીઓ, રાજભાગ અને પરાંનો તથા કેટલીક વિશિષ્ટ વ્યક્તિઓનો એમાં નિર્દેશ આવતો હોઈ સ્થાનિક ઈતિહાસ અને ભૂગોળ માટે એ બહુ અગત્યની છે. એ ચારમાં સૌથી પ્રાચીન ઉપલબ્ધ ચૈત્યપરિપાટી સિદ્ધિસૂરિની છે. એની નકલ પૂ. મુનિશ્રી રમણિકવિજયજી પાસેની હસ્તપ્રત ઉપરથી મેં કરી લીધી હતી. એમાં ૯મી કડીમાં નીચે પ્રમાણે પંચાસરા પાર્શ્વનાથનો ઉલ્લેખ છે : મદૂકર મનહ મનોરથ પૂરઈ, પાસ પંચાસરઈ ભાવ વિચૂર, સાર સંસારઈ લેમિ.” ૯. સિંઘરાજત “પાટણ ચૈત્યપરિપાટી (સ. ૧૬૧૩) આ પરિપાટીની હસ્તપ્રત પણ મને પૂ. મુનિશ્રી રમણિકવિજયજી પાસે જોવા મળી હતી. એમાં પંચાસરા પાર્શ્વનાથનો તથા આસપાસનાં મદિરોનો નિર્દેશ કડી ૬૨થી ૬૫ સુધીમાં નીચે પ્રમાણે છે : પંચાસર શ્રીપાસ, આશાપૂરણ જિનપ્રતિમા નવ વાદીઈ એ, હરખા હીયા મઝારિ, હરખ ભવનિ જઈ જિન દેખી આણંદિઆ એ. ૬૨ મૂલનાયક શ્રી આદિ પ્રથમ તીર્થંકર, ત્રાસી પ્રતિમા વાંદીઈ એ, ભમતી માડિ દેહરી યડી નિરજીઈ નઈ ત્રીજઈ દેહરઈ આવી આ એ. ૬૩ તિહાં પ્રતિમા પાંત્રીસ, યુવીસટ્ટા સૂ વાસપુસ નાયક ધણી એ, ચુથિઈ જિન ઉગણીસ, પ્રતિમા પૂછઈ ભૂલનાયક માહાવીર તણી એ. ૬૪ ' પોસાલમાહિ દેહરૂ પાંચમૂ, જઈનઈ નિરપીઇ નેમીસસ એ, તેર પ્રતિમા તિહાં વાંદી, પાપ નિદીનઈ સેવાઈ રાજલિવર એ.” ૬૫ એ એક જ પટાંગણમાં સત્તરમા સિકાના આરંભમાં પાંચ મન્દિર હતાં. પચાસરા પાર્શ્વનાથન મન્દિર પછી ૮૩ પ્રતિમાઓ સહિત જે આદિનાથના મન્દિરનો ઉલ્લેખ છે તે હાલમાં નથી. તપાગચ્છનો ઉપાશ્રય, જે પોળિયા ઉપાશ્રય કે પોશાળ તરીકે ઓળખાય છે, એમાં તે સમયે નેમિનાથનું મન્દિર હોવાનો ઉલ્લેખ છે એ નોંધપાત્ર છે અને ચૈત્યવાસની પરંપરાનો દ્યોતક છે. ૧૦. લલિતપ્રભસૂરિકૃત “પાટણ ચૈત્યપરિપાટી” (સં. ૧૬૪૮) પૂનમિયા ગચ્છના આચાર્ય લલિતપ્રભસૂરિત ચિયપરિપાટીમાં કડી ૧૮-૨૦માં પચાસરા પાર્શ્વનાથનો તથા આસપાસનાં મન્દિરોનો ઉલ્લેખ નીચે પ્રમાણે છે : પંચાસર પાટકિ આઈ એ, ધુરિ વીર જિનવર સાર તુ; નવ પ્રતિમા નંદી કરી એ, વાસપૂજ્ય પુરારિ તુ. ૧૮ સતાવીસ બિંબ તિહાં નમી એ, પંચાસરે પ્રભુ પાસ તુ; અવર સાત જિનવર નમું એ, વંછિત પૂરઈ આસ તુ. ૧૯ ઋષભદેહરઇ વિઇ જિન નમું એ, દશ વલિ ભમતી હોઈ તુ; નવઈ ઘરે છઈ પાસ જિન, ત્રિહતાલીસ બિંબ જોઈ તુ.” ૨૦ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૭ - આ સત્યપરિપાટીમાં “પંચાસર પાટક” અર્થાત પંચાસરવાડો એવો ઉલલેખ મદિરોના આ જૂથ માટે છે એ ધ્યાન ખેંચે છે. સિંઘરાજની જેમ લલિતપ્રભસૂરિએ પણ અહીં પાંચ મન્દિરો નોંધ્યાં છે. જે કે સિંઘરાજે પોશાળમાં નેમિનાથના મન્દિરનો ઉલ્લેખ કર્યો છે તે અહીં નથી અને તેને બદલે “નવ ધરિ–નવા ઘરમાં પાર્વે જિનનો નિર્દેશ કર્યો છે. નવા ઘરનો અર્થ “નવું દેવગૃહ” લઈ એ તો એ મન્દિર સિંઘરાજની કૃતિ રચાઈ (સં. ૧૬૧૩) ત્યાર પછી નવું બન્યું હશે એમ કહી શકાય. વળી એ સમય દરમિયાન પોશાળામાંની પ્રતિમાઓ અન્યત્ર સ્થાપિત કરવામાં આવી હશે. એમ ન હોત તો લલિતપ્રભસૂરિએ એનો ઉલ્લેખ અવશ્ય કર્યો હોત. ૧૧. હર્ષવિજયકૃત પાટણ ત્યપરિપાટી” (સં. ૧૭૨૯) આમાં પંચાસરા સાથેનાં મન્દિરોનું વર્ણન નીચે મુજબ છે : “પ્રથમ પંચાસરે જઈ એ, તિહાં પ્રાસાદ ચાર, પંચાસર જિનવર તણો એ, દેખા દીદાર. ૪ ચોપાન બિબ તિહાં અતિ ભલા એ, વલી હીરવિહાર, પ્રતિમા ત્રિણ સદગુરુ તણી એ, મૂરતિ મનોહાર. ૫ તિહાંથી ઘભ નિણંદ નમું એ, બિંબ પન્નર ગંભારઈ, એકસો બિંબ અતિ ભલા એ, ભમતીએ જુહારઈ. ૬ વાસુપૂજયને દેહરે એ, બિંબ ત્રણ વખાણું, મહાવીર પાસે વલી એ, બિબ ચાર જ જાણું.” ૭ * આમાં હીરવિહારનો ઉલ્લેખ મહત્વનો છે. છેલ્લા બહાર થયો ત્યારે પહેલાંના પંચાસરાના મન્દિરમાં પેસતાં ડાબી બાજુએ એક ઓરડી હતી અને તેમાં આચાર્યો વગેરેની જ મૂર્તિઓ હતી. એમાં મુખ્ય વેદિકા ઉપર હીરવિજયસૂરિ, વિજયસેનમુરિ અને વિજયદેવસૂરિ એ તપગચ્છના ત્રણ પ્રભાવક આચાર્યોની મૂર્તિઓ હતી, આ સ્થાન હીરવિહાર તરીકે ઓળખાતું હશે. એમાં હીરવિજયસૂરિની મૂર્તિ સં. ૧૬૬૨માં તથા વિજયસેનસૂરિ અને વિજયદેવસૂરિની મૂતિઓ સં. ૧૬૬૪માં પ્રતિષ્ટિત થયેલી છે એમ તે સાથેના શિલાલેખો ઉપરથી જણાય છે. આથી આ પહેલાંની ત્યપરિપાટીઓમાં હીરવિહારના ઉલ્લેખ ન હોય એ સમજાય એવું છે. ૧૨. “અહો શાલક બોલિ વક આ જૂની ગુજરાતી ગદ્યમાં રચાયેલું વર્ષ છે. લિપિ ઉપરથી અનુમાને સત્તરમા સૈકામાં લખાયેલી જણાતી એની હસ્તપ્રત વડોદરાના શ્રી આત્મારામ જૈન જ્ઞાનમન્દિરમાંથી મળી હતી. વડોદરા યુનિવર્સિટી તરફથી પ્રકટ થયેલ “વર્ણ -સમુચ્ચયમાં આ કૃતિનો પણ સમાવેશ થયેલો છે. એમાં એક સ્થળે અણહિલપુર પાટણનું ટૂંકું વર્ણન છે, અને તેમાં પાટણના પ્રમુખ દેવાલય તરીકે પંચાસરાના મન્દિરનો પણ ઉલ્લેખ છે: “તે અધ્યારું અણહીલપુર પાટણ વિ. પણિ કસૂ એક છિ જે અણહિલપુર પાટણ? સઘટ ઘાટે કરી વિચિત્ર ચિત્રામે કરી અભિરામ, મહામહોછ ભલાં આરામ, પંચાસર પ્રમુખ દેવ દેવાલા, ૫. શ્રી જિનવિજયજી-સંપાદન “પ્રાચીન જૈન લેખસંગ્રહ,' ભાગ ૨ નં. ૫૧૧-૧૩. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૮ જે નગરમાંહઇ દાનશાલા, પવધશાલા, ધરમશાલા, ગઢ મઢ મન્દિર પ્રકાર, ચુરાસી ચુટા હટશ્રેણિ, માંહઈ વસ્ત સંપૂર્ણ વરતાઈ...” ૧૩. દેવહર્ષકૃત પાટણની ગઝલ (સં. ૧૮૬૬) ખરતરગચ્છના મુનિ દેવ સં. ૧૮૬૬માં “પાટણની ગઝલ” એ નામનું એક સ્થલવર્ણનાત્મક કાવ્ય રચ્યું છે. ગઈ શતાબ્દીના પાટણની સ્થાનિક પરિસ્થિતિ, નોંધપાત્ર સ્થળો તથા વિશિષ્ટ વ્યક્તિઓ આદિનો માહિતી માટે આ રચના અગત્યની છે. એના અંતિમ પદ્ય-કલશરૂપ છપાની છેલ્લી બે પંક્તિઓમાં નીચે પ્રમાણે પંચાસરાના મન્દિરનો ઉલ્લેખ છે: પાટણ જસ કીધો પ્રગટ જિહાં પાંચાસર ત્રિભુવન ધણી, કવિ દેવ મુખથી કહે કુશલ રંગલીલા ઘણી.” કલશમાં આ રીતે એકમાત્ર પંચાસરા પાર્શ્વનાથના મન્દિરનો ઉલ્લેખ કર્યો છે, એ પાટણનાં જૈન મદિરોમાં એનું મહત્વ દર્શાવે છે. ૧૪. “પંચાસરા પાર્શ્વનાથ સ્તવન' આ નામની બે સંક્ષિપ્ત ભાષાકૃતિઓ જાણવામાં આવી છે અને તે બન્ને વડોદરા જૈન જ્ઞાનમંદિરમાં ૫. મુનિશ્રી હંસવિજયજીના શાસ્ત્રસંગ્રહમાં (પ્રતિ નં. ૩૩૯૪ અને ૪૫૧૫) છે. બન્નેય સ્તવનોમાં કર્તાનું નામ કે રસ્થા સંવત નથી, પણ લિપિ ઉપરથી સો-દોઢસો વર્ષ પહેલાં તે લખાયેલાં જણાય છે. પહેલું સ્તવન “પાસ પંચાસર ભેટ્યો હો, દૂખ મેચ્યો મુઝ ઘર આંગણે' એ પંક્તિથી તે બીજું સ્તવન “સુખકર શ્રીપંચાસરો પાસ, પાટણપુરનો રાજઓ” એ પંક્તિથી શરૂ થાય છે. બmયમાંથી કોઈ ખાસ એતિહાસિક હકીકત મળતી નથી. આ પ્રકારનાં બીજાં પણ સ્તવનો તપાસ કરતાં મળી આવવા સંભવ છે. ૬. મારા વડે સંપાદિત, ફાર્બસ ગુજરાતી સભા માસિક', એપ્રિલ-સપ્ટેમ્બર ૧૯૪૮માં. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુજરાતનું પ્રથમ ઈતિહાસકાવ્ય પ્રા૦ જયન્ત એ. ઠાકર, એમ. એ., કોવિદ્ આપણા દેશમાં પ્રાચીન કાળમાં આજના જેવી ઇતિહાસદૃષ્ટિ ખીલેલી ન હતી તે દોષ આપણું સામે વારંવાર ધરવામાં આવે છે. પ્રાચીનોની ઈતિહાસની વ્યાખ્યા બહુ વ્યાપક હોવાથી તેમાં પ્રચલિત આખ્યાયિકાઓ તથા પોરાણિક કથાઓ પણ સમાઈ જતી. આ જ કારણે રામાયણ અને મહાભારત બહુ દળદાર બનેલાં છે. તે વખતે ચરિત્રગ્રન્યો પણ જવલ્લે જ લખાતા, કારણ કે ધર્મને બહુ પ્રાધાન્ય મળવાથી ચમત્કારિક જીવનનું જ ચરિત્રચિત્રણ કરવાનું યોગ્ય લેખાતું. પાંચમી શતાબ્દીના માદ્યો પછી છેક સાતમી સદીના બાણના હિતમાં કાંઈક એતિહાસિક તત્વ મળે છે તેમ કહી શકાય. આ રિતના ચતુર્થ ઉચ્છવાસમાં “સૂર' શબ્દનો સર્વપ્રથમ પ્રયોગ જોવા મળે છે. ત્યાં સમ્રા હર્ષવર્ધનના પિતા પ્રભાકરવર્ધનને “ પ્રકાર:'—ગુજરાતને જાગરણ કરાવનાર–-હ્યા છે. મુસલમાનોના સમ્પર્ક બાદ, વિક્રમના દશમા શતક પછી આપણે ત્યાં ઐતિહાસિક સામગ્રી અર્પનારા પ્રબન્ધો રચાવા લાગ્યા. વેરવિખેર ઐતિહાસિક સામગ્રીવાળા આવા સંસ્કૃત, પ્રાકૃત તથા અપભ્રંશમાં લખાયેલા ગ્રન્થોમાં બારમા શકતમાં રચાયેલી કાશ્મીરી કવિ કણકૃત રકતરફી ખાસ નોંધપાત્ર છે; કેમ કે તે બીજાની માફક કેવળ સ્તુતિથી નહિ અટકતાં રાજાનાં ઘણો પણ આલેખે છે. અગિયારમી સદીમાં થઈ ગયેલા, વિરામવિતિના રચયિતા, કાશ્મીરના કવિ બિલ્પણના સુરો નાનો નાયક ગુજરાતની રાજા અને પ્રસિદ્ધ સિદ્ધરાજ જયસિંહનો પિતા કર્ણદેવ સોલકી છે અને તેના વિકલ્પિત વસ્તુમાં એતિહાસિક તત્ત્વો બીજરૂપે મળે છે. ગુજરાતને માટે એ એક ગીરવનો વિષય છે કે ભારતના બીજા કોઈ પણ રાજવંશ કરતાં ગુજરાતનાં ૩૦૦ વર્ષ જેટલા લાંબા શાસનકાળવાળા ચાલુકયવંશના ઇતિહાસની સામગ્રી અતિવિપુલ પ્રમાણમાં મળી શકી છે તેવું છે. બલર જેવાએ પણ કબૂલ કર્યું છે. [જુઓ “ઇડિયન ઍન્ટિવરી, પ્રન્ય ૬, પૃ. ૧૮૦] ગુજરાતના ઈતિહાસના આલેખનના વિષયમાં વિક્રમના ૧૨મા શતકના ઉત્તરાર્ધમાં તથા ૧૩માના પૂર્વાર્ધમાં થઈ ગયેલા, ગુજરાતના બે મહાન રાજા સિદ્ધરાજ જયસિંહ અને કુમારપાલના સમકાલીન અને કલિકાલસર્વજ્ઞનું બિરુદ પ્રાપ્ત કરનારા મહાન જૈન આચાર્ય શ્રી હેમચન્દ્રસૂરિનું સ્થાન મોખરે છે. તેમણે ગુજરાતના નાથ' સિદ્ધરાજ જયસિંહની પ્રેરણાથી સિદ્ધહેમરાનુશાસન નામક નૂતન સંસ્કૃત-પ્રાકૃત વ્યાકરણ રચ્યું છે, જેના આઠ અધ્યાય છે અને દરેક અધ્યાય ચાર ચાર પાદમાં વહેચાયેલો છે. આ બત્રીસે પાદને અન્ત પ્રશસ્તિનો એક એક શ્લોક મૂકી તેમાં ગુજરાતમાં ચૌલુક્ય વંશના સ્થાપક મૂળરાજથી માંડીને પોતાના સમકાલીન અને શિષ્ય કુમારપાલ સુધીના આઠે રાજાઓની કમબદ્ધ નામાવલિ આપેલી છે. આ વ્યાકરણના નિયમોનાં તે જ ક્રમમાં ઉદાહરણ આપવા અર્થ ગુજરાતના આ મહાન સાહિત્યાચાર્ય સંરકૃત-પ્રાકૃત દયાશ્રયકાવ્યની રચના કરી છે, જેમાં ઉપરિનિર્દિષ્ટ ૩૨ શ્લોકોને વિસ્તારીને મૂલરાજ (વિ. સં. ૯૯૮થી ૧૦૫૩)થી કુમારપાલ (વિ. સં. ૧૧૯થી ૧૨૨૯) પર્યન્તનો ઈતિહાસ વણી લેવાનો પ્રશસ્ય પ્રયત્ન કરેલો છે. આમાં વલભીપુરના પ્રખ્યાત કવિ ભદ્રિ(આશરે ઈ. સ. ૫૦૦ – ૬૫૦)ના વ્યાકરણકાવ્ય રાવણવધ અથવા મદિવ્યની સરસાઈ કરવાનો પ્રયાસ હોવાનો સંભવ છે. તે ગમે તે હોય, આચાર્ય વિજયવલ્લભસૂરિ સ્મારક-ગ્રન્થ, મુમ્બઈ ૧૯૫૯ સે સાભાર Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૦ પરંતુ ગુજરાતનો ૨૩૦ વર્ષનો ક્રમબદ્ધ ઇતિહાસ નિદર્શતો આ પ્રથમ જ ગ્રન્થ છે, અને તે દૃષ્ટિએ તેનું મૂલ્ય ધણું છે. બીજી રીતે પણ આ કાવ્યનું મહત્ત્વ ઘણું છે. મૂલરાજ જ્યારે પાટણનો અધિપતિ થયો ત્યારે તે પ્રદેશ તો‘-સારવંતમજુરુ ' તરીકે જ ઓળખાતો હતો. (મૂળરાજના પોતાના વિ. સં. ૧૦૪૩ના દાનપત્રમાં પણુ આ જ નામ આપેલું છે. ) મૂલરાજ જ્યાંથી આવ્યો તે રાજપૂતાનામાંના શ્રીમાલભિન્નમાલની આસપાસનો પ્રદેશ ત્યારે ‘ગુર્જરત્ર – જીગ્ગરત્તા – જીનવેરા ’ ગણાતો. ગુર્જરેશ્વર મૂલરાજ સારસ્વતમઃલનો રાજા અન્યો તે પછી ગુર્જરેશનો પ્રદેશ તે ગુર્જરમદ-ગુર્જરવેશ-મુત્ર-પુ[ર્ત્તા ' ગુજરાત કહેવાયો. આમ આપણા પ્રદેશને ‘ગુજરાત ’નામ પણ મૂળરાજના સમયમાં જ મળ્યું. (‘ગુજરાત’ વિષે વિશેષ ચર્ચા માટે જુઓ ડૉ. ભોગીલાલ સાંડેસરાકૃત ‘તિહાસની કેડી’ પૃ. ૧૩૧–૧પર) તદુપરાન્ત, આ પ્રદેશ સમૃદ્ધિની ઉચ્ચતમ કોટિએ પણ આ સોલંકીયુગમાં જ – સિદ્ધરાજ અને કુમારપાલના શાસનસમયમાં – પહોંચેલો. આ રીતે પુરાણકથાનુસાર જેનો મૂળપુરુષ બ્રહ્માના ચુલુક એટલે ખોખામાંથી ઉત્પન્ન થયેલો મનાય છે તે ચૌલુક્ય કે સોલંકીવંશનો યુગ ગુજરાતના પ્રતિહાસમાં સૌથી વધારે મહત્ત્વનો યુગ ગણાય, અને યાશ્રયમહાકાવ્ય પણ આ જ યુગનો ઇતિહાસ આપતું હોવાથી ગુજરાતના ઇતિહાસની દૃષ્ટિએ તેનું મહત્ત્વ અદ્વિતીય છે. ઇતિહાસ અને વ્યાકરણ એ બે આલમ્બનોને કારણે આ અઠ્ઠાવીસ સર્ગના મહાકાવ્યને ‘ત્યાશ્રય ’ નામ આપવામાં આવ્યું છે. પ્રથમ વીસ સર્ગના સંસ્કૃત યાશ્રયકાવ્યમાં મૂળરાજ સોલંછીની કારકિર્દીથી તે કુમારપાલના શાસનકાલ સુધીનો ઇતિહાસ આલેખી આઠ સર્ગના પ્રાકૃત યાશ્રયકાવ્યમાં કુમારપાલની અધૂરી કથાની પૂર્તિ કરવામાં આવી છે. આથી પ્રથમ વિભાગને ‘ ચૌલુક્યવંચોત્કીર્તન ' તથા દ્વિતીય વિભાગને ‘ કુમારપારિત ' પણ કહેવામાં આવે છે. ' હવે આપણે આ કાવ્યનું સંક્ષિપ્ત વસ્તુનિરીક્ષણ કરી લઈ એ. પહેલા સર્ગમાં અણુલિપાટક - પાટણ, રાજા મૂલરાજ, પ્રજાતી સુખસમૃદ્ધિ તથા રાજાપ્રજાપ્રીતિનું સુંદર વર્ણન આપી પછીના ચાર સર્ગમાં સૌરાષ્ટ્રના પ્રાપીડક ગ્રાહરિપુ ઉપરનો મૂલરાજનો વિજય વર્ણવ્યો છે. આ નિમિત્તે બન્ને પક્ષે ઉપસ્થિત અનેક રાજાઓનાં નામ આપવામાં આવ્યાં છે. ગ્રાહરિપુને તેની સ્ત્રીઓની આજીજીથી આંગળી કાપી છોડી મૂકયો, જ્યારે તેનો મિત્ર કચ્છનો લક્ષરાજ—લોકકથાઓનો લાખો ફુલાણી—યુદ્ધમાં હણાયો. ટ્ટા સર્ગમાં અંગ, વિન્ધ્ય, પાણ્ડ, સિન્ધુ, વનવાસ (ઉત્તર કાનડા), શરજાચલ (દેવગિરિ), કોલ્લાપુર, કશ્મીર (તેના રાજા માટે ‘ નીર ’ શબ્દ વાપર્યો છે, શ્લોક ૨૩), કુરુ અને પાંચાલ (હિમાલયની તળેટીથી ચમ્બલ નદી સુધીનો પ્રદેશ, જેની રાજધાની કામ્પીલ્થનગરમાં હતી) જેવા દૂર-દૂરના દેશોના રાજાઓ તરફથી મૂલરાજને ચરણે આવેલી વિશિષ્ટ બેટોનું વર્ણન છે, જે પછી લાટના દ્વારપે મોકલેલ નિષિદ્ધ લક્ષણોવાળા ગજરાજને હિંમત્ત બનાવી તેના ઉપર યુવરાજ ચામુણ્ડરાજે મેળવેલો વિજય આલેખેલો છે. સાતમા સર્ગમાં કાશી તરફ જતા ચામુણ્ડરાજ(વિ. સં. ૧૯૫૩થી ૧૦૬૬)ને માલવાના રાજાએ લૂંટતાં તેનો પુત્ર વલ્લભરાજ (વિ. સં. ૧૦૬૬) તેની આજ્ઞાથી માલવા પ્રતિ પ્રયાણ કરે છે, પરન્તુ માર્ગમાં જ શીતળાના અસાધ્ય વ્યાધિથી તેનું મૃત્યુ થાય છે અને એ વાત છુપાવી સૈન્ય પાછું ફરે છે. વલ્લભરાજ પછી રાજ્યારૂઢ થયેલા તેના ભાઈ દુર્લભરાજ (વિ. સં. ૧૦૬૬-૧૦૭૮) સાથેના મારવાઙ (મ ્) ના રાજા મહેન્દ્રની બહેન દુર્લભદેવીના સ્વયંવરલગ્નનું તથા તે નિમિત્તે દુર્લભરાજના બીજા ધણા રાજાઓ સાથેના યશઃપ્રદ યુદ્ધનું વર્ણન પણ આ જ સર્ગમાં આવે છે. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૧ આઠમા સર્ગમાં દુર્લભરાજના નાનાભાઈનાગરાજના પુત્ર ભીમદેવ કે ભીમરાજ (વિ. સં. ૧૦૭૮૧ર૦)ને યશરવી અને નીતિમય શાસનનું તેમ જ પરાક્રમી સિદ્ધરાજ હમ્મુકને તેણે ધન્વયુદ્ધ કરી હરાવેલો તેનું સુન્દર આલેખન મળે છે. સિધુવિજય પછી નવમા સર્ગમાં ભીમદેવ ચેદિ (મધ્યપ્રદેશ) તરફ વળ્યો, પરંતુ તેના ત દામોદર દ્વારા (કર્ણાટક, ગુજરાત અને ચેદિ ત્રણેએ સાથે હુમલો કરી હરાવેલા) માલવપતિ ભોજની સુવર્ણમડપિકા અને બીજાં નજરાણાં મોકલી ચેદિરાજે સન્ધિ કરી લીધી. પરાક્રમી ભીમ પછી તેના એક પુત્ર ક્ષેમરાજે રાજ્ય ન રવીકારતાં નાના કરાજ વિ. સં. ૧૧૨૦ – ૧૧૫૦)ને ગાદી મળે છે. કર્ણ અને દક્ષિણમાં આવેલા ચન્દ્રપુરના જયકેશીની પુત્રી મયણલ્લાદેવી(મીનળદેવી)ના ચિત્રદર્શનથી ઉદ્ભવેલા પ્રેમલગ્નનું અતિસુંદર ચિત્રણ પણ આ જ સર્ગમાં આવે છે. દશમા સર્ગમાં કર્ણરાજના તપથી પ્રસન્ન થઈ શ્રીલક્ષ્મી પ્રતાપ તેમ જ પુત્ર માટે વરદાન બક્ષે છે, અને ૧૧મામાં “ગુજરાતનો નાથ” જયસિંહ (વિ. સં. ૧૧૫૦–૧૧૯૯) શાસક બને છે. બારમા સર્ગમાં શ્રીસ્થળ(સિદ્ધપુર)ને બ્રાહ્મણોને પરેશાન કરનાર રાક્ષસરાજ (ખરી રીતે ભિલરાજ) બર્બરક સાથે શ્વયુદ્ધ કરી જયસિંહ તેને પોતાનો દાસ બનાવે છે અને તેને શ્રીસ્થળનો જ રક્ષક સ્થાપે છે. “બાબરા ભૂત” તરીકે લોકપ્રવાદમાં ખ્યાતિ પામેલા એ જિલરાજના ચમત્કારોનો પણ કવિ અહીં પરિચય કરાવે છે. તેરમા સર્ગમાં બીજો એક રસિક પ્રસંગ વર્ણવેલો છે. મહારાજ જયસિંહ રાત્રે વિક્રમની માફક, વે પરિવર્તન કરીને પ્રજાનાં સુખદુ:ખ તથા વિચારો જાણવા નીકળી પડતો. એક રાત્રે કોઈ સ્ત્રીના કરા શબ્દો તેને કાને પડતાં તે તે બાજુ ગયો અને પૃચ્છા કરતાં આ પ્રમાણે જાણવા મળ્યું: પાતાલમાં નાગલોકની ભોગવતી નામની નગરીમાં વાસુકિની માનીતો નાગરાજ રત્નચૂક રહેતો હતો. તેના પુત્ર કનકચૂડ નાગે એક વખત પોતાના સહાધ્યાયી દમન સાથે વાદવિવાદમાં પત્નીને હોડમાં મૂકી. અહીં તેણે ભૂલ કરેલી અને સ્વાભાવિક રીતે જ દમન લવલીની વેલીને હેમન્તઋતુમાં પુષ્પો આવે છે તેવું પ્રત્યક્ષ બતાવી જીતી ગયો. છતાં કનફ્યૂડ પાસે પત્નીની મુક્તિનો એક ઉપાય હતો. ઘણા સમય પહેલાં વરુણના વરદાનને પ્રતાપે હુલ્લડ નામના ફણીએ પાતાલલોકને જલમાં ડુબાડવાનો વિચાર કરેલો. જેથી ગભરાયેલા નાગો તેને શરણે ગયેલા અને હુલ્લડે શાસન ફરમાવેલું કે પ્રતિવર્ષ ઉત્તરાયણે એક એક નાગે કાશ્મીરમાં કાયમ રહેતા પોતાની સ્તુતિપૂજા કરવા આવવું. તે બાદ હિમથી દુર્ગમ તેવા કાશ્મીર દેશમાં હુકલડ ચાલ્યો ગયો અને પૂર્વ “સમગ્ર પૃથ્વીને પણ ઉખેડી નાખીએ” એવાં બણગાં ફૂંકનારા સાપ હુલ્લડના કોપના ભયથી દર વર્ષે વારા પ્રમાણે નિયમિત રીતે તેની પૂજા અર્થે જવા લાગ્યા. આ વર્ષે દમનનો વારો આવ્યો હતો; એટલે હિમના દહથી બચવા તેણે કનફ્યૂડ પાસે શરત મૂકી કે જે તે તેને હિમઘ ઊષ લાવી આપે તો પોતે તેની પત્નીને પણમાંથી મુક્ત કરે. આથી છેલ્લો દાવ અજમાવવા કનકધૂ પાટણ આવેલો અને એક ઊંડા કૂવામાથી ઊષ લાવવા તે તેમાં પવા જતો હતો, પરંતુ તે અંધારો કૂવો વજમુખી મક્ષિકાઓથી વ્યાપ્ત હોવાથી તેમાંથી જીવતા પાછા આવવાની આશા રખાય તેમ ન હતું, તેથી તેની પત્ની પણ સહગમન કરવા તત્પર થઈ હતી અને પોતાને ન વારવા પતિને વિનવતી હતી. આ વૃત્તાન્ત સાંભળી આશ્વાસન આપી બાહોશ રાજા જયસિહદેવે કાંઠા પરના વેતસવૃક્ષને વેગપૂર્વક મારવા માંડ્યું. તેના અવાજથી કૂવામાંથી માખીઓ એકદમ ઊડી ઉપર આવતી રહી. પછી Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૨ નિર્દેક્ષિક બનેલા કૂવામાં રાજાએ વિનાવિલંબે ઝંપલાવ્યું અને ઊષનો ધડો (વટી) ભરીને તત્કાળ બાર ફૂદી આવ્યો, અને ઊષ સાથે તે નાગદમ્પતીને અર્બરકાદિના રક્ષણ નીચે પાતાલમાં મોકલી દીધું. ( કેંદ્ર અને વિનતાની પૌરાણિક કથા અહીં સરખાવવા યોગ્ય છે. નાગ લોકો સાથેનો ગુજરાતનો ઐતિનાસિક સબંધ પૌરાણિક જેવા લાગતા આ કથાનક દ્વારા વર્ણવાયો છે એમ સમજ્યું ?) ચૌદમા સર્ચમાં પણ ચમત્કારકથા આવે છે. યોગિનીઓના ચમત્કારને ન ગણકારતાં પોતાની પ્રતિમા બનાવી કામણપૂર્વક તેને બાળી નાખવાને પ્રવૃત્ત થયેલી બહુરૂપી યોગિની કાલિકાને હરાવી કર્મવીર જયસિંહે માળવાના વિદ્યાપ્રેમી રાળ યશોવર્મા ઉપર ચિરસ્મરણીય વિજય પ્રાપ્ત કર્યો અને અન્તે પંદરમા સર્ગમાં તે ભગવાન સોમનાથની કૃપાથી સુવર્ણસિદ્ધિ મેળવી “ સિફ્રાન ” અન્યો. કેદારનાથના માર્ગને તેણે દુરસ્ત કરાવેલો, શ્રીસ્થળમાં રુદ્રમહાલય તથા જૈન ચૈત્ય બંધાવેલાં, પાટણમાં સહસ્ત્રલિંગ તળાવ અને જૈન તથા જૈનેતર મન્દિરો બંધાવેલાં, સૌરાષ્ટ્રમાં સિંહપુર(રિાડોર)ની સ્થાપના કરેલી---આ બધી વિગત પણ આ સર્ગમાં મળે છે. સોળમા સર્ગથી કુમારપાલની કથા શરૂ થાય છે અને ત્રણ સર્ગમાં સપાદલક્ષ (અજમેર)ન, આન્નરાજે તેના હાથે ખાધેલી હારનું મનોહર વર્ણન આપેલું છે; જ્યારે ઓગણીસમા સર્ગમા કુમારપાલ આન્ન (અણૌરાજ)ની પુત્રી જલ્હાને પાટણમાં પરણે છે અને તેનો બ્રાહ્મણ સેનાપતિ કાક——શ્રી મુનશીની નવલકથાઓમાં અમર બનેલો મંજરીપતિ કાક——અવન્તિના બલ્લાલ પર વિજય પ્રાપ્ત કરે છે. સ્વાભાવિક રીતે જ ઉભયપક્ષસ્થ બીન્ન અનેક રાજાઓનો ઉલ્લેખ અહીં મળે છે. આજે પણ ગુજરાત ઉપર જેની અસર છે તે કુમારપાલની પ્રખ્યાત અમરિત્રોત્રાનું વિશમા સર્ગમાં વિસ્તૃત વર્ણન આપેલું છે. આમલકકાદશી(કાલ્ગુન શુક્લ ૧૧)ના વૈષ્ણવ પર્વના દિવસે ત્રણુ–ચાર દીન પશુઓને ખાટકીને ત્યાં વેચવા ખેંચી જતા એક માણસને જોઈ દયાર્દ્ર બનેલા તે મહારાનએ યાભિભાષણ, પરદારગમન, જન્તુવધ, માંસભક્ષણ અને મદ્યપાનનો નિષેધ ફરમાવ્યો તેટલું જ નહિ, પણ તેથી જેને નુકસાન થાય તેમ હતું તેવા બધાને ત્રણ ત્રણ વર્ષ ચાલે તેટલું ધાન્ય આપ્યું જેથી પોતાની આજ્ઞાનો કડક અમલ થાય. તદુપરાન્ત, એક મધ્યરાત્રે કોઈ સુન્દરીનું કરુણુ રુદન સાંભળી રાજા તે તરક્ ગયો તો એક વૃક્ષ સાથે પાશ બાંધી તે આત્મહત્યાની તૈયારી કરતી હતી. પૃચ્છા કરતાં જણાયું કે તે યુવતીના પુત્ર તેમ જ પતિ ગુજરી જવાથી નિયમ મુજબ તેનું સઘળું ધન રાજાને જશે અને તેથી તે સાવ નિરાધાર થઈ જતાં આત્મહત્યા એ જ તેના માટે એકમાત્ર માર્ગ હતો. કૃપાળુ રાન્નએ તેન આશ્વાસન આપ્યું કે “ રાખાયું તેડ” ન મીતા મહીતા ’~~~~~ આ રાજા તારું ધન નહીં લઈ લે, નહીં લઈ લે ...અને વિનાવિલંબે અપુત્રમૃતધન પરનો રાજ્યનો હક ઉદ્મવી લીધો. ''. આ રીતે મધ્યયુગમાં સમાજસુધારણાનો નવો ચીલો પાડનાર અને કેદારપ્રસાદ તથા સોમનાથન્દિરનો જીર્ણોદ્ધાર કરાવી સ્વપ્નાદેશાનુસાર ગુર્જરપુર-પાટણ-માં કુમારપાલેશ્વરની સ્થાપના કરનાર તેમ જ પાર્શ્વનાથનાં ચૈત્યો બંધાવનાર લોકપ્રિય રાજા કુમારપાલને આ પ્રમાણે આશીર્વાદ આપી સંસ્કૃત યાશ્રય કાવ્ય પુરું થાય છે. आयुष्मान् भव भूपता ३ इ अजय ३ (:) शान्त्या ३ सुबुद्धा ३ यूपी (३) ञ् जिष्णा ३ वर्ज तदै ४ न्दवे जय चिरं चौलुक्यचूडामणे । क्ष्मानृण्यीकरणात्प्रवर्तय निजं संवत्सरं चेत्यृषि वाघोषत्सु सदा नृपः पदविधिर्यद्वत्समर्थोभवत् ॥ १० ॥ rr અર્થાત્--- “ હે રાજા ! તું આયુષ્માન થા. હું સુબુદ્ધિ ! શાન્તિમાં તું ઋષિઓથી પણ ચઢી જા. હું જિષ્ણુ ! તું અલિષ્ટ બન. હે ચન્દ્રવંશી ! હે ચાલુક્યચૂડામણિ ચિરકાલપર્યન્ત વિજયી થા ! અને પૃથ્વીને Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૩ ત્રણમુક્ત બનાવીને પોતાનો સંવત્સર પ્રવર્તાવ”—આ પ્રમાણે ઋષિઓ જ્યારે ઘોષણા કરતા (આશીર્વચન ઉચ્ચારતા) હતા ત્યારે રાજા કુમારપાલ), જેમ કોઈ પણ પદ હમેશાં સમ–અર્થ—અર્થ સાથે જ યોજાય છે તેમ, સમર્થ—શક્તિસંપત્તિવાળો–થયો.” પ્રાકૃત દ્વયાશ્રયકાવ્ય કુમારપાલની આ અધૂરી કથા પૂરી કરે છે. પ્રથમ પાંચ તથા છઠ્ઠા સર્ગના પૂર્વાર્ધમાં પાટણનું, રાજા તથા પ્રજાની સમૃદ્ધિનું, મન્દિરો તથા સવારીની જાહોજલાલીનું અને રાજાની ઉદારતા તેમ જ ભક્તિ ઇત્યાદિનું વર્ણન મળે છે. છઠ્ઠા સર્ગના ઉત્તરાર્ધમાં કોંકણના મલ્લિકાર્જુન ઉપરના કુમારપાલના વિજય ઉપરાન્ત મથુરા, ચેદિ, દશાર્ણ, કાન્યકુન્જ, મગધ, ગડ, સિધ, શ્રીનગર, તિલિંગ, કાંચી વગેરે ઉપરની તેની સત્તા આલેખેલી છે. છઠ્ઠા સર્ગમાં જંગલ(જંગલ)ના રાજાએ કરેલી સ્તુતિ સુણું સૂતેલો કુમારપાલ સાતમામાં જાગ્રત થઈ કર્તવ્યચિન્તન કરે છે અને અને આઠમા સર્ગમાં, તેની વિનતિથી, મૃતદેવી સરસ્વતી ધમોપદેશ આપે છે. ઉપરના અવલોકન પરથી ગુજરાતની આણ કેટલા દૂર દૂરના પ્રદેશોમાં વર્તતી હતી તેનો ખ્યાલ આવે છે. હેમચંદ્રાચાર્યની બીજી અતિબહ૬ કૃતિ વિદિશાસ્ત્રાપુરુષતિમાના દશમા પર્વના ચોથા સર્ગનો બાવનમો શ્લોક કુમારપાલના ગુજરાતની શાસનસીમાં આ પ્રમાણે જણાવે છે: " स कौबेरीमातुरुष्कमैन्द्रीमात्रिदशापगाम् । याम्यामाविन्ध्यमावाधि पश्चिमा साधयिष्यति ॥" અર્થાત - “તે (કુમારપાલ) ઉત્તર દિશાને તુ સીમા સુધી, પૂર્વને ગંગાપર્યન, દક્ષિણને વિધ્યાચળ સુધી અને પશ્ચિમ દિશાને સમુદ્ર સુધી સાધશે-જીતશે.” અહીં “સાધથિસ્થતિ” એ ભવિષ્યકાળ વાપરેલો છે તેનું કારણ એ છે કે આ શ્લોક ભગવાન્ મહાવીરના મુખમાં ભવિષ્યવાણીના રૂપમાં મૂકેલો છે. આ સંક્ષિપ્ત અવલોકન પરથી જણાય છે કે એવા કેટલાક પ્રસંગો છે જે અન્ય પ્રબન્ધો તેમ જ ઉત્કીર્ણ લેખો દ્વારા સિદ્ધ થઈ ચૂકેલા છે અને છતાં દયાશ્રય જેવા સમકાલીન ગ્રન્થમાં નિર્દેશ પણ પામતા નથી. તે જ પ્રમાણે બીજા પણ એવા પ્રસંગો દ્વયાશ્રયમાં મળે છે–વિશેષતઃ ચમત્કારયુક્ત–જેને ઇતિહાસ સાથે બહુ સંબધ ન હોઈ શકે. મૂળરાજનો ચાવડાઓ સાથેનો સંબંધ, તેનો શાકરી(અજમેર)ના વિગ્રહરાજને હાથે થયેલો પરાભવ, માળવાના ભોજે ભીમને આપેલી હાર, નાલ(નાડોલ)ના અણહીલ-અહિલને હાથે ભીમદેવનો પરાજય, ભીમના જ સમયમાં થયેલું મહમૂદ ગઝનવીનું સુપ્રસિદ્ધ સોમનાથ-આક્રમણ, માળવા અને શાકસ્મરીના રાજાઓએ કરેલો કર્ણનો પરાજય, અને સિદ્ધરાજના શાસનકાળ દરમ્યાન કુમારપાળની વની રખડપટ્ટી – જેવા પ્રસંગોનો નિરશ પણ આ કાવ્યમાં મળતો નથી. જે વંશનું પોતે ઉત્કીર્તન કરે છે તથા જે કુલના રાજાના પ્રોત્સાહનથી ગ્રન્થ રચાય છે, તેને કલંકરૂપ લાગતા પ્રસંગોનો સમાવેશ પોતાની કૃતિમાં ન કરવાને કવિનો હેતુ આ મૌનના મૂળમાં હોઈ શકે. સંસ્કૃત યાશ્રયકાવ્યનો ગુજરાતી અનુવાદ ઈ. સ. ૧૮૯૩માં પ્રકટ થયેલો. અનુવાદક શ્રી મણિલાલ નભુભાઈ દ્વિવેદી એવો તર્ક કરે છે કે મહમૂદના સોમનાથ આક્રમણની વાત મુસલમાનોએ ઉપજાવી કાઢી પણ હોઈ શકે. “ભારત અંગ્રેજી રાજ”ના પ્રખ્યાત લેખક પં. સુન્દરલાલજીએ પણ એવું અનુમાન કરેલું છે. પરંતુ એવી શંકા લાવવાનું કોઈ કારણ નથી. વિ. સં. ૧૨૨૫માં કુમારપાલે સોમનાથના પાશુપતાચાર્ય ભાવબૃહસ્પતિની દેખરેખ નીચે સોમનાથના મન્દિરનો જીણોદ્ધાર કરાવેલો. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૪ તે નિમિત્તે આલેખાયેલી સોમનાથની ભાવબૃહસ્પતિની પ્રશસ્તિમાં ભીમદેવે પથ્થરનું મન્દિર બંધાવ્યુંનું સ્પષ્ટ કથન છે. પહેલાંનું લાકડાનું મન્દિર મહમૂદ્દે તોડ્યા પછી આ પથ્થરનું બંધાવ્યું હોય તેમ કેમ ન અને? મહમૂદના સમકાલીન અલ્બેરુની ઉપરાન્ત ૧૪મા શતકના પ્રારંભમાં થઈ ગયેલા શ્રીજિનપ્રભસૂરિ પણ તેમના વિવિધતીર્થત્વમાં સોમનાથખંડનનો ઉલ્લેખ કરે છે. આ વિષયમાં માળવાના પ્રખ્યાત કવિ ધનપાલનો પણ ટેકો મળે છે એવું મુનિશ્રી જિનવિજય એ “ જૈનસાહિત્યસંશોધક ”ના ત્રીજા ગ્રન્થમાં સિદ્ધ કર્યું છે. તે જ દિવસોમાં ( ૧૧મી સદીના અન્ત અને ૧૨મીના પ્રારંભમાં) થઈ ગયેલા આ કવિએ સ્વરચિત સત્યપુરમજુનના શ્રીમહાવીર-ઉત્લામાં મહમૂદના પરાક્રમની નોંધ કરી છે, જે સોમનાથ-આક્રમણને કલ્પિત માનનારને સચોટ જવાબરૂપ થઈ પડશે : જુઓ તેનો ત્રીજો જ શ્લોક : भजे विणु सिरिमाल देसु अनु अणहिलवाडउं चड्डावलि सोर भग्गु पुणु देउलवाडउं । सोमेसर सो तेहि भग्गु जणयणआणंदणु भगुन सिरि सच्चाउरि वीरु सिद्धत्थद्द नंदणु || અહીં સ્પષ્ટ રીતે કહ્યું છે કે સિરિમાલ-શ્રીમાલ–ભિન્નમાલ, અણહિલવાડ (પાટણ), ચડ્ડાવલિ– ચન્દ્રાવતી (આબુની તળેટીમાં આવેલું), સોરા, દેલવાડા અને સોમેસરુ-સોમેશ્વર-શ્રીસોમનાથ ભાંગ્યાં; ન ભાંગ્યું એક સિરિ સચ્ચઉરિ–શ્રીસત્યપુરી–સાચોર. હેમચન્દ્રાચાર્ય જેવા સમર્થ લેખકે આવા ખોટા બનાવનો નિર્દેશ પણ કર્યો નથી તે માટે ઉપર કારણ આપ્યું છે. દિલ્હીના રાજા વજદેવે ભીમ અને બીજા રાજાઓનો સહકાર મેળવી, નાસતા મહમૂદ્રના પાછલા લશ્કરને હરાવેલું અને થાણેશ્વર વગેરે કબજે કરી લીધેલા. યાશ્રયના આમા સર્ગના શ્લોક ૪૦થી ૧૨૫ સુધી ભીમે સિન્ધુરાજ હમુકને હરાવેલો તેનું વિસ્તૃત વર્ણન આપેલું છે. વ્રજદેવના સહાયક અન્ય રાજાઓના તુરુષ્ણવિજયનું કથન ઉત્કીર્ણ લેખોમાં મળે છે. આથી અનુમાન થાય છે કે યાશ્રયનું આ વર્ણન તે ઉપરના સમૂવિજયનું હશે. રાણકદેવી તથા જસમાના પ્રચલિત પ્રસંગો પણ ઉપર દર્શાવેલા કારણે જ નહીં આપ્યા હોય. છતાં માલવાવિજયનું વર્ણન તો છે જ, જેને ઉત્કીર્ણલેખોમાંના “અવન્તિનાય ” બિરુદથી ટેકો મળે છે અને સિદ્ધરાજના જ વિ. સં. ૧૧૯૬ના દોહદના લેખના સ્પષ્ટ શબ્દો છે કેઃ " श्री जयसिंहदेवोऽस्ति भूपो गूर्जरमण्डले । येन कारागृहे क्षिप्तसुराष्ट्रमालवेश्वरौ ॥ અર્થાત્~ ગૂર્જરમણ્ડલમાં શ્રીજયસિંહદેવ રાજા છે જેણે સુરાષ્ટ્ર (સૌરાષ્ટ્ર) તથા માલવાના રાન્તઓને કારાગૃહમાં નાખ્યા છે.” વળી યાશ્રયના ૧૫મા સર્ગનો ૯૭મો શ્લોક કહે છે કે સૌરાષ્ટ્રમાં શત્રુંજય પર્વત પાસે તેણે સિંહપુર (શિહોર) વસાવ્યું : “ સોઽત્ર સૌપથ્થ-તાંજાય-સૌત નિપુરોવમમ | स्थानं सिंहपुरं चक्रे द्विजानां मौनिचित्तिजित् ॥ " અર્થાત્ “ તે મોનિચિત્તિજિત (રાજા)એ અહીં (શત્રુંજય પાસે) સાપસ્થ્ય, સાંકાશ્ય તથા સૌતંર્ગામ નગરો જેવા (સમૃદ્ધ) સિંહપુરની સ્થાપના કરી.” આ જ સમયે તેણે સિંહસંવત્સર પ્રવર્તાવ્યો હરશે. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૫ દ્વયા. ૧૫. ૫માં ભગવાન સોમનાથનું કૃપાવચન છે કેઃ કૃધ્યાયાધુના સ્વર્ગસિયા સ્પં મા સિદ્ધિા ” અર્થાત-“હવે પૃથ્વીને અનૃણી કરવા માટે (મદ્રા) સુવર્ણસિદ્ધિ વડે તું (સંવત્સર પ્રવર્તાવનાર) સિદ્ધિરાજ થા.” તે જ પ્રમાણે વડનગરપ્રાકારપ્રશસ્તિ (વિ. સં. ૧૨૦૮) ૧૧મો શ્લોક પણ કહે છે કે "सद्यः सिद्धरसानृणीकृतजगद्गीतोपमानस्थिति છે બીનર્કિદેવકૃતિઃ પ્રસિદ્ધસ્તર ” અર્થાત “તકાળ સિદ્ધરસ વડે ઋણમુક્ત કરાયેલું જગત જેની ઉપમાન સ્થિતિ ગાય છે (પ્રશંસે છે) તેવો શ્રીજયસિંહદેવ રાજા પછી શ્રીસિદ્ધરાજ બન્યો.” આજે વધારે પ્રચલિત થયેલા તેના “સિદ્ધરાજ” નામ પાછળ આ રહસ્ય છે. સૌરાષ્ટ્રમાંના માંગરોળનો વિ. સં. ૧૨૦૨ને ઉત્કીર્ણ લેખ સિંહ સંવત ૩૨ આપે છે. ભીમદેવ બીજાનું વિ. સં. ૧૨૬૪નું તામ્રપત્ર સિંહ સં. ૯૩ આપે છે. આ ગણતરી મુજબ વિ. સં. ૧૧૭૦થી સિંહસંવત્સર શરૂ થયો ગણાય. ઇતિહાસવિદોનું માનવું છે કે આ સંવતનું પ્રવર્તન સિદ્ધરાજના સૌરાષ્ટ્ર-વિજયની સ્મૃતિમાં થયું હશે. - સોમેશ્વર (ઈ. સ. ૧૧૭૮-૧૨૪૨)ની દીવમુરી તેમ જ સમકાલીન વિજયસેનસૂરિના રેવન્તનિરિરાજુમાં પણ સિદ્ધરાજના ખેંગાર પરના વિજયનો સ્પષ્ટ ઉલ્લેખ છે. આશાપલ્લી ગામના આશાભીલને છતી કર્ણદેવે કોછરબ દેવીનું મન્દિર, કર્ણસાગર તળાવ અને કણેર મહાદેવનું મંદિર બંધાવી કર્ણાવતી શહેર વસાવેલું તે હકીકત પણ દયાશ્રયમાં જડતી નથી. આ કર્ણાવતીમાંથી આજનું અમદાવાદ વિસ્તર્યું. (વિશેષ ચર્ચા માટે જુઓઃ સ્વ. રત્નમણિરાવનું “ગુજરાતનું પાટનગર અમદાવાદ ). શાશ્મરી (અજમેર)ના આજ (અરાજ) પરની જયસિંહની જીત વિના હેમચન્દ્રના મન માટે એવો લુલો બચાવ કરી શકાય કે પાછળથી તેને સિદ્ધરાજે પોતાની પુત્રી કાંચનદેવી લચમાં આપેલી. બીજા વિજયોની માફક શાકભરીવિજયનું સૂચક બિરુદ પોતે ધારણ કર્યું નથી તેથી સ્વ. દુશકર શાસ્ત્રી માને છે કે આ મોટો વિજય નહીં હોય પણ બત્રીસ્થાપના હશે. છતાં મૂળરાજે આબુના પરમાર ધરણવરાહને પરાસ્ત કરેલો તેના અનુલ્લેખ માટે કોઈ કારણ જડતું નથી. અને આ એક મહત્ત્વની બનાવ ગણાય, કેમકે ત્યારથી આબુપ્રદેશ ગુજરાતના શાસન નીચે આવ્યો. વળી વંશાવલિ બરાબર આપી હોવા છતાં કાલક્રમ તો કોઈ સ્થળે આપેલો નથી. ઈતિહાસની દૃષ્ટિએ આ મોટાં દૂષણ લેખાય. પરંતુ આપણે એ ભૂલવું ન જોઈએ કે હેમચન્દ્રાચાર્યનો હેતુ કેવળ ઈતિહાસ આલેખવાનો નથી; પણ મહાકાવ્યનાં લક્ષણો લક્ષમાં રાખી, તે પ્રમાણેનાં આવશ્યક વર્ણનો વગેરે મૂકી, પોતાના વ્યાકરણના નિયમોનાં ઉદાહરણ આપતું મહાકાવ્ય રચવાનો અને તેમાં શક્ય તેટલા ઐતિહાસિક પ્રસંગોને સાંકળી લેવાનો જ છે. એ પણ નોંધવું જોઈએ કે બહુ લાગવગવાળા, પ્રત્યક્ષ જોનાર તથા રાજય-દફતરો વગેરે દ્વારા પૂર્વની હકીકત મેળવવા શક્તિમાન એવા હેમચન્દ્રાચાર્યે રજૂ કરેલી વિગતો અતિવિશ્વસનીય છે. ચમત્કારો અને અલંકારો તો કાવ્યમાં હોય જ. વિામનું અનુકરણ કરનાર મહત્ત્વાકાંક્ષી સિદ્ધરાજ જાતે પણ પોતાના વિષે યોગિનીઓ ઇત્યાદિની અદ્ભુતરસભરપૂર આખ્યાયિકાઓ પ્રચલિત કરે તે પણ સમજી શકાય તેવી વાત છે. દયાશ્રયમાં જેને Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૬ રાક્ષસ કહ્યો છે તે જિલરાજ બર્બરક તે પછી એક જ સિકામાં “બાબરો ભૂત” બની જાય છે તે સોમેશ્વર (ઈ.સ. ૧૧૭૯-૧૨૬૨)ની કીતિકોમુદીમાંના નીચેના ઉદ્ધરણ પરથી સ્પષ્ટ થશેઃ "श्मशाने यातुधानेन्द्रं बद्धवा बर्बरकाभिधम् । सिद्धराजेति राजेन्दुयों जज्ञे राजराजिषु ।” २०३८. અથાંત-બર્બરક નામના સ્મશાનમાંના મોટા ભૂતને બાંધીને તે રાજચન્દ્ર રાજાઓની પંક્તિમાં સિદ્ધરાજ' બન્યો.” તામ્રપત્રોમાં સિદ્ધરાજને રાત્રિનું એવું વિશેષણ લગાડાયેલું હોવાથી આ પ્રસંગ બહુ મોટો ગણાતો હોવો જોઈએ. પોતાના વિ. સં. ૧૨૫૬ના ભાદ્રપદ અમાસ વાર મંગળના પાટણના તામ્રપત્રમાં ભીમદેવ બીજે પોતાને “મિનેસિયાન” કહેવરાવે છે. આ પછીનાં પણ કેટલાંક તામ્રપત્રોમાં આ બિરુદ મળે છે. આથી સમજાય છે કે માત્ર ૫૦ જ વર્ષમાં જયસિંહ સિદ્ધરાજ ચૌલુક્યવંશનો અનુકરણીય આદર્શ રાજા ગણાવા લાગેલો. આ કાવ્યમાં વર્ણવેલા મૂળરાજના સૌરાષ્ટ્રવિજય તથા તેના જ શાસનકાળ દરમ્યાન ચામુંડરાજના લાટવિજયને રવ દુર્ગાશંકર શાસ્ત્રી કપિત માને છે; પરંતુ સ્વ. રાચુ મોદીએ આનો સચોટ ઉત્તર આપેલો છે. મૂળરાજ પછી ભીમદેવ સુધી કોઈએ સૌરાષ્ટ્ર પર આક્રમણ કર્યાનું કથન મળતું નથી; જ્યારે સોમનાથની ભાવબહસ્પતિની પ્રશસ્તિમાં પણ ભીમદેવે સોમનાથનું પથ્થરનું મન્દિર બંધાવ્યાનો સ્પષ્ટ ઉલલેખ છે, તે આપણે આગળ જોઈ ગયા. તે જ રીતે ચામુણ્યરાજથી કર્ણદેવ સુધીના કોઈ ગુર્જરેશ્વરે લાટ ત્યાનું સૂચન ક્યાંય મળતું નથી; જ્યારે કર્ણનું વિ. સં. ૧૧૩૧નું નવસારીનું તામ્રપત્ર તેની લાટ પરની સત્તાનું સૂચક છે. આથી આ પ્રસંગોને સત્ય માનવા પડે છે. ઉપર ઉતારેલા સંસ્કૃત દ્વયાશ્રયના છેલ્લા શ્લોકમાં ઋષિઓ ચૌલુક્યચૂડામણિ રાજા કુમારપાલને પૃથ્વીને અનૃણી કરી રવીય સંવત્સર-પ્રવર્તન માટે આદેશ – આશીર્વાદ આપે છે. વિકિસ્ત્રાપુરથતિના ૧૦મા પર્વના ૧૨મા સર્ગના ૭૭મા શ્લોકમાં શ્રી મહાવીરસ્વામીના મુખમાં મૂકેલી ભવિષ્યવાણી પણ કહે છે કે : “दायं दायं द्रविणानि विरचय्याऽनृणं जगत् । अङ्कयिष्यति मेदिन्यां स संवत्सरमात्मनः ॥" અર્થાત - “તે (કુમારપાલ) દ્રવ્ય આપી આપીને જગતને ઋણમુક્ત કરીને પૃથ્વી ઉપર નિજ સંવત્સર આંકશે – પ્રવતવશે.” “શ્રી જૈન સત્યપ્રકાશ”ના ૯૩મા અંકમાં મુનિશ્રી પુણ્યવિજયજીએ શત્રુંજયની ચૌમુખજીની દૂકના મૂળ મન્દિરના દરવાજાની ડાબી બાજુની એક ધાતુપ્રતિમા ઉપરનો લેખ પ્રકાશિત કરેલો, જેમાં “શ્રીલિમકુમાર સં : ” આપેલી છે. હેમચન્દ્રાચાર્યના પોતાના “મિષાનજિલ્લાના” કોશમાં એક સ્થળે (૬. ૧૭૧) સંવત્'નો અર્થ સમજાવતાં કહ્યું છે કેઃ " यथा विक्रमसंवत् सिद्धहेमकुमारसंवत्" આથી વિશેષ પ્રકાશ આ વિષય પર અદ્યપર્યત પડ્યો નથી, પરંતુ કુમારપાલની નૂતન સંવત્સર પ્રવર્તાવવાની તીવ્ર ઇચ્છા ફળીભૂત થઈ હશે, જેને પરિણામે સિદ્ધરાજ, હેમચન્દ્રાચાર્ય અને કુમારપાલ એ ત્રણે વિભૂતિઓનાં નામથી અંકિત આ સંવત્સર શરૂ થયો હશે. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૭ ♦ ટૂંકમાં, યાયમાં આવેલો કોઈ ઐતિહાસિક પ્રસંગ ઉપાવી કાઢેલો – કલ્પિત નથી. ઊલટું, અન્ય પ્રબન્ધો ઉપરાન્ત પુષ્કળ ઉત્કીર્ણ લેખો અને તામ્રપત્રોએ હેમચન્દ્રે આપેલી હકીકતને પુષ્ટિ આપેલી છે. ચૌલુકયોની યાશ્રયમાંની વંશાવલિ પણ આ લેખોમાં તે જ ક્રમમાં જોવા મળે છે. અને ઐતિહાસિક પ્રસંગોનો નિર્દેશ યાત્રયકાવ્યમાં નથી કરાયો, તેમાંના કેટલાક માટે કદાચ મૌખિક આખ્યાયિકાઓ ઉપરાન્ત વિશેષ સબળ પુરાવા મળ્યા ન પણ હોય. ને તેમજ હોય, તો તે કવિની સાગત્તિ જ સૂચવે છે. સ્વ॰ રા॰ ચુ॰ મોદી કહે છે તેમ, શ્રી હેમાચાર્યે આ કાવ્યમાં પુરાવા વિનાની વિગતો ત્યજીને તથા કેવળ આખ્યાયિકાઓને વિના સંશોધને નહિ સ્વીકારતાં, એક સાચા ઇતિહાસકારને શોભે તેમ, યોગ્ય તુલનાપૂર્વક ઐતિહાસિક પ્રસંગોને સંગ્રહ્યા છે. દા॰ ત॰ માળવા પર ચઢેલા વલ્લભરાજને માર્ગમાં જ મૃત્યુ પામેલો ન વર્ણવતાં માળવા પર વિજય મેળવી પાછો આવતો ચીતરી કવિ કાવ્યને ઓપ પણ આપી શકત, પરન્તુ હકીકતને ફેરવવાનું આ સંયમી આચાર્યને રુચ્યું નથી. જ્યારે જયસિંહસૂરિ(ઈ. સ. ૧૩૬૬)એ તો પોતાના કુમારપા~તિમાં ચામુણ્ડરાજના હાથે માલવપતિ સિન્ધુરાજને હણાવ્યો છે ! આવી ઝીણી બાબતો પણ ત્યાશ્રયમહાાવ્યનું મહત્ત્વ વધારે છે. તત્કાલીન ગુજરાતની સમાજસ્થિતિ તથા સંસ્કૃતિ ઉપર પણ આ કાવ્ય ધણો પ્રકાશ પાડે છે, જે એક સ્વતંત્ર નિબન્ધ માગી લે છે. આ સર્વતોમુખી અવલોકનથી પ્રતીતિ થાય છે કે ભારતના સાંસ્કૃતિક અને રાજકીય ઇતિહાસના સાહિત્યમાં આ કાવ્યનું સ્થાન બહુ ઊંચું રહેશે. ખરેખર, ગુજરાતના બે સૌથી વધારે પ્રભાવશાળી મહારાન્તધિરાજો ઉપર પરમ પ્રભાવ પાડનાર આચાર્ય શ્રીહેમચન્દ્રને ગુજરાતના પ્રથમ ઇતિહાસકાર ગણવામાં અને દયાશ્રયમદ્વાકાવ્યને ગુજરાતના પ્રથમ ઇતિહાસકાવ્ય તરીકે નવાજવામાં લેશ પણ અર્તશયોક્તિ નથી. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. Bandha: The inflow of the karma leads to Bandha (Bondage). Acarya Kunda Kunda points out that impure self attracts the karmic matter on account of yoga, desire, hate and delusion etc. Bandha is the association of karmic matters with soul. Bandha may be considered as of two types: 1) Dravya Bandha and 2) Bhava Bandha. Dravya Bandha is the bondage that is due to the influx of karmic particles into the soul. Bhāva Bandha refers to the psychic states that leads to the involvement in this wheel of life.2 Jaina text3 enumerates the 5 causes of bondage: BANDHA-KARMA-MOKṢA AND DIVINITY IN JAINISM 2. * Dr. Mukul Raj Mehta* mithyadarśana-perversity of vision or wrong faith. avirati-lack of renunciation. 1. Mithyatva- It consists in reverse or contrary belief and lack of metaphysical knowledge. Due to wrong belief, a person considers non-living as living matter and exposes his belief in pseudo deities (ku-deva), pseudo-religion (ku-dharma), pseudo saints (ku-guru) and public follies (loka-mūdhatā). Avirati-Vowlessness means lack of control over five senses and pramada- spiritual inertia or carelessness. kasaya- passions, and yoga-psyche-physical vibrations. Research Scientist 'B', Deptt. of Philosophy & Religion, Banaras Hindu University, Varanasi-211 055 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ 3. mind. One wants to enjoy sensual pleasures and has no inclination towards renunciation. Pramāda- Negligence is the lack of enthusiasm towards the spiritual progress. Kaśāya-Passions are the root cause of misery, pain and agony to Jiva. They are cause of transmigration. Sayyambhava Śūri said 'The uncontrolled passions keep the root of transmigration fresh and due to them it cannot dry.4 5. Yoga- The vibrations caused in ātmapradeśas, due to mental, vocal and bodily movements, is called a yoga. According to Jaina philosophy, Jīva can attain nirvāṇa (salvation) only after the destruction of karmic filth with the yogic practice movements. Bandha is of four kinds, the prakrti Bandha (nature), the sthiti Bandha (duration), the anubhāga Bandha (intensity) and the pradeśa Bandha (mass). The praksti and pradeśa bondage (Bandha) result from the activities of thought, speech and body, while the sthiti and anubhāga Bondage result from the conditions of attachment and aversion. Bandha depends upon asrava which is the cause. Thus, āsrava and bandha are correlated as cause and effect. We have seen that the karma is the hindrance in the path of liberation. Now we shall discuss about karma. Karma : Impediments to Divinity The word karma is derived from the root Kļ which means to act, to make, to do, a deed or action. Any action, either physical or mental is called karma. Dr. H.V. Glasenapp observes that karma does not here mean "deed, work" nor visible mystical force (adrsta), but a complexus of very fine matter, imperceptible to the senses, which enters into the soul and causes great changes in it. The karma, then, is some thing material (karmapudgalam), which produces in the soul certain conditions, even as a medical pill which, when introduced into the body, produces therein manifold effects.' Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० Karma in Hinduism & Buddhism Karma has an important place even in Hinduism. The word karma occurs in Rgveda at many places; in some passages it means "exploits"; in some other passages it means religious work, such as Yajñā, sacrifice. In the Atharva Veda, karma refers to good works (Sukstānī). Further, the word karma in the Satapatha Brahmana seems to refer to the idea of retribution. We observe in Chandogya Upanisad that the persons having good karma will get good birth, comfortable life and pleasure and those possessing bad karmas will get evil birth discomfortable life and misery. 10 Karma survives after the death. 11 In Buddhism the concept of karma was advanced to explain the origin and causes of suffering. The beings are described as inheritors of their karma; karma makes their destiny; karma is their friend and karma is their shelter. 12 Further we observe in the Visuddhimagga, "A mere phenomenon it is a thing conditioned which rises in the following existence. But not from previous life does is transmigrate there, and yet it cannot rise without a previous cause."13 Karina is Jainism The karmic matter envelops the soul but does not destroy the real nature of the soul i.e. Divinity. The karmic bondage is subtle, yet material in nature. These particles vitiate the purity of soul which is called karmavargana. Jīva attracts karma - varganā by the activity namely body, speech and mind. The karmic encrustation with the jīva is due to the activities and these activities are inturn specified by the karmic encrustations. Thus, the karmic particles of encrustations and the yoga of the jīva are mutually interactive. Karma and the tendency to activity are intimately related with each other with the mutually casual relation.14 The law of karma is based upon the principle of casuality. It is worth while to note the observations of C.R. Jain. 15 "The law which regulates the action of karmas is based upon the Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ principle of cause and effect, so that the saying - 'as one sows as must he reap', presents the whole doctrine in a nutshell. Every action, whether mental or physical, is a sowing of the 'seed' or in the technical language of the Hindu Philosophy, an engendering of karma. In the act of sowing the seed, or engendering the karma, the soul has the choice of acting or refraining from action, but when once the seed is sown or karma engendered, its freedom is replaced by an inevitable liability to bear its consequences. The harvest which is sown must be reaped, gathered and assimilated in its unabated fullness. That is what constitutes the bondage of the soul. Karma, therefore, is a kind of force which compels the soul to bear the consequences of its right or wrong actions, and this force originates in the very action itself which is performed by the soul and the very moment of its performance." The Dravya karma is nothing but the particles of karmic matter. It is material in nature and enters into the self. The psychical karma is mostly the thought activity of mind. The psychical effects and states produced by the association of physical karma are known as psychical. They are mutually interactive from beginningless time. 16 The physical karma (Dravya karma) and the psychical karma (Bhāva karma) are mutually related to each other as cause and effects. 17 The Relation of Divine and Karma The Divine soul is immaterial and karma is material in nature. The empirical soul is involved in the wheel of transmigration from the beginningless time. In the Karma grantha, we observe "As heat can unite with iron and water with milk, so karma unites with the self." 18 In Tattvärthasāra it is stated that the mundane self is obscured by karmic matter from the beginningless time, and on accout of its bondage with the karmas, the self is united like the gold and silver when melted together, to become one mixture. 19 Though the soul is pure and potentially Divine yet it becomes subject to the karmic matters. Karma covers the self as the cloud covers the light of the sun. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ Jīva in bondage get the encrustation of karma more and more dhe to mohaniya karma.20 Mohanīya karma is a karma which hinders the right belief. In Bhagavati Sūtra, we observe that jīva suffers and misery is involved to suffer more misery, but the jīva free from attachment aversion and misery does not experience misery. The sorrows afflict those jīvas which suffer from sorrow, through passion and the increase of misery. The souls that are free from misery do not attract sorrow.21 Technology of karma Karma in the soul can be contemplated from four points of view:22 1. According to the manner of their effect (praksti), 2. According to the duration of their effect (Sthiti), 3. According to the intensity of their effect (rasa), and 4. According to their quantity, i.e. according to the number of their pradeśas. Nature (manner) of karma23 (prakrti): There are 8 fundamental (mulprakrti) karmas. Jñānāvāraņiya - karma, the karma which obscures knowledge. 2. Darśanāvaraņiya- karma, the karma which obscures the cognition or intuition. Vedaniya - karma, the karma which produces the feeling of joy and grief 4. Mohaniya - karma, the karma which obstructs belief and conduct. Āyus-karma, the karma which determines the duration of life Nāma- karma, the karma which gives the various favours of individuality. 7. Gotra-karma, the karma which destines family surrounding i 8. Antarāya- karma, the karma which hinders the jīva in his Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ capability of resolution and enjoyment. Out of these eight karmas - Jñānāvaraṇīya, Darśanavaraṇīya, Mohaniya and Antaraya karma are the ghati karmas, because they obscure the inherent nature and capability of the soul.24 Vedaniya, Ayu, Nāma and Gotra karmas are aghāti karmas25 because they neither affect the original capacity of the soul nor do they obscure the capacity. As soon as the four ghāti karmas are destroyed one can attain the stage of Arihant Divinity 26 Siddhahood is attained only after destructing both the Ghati and Aghāti karmas, where upon all the karmas are annihilated.27 Ghäti karmas are of two kinds 28 viz, Sarvaghāti karma (completely obscuring karma) and Desaghți karma (partially obscuring karma). The aforesaid mūlprakrtis can be further divided into 158 Uttaraprakṛtis in Sattā (Existance).29 Jñānāvārṇiya- Karma - Divided into 5 types:30 Mati - jñānāvarna Karma which causes the obscuration of knowledge transmitted through the senses I. 1. 2. 3. 4. 5. II. 1. १६३ Sruta- jñānāvarna krma which produces the obscuration of knowledge acquired by scripture, etc. Avadhi- jñānāvaraṇa karma which hinders transcendental knowledge of material things Manaḥparyaya- jñānāvaraṇa karma which transcendental knowledge of the thoughts of others Kevala- jñānavaraṇa karma which obscures the omniscience inherent in the jiva by natural disposition hinders Darśanavaraṇīya Karma: It is divided into nine types31 corresponding to the four types of perception and five kinds of sleep, viz. Cakṣudarśanavaraṇīya which covers the eye perception. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ o 2. Acakşudarśanavaranīya which veils non-eye intuition wie 3. Avadhidarśanavaranīya which produces the hindrance of transcendental undifferentiated cognition of material things. Kevala darśanavaranīya which covers the pure and perfect intuition. Nidrā produces light and easy sleep. Nidrā-nidrā creates deep slumber with difficulty in awakening. Pracalā causes a sleep while sitting or standing. It is a form of stupor. Pracalā pracalā given intensive sleep while sitting, standing or walking. We may consider this as somnambulistic. Styānarddhi induces deep sleep while walking and doing some superhuman deeds. It may be referred to hypnotic form of sleep. III. Vedaņiya Karma : The Vedanīya karma causes the feeling of pain and pleasure. It has, therefore, two sub-species: 32 1. Sātā- Vedanīya karma which causes a feeling of pleasure. 2. Asātā- Vedaniya karma which causes the feeling of pain. IV. Mohaņiya Karma Mohanīya karmaover powers right faith and conduct.33 It has two main divisions: a) darśana mohaṇīya (faith obscuring) and b) cāritra mohanīya (conduct deluding). 34 a. Darśana- mohanīya is further sub-divided35 into: 1. mithyātva - mohaṇīya (wrong belief) samyaktva - mohanīya (right belief) 3. miśra - mohaṇīya (mixed belief) b. Cãritra-mohaṇīya is further divided into 16 passions 36 (kaśāya), six quasi passions37 (no kaśāyas) and three38 sexs (veda), totalling the number to twenty five which are Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 3. 5. 7. 9. 11. 13. 15. 17. Laughing & joking 19. Pre-judicial disliking 21. 23. 24. 25. V. 1. 2. 3. 4. Intense anger Mild anger Intense pride Mild pride Intense deceit Mild deceit Intense greed Mild greed 2. 2. 4. 6. 8. 10. 12. 14. 16. 18. 20. 22. deva ayus, the celestial ayus. manuṣya-ayus, the human ayus. tiryag-ayus, the animal ayus. naraka - ayus, the infernal ayus. Less intense anger Still milder anger Less intense pride Still milder pride Less intense deceit Still milder deceit Less intense greed Still milder greed Pre-judicial liking Sorrow (soka) Disgust (jugupsa) Fear (bhaya) The male sex desire (puruśaveda) The female sex desire (strveda) The nueter sex desire (napumsakaveda) Ayus-Karma: It determines the age of an individual jīva in the four states of existence. It is of four types: 39 VI. Nama Karma It is divided into one hundred three Uttarprakṛtis40 comprised in four groups: 1. 2. 3. Pinda - prakṛtis (collective types) Pratyeka - prakṛtis (individual types) Traśadāśaka (self-movable bodies) Sthāvara - dasaka (immovable bodies). VII. Gotra Karma: It is of two types:41 4. 1. १६५ The karma that bestows the individual with superior family surroundings; The karma that determines the individual of low family surroundings. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ VIII. Antarāya-Karma : The antarāya- karma hinders the energy (Vīrya) of the Jīva in a five fold42 manner. 1. Dāna - antarāya karma hinders dispensing alms. Lâbha - antarāya karma hinders receiving gain or profit. 3. Bhoga - antarāya karma hinders the enjoyment of something which can only be taken once such as eating and drinking. Upabhoga - antarāya karma hinders the enjoyment of something which can be repeatedly used such as a dwelling, clothing, women. 5. Virya - antaraya karma hinders the will power. When it operates, even a strong, full grown man is incapable of bending a blade of grass. C. Mokșa (Supreme Divinity) When all the Karmic particles are removed and the soul is free from Karma, it moves upward to the end of the Lokākāsa and remains in its pure form in the siddhaloka, at the end of the Lokākāśa. It (soul) does not move further because there is the absence of the Dharmāstikāya in Aloka ākāśa. This state of perfection the end of Lokākāś is called Mokşa. The destruction of the inimical forces (karmas) lead to acquisitions of all its Divine natural powers. 43 That modification of soul wich is the cause of the total destruction of karmas is known as Bhāva- Mokșa and the actual separation of the karmic matter from the soul is called Dravya-Mokşa. After attaining this stage, the soul is never bound again.44 Umāswāti (Umāswānny) observes that a self attains Kevala Jñana (Omniscience) when first its Mohanīya and then its Jñāna and Darśana Avaranīyas and the Antarāya karmas (the Ghāti karmas) are destroyed. After attaining Kevala Jñāna, the cause producing bondage being absent and Nirjarā being present, a person becomes free from the remaining karmas, viz. Vedanīya, Āyu, Nāma, and Gotra karmas, and thus being Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ void of all kinds of karma it attains liberation, the Divnity.45 The efforts for the attainment of Moksa are possible only for human beings in the karmabhumi. Even the Gods in heaven have to be reborn as human beings, if they have to strive for the attainment of Mokşa. The Jaina conception of Mokșa does not obliterate the individuality of each soul. It is neither merged nor is identical with anything higher than itself. Its individuality is not lost. There is a permanent personality of the soul even in the state of perfection, Divinity. It is attained through Right Intuition, Right Knowledge and Right Conduct (the Three Jewels of Jainism). A soul in Mokșa is devoid of rebirth, attachment, aversion, pleasure, pain, misery, sufferings etc., and attains eternal bliss which is ultimate Divinity. Kéferences 1. Samayasāra 117. 2. Dravyasamgraha 32. 3. Sthānānga Sūtra 5.2.109; Saṁavāyānga Sūtra, 5; Tattvartha Sūtra, VIII.1. Daśavaikālika, 8. 5. Dravyasamgraha 33. Ibid. Glassenapp, H.V., Doctrine of karman in Jaina philosophy, p.3. Atharvaveda XVIII.3.71 9. Satapatha Brāhmana, XII.9.1.1. 10. Chāndogya Upanişad, V.10.7-8 11. Bịhadāranyka Upanişad, IV.4.3 12. Majhima Nikāya (PTS edition), Vol. III, p. 203. #3. Visuddhimagga, XVII.161. 14. Karma praksti, Nemichandracaryaviracita 6. o Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ 15. C.R. Jain, The key of knowledge, pp. 876-77. 16. Acarya Devendramūni, Dharma our Dharśana, p. 170. 17. Aştasahasri commentry on Aptamīmāmsā, p. 51. 18. Karmagrantha, Vol. I, p. 2. Amrtacentra's Tattvarthasara, 16-18 Pannavana Sütta, 23.1.292 19. 20. 21. Bhagvatī Sūtra, 7.1.266. 22. Glasenapp, H.V., Doctrine of karma in Jaina Philosophy. p. 5. Karmagrantha 1.3; Uttaradhayayana Sūtra XXXIII.2-3: Tattvärtha Sutra, 8.5.p. 303. 23. 24. Pancädhyayi, 2,998; Gommatṣāra- Karmakanda 9. 25. Pancadhyayi, 2,999; Gommataṣara- Karmakända 9. 26. Dravyasamgraha 50. 27. Tattvärtha Sutra, 10.2 & 3; Dravyasamgraha51; Sarvarthasiddhi. 10.2 28. Sthānanga Sūtra, 2.4 29. Karma Granth, 1-2. 30. Utträdhyayana Sūtra XXXIII.4: Sthänänga Sūtra, 5.3.218: Tattvärtha Sutra, 1.9 & 8.7; Nandi Sūtra- jñana 1. 31. Sthänänga Sutra, 9.14; Uttaradhyayana Sūtra XXXIII 5 & 6: Tattvärtha Sutra, 8.8; Karmagrantha, 1.10: Sarvarthasiddhi, 8.7. 32. Uttaradhyayana Sūtra, XXXVIII.7; GommatasäraKarmakāṇda, 1.12 & 13, p. 65,66; Tattvartha Sūtra, 8.9. 33. Tattvärtha Sutra, 8.10; Sarvarthasiddhi, 8.9; Karma Kāṇda. 14.22. 34. Uttaradhyayana Sūtra, XXXIII 8, Karma Kända, 1.13. 35. Pannavanam Süttam Part III; karmabandha 23: Karma kanda, 1.14. 36. Uttradhyayana Sūtra, XXXIII.11.p. 411; Karma kända. 1.17. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ (passions are anger, pride, deceit, greed, Each of them has 4 different levels of intensity. 1. anantānubandhi (intense) 2. apratyākhyānāvarana (less intense), 3. pratyākhyānavarana (mild), 4. Samjvalana (still milder). 37. Karma grantha, 1.23 38. Ibid 39. Karma grantha 1.23, Tattvārtha Sūtra, 8.11; Gommatäsära karmakānda, 11. 40. Karmagrantha, 1,23 to 51; Tattvārtha Sūtra 8.12, Sthānānga Sūtra 2.4; Gommatasara- karma kända 22. 41. Karmagrantha, 1.52, Tattvārtha Sūtra, 8.13. 42. Karmagrantha 1.52; Tattvartha Sūtra, 8.14. 43. Jain, C.R., Confluence of opposite. p. 95. 44. Dravyasamgraha, 37. 45. Tattvärtha Sūtra, 1-3,p. 365; Dravyasamgraha 44, p. 107. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यापीठ के परिसर में प्रो० सागरमल जी जैन के जुलाई १९९७ई० में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक पद से सेवानिवृत्त होने के बाद लगभग २ वर्ष तक संस्थान में निदेशक का पद रिक्त था। डॉ० सागरमल जी इस अवधि में संस्था में समय-समय पर पधारकर यहां की गतिविधियों को संचालित रखने में अपना योगदान अवश्य देते रहे। उनके पश्चात् डॉ० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' प्रोफेसर एवं निदेशक पद पर नियुक्त हुए और उन्होंने १६ जुलाई १९९९ से अपना कार्यभार ग्रहण कर लिया। ___यह सचित करते हए हर्ष हो रहा है कि उनके आगमन से विद्यापीठ में एक नई चेतना आयी और अनेक गतिविधियाँ प्रारम्भ हुईं, जिनका विवरण इस प्रकार है १. हंसराज नरोत्तम व्याख्यानमाला : हंसराज नरोत्तम पारमार्थिक फण्ड के अनुदान से संचालित हंसराज नरोत्तम व्याख्यानमाला जुलाई माह से पुन: प्रारम्भ की गयी। इसके अन्तर्गत साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक व्याख्यानमालायें संयोजित करने का निश्चय किया गया। साप्ताहिक व्याख्यानमालाओं में संस्थान के ही अध्यापकों और शोध-छात्रों द्वारा प्रत्येक सप्ताह एक अथवा दो शोधपत्रों को प्रस्तुत करने का निश्चय किया गया। शेष पाक्षिक और मासिक व्याख्यानमाला के अन्तर्गत विविध विषयों पर सम्मानित विद्वानों द्वारा व्याख्यान आयोजित करने का उपक्रम निर्धारित हुआ। (१) साप्ताहिक व्याख्यानमाला : इसके अन्तर्गत २० अगस्त को Jaina Kosa Literature नामक विषय पर विद्यापीठ के वरिष्ठ प्रवक्ता डॉ० अशोक कुमार सिंह ने अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया। सितम्बर माह में तीन व्याख्यान प्रस्तुत किये गये, जिनका विवरण इस प्रकार है - २ सितम्बर; विषय- सादड़ी से प्राप्त पार्श्वनाथ की पञ्चतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख में उल्लिखित हेमतिलकसूरि कौन?; वक्ता - डॉ० शिव प्रसाद १५ सितम्बर; विषय- जैन साहित्य में निक्षेप सिद्धान्त; वक्ता- डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय। २४ सितम्बर; विषय-जैनपरम्परा में प्राप्त अनेक संधान काव्य वक्ता- डॉ० अशोक कुमार सिंह अक्टूबर माह में भी तीन व्याख्यान आयोजित किये गये -- ८ अक्टूबर; विषय- जैन कथा साहित्य के भेद-प्रभेद, वक्तृ - सुश्री अर्चना श्रीवास्तव Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ २५ अक्टूबर; विषय- स्थानकवासी जैन समाज के उद्भव की पृष्ठभूमिः वक्ता- डॉ० विजयकुमार जैन छन्द परम्परा और जैन छन्द साहित्य; वक्तृ-सुश्री मधुलिका सिंह २९ अक्टूबर; विषय- आचार्य तुलसी- हिन्दी गद्य साहित्य : एक मूल्यांकन; वक्तृ-- डॉ० सुधा जैन तित्थोगाली में भाषा वैविध्य; वक्ता- श्री अतुल कुमार प्रसाद सिंह २४ दिसम्बर; विषय- जैन चम्पूकाव्य, वक्ता- डॉ० मणिनाथ मिश्र (२) पाक्षिक व्याख्यानमाला : इसके अन्तर्गत अगस्त और अक्टूबर माह में एक-एक व्याख्यान प्रस्तुत किये गये - २७ अगस्त; विषय- जैनधर्म के चतुर्विध संघों की पारस्परिक सहभागिता; वक्ता- डॉ० अरुण प्रताप सिंह ४ अक्टूबर; विषय- कन्नड़ जैन साहित्य; वक्ता- प्रो० एस०डी० वसन्तराज ११ अक्टूबर; विषय- मानव जीवन अशान्त क्यों; वक्तृ– श्रमणी उज्जवल प्रज्ञा जी। (३) मासिक व्याख्यानमाला : इसके अन्तर्गत निम्नलिखित व्याख्यान आयोजित किये गये - ३० अगस्त; विषय- संस्कृत साहित्य में कला के तत्त्व; वक्ता- प्रो० आनन्दकृष्ण २१ सितम्बर; विषय- प्रारम्भिक जैन मूर्तियाँ; वक्ता- प्रो० रमेश चन्द्र शर्मा ६ अक्टूबर; विषय- वैदिक साहित्य में जैन तत्त्व; वक्ता- प्रो० सत्यपाल नारंग। ४ नवम्बर; विषय- जैन दर्शन और उसकी २१वीं शती में उपादेयता वक्ता- प्रो०एस०आर०भट्ट ३०नवम्बर; विषय - पूर्वोत्तर भारत में प्रारम्भिक जैन धर्म का इतिहास, वक्ता- प्रो०बी०एन० मुकर्जी . पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय से सम्बद्धता की प्रक्रिया प्रारम्भ पार्श्वनाथ विद्यापीठ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शोधकार्य हेतु सम्बद्ध है जिसके अन्तर्गत केवल वहीं के छात्र ही यहां शोधकार्य कर सकते हैं। इस बाधा को दूर करने Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ के लिये संस्थान ने पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, जौनपुर से मान्यता प्राप्त करने के लिये आवेदनपत्र प्रस्तुत किया है। विश्वास है, यथाशीघ्र इसके लिये अनुमति प्राप्त हो जायेगी। जैसे ही अनुमति प्राप्त होती है, संस्थान कतिपय विषयों में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम भी आयोजित कर सकेगा। - इसी तरह जैन विश्वभारती, लाडनं से भी सम्बद्धता प्राप्त करने के लिये आवेदनपत्र प्रस्तुत किया गया है, परन्तु अभी तक वहाँ से कोई प्रत्युत्तर प्राप्त नहीं हुआ है। अनुदान प्राप्ति हेतु आवेदन संस्थान ने उच्चतर एवं तकनीकी शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश शासन से अपनी शैक्षणिक गतिविधियों को मूर्तरूप देने के लिये अनुदान प्राप्ति हेतु आवेदन प्रस्तुत किया है और इसी प्रकार भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान नामक महत्त्वपूर्ण विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित करने का भी प्रस्ताव भेजा है। अन्य सामाजिक-धार्मिक गतिविधियाँ ४ सितम्बर को संस्थान के निदेशक डॉ० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' का फरीदाबाद में डॉ० सुव्रतमुनि की अध्यक्षता में अध्यात्मवाद पर व्याख्यान हुआ। ८ सितम्बर को उन्होंने नागपुर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य श्री राजयशसूरि जी महाराज से भेंट कर उन्हें संस्थान के प्रगति की जानकारी प्रदान की। ३ अक्टूबर को निदेशक महोदय की अध्यक्षता में श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन शोध संस्थान, वाराणसी द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ दिगम्बर जन्मभूमि मन्दिर परिसर में प्रो० एस०डी० वसन्तराज का द्वितीय व्याख्यान आयोजित किया गया। इसी मन्दिर परिसर में ही वसुनन्दि श्रावकाचार की वाचना के अवसर पर उनका एक व्याख्यान हुआ। ४ और ६ अक्टूबर को विद्यापीठ परिसर में जैन साहित्य और संस्कृति के प्रकाण्ड विद्वान् स्व० डॉ० हीरालाल जैन जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर प्रो० एस०डी० वसन्तराज, पूर्व अध्यक्ष, प्राकृत एवं जैन विद्या विभाग, मैसूर व मद्रास विश्वविद्यालय और प्रो० सत्यपाल नारंग, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय के व्याख्यान हुए।२४ अक्टूबर को निदेशक महोदय ने भगवान् पार्श्वनाथ श्वेताम्बर जन्मभूमि मन्दिर परिसर में आयोजित जैन मिलन की बैठक में भाग लिया और वहाँ के भूमिपूजन समारोह में भी सम्मिलित हुए। २ नवम्बर से ४ नवम्बर तक यहाँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में International Seminar on Buddhism का आयोजन किया गया। संस्थान के निदेशक प्रोफेसर भागचन्द्र जैन को उसकी सलाहकार समिति में भी समायोजित किया Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ गया। डॉ० जैन ने इस संगोष्ठी में The concept of Reality in Jainism and Buddhism विषय पर अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया और एक सत्र की अध्यक्षता भी की। स्नातकोत्तर महाविद्यालय गाजीपुर में पूर्वाञ्चल में उच्च शिक्षा का संकट विषय पर एक सङ्गोष्ठी हुई जिसमें संस्थान के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन और वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ० अशोक कुमार सिंह ने भाग लिया। इसी तरह मैत्री भवन, वाराणसी और इन्दिरा गांधी कला केन्द्र, वाराणसी में प्रो०जैन का भावभीना स्वागत किया गया और वहाँ उनके भाषण भी हुए। प्रो० रिमपोछे की षष्ठी पूर्ति के अवसर पर संस्थान के निदेशक प्रो० जैन ने सारनाथ में आयोजित समारोह में संस्थान की ओर से उनका स्वागत किया। पyषणपर्व के शुभ अवसर पर भेलूपुर एवं रामघाट के श्वेताम्बर जैन मन्दिर परिसर में विद्यापीठ के प्रवक्ता डॉ. विजयकुमार जैन एवं डॉ० सुधा जैन ने अपनी सेवायें अर्पित की और इस अवसर पर आयोजित समस्त कार्यक्रमों में सक्रिय भाग लिया। तेरापंथी समाज, वाराणसी के तत्त्वावधान एवं समणी उज्जवल प्रज्ञा जी के सानिध्य में दिनांक १० एवं ११ अक्टूबर को इन दोनों लोगों ने 'सुखमय जीवन कैसे जीयें' और 'तेरापंथ की उत्पत्ति' पर अपना सारगर्भित व्याख्यान प्रस्तुत किया। अतिथि आगमन- विद्यापीठ में पिछले दिनों हंगरी के मि० फ्रांसिस, डेनमार्क के मि० साइमन, अमेरिका के मि० पॉल आदि विदेशी विद्वानों का पदार्पण हआ। निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' ने उन्हें विद्यापीठ द्वारा जैन विद्या के अध्ययन के क्षेत्र में किये गये योगदान, वर्तमान शैक्षणिक गतिविधियों एवं भावी योजनाओं की विस्तृत जानकारी प्रदान की। श्रीलंका के राजदूत पार्श्वनाथ विद्यापीठ में- विद्यापीठ के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' के आमन्त्रण पर दिनांक २५ नवम्बर को दिन में ११ बजे श्रीलंका के उच्चायुक्त महामहिम श्री मंगलमून सिंघे सपत्नीक पार्श्वनाथ विद्यापीठ पधारे, जहाँ निदेशक महोदय तथा संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों ने उनकी आगवानी की। उच्चायुक्त महोदय ने सर्वप्रथम यहाँ के संग्रहालय का निरीक्षण किया उसके पश्चात् विद्यापीठ के भव्य सभागार में माल्यार्पण, प्रतीक चिह्न तथा नवीन प्रकाशनों को उन्हें भेंटकर सम्मानित किया गया। अपने वक्तव्य में प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' ने माननीय अतिथि महोदय को विद्यापीठ की शैक्षणिक एवं शोधात्मक गतिविधियों की विस्तृत जानकारी दी। उच्चायुक्त महोदय ने यहाँ की गतिविधियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा विद्यापीठ की शोध की परियोजनाओं में श्रीलंका सरकार के सहयोग का प्रस्ताव भी रखा। इस अवसर पर सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री क्रांतिकुमार जी, उनकी धर्मपत्नी, श्री श्वेताम्बर पार्श्वनाथ जन्मभूमि मन्दिर के अध्यक्ष कुंवर विजयानन्द सिंह आदि भी उपस्थित थे। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ कार्यक्रम का संचालन विद्यापीठ के वरिष्ठ प्रवक्ता डॉ० अशोक कुमार सिंह ने किया और अन्त में कुंवर विजयानन्द जी ने श्री एवं श्रीमती मनसिंघे के प्रति आभार प्रकट किया। दिसम्बर माह शैक्षणिक गतिविधियों से भरा रहा। प्रारम्भ में ५ से ७ दिसम्बर तक भारत-चीन सम्बन्धों पर संस्थान परिसर में एक त्रिदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सङ्गोष्ठी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग और पार्श्वनाथ विद्यापीठ के संयुक्त तत्त्वावधान में हुई। इस सङ्गोष्ठी में प्रो० जार्ज मैक्लीन के नेतृत्त्व में ११ चीनी विद्वानों का प्रतिनिधि मण्डल यहाँ आया और स्थानीय विद्वानों के साथ सांस्कृतिक सम्बन्धों पर उसने गहन विचार-विमर्श किया। सङ्गोष्ठी के प्रथम दिन लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर किरण कुमार थापलियाल; काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व कला सङ्कायाध्यक्ष प्रो० एन०एस०रमन तथा चीन के प्रो० ल्यू फेलांग ने अपने शोधपत्र पढ़े। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन विभागाध्यक्ष प्रो० रेवती रमण पाण्डेय ने स्वागत भाषण किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ० अशोक कुमार सिंह तथा धन्यवाद ज्ञापन निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन ने किया। इसी तरह दूसरे और तीसरे दिन भी सङ्गोष्ठी में विभिन्न शोधपत्र प्रस्तुत किये गये। इसी शृङ्खला में संस्थान के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन ने भी अपना शोध-पत्र Philosophical Relation between India & China प्रस्तुत किया। चीनी विद्वानों ने संस्थान की समस्त गतिविधियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की और भविष्य में उससे सम्पर्क बनाये रखने की आकांक्षा व्यक्त की। M [ HI aaivities पं० अमृतलाल जी शास्त्री को श्रीफल भेंट करते हुए संस्थान के निदेशक प्रोफेसर भागचन्द्र जैन 'भास्कर' एवं समीपस्थ डॉ० वसन्तराजन्, डॉ० उदयचन्द जैन एवं डॉ० कमलेश कुमार जैन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ Sunaulod ASTHAN R - अभिनन्दन का उत्तर देते हुए पण्डित अमृतलाल जी शास्त्री, साथ में बैठे हुए डॉ० वसन्तराजन्, डॉ० उदयचन्द जैन, डॉ० भागचन्द्र जैन आदि इसके पूर्व वाराणसी की नवोदित संस्था ज्ञानप्रवाह भी पार्श्वनाथ विद्यापीठ से जुड़ा। ज्ञानप्रवाह द्वारा आयोजित २१ दिवसीय 'प्राचीन भारतीय लिपि शिक्षण शिविर' दिनांक २४ नवम्बर से प्रारम्भ हुआ जो १२ दिसम्बर तक चला। इसमें संस्थान के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन, वरिष्ठ प्रवक्ता डॉ० अशोक कुमार सिंह, डॉ० शिवप्रसाद एवं शोधछात्रों— श्री अतुल कुमार प्रसाद सिंह, सुश्री मधुलिका सिंह, सुश्री सत्यभामा सिंह और गीता पाण्डेय ने भाग लिया। मैसूर, चेन्नई आदि स्थानों से पधारे शिविरार्थियों के आवास-निवास आदि की व्यवस्था पार्श्वनाथ विद्यापीठ में ही रही। इसी माह वाराणसी में १६वें अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन की चहल-पहल रही। आचार्यकुल के सचिव श्री शरद कुमार साधक इसके संयोजकों में एक थे और नगर की विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं का भी उन्हें भरपूर सहयोग रहा। इसी क्रम में पार्श्वनाथ विद्यापीठ भी पीछे नहीं रहा। दिनांक २१ दिसम्बर को सायंकाल सम्मेलन के प्रतिनिधियों के भेंट का भी कार्यक्रम संस्थान में रखा गया। संस्थान के निदेशक डॉ० जैन का एक शोधपत्र The Story of Ram in Jaina Tradition भी पढ़ा गया जिस पर अनेक विद्वानों ने गम्भीर जिज्ञासायें प्रस्तुत की। इसी माह संस्थान के निदेशक प्रो० जैन इन्दौर और अहमदाबाद भी गये जहाँ उन्होंने पार्श्वनाथ विद्यापीठ से अन्य जैन संस्थानों को सक्रिय रूप से जोड़ने का प्रयास किया। Naveen Self Devlope Institute अहमदाबाद ने उससे सम्बन्ध स्थापित किया और इन्दौर में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के स्वतन्त्र परिसर के रूप में गतिविधियों के संचालन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ Com 3 ) नवीन प्रकाशन पिछले दो वर्षों से संस्थान में कोई निदेशक न होने से प्रकाशन की गति कुछ मन्द हो गयी थी जो निदेशक महोदय के आने से पुन: गतिमान हो गयी। अब तक निम्नलिखित ग्रन्थ मुद्रित हो चुके हैं१. तीर्थङ्कर महावीर और उनके दशधर्म- प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' २. जिनवाणी के मोती - डॉ० दुलीचन्द जैन ३. अष्टकप्रकरण (संस्कृत) – सम्पा० डॉ० अशोक कुमार सिंह ४. अनेकान्तवाद (१९९३ ई० में अहमदाबाद में आयोजित अनेकान्तवाद सङ्गोष्ठी में पठित निबन्धों का संग्रह), सम्पा०-प्रो० सागरमल जैन एवं डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी (सिद्धान्त और व्यवहार) प्रो० सागरमल जैन ६. वसुनन्दि श्रावकाचार - सम्पा०-प्रो० भागचन्द्र जैन एवं व्याख्याकार मुनिश्री सुनील सागर श्रावकाचार और सामाजिक सन्तुलन-लेखक-प्रो० भागचन्द्र जैन ‘भास्कर' वर्तमान में निम्नलिखित ग्रन्थ मुद्रण की प्रक्रिया में हैंविंशतिविंशिका, सम्पा०- प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' एवं डॉ० कमलेश कुमार जैन २. अलंकारदर्पण (प्राकृत) – सम्पा० +अनु०- प्रो० भागचन्द्र जैन ‘भास्कर' एवं प्रो० सुरेशचन्द्र पाण्डेय ३. समाधिमरण : एक अवधारणा - डॉ० रज्जन कुमार जैन एवं बौद्ध योग का तुलनात्मक अध्ययन - डॉ० सुधा जैन जैन एवं हिन्दू स्रोतों के आधार पर द्रौपदी कथानक - डॉ० शीला सिंह ६. Jainism & Buddhism - Prof. Bhag Chandra Jain ७. Jain Bible - Prof. Bhag Chandra Jain Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् सर्वधर्म अहिंसा सम्मेलन सम्पन्न नई दिल्ली २ अक्टूबर -- श्री जिनकुशलसूरि जैन छोटी दादावाड़ी, साउथ एक्सटेंशन, नई दिल्ली में गांधी जयन्ती के अवसर पर खरतरगच्छ के प्रभावक मुनि श्रीमणिप्रभसागर जी के सानिध्य में सर्वधर्म अहिंसा सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें जैन समाज के सभी सम्प्रदायों के सन्तों के अलावा बौद्ध, सिक्ख, सनातन, मुस्लिम और ईसाई धर्म के धर्मगुरुओं ने भाग लिया। इस अवसर पर ४ प्रस्ताव पेश किये गये जिन्हें सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। साथ ही उन्हें कार्यान्वित करने के लिये शीघ्र ही एक संयुक्त बैठक करने का भी निर्णय लिया गया। इस सम्मेलन में बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे। सिद्धान्ताचार्य पं. फूलवन्द्र शास्त्री स्मृति व्याख्यानमाला सम्पन्न वाराणसी २-३ अक्टूबर : श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन शोध संस्थान, नरिया, वाराणसी के तत्त्वावधान में दिनांक २-३ अक्टूबर १९९९ को सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री स्मृति चतुर्थ व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया। इस अवसर पर मद्रास एवं मैसूर विश्वविद्यालय के प्राकृत एवं जैनविद्या विभाग के पूर्व अध्यक्ष एवं सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० एम०डी० वसन्तराज ने गुरुपरम्परा से प्राप्त जैनागम नामक विषय पर तीन व्याख्यान प्रस्तुत किया, जिनमें से एक की अध्यक्षता पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' ने की। हरिद्वार में मुनिश्री जम्बूविजयजी की पावन निश्रा में पर्युषण पर्व सम्पन्न हरिद्वार ६ अक्टूबर : श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मन्दिर, हरिद्वार में पूज्य मुनिश्री जम्बूविजय जी की पावन सानिध्य में पर्युषणपर्व सोल्लास सम्पन्न हुआ। पर्व के प्रथम तीन दिन मध्याह्न में २.३० से ४.३० तक मुनिश्री ने पञ्चसूत्र तथा पर्व के चौथे से सातवें दिन तक प्रात: व मध्याह्न में श्रीकल्पसूत्र की व्याख्या की। इस अवसर पर देश के विभिन्न स्थानों से पधारे भक्त श्रावक-श्राविकाओं ने विभिन्न धार्मिक क्रिया-कलापों को विधिपूर्वक सम्पन्न किया। यहीं नवम्बर-दिसम्बर में बड़े समारोहपूर्वक जिनमन्दिर प्रतिष्ठा का भी आयोजन हुआ। ३ दिसम्बर को मुनिश्री पावन निश्रा में कु० उषा शाह ने भागवती दीक्षा ग्रहण की। इस अवसर पर सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री वैंकट चैलय्या मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्री महुवा तपागच्छ जैनसंघ द्वारा विद्यापर्व का आयोजन महुवा ९-१० अक्टूबर : तपागच्छीय शासनसम्राट् स्व० श्री विजयनेमिसूरीश्वर जी म.सा० के स्वर्गारोहण की अर्धशताब्दी पर श्रीमहुवा तपागच्छ जैन संघ द्वारा महवा नगर स्थित श्री रतिलाल छगनलाल गांधी जैन उपाश्रय में द्विदिवसीय विद्यापर्व का आयोजन किया गया। इस अवसर पर प्रथम दिन दिनांक ९ अक्टूबर को जैन विद्या तथा प्राचीन भारतीय स्थापत्य और कला के विश्वविख्यात् विद्वान् प्राध्यापक श्री मधुसूदन ढांकी; डॉ० जितेन्द्र बी० शाह; श्री उजमशी कापड़िया; डॉ० कान्तिलाल बी० शाह; डॉ० निरंजन राजगुरु; डॉ० नाथालाल गोहिल आदि ने अपने-अपने शोधपत्रों का वाचन किया। श्रीपप्रचन्द्रजी महाराज की 63वीं जयन्ती सम्पन्न फरीदाबाद १८ अक्टूबर : पूज्य गुरुदेव, उत्तर भारतीय प्रवर्तक, राष्ट्रसन्त भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज का ८३वाँ जयन्ती समारोह पिछले दिनों पूज्य श्री सुव्रत मुनि जी महाराज के पावन सान्निध्य एवं श्री श्वे०स्था० जैन सभा के तत्वावधान में स्थानीय जैन स्थानक में सामाजिक साधना के रूप में मनाया गया। तीर्थंकर ऋषभदेव दिगम्बर जैन विद्वत् महासंघ का प्रथम अधिवेशन सम्पन्न नई दिल्ली २४ अक्टूबर : गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माता जी की प्रेरणा से स्थापित तीर्थङ्कर ऋषभदेव दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् महासंघ का प्रथम अधिवेशन श्री दिगम्बर जैन मन्दिर परिसर, राजाबाजार (शिवाजी स्टेडियम के पीछे) कनाट प्लेस में २४ अक्टूबर १९९९ को दो सत्रों में सम्पन्न हुआ। सूरत में भव्य दीक्षा समारोह सम्पन्न सूरत २४ अक्टूबर : प्रेक्षाध्यानप्रणेता युगप्रधान आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के निर्देशानुसार उनके शिष्यरत्न मुनिश्री सुमेरमल जी के करकमलों से आश्विन पर्णिमा२४ अक्टूबर दिन रविवार को सूरत स्थित प्रस्तावित तेरापंथ भवन में मुमुक्षु श्री अजित संघवी की दीक्षा सम्पन्न हुई। पुष्कर मुनि जी महाराज की ९०वीं जयन्ती सम्पन्न औरंगाबाद २५ अक्टूबर : श्रमणसंघ के तृतीय पट्टधर स्व० आचार्यश्री देवेन्द्रमनि जी म० के शिष्य पं० रमेशमनि शास्त्री, उपप्रवर्तक डॉ० राजेन्द्रमुनि शास्त्री ठाणा ९ एवं महासती श्रीरत्नज्योतिजी ठाणा ३ की पावन सान्निध्य में २४ अक्टूबर Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ कले स्व० पुष्कर मुनि जी महाराज की ९०वीं जयन्ती का आयोजन किया गया। सप्ताहपर्यन्त चलने वाले इस आयोजन में जप, आयम्बिल, नेत्र चिकित्सा शिविर, विकलांग सेवा शिविर, दन्तरोग सेवा शिविर, कवि सम्मेलन, शाकाहार दिवस एवं व्यसनमुक्ति दिवस मनाया गया। अन्तिम दिन २४ अक्टूबर को मुख्य जयन्ती समारोह सम्पन्न हुआ जिसमें कई राजनेता व समाज के गणमान्य जन तथा देश के अनेक भागों से पधारे भक्तों व स्थानीय जैनसमाज के लोगों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। शास्त्रोद्धार-शास्त्र सुरक्षा अभियान समिति द्वारा राजस्थान का दौरा सम्पन्न बीना १ नवम्बर : अनेकान्त ज्ञानमन्दिर, बीना के संस्थापक ब्रह्मचारी श्री संदीप जी 'सरल' के नेतृत्व में शास्त्रोद्धार शास्त्र सुरक्षा अभियान समिति के सदस्यों ने दिनांक २६ अक्टूबर से ३१ अक्टूबर १९९९ तक राजस्थान प्रान्त के विभिन्न स्थानोंसिरोंज, झालावाड़ा, मिश्रौली, केकड़ी, जयपुर, अजमेर एवं टोंक का दौरा किया और वहाँ पाण्डुलिपियों के प्रदर्शन का आयोजन किया। इसी क्रम में श्री भागचन्द्र सोनी जी की नसियाँ, अजमेर की ओर से उन्हें १२०० हस्तलिखित ग्रन्थ भी भेंट किये गये। ज्ञातव्य है कि अनेकान्त ज्ञानमन्दिर, बीना में अब तक साढ़े पाँच हजार हस्तलिखित तथा सात हजार मुद्रित ग्रन्थ संकलित किये जा चुके हैं तथा शोधार्थियों हेतु कम्प्यूटर, फोटो कॉपीयर मशीन एवं भोजन-आवास की भी समुचित व्यवस्था है। जैन विद्या के प्रकाण्ड विद्वान् महोपाध्याय विनयसागर जी का अभिनन्दन जयपुर १४ नवम्बर : जैनधर्म, संस्कृति एवं साहित्य की सेवा में पूर्ण समर्पित महो० विनयसागर जी का भव्य अभिनन्दन समारोह दिनांक १४ नवम्बर १९९९ को जयपुर में आयोजित किया गया। प्राकृतभारती अकादमी, जयपुर तथा श्री जितयशाश्री फाउण्डेशन, कलकत्ता के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित यह समारोह गणिवर्य श्री महिमाप्रभ सागर तथा मुनिद्वय श्री चन्द्रप्रभ सागर व श्री ललितप्रभ सागर की पावन निश्रा में सम्पन्न हुआ जिसमें राजस्थान के मुख्यमन्त्री माननीय श्री अशोक गहलोत मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। अभिनन्दन समारोह के इस अवसर पर विनयसागर जी को उनके जीवन, साहित्य एवं विचारों के समीक्षात्मक अध्ययन सहित एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट किया गया। इस भव्य समारोह में प्रो० एम० ए० ढाँकी, प्रो० सागरमल जैन, डॉ० नागेन्द्र, डॉ० फतेह सिंह, श्री कलानाथ शास्त्री जैसे मूर्धन्य विद्वान् उपस्थित थे। ___ महाशिला-अभिलेख : तेरापंथ इतिहास का एक प्रहरी अजमेर : प्रज्ञा-शिखर चेरिटेबल ट्रस्ट के तत्त्वावधान व आचार्य महाप्रज्ञ के Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० मार्गनिर्देशन में महाशिला-अभिलेख नामक एक योजना तैयार की गयी है जिसके अन्तर्गत अजमेर जिले के टाडगढ़ नामक स्थान पर २६ फुट ऊँचा, ५ फुट चौड़ा और ५ फुट मोटा काले ग्रेनाइट पत्थर का दक्षिण भारतीय मन्दिर शैली में एक कलात्मक स्तम्भ तैयार किया जा रहा है। इस पर हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में तेरापंथ के इतिहास में आचार्य तुलसी के अपूर्व व अनुपम अवदान का अंकन होगा। जैन पाण्डुलिपियों एवं प्रकाशित जैन साहित्य का सूचीकरण भावनगर : सत्श्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर एवं कुन्दकन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा संयुक्त रूप से प्राचीन जैन ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों एवं प्रकाशित जैन साहित्य के सूचीकरण हेतु एक बृहद् परियोजना दिनांक १.१.१९९९ से प्रारम्भ की गयी है। जैन ग्रन्थ भण्डारों में हजारों की संख्या में जैन ग्रन्थ पड़े हुए हैं जो अभी तक अप्रकाशित हैं। अनेक ग्रन्थ भण्डारों की न तो कोई सूची बनी है और न ही उनके रख-रखाव की उचित व्यवस्था ही है। इसी प्रकार विगत एक शताब्दी में बहुत बड़ी संख्या में जैन ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है, परन्तु आज भी कोई ऐसी सूची नहीं बनी है जिससे यह ज्ञात हो सके कि अब तक कुल कितना जैन साहित्य प्रकाशित है। इस कमी को दूर करने के लिये उक्त संस्थाओं ने संयुक्त रूप से जो परियोजना आरम्भ की है, वह निश्चित ही अभिनन्दनीय है। डॉ० हीरालाल जैन - व्यक्तित्व और कृतित्व : राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न अजमेर : २२ नवम्बर – षट्खण्डागम के आद्य सम्पादक, प्राच्य विद्याओं के यशस्वी मनीषी पुण्यश्लोक स्व० डॉ० हीरालाल जैन की जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्त्व पर सराकोद्धारक उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सानिध्य में केशरगंज, अजमेर में तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी, १९-२१ नवम्बर १९९९ ई० सानन्द सम्पन्न हुई। आचार्यश्री नानालाल जी महाराज दिवंगत उदयपुर २८ अक्टूबर : स्थानकवासी सम्प्रदाय के मान्य आचार्य श्री नानालाल जी महाराज का २७ अक्टूबर को उदयपुर में समाधिमरण हो गया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार की ओर से आचार्यश्री को हार्दिक श्रद्धांजलि। दिल्ली: सुप्रसिद्ध उद्योगपति और बल्लभ स्मारक, दिल्ली के मन्त्री सश्रावक श्री राजकुमार जैन की पत्नी श्रीमती त्रिशला जैन का २ जनवरी को आकस्मिक निधन हो गया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार श्रीमती जैन को हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ श्रीपारसमल चण्डालिया पुरस्कृत पुरस्कृत- श्रमणसंघीय महामन्त्री श्री सौभाग्यमुनि 'कुमुद' की प्रेरणा से श्री अखिल भारतीय स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेंस द्वारा आयोजित निबन्ध-प्रतियोगिता में सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री पारसमल जी चण्डालिया को प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया है। वाचक उमास्वाति सुवर्ण चन्द्रक पुरस्कार १९९९ जैनधर्म-साहित्य के विशिष्ट मर्मज्ञ जर्मनी निवासी प्रो० भालचन्द्र त्रिपाठी को प्रदान किया गया। दीक्षा- विचक्षण श्री महाराज की सुशिष्या साध्वी मणिप्रभा श्री जी के सानिध्य में कु० सविता टांक व कु० अमिता टांक की भागवतीदीक्षा दिनांक १ दिसम्बर को शहादा-महाराष्ट्र में सम्पन्न हुई। प्रतिष्ठा- दिनांक १० से १७ फरवरी २००० तक वेणूर-कर्णाटक में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव तथा १८ फरवरी को श्री बाहुबलि महामस्तकाभिषेक समारोह का आयोजन किया गया है। निबन्ध प्रतियोगिता- श्री प्रदीप अजमेरा द्वा० णमोकार महामन्त्र-अर्थ, भावार्थ और महात्म्य, नामक विषय पर ३१.१२.९९ तक हिन्दी भाषा में निबन्ध आमन्त्रित हैं। निबन्ध पुरस्कृत भी किये जायेगें। सम्पर्क सूत्र- श्री प्रदीप अजमेरा, एन ९, ए-११६, एल ५२/४, सोना माता विद्यालय के पास, नया औरंगाबाद ४३१००३ (महाराष्ट्र) अहिंसा इण्टरनेशनल द्वारा वार्षिक पुरस्कारों के लिये नाम आमन्त्रित अहिंसा इण्टरनेशनल द्वारा वर्ष १९९९ के लिये ४ पुरस्कारों- अहिंसा इण्टरनेशनल डिप्टीमल आदीश्वर लाल जैन साहित्य पुरस्कार; अहिंसा इण्टरनेशनल भगवानदास शोभालाल जैन शाकाहार पुरस्कार; अहिंसा इण्टरनेशनल रघुवीर सिंह जैन जीव रक्षा पुरस्कार एवं अहिंसा इण्टरनेशनल प्रेमचन्द्र जैन पत्रकारिता पुरस्कार हेतु १५ जनवरी २००० तक निम्नलिखित पते पर लेखक/कार्यकर्ता/पत्रकार के पूरे नाम व पते, जीवन परिचय (फोटो एवं सम्बन्धित क्षेत्र में कार्य विवरण सहित) आमन्त्रित हैं। भेजने का पता- श्री प्रदीप कुमार जैन, सचिव, अहिंसा इण्टरनेशनल, ४६८७, उमराव गली, पहाड़ी धीरज, दिल्ली ११०००६. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सत्कार युगप्रधान आचार्य जिनदत्तसूरि का जैनधर्म एवं साहित्य में योगदान, लेखिका-डॉ० स्मितप्रज्ञा श्री, प्रकाशक - विचक्षण स्मृति प्रकाशन, खरतरगच्छ ट्रस्ट, दादासाहबनांपगला, नवरंगपुरा, अहमदाबाद ३८०००९; प्रथम संस्करण १९९९ ई०, पृष्ठ १५+२६४; आकार-डिमाई, पक्की जिल्द; मूल्य - १५० रुपये। जैनधर्म के महान् प्रभावक आचार्यों में जिनदत्तसूरि जी का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। खरतरगच्छालंकार आचार्य जिनवल्लभसूरि के शिष्य एवं पट्टधर. तथा प्रथम दादासाहब के नाम से विख्यात आचार्य जिनदत्तसूरि अपने युग के क्रान्तिकारी सन्त रहे। खरतरगच्छ के उन्नायकों में उनका अद्वितीय स्थान है। प्रस्तुत पुस्तक साध्वी डॉ० स्मितप्रज्ञाश्री द्वारा आचार्य जिनदत्तसूरि की उपलब्ध कृतियों पर किये गये विश्लेषणात्मक अध्ययन का पुस्तकाकार रूप है जिस पर उन्हें गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा पी-एच०डी० की उपाधि प्रदान की गयी है। शोधप्रबन्ध कुल ५ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में ग्रन्थकार के समय देश की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक स्थिति की चर्चा है। द्वितीय अध्याय में खरतरगच्छ के उद्भव और विकास का २६ पृष्ठों में बड़ा ही उपयोगी वर्णन है। तृतीय अध्याय में जिनदत्तसूरि के जीवन चरित्र का १९ पृष्ठों में सविस्तार वर्णन है। चौथे अध्याय में १४५ पृष्ठों में आचार्यश्री की साहित्य-साधना का विश्लेषणात्मक अध्ययन है। यह अध्याय तीन खण्डों में विभाजित है- प्रथम खण्ड में उनके द्वारा रचित ६ संस्कृत कृतियों, द्वितीय खण्ड में १५ प्राकृत कृतियों व तृतीय खण्ड में ३ अपभ्रंश कृतियों का विवेचन है। पाँचवां और अन्तिम अध्याय उपसंहार स्वरूप है। ग्रन्थ के अन्त में ३४ पृष्ठों का परिशिष्ट भी दिया गया है जिसके अन्तर्गत जिनदत्तसूरि की अप्रकाशित कृतियों के सम्पादन और अननुवादित कृतियों का अनुवाद प्रस्तुत है। अब से लगभग ५० वर्ष पूर्व जैनधर्म और प्राचीन भारतीय भाषाओं के विशिष्ट विद्वान् महोपाध्याय विनयसागर जी ने आचार्य जिनदत्तसूरि के गुरु आचार्य जिनवल्लभसूरि की साहित्यसाधना पर एक महाग्रन्थ लिखा था जिस पर उन्हें साहित्य महोपाध्याय की उपाधि प्राप्त हुई थी। वह ग्रन्थ वल्लभभारती के नाम से प्रकाशित हुआ और इतना लोकप्रिय हुआ कि कुछ ही समय में अप्राप्य हो गया। __इसी प्रकार का एक प्रयास अब से लगभग १५ वर्ष पूर्व अंचलगच्छ की साध्वी मोक्षगुणाश्री द्वारा स्वगच्छीय आचार्य जयशेखरसूरि के व्यक्तित्व व कृतित्व पर किय गया जो दो भागों में प्रकाशित हो चुका है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ है प्राय: सभी गच्छों में अनेक विद्वान् आचार्य व मुनि हो चुके हैं। उनके द्वारा प्रणीत साहित्य विशाल है। आवश्यकता इस बात की है कि उक्त शोधकार्यों को आदर्श मानकर अन्य आचार्यों एवं उनकी कृतियों पर भी इसी प्रकार प्रामाणिक रूप से शोध कार्य किया जाये। प्रस्तुत पुस्तक की साजसज्जा अत्यन्त आकर्षक व मुद्रण त्रुटिरहित है। यह पुस्तक शोधार्थियों के लिये अत्यन्त उपयोगी व पुस्तकालयों व विद्वानों के लिये अनिवार्य रूप से संग्रहणीय और पठनीय है। हम आशा करते हैं कि साध्वीजी महाराज के इस कार्य से प्रेरणा लेकर अन्य आचार्यों व मुनिजनों के साहित्य पर भी इसी प्रकार से विद्वानों द्वारा शोधकार्य प्रारम्भ किया जायेगा। आस्था और अन्वेषण, सम्पा० श्री सुरेश जैन; प्रका०- ज्ञानोदय विद्यापीठ, भोपाल (म०प्र०); प्राप्ति स्थल- श्री अभिनन्दन दिगम्बर जैन हितो० सभा, बीना-४७०११३ (म०प्र०) एवं श्री सन्तोषकुमार जयकुमार जैन, बैटरी वाले, कटरा बाजार, सागर- ४७०००२ (म०प्र०); प्रथम संस्करण- १९९९ ई०; पृष्ठ १४+१३३; मूल्य - १०० रुपये। प्रस्तुत पुस्तक मुनिश्री क्षमासागर के पावन सानिध्य में २-४ अक्टूबर १९९८ में बीना में सम्पन्न हुए चतुर्थ जैन विज्ञान विचार संगोष्ठी-१९९८ में पढ़े गये ११ शोध निबन्धों तथा पूर्व की जैनविज्ञान विचार संगोष्ठियों में पढ़े गये १३ निबन्धों का संकलन है। क्लोनिंग और कर्मसिद्धान्त, निगोदिया जीव और आधुनिक जीवन विज्ञान, आशीर्वाद का विज्ञान, प्रार्थना से स्वास्थ्य लाभ, आधुनिक चिकित्सा पद्धति और अहिंसा, जीवन पद्धति और अनेकान्त, हमारी संस्कृति और समाज, ईश्वर की अवधारणा, जैन सिद्धान्तों द्वारा पृथ्वी की रक्षा आदि लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। लेखों के अन्त में मुनिश्री के वर्ष १९९८ के बीना वर्षायोग के विभिन्न बहुरंगी चित्र भी दिये गये हैं। निश्चित रूप से यह पुस्तक विद्वानों और सामान्य पाठकों दोनों के लिये समान रूप से उपयोगी है। पुस्तक की साज-सज्जा अति आकर्षक तथा मुद्रण सुस्पष्ट है। अच्छे कागज पर मुद्रित इस ग्रन्थ का मूल्य भी अल्प रखा गया है ताकि इसका अत्यधिक प्रचार-प्रसार हो। ऐसे महत्त्वपूर्ण और मननयोग्य पुस्तक के प्रकाशन के लिये प्रकाशक संस्था की जितनी भी प्रशंसा की जाये, वह कम ही है। पथिक, मुनिश्री सुनीलसागर; प्रका०- श्रीपार्श्वनाथ दिगम्बर जैन पुस्तकालय एवं वाचनालय, भेलूपुर, वाराणसी; द्वितीय संस्करण- सितम्बर १९९९ई०; आकारडिमाई; पृष्ठ- १६+२७२; मूल्य - २५ रुपये मात्र। के युवा निर्ग्रन्थ मुनि श्री सुनीलसागर जी, आचार्य आदिसागर जी महाराज की परम्परा के चौथे पट्टधर आचार्य श्री सन्मतिसागर जी के शिष्य एवं उदीयमान साहित्यकार Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } १८४ हैं। उनकी लेखनी से अल्प समय में ही प्रणीत विभिन्न ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके हैं। अध्ययन, चिन्तन और लेखन उनकी सहज विशेषता है। प्रस्तुत कृति पथिक का सम्पूर्ण कथानक एक ऐसे व्यक्ति पर केन्द्रित है, जो विविध रूपों में हमारे समक्ष आता है। जहां एक ओर उसने संघर्षशील युवक का किरदार निभाया है वहीं वह एक संस्कारशील युवक की भूमिका निभाने में भी सफल रहा है। जहां एक ओर वह शान्तिदूत है वहीं दूसरी ओर रूढ़ियों को तोड़ने में वह क्रान्तिकारी भी है। एक ही पात्र को विभिन्न रूपों में दर्शाने वाला यह कथानक पाठकों को प्रारम्भ से अन्त तक पूर्णतया बांधे रहता है । सम्पूर्ण कथानक में घटनाक्रमों के मध्य धर्माचरण का भी मार्ग बतलाया गया है जिससे इसकी गरिमा और भी बढ़ जाती है। मात्र आठ महीने के अन्तराल में इस पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित होना इसकी लोकप्रियता को दर्शाता है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण प्रायः त्रुटिरहित और कलात्मक है । इस मनोरंजक एवं प्रेरणास्पद ग्रन्थ के प्रणयन के लिये लेखक तथा उसे अल्प मूल्य में पाठकों तक पहुँचाने के लिये प्रकाशक दोनों ही प्रशंसा के पात्र हैं। संसारदर्पण, संकलनकर्ता - क्षुल्लक विवेकानन्द सागर; प्रकाशक - श्री दिगम्बर जैन प्रेम प्रचारिणी सभा, मण्डल बामौरा एवं डॉ० विनयकुमार चौधरी, बहादुरपुर प्रथम संस्करण- १९९९ ई०; पृष्ठ ६+६५; मूल्य - २०/- रुपये । जैन दर्शन आत्म - जिज्ञासा प्रधान है। अनन्त सांसारिक चतुर्गतियों से छुटकारा पाने के लिए जैन दर्शन में आत्मा को जानने और उसके सतत् विकास एवं सजगता के प्रति सतर्क रहने का अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इसी क्रम में आत्मा और उसे दूषित करने के तत्त्वों पर अति सूक्ष्मता और अति गहराई में जाकर विचार किया गया है । जैन दर्शन की इसी गुरुगम्भीर परम्परा का पालन करते हुए क्षुल्लक विवेकानन्द सागर जी का संकलन 'संसार दर्पण' प्रकाशित हुआ है। इसमें चारों गतियों में भावों एवं आस्रवों का परम्परानुसार गहन विश्लेषण प्रस्तुत है। साथ ही भोगभूमि, कर्मभूमि और चतुर्गति, यथा-- नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतियों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्था को विभिन्न तालिकाओं द्वारा सुगमतापूर्वक समझाया गया है। इस क्रम में कुल २९ तालिकायें हैं। यद्यपि आमुख में डॉ० (कु० ) आराधना जैन 'स्वतन्त्र' ने २१ तालिकाओं का ही उल्लेख किया है। पुस्तक के प्रारम्भ में 'पारिभाषिक शब्दकोष' दिया गया है, जिसमें आस्रव, अविरत कषाय, योग, भाव, दर्शन, लेश्या और उपलब्धि को विस्तार से परिभाषित कर जैन दर्शन के आधारभूत तत्त्वों को ३२ प्रश्नों और उत्तर के माध्यम से समझाया गया है। इस पुस्तक को तैयार करने में परम्परागत ग्रन्थों गोम्मटसार - जीवकाण्ड, गोम्मटसार- कर्मकाण्ड, सर्वार्थसिद्धि और पञ्चाध्यायी को आधार बनाया गया है। पुस्तक पठनीय है। मुद्रण, कागज आदि मन को आह्लादित करने वाला है। अतुल कुमार Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ कल्लोल प्रकाशन, सीतायन, रचनाकार- डॉ० मंगलाप्रसाद; प्रका०सुसुवाही, वाराणसी १९९९ ई०; प्रथम संस्करण; आकार-डिमाई, पृष्ठ ६ + ८८; पक्की जिल्द; मूल्य- एक सौ रुपये । - भारत के प्राचीन वाङ्मय से प्रायः उपेक्षित पात्रों को खोजकर उनके वास्तविक चरित्र को समाज में साहित्य के माध्यम से उजागर करने वाले साहित्यकारों की एक धारा रही है। भारतीय संस्कृति की दो महान परम्पराओं - ब्राह्मण और बौद्ध के नारी पात्रों का समुचित संस्करण इसी क्रम में चला। हिन्दी साहित्य में रामायण की एक ओझल किन्तु अति उत्कृष्ट पात्र 'उर्मिला' और गौतम बुद्ध की परिणीता यशोधरा के अन्तर्मन को समाज के सम्मुख राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कालजयी रचनाओं क्रमश: 'साकेत' और 'यशोधरा' के माध्यम से खड़ा कर दिया है। रामायण की प्रमुख स्त्री पात्र 'सीता' को लेकर तो भारतीय साहित्य जगत् सदा आन्दोलित रहा है। चाहे वे वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास और भास हों या परवर्ती भक्तिकाल के गोस्वामी तुलसीदास । सबने अपने-अपने ढंग से सीता के चरित्र और उनके पति 'राम' के व्यवहार को चित्रित किया है। नारी की अन्तर्व्यथा और उसके मन को समझने की जो कोशिश गुप्त जी ने की हैं, शायद उससे पहले किसी ने नहीं किया। इसी परम्परा में डॉ० मंगलाप्रसाद द्वारा रचित हिन्दी का महाकाव्य 'सीतायन' है। सीतायन में कुल ग्यारह सर्ग हैं। प्रथम सर्ग में पूरे काव्य का बीज रूप भूमिका है । द्वितीय सर्ग में सीता लंका से वापस आये राम का अपने प्रति बेरूखी पर चिन्तित है। इस समय वह गर्भवती भी है। तृतीय सर्ग में नगरवासियों का सीता के प्रति शंकालु दृष्टि तथा सीता के भावी संकट की कल्पना और दूसरी ओर राजभवन में राम और सीता की दिनचर्या तथा प्रेम की चर्चा है। चतुर्थ सर्ग में वसन्त ऋतु की छटा का वर्णन है तथा सर्ग के उत्तरार्द्ध में लोकापवाद के कारण सीता के निर्वासन का आदेश दिया जाता है। इस कठोर आदेश का पालन करते हुए दुःखी मन से लक्ष्मण सीता को वन में ऋषि आश्रम के पास छोड़ आते हैं। पञ्चम सर्ग में वन की सुरम्यता का वर्णन है । सीता अकेली सोच में डूबी हुई है जब बटुकगण उसे बुलाकर ऋषि आश्रम में ले जाते हैं । । षष्ठ सर्ग में आश्रम में सीता की दिनचर्या तथा आश्रम के दैनन्दिनी कार्यों में व्यस्तता दिखाया गया है, वहीं उसने युगल पुत्रों को जन्म दिया है। बालकों के बालक्रीड़ा आदि का भी वर्णन है। सप्तम सर्ग में शरद ऋतु का आगमन होता है, बच्चे बड़े हो रहे हैं। इसमें बटुकगण के अध्ययन और आश्रम की सुचारु व्यवस्था का वर्णन है । अष्टम सर्ग में अयोध्या में सीताविहीन राम का सन्ताप दीखता है। उन पर व्यंग्य प्रहार भी *किये गये हैं, जैसे— प्राणवल्लभा को घर से कर बाहर राघव शान्त हुए हैं। प्रिय पुरजन को जीवन-मरु की सुधा लुटा अक्लान्त हुए हैं इत्यादि । यहाँ रघुकुल की परम्परा और Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अयोध्या के शासनव्यवस्था की झलक भी मिलती है। दूसरी ओर सीता अकेली बैठकर अपने पिछले जीवन के बारे में विचारमग्न है। नवम सर्ग में वाल्मीकि रामायण की रचना कर चुके हैं तथा लव-कुश उसे वीणा पर गाने लगे हैं। मुनि सीता को निर्देश देते हैं। दूसरी ओर अयोध्या में अश्वमेध की तैयारी होती है और घोड़ा छोड़ा जाता है, जिसे वन प्रान्त में लव-कुश पकड़ लेते हैं। रक्षकों और शत्रुघ्न के काफी प्रयास के बावजूद हठी बच्चे उसे नहीं छोड़ते। दशम सर्ग में राम की सेना का लव-कुश के साथ तुमुल-युद्ध वर्णित है। राम की पूरी सेना लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न सहित युद्धभूमि में धराशायी हो जाती है और हनुमान को बांधकर लव-कुश सीता के पास ले जाते है। जहाँ सीता हनुमान को पहचान लेती हैं। सीता जाकर युद्धभूमि में वीरों को देखती हैं जो वहाँ मूच्छित पड़े हैं। लव-कुश उनकी बेहोशी दूर कर देते हैं। एकादश सर्ग में सेना घोड़े के साथ अवध लौट जाती है। अश्वमेध यज्ञ स्थल पर राम के पास सीता को वाल्मीकि लाते हैं, पर राम पुन: सीता से नगरजनों की शंका मिटाने को कहते हैं तब सीता राम के प्रति प्रेम की सौगन्ध खाकर पृथ्वी से प्रार्थना करती है और पृथ्वी से शेषनाग के फन पर दिव्य सिंहासनारूढ़ पृथ्वी आती है और सीता को लेकर पाताल में वापस चली जाती है। प्रस्तुत महाकाव्य में नौ रसों में से शृङ्गार, वीभत्स और हास्य रस का अभावं है। यद्यपि महाकाव्य के अन्य लक्षण मौजूद है। इसमें सर्गों में क्रमश: ३१, ८४, ५३, ८३, ५७, ५०, ५७, ३०, ६०, ५१ और ४८५९४ पद्य हैं। प्रत्येक सर्ग में अलग-अलग एक-एक छन्दों में पद्यों की रचना की गयी है। मुद्रण, सज्जा, कागज आदि उत्तम है। पुस्तक सभी के लिये पठनीय और मननीय है। ऐसे सुन्दर काव्य के प्रणयन और उसके प्रकाशन के लिए रचनाकार बधाई के पात्र हैं। अतुल कुमार जिनागमों की मूल-भाषा, सम्पा०- आचार्यश्री विजयशीलचन्दसूरि एवं डॉ० के० आर०चन्द्र, प्रकाशक- प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद; प्रथम संस्करण १९९९ ईस्वी, पृष्ठ २३+२५०; आकार-डिमाई, मूल्य १२०/- रुपए। प्रस्तुत कृति २७-२८ अप्रैल १९९७ को अहमदाबाद में आयोजित विद्वत् संगोष्ठी में विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किये गये शोध-पत्रों का संकलन है। यह संगोष्ठी स्थानीय तीन संस्थाओं - प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, प्राकृत विद्या मण्डल एवं प्राकृत जैन विद्या विकास डि ने सम्मिलित रूप से आयोजित किया था। संगोष्ठी की आधारभूमि थीदिगम्बर परम्परा के एक समूह, खासकर कुन्दकुन्द भारती से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका प्राकृत विद्या और उसके सम्पादक डॉ० सुदीप जैन द्वारा विभिन्न आधारों पर यह स्थापित किया जाना कि शौरसेनी प्राकृत अर्धमागधी से प्राचीन थी और आगमों की मूलभाषा शौरसेनी थी। इस समूह द्वारा यह भी प्रतिपादित किया गया है Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ के अर्धमागधी सहित प्राकृत के सभी भेद-प्रभेद शौरसेनी से ही उद्भूत हुए हैं। इस स्थापना के बाद प्राकृत क्षेत्र में एक विवाद खड़ा हो गया। जैनों के दूसरे सम्प्रदायश्वेताम्बरों में मान्य आगमों की भाषा अर्धमागधी है और अबतक दोनों सम्प्रदाय के विद्वानों में इस बात पर आम राय थी कि तीर्थङ्करों की वाणी अर्धमागधी के रूप में है। पर इस विवाद के बाद इस विषय पर नये सिरे से विचार प्रारम्भ हो गया। इसी बीच जैन-बौद्ध विद्या के प्रसिद्ध विद्वान् स्व० (प्रो०) नथमल टॉटिया का एक भाषण प्राकृतविद्या में छपा, जिसके अनुसार उन्होंने शौरसेनी को सर्वप्राचीन, सभी प्राकृतों का मूल और आगमों की भाषा माना था। उस समय टॉटिया जी जैन विश्वभारती, लाडनूं की सेवा में थे, जो एक श्वेताम्बर संस्था है। वहाँ की पत्रिका 'तुलसीप्रज्ञा' में उन्होंने बाद में प्राकृतविद्या की उक्त अवधारणा का खण्डन कर दिया था, जिससे और भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई। इसके बाद पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी के तत्कालीन निदेशक प्रो० सागरमल जैन ने उक्त भ्रम के बीच ही सुदीप जैन और प्रो० टॉटिया के प्राकृतविद्या में छपे वक्तव्यों का विभिन्न ग्रन्थों से सन्दर्भ देते हुए, तर्कपूर्ण खण्डन में एक लेख लिखा, जो उस समय विद्यापीठ की शोध-पत्रिका श्रमण और जैन विश्वभारती लाडनं की पत्रिका तुलसीप्रज्ञा में प्रकाशित हुआ, वह लेख यहाँ भी हिन्दी-गुजराती खण्ड के प्रथम लेख के रूप में संकलित है। इन्हीं विवादों के मद्देनजर प्राकृत भाषा के विद्वान् प्रो० के० आर० चन्द्र के अथक प्रयास से यह संगोष्ठी आयोजित हुई थी, जिसमें प्रस्तुत किये गये शोधपत्र इस पुस्तक में संकलित हैं। पुस्तक दो खण्डों में विभक्त है- पहला- अंग्रेजी खण्ड और दूसरा-हिन्दी-गुजराती खण्ड। अंग्रेजी खण्ड में छ: लेख हैं और हिन्दी-गुजराती खण्ड में सात लेख। प्रो० सागरमल जैन के दो लेख परिशिष्ट में छपे हैं जिसमें से एक में उन्होंने प्रो० टॉटिया जी की विद्वता के प्रतिकूल प्राकृतविद्या में उनके नाम से छपे व्याख्यान के मूल होने पर सन्देह प्रकट किया है और अनुरोध किया है उनके व्याख्यान का अविकल टेप सर्वसुलभ करा दिया जाये। दूसरे लेख में उन्होंने हिन्दी-प्राकृत भाषा के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० भोलाशंकर व्यास के शौरसेनी के सम्बन्ध में स्थापित मान्यताओं का विविध तर्कों और प्रमाणों द्वारा खण्डन किया है। प्रो० व्यास ने अपनी स्थापना में शौरसेनी को सभी प्राकृतों का मूल अतिप्राचीन भाषा माना है। भूमिका में डॉ० सागरमल जैन ने ग्रन्थ में छपे सभी लेखों की गहनतम समीक्षा की है। भूमिका हिन्दी-अंग्रेजी दोनों भाषा में प्रकाशित है। विषय-प्रतिष्ठापन में प्राकृत भाषा और भाषाविज्ञान के मूर्धन्य विद्वान् डॉ० के० आर० चन्द्र ने आगमों की मूलभाषा एवं उसके मौलिक स्वरूप पर अपनी विद्वतापूर्ण स्थापना उपस्थित की है और भाषायी आधार पर स्व-सम्पादित आचारांग के भाषा-स्वरूप के प्रस्तुतीकरण द्वारा अर्धमागधी की प्राचीनता भाषाविज्ञान के आधार पर सिद्ध की है। अंग्रेजी खण्ड में प्रथम लेख प्रो० ह० चू० भयाणी का है जिसमें उन्होंने आधुनिक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ भारतीय भाषाओं और बोलियों का विकास और उनके इतिहास का परीक्षण किया है। दूसरे लेख में भाषाविज्ञान के वरिष्ठतम विद्वान् प्रो० सत्यरंजन बनर्जी ने जैन आगमों के सम्पादन में आयी कठिनाइयों के अपने अनुभवों को प्रस्तुत कर कुछ उपयोगी सुझाव रखे हैं। तीसरे लेख में प्रो० रामप्रकाश पोद्दार ने हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के प्रथम सूत्र 'अथ प्राकृतम्' की हेमचन्द्र की स्वोपज्ञ वृत्ति पर विवेचन प्रस्तुत किया है। वस्तुतः हेमचन्द्र ने सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण लिखा और अन्तिम आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण को निबद्ध किया है। इसे भी उन्होंने संस्कृत में ही लिखा और प्राकृत शब्दों की सिद्धि के लिए पूरक रूप में संस्कृत व्याकरण को मानक माना है। चौथे लेख में आचारांग, प्रवचनसार, पालि भाषा और अशोक के अभिलेखों के शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए डॉ० के०आर० चन्द्र ने अर्धमागधी को प्राचीनतम भाषा सिद्ध किया है। पाँचवें लेख में डॉ० एन०एम० कंसारा ने वैदिक छान्दस भाषा से आगमिक अर्धमागधी में आये कुछ भाषायी तत्त्वों को उद्घाटित किया है। छठे लेख में युवा विद्वान् डॉ० दीनानाथ शर्मा ने शौरसेनी की तुलना में अर्धमागधी भाषा के प्राचीन भाषा तत्त्वों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। हिन्दी-गुजराती खण्ड में पहला लेख प्रो० सागरमल जैन का “जैन आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी या शौरसेनी'' है, जिसकी पृष्ठभूमि और विषयवस्तु पूर्व में प्रस्तुत की जा चुकी है।दूसरे लेख में जैन साहित्य, इतिहास और पुरातत्त्व के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० मधुसूदन ढांकी ने व्यंग्यात्मक लहजे में जैन दर्शन की रूढ़िवादी और काल्पनिक इतिहास दर्शन पर प्रहार किया है और विद्वानों द्वारा इस इतिहास को आधार बनाकर स्थापित की जा रही मान्यताओं की भी आलोचना की है। तीसरे लेख में समणी चिन्मय प्रज्ञा ने आगमसूत्रों की वर्तमान भाषा पर अपना विचार प्रस्तुत किया है। चौथे लेख में प्राकृत भाषा के विद्वान् प्रो० प्रेमसुमन जैन ने शौरसेनी ग्रन्थों में प्राकृत भाषा के प्राचीन तत्त्वों के आधार पर शौरसेनी भाषा को प्राचीन बतलाया है तथा डॉ० के० आर० चन्द्र द्वारा सम्पादित आचारांग के भाषायी स्वरूप के आधार पर ही शौरसेनी की प्राचीनता को तर्कपूर्ण ढंग से सिद्ध करने का प्रयास किया है। पांचवें लेख में शोभना आर० शाह ने अर्धमागधी भाषा की तुलना खारवेल के शिलालेख की भाषा से करते हए उसे अर्धमागधी के निकट बताया है। छठे लेख में डॉ० जितेन्द्र बी० शाह ने तीर्थङ्करों की उपदेश भाषा को दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रन्थों के अन्तक्ष्यिों के आधार पर तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते हुए उसे अक्षरात्मक और अर्धमागधी भाषा का सिद्ध करते हुए विवाद को निरर्थक बताया है। गुजराती भाषा के लेख में डॉ० भारती शेलट ने अशोक के शिलालेखों की भाषा से अर्धमागधी भाषा की समानता स्थापित की है। यह दःख की बात है कि जिस जैन दर्शन की मूल शिक्षा आत्मज्ञान प्राप्त करने तथा भाषा आदि के स्वरूप और उच्चारण पर जोर न देकर उसके भावों को ग्रहण करने Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ की है, उसे दरकिनार कर मिथ्यात्व को स्थापित करने वाले विवाद उसी दर्शन के प्रणेता के नाम पर खड़ा किया जा रहा है। हमारे जिन पूर्वज आचार्यों की हृदय की उदारता इतनी अधिक थी कि उन्होंने अपने सम्पूर्ण ज्ञान को जगत् के कल्याण हेतु प्रस्तुत कर भी अपना नाम और समय की ढोल पीटने का दम्भ नहीं दिखाया, उन्हीं आचार्यों के समय और नाम पर तरह-तरह के पाखण्डवाद और वितण्डावाद को खड़ा कर उनकी मूल शिक्षा को उपेक्षित और अपमानित किया जा रहा है। अच्छा होता कि प्रस्तुत संगोष्ठी में डॉ० सुदीप जैन भी उपस्थित होकर अपनी बातों को रखते तथा वहीं पर इस विवाद का शालीन और सौहार्द्रपूर्ण समाधान ढूंढने का प्रयत्न होता, पर दुर्भाग्य से यह कमी रह गयी। पुस्तक में देश-विदेश के विद्वानों द्वारा संगोष्ठी की सफलता हेतु भेजे गये शुभकामना संदेशों को भी संकलित किया गया है। अतुल कुमार प्रसाद सिंह मेरुतुङ्गबालावबोधव्याकरणम्, कर्ता- अंचलगच्छीय आचार्य मेरुप्रभसूरि; सम्पादक- आचार्य कलाप्रभसागरसूरि; संशोधक- प्रो० नारायण म० कंसारा (अहमदाबाद); प्रकाशक- श्री आर्य-जय-कल्याण केन्द्र ट्रस्ट, मेघरत्न एपार्टमेन्ट, देरासर लेन, घाटकोपर (पूर्व) मुम्बई-४००००७; प्रथम संस्करण, १९९८ ई०; आकार- डिमाई; पृष्ठ ३८+९०; मूल्य ३०/- रुपये। ___ पन्द्रहवीं शताब्दी के रचनाकारों में अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतङ्गसरि का प्रमख स्थान है। इनके द्वारा रचित छोटी-बड़ी विभिन्न रचनायें उपलब्ध होती हैं जिनमें षदर्शनसमुच्चय, लघुशतपदी, जैनमेघदूतम, नेमिदूतमहाकाव्य, कातंत्रव्याकरणबालावबोधवृत्ति, मेरुतुङ्गबालावबोधव्याकरण, धातुपारायण, सप्तभाष्यटीका, स्थविरावली आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मेरुतुङ्गबालावबोधव्याकरण प्रथम बार आचार्य श्री कलाप्रभसागर जी द्वारा सम्पादित होकर उन्हीं के निर्देशन में श्री आर्य जय-कल्याण केन्द्र ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हो रही है। विद्वान् सम्पादक ने ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका दी है जिसके अन्तर्गत व्याकरण शब्द की उत्पत्ति, जैनाचार्यों द्वारा रचित व्याकरण ग्रन्थ, परमात्माश्री महावीरदेव और जैनेन्द्रव्याकरण, श्रीसिद्धहमशब्दानुशासन, जैनेतर व्याकरण ग्रन्थों पर जैनाचार्यों कृत टीकायें, पद्यबद्ध व्याकरणग्रन्थ और भोजव्याकरण, अंचलगच्छीय आचार्यों द्वारा रचित व्याकरण-ग्रन्थ आदि की संक्षिप्त किन्तु अत्यन्त सारगर्भित रूप में चर्चा की गयी है। - ग्रन्थकार का परिचय आठ पृष्ठों में दिया गया है जिसके अन्तर्गत उनके बाल्यावस्था, दीक्षा, आचार्य पद प्राप्ति, समय-समय पर किये गये चमत्कार, उनकी रचनायें, विशाल शिष्य परिवार आदि बड़े ही सुन्दर शब्दों में प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० किया गया है। प्रस्तावना के अन्तर्गत विद्वान् सम्पादक ने १४ पृष्ठों में प्रस्तुत कृति का बड़े ही सुन्दर रूप में परिचय दिया है। इसके पश्चात् मूलपाठ दिया गया है। ग्रन्थ का मुद्रण अत्यन्त स्पष्ट व साजसज्जा भी नयनाभिराम है। एक महत्त्वपूर्ण और अप्रकाशित ग्रन्थ को सम्पादित और प्रकाशित कर आचार्य कलाप्रभसागर जी महाराज ने विद्वत् जगत् का महान् उपकार किया है। इसके लिये वे बधाई के पात्र हैं। जैन सिद्धान्त भास्कर, जिल्द ५०-५१ १९९७-९८ ई० संयुक्तांक, प्राच्य दुर्लभ पाण्डुलिपि विशेषांक २; सम्पादक - डॉ० ऋषभचन्द्र जैन 'फौजदार; पृष्ठ १६+१७३ + ३०९; मूल्य २००/- रुपये। प्राचीन साहित्य के रूप में पाण्डुलिपियाँ और उनके संग्रह के रूप में समय-समय पर बड़ी संख्या में प्रतिष्ठापित किये गये ग्रन्थ भण्डारों में से अनेक विभिन्न कारणों से नष्ट हो गये, फिर भी जो कुछ आज शेष रह गया है उसकी सुरक्षा कर पाना भी अत्यधिक व्ययसाध्य होने से प्राय: दुष्कर हो गया है। अब से लगभग सौ - सवासौ वर्ष पूर्व विभिन्न विद्वानों का ध्यान पाण्डुलिपियों के संरक्षण और ग्रन्थ भण्डारों की सुरक्षा तथा उनके सूचीपत्रों के प्रकाशन की ओर गया और उन्होंने इसके लिए गम्भीर प्रयास प्रारम्भ किया जो आज भी जारी है। ऐसे विद्वानों में पीटर पीटर्सन, रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर, चीमनलाल डाह्याभाई दलाल, पं० लालचन्द भगवान्दास गांधी, मुनि पुण्यविजय जी, मुनि जिनविजय जी, श्री अगरचन्द्र नाहटा, श्री भँवरलाल नाहटा, पं० अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह आदि का नाम उल्लेखनीय है । जैन सिद्धान्त भवन, आरा में भी उसके संस्थापकों एवं संचालकों द्वारा समय-समय पर पाण्डुलिपियों का संग्रह किया जाता रहा है। अब तक वहाँ लगभग ६००० पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हो चुकी हैं। लगभग १००० पाण्डुलिपियों के सूची- पत्र के रूप में प्रथम भाग का १९९५ ई० में प्रकाशन किया गया था। प्रथम भाग की भाँति इस भाग में भी लगभग १००० पाण्डुलिपियों की विस्तृत सूची दी गयी है। पाटण, खम्भात, जैसलमेर, पूना, लिम्बडी, अहमदाबाद आदि स्थानों के ग्रन्थ भण्डारों के प्रकाशित सूचीपत्रों के समान ही इस सूचीपत्र का सर्वत्र आदर होगा। ऐसे श्रमसाध्य उपयोगी और प्रामाणिक सूची के प्रणयन और प्रकाशन के लिये इसके संग्राहक, सम्पादक और प्रकाशक सभी बधाई के पात्र हैं ! Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ साभार प्राप्ति काशी-दर्शन, मुनि सुनीलसागर; प्रकाशक- श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर पुस्तकालय एवं वाचनालय, भेलूपुर, वाराणसी, प्रकाशन वर्ष १९९९ ई०, आकार - डिमाई, पृ० ११८, मूल्य - स्वाध्याय।। धरती के देवता, मुनि सुनीलसागर; प्रकाशक - पूर्वोक्त; प्रकाशन वर्ष १९९९ ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ - १०+८३; मूल्य - १०/- रुपये। आचार्य आदिसागर अंकलीकर परम्परा, संकलनकर्ता- मुनिश्री सुन्दरसागर जी; प्रकाशक - हरगेनकुमार जैन चैरिटेबल ट्रस्ट, आरा (बिहार); प्रकाशन वर्ष १९९९; आकार - डिमाई; पृष्ठ - ४००; मूल्य - ४० रुपये। ४. कर्मनुं कम्प्यूटर, लेखक- मुनिश्री मेघदर्शन विजय जी म० सा०, प्रकाशक - अखिल भारतीय संस्कृति रक्षक दल, सुरत; प्रकाशन वर्ष १९९९; आकार - डिमाई: पृष्ठ - ६+१७८; मूल्य - ३० रुपये। ५. सूत्रोना रहस्यो, लेखक-प्रका० - उपरोक्त; प्रकाशन वर्ष - १९९९ई०; आकार- डिमाई; पृष्ठ ६+१७०; मूल्य - ३० रुपये। अनेकान्त स्वाध्याय मन्दिर : परिचय, प्रवृत्तियाँ तथा भजन, सम्पा०-- श्री जमनालाल जैन; प्रकाशक-अनेकान्त स्वाध्याय मन्दिर, रामनगर, वर्धा-४४२००१ (महाराष्ट्र); प्रथम संरण १९९८ ई०; पृष्ठ ८४; आकार-डिमाई। श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक विधान, रचनाकार- श्री राजमल पवैया; प्रकाशक- बालब्रह्मचारी श्री सुकुमाल जी, व्यवस्थापक- श्री महावीर जिनालय, चिमनगंज मण्डी, उज्जैन (म०प्र०); प्रथम संस्करण १९९९ ई०, पृष्ठ ७२; आकार– डिमाई; मूल्य १२/- रुपये।। ८. श्रीसम्मेदशिखरपूजनअर्ध्यावलि; रचनाकार- श्री राजमल पवैया; प्रकाशनपूर्वोक्त; प्रथम संस्करण १९९९ ई०; पृष्ठ ३२; आकार- पाकेट साइज; मूल्य १ रुपया। दिगम्बर समाज के सम्मान्य सदस्य श्रीमन्त्रीबाबू ने संस्थान को एक उत्तम टेपरिकार्डर प्रदान किया। इसी प्रकार श्रीपार्श्वनाथ श्वेताम्बर जन्मभूमिमन्दिर के अध्यक्ष कुंवर विजयानन्द सिंह ने संस्थान को एक एयर कण्डीशनर देने का वचन दिया Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान के विकास में सहयोग का आह्वान (आयकर अधिनियम ८० जी० के अन्तर्गत देय अनुदान पर पचास प्रतिशत कर मुक्त ) पार्श्वनाथ विद्यापीठ पिछले साठ वर्षों से समग्र जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अनवरत लगा हुआ है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शोध संस्थान के रूप में उसे मान्यता मिली ही है, पूर्वांचल विश्वविद्यालय से भी मान्यता मिलने की उम्मीद है। यहां से मान्यता मिल जाने पर संस्थान में स्नातकोत्तर पाठयक्रम भी प्रारम्भ किये जा सकेंगे। अभी तक लगभग १५० छोटे-बड़े ग्रन्थ संस्थान से प्रकाशित हो चुके हैं और लगभग ६० छात्रों ने यहां से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। यहाँ छात्रों के आवास, पुस्कालय आदि की समुचित व्यवस्था है, रमणीय परिसर और सुन्दर वातावरण हैं। जैनधर्म पर शोध करने वाले छात्रों के लिए तो यह संस्थान एक महत्त्वपूर्ण देन है। सेठ हरजसराय जी द्वारा संस्थापित यह संस्थान श्री बी. एन. जैन और श्री इन्द्रभूति बरड़ जैसे सुप्रसिद्ध उद्योगपतियों द्वारा आरक्षित और सर्वश्री जगन्नाथ जैन, श्रीमती सीता देवी जैन, अमृतलाल जैन, नृपराज शादीलाल जैन, दीपचन्द्र जी गार्डी, नेमनाथ जैन, नक भाई शाह, पुखराजमल लुंकड, किशोर एम. वर्धन, शान्तिलाल बी. सेठ, बनारसी दास लाजवन्ती जैन, खांतिलाल शाह, सुमतिप्रकाश जैन, शौरीलाल जैन, लाला जंगीलाल जैन, लाला अरिदमन जैन, विजय कुमार जैन मोती वाला, राजकुमार जैन, अरुण कुमार जैन, जतिन्दरनाथ जैन, तिलकचन्द जैन, दुलीचन्द जैन आदि जैसे दानवीर महानुभावों से पोषित है। संस्थान के बढ़ते हुए चरण को और गतिमान् बनाने के लिए आप सभी के आर्थिक सहयोग की अपेक्षा है। यह सहयोग आप इस प्रकार दे सकते हैं १. ग्रन्थ प्रकाशन, २. ग्रन्थ क्रय, ३. आवास निर्माण, ४ पुस्तकदान, शोध छात्रवृत्ति, ६ . आल्मारी, पंखे आदि का दान, ७. श्रमण शोध पत्रिका ग्राहक । ५. वर्तमान में संस्थान के प्रकाशन प्राप्ति के लिए ११०००/- रुपये आजीवन सदस्यता शुल्क रखा गया है। इसके बदले फिलहाल हम अपने संस्थान का लगभग पन्द्रह हजार रुपये का प्रकाशित साहित्य भेंट देते है तथा भविष्य में होने वाले सभी प्रकाशन भी उन्हें भेंट दिये जाते है। उच्चकोटि के साहित्य प्रकाशन के लिए भी आप संस्थान से संपर्क करने के लिए सादर आमन्त्रित हैं। आपके या आपके निकटतम व्यक्ति की स्मृति में हम ग्रन्थ प्रकाशन करते हैं। श्रमण के सम्माननीय वार्षिक ग्राहकों से अनुरोध है कि वर्ष १९९९ का उनका Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ वार्षिक शुल्क दिसम्बर में समाप्त हो रहा है अत: जनवरी माह में श्रमण का वार्षिक शल्क भेजने की कृपा करें और अलग से पत्र आने की प्रतीक्षा न करें। वार्षिक शल्क आने पर ही श्रमण का अगला अंक उन्हें प्रेषित किया जा सकेगा। सुधी पाठकों से भी निवेदन है कि वे श्रमण के ग्राहक बनकर जैन साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अपना सहयोग दें। श्रमण का वार्षिक शुल्क १००/रुपये और आजीवन सदस्यता शुल्क ५००/- रुपये है जो उसके लागत के आधे से भी कम है। लेखकों से निवेदन है कि वे अपने उच्चस्तरीय जैन शोध निबन्ध श्रमण में प्रकाशनाथ भेजे। लेख हिन्दी, गुजराती और अंग्रेजी में हो सकते हैं। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ फलाभ शुभ-विवाह HERE / तीन हो या त्यौहार, शादी हो या घरबार प्रेस्टीज निभायेगा भारतीय व्यंजन परम्परा कोहरबार 44 PRESTIA - HED) - - Resma प्रेस्टीज 965 रिफाइंड ऑइल एवं वनस्पति म याय एच गेड इन्दौर को 451 205. 2015, 45.7.201-205 त्रिम (2035) 41,6716 प्रेस्टीज फूड्स लिमिटेड, 30. माघर मा