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प्रकीर्णकयुगं भाति त्वां जिनोभयतो धुतम् । पतन्निर्झरसंवादि शशाङ्ककरनिर्मलम् ।।
आदिपुराण ७.२९६
मानतुङ्ग और भगवज्जिनसेन (९वीं शती) के इन पद्यों में 'निर्झर' और 'शशाङ्क' पदों के साम्य के साथ उपमा का सन्निवेश भी द्रष्टव्य है । इसी विषय में कटारिया जी ने भी लिखा है । १५
(ग) राजा जयसिंह सिद्धराज (१२वीं शती) के समकालीन १६ आचार्य कुमुदचन्द्र का जिन्हें युगवीर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने दिगम्बर सिद्ध किया है१७, कल्याणमन्दिर-स्तोत्र' दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य है । कवित्व की दृष्टि से जैनेतर मनीषी भी इसे नितान्त अभिनन्दनीय मानते हैं । १८ तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट है कि आचार्य कुमुदचन्द्र ने अपने 'कल्याणमन्दिर-स्तोत्र' का अनुक्रम भक्तामर स्तोत्र के आधार पर बनाया। वसन्ततिलका छन्द, आरम्भ में युग्मश्लोक, आत्मलघुता का प्रदर्शन, स्तोव्य के गुणों के वर्णन के विषय में अपने असामर्थ्य का कथन, जिननाम के स्मरण या संकीर्तन की महिम्य हरिहरादि देवों का उल्लेख, जिनेन्द्र के संस्तवन या ध्यान से परमात्मपद की प्राप्ति, आठ प्रातिहार्यों का वर्णन, स्तुति का फल - मोक्ष और अन्तिम पद्य में श्लिष्ट नामकुमुदचन्द्र-इत्यादि साम्य भक्तामर स्तोत्र को देखे बिना अकस्मात् होना कथमपि संभव नहीं है।
इस तुलना से स्पष्ट है कि भक्तामर स्तोत्र ने उत्तरकालीन अनेक कृतियों को अवश्य ही प्रभावित किया है।
भक्तामर स्तोत्र के अवतरण
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वाग्भट ( १२वीं शती) की कृति वाग्भटालङ्कार (१.१७) की सिंहदेव गणीकृत संस्कृत टीका में भक्तामर स्तोत्र का 'तुभ्यं नभः इत्यादि' (२६वाँ) पद्य प्रमाण रूप से उद्धृत है और अड़तीस कृतियों के प्रणेता श्रुतसागर सूरि (१६वीं शती) की, आशाधर के जिनसहस्रनाम ग्रन्थ की संस्कृत टीका ( पृ० २३५) में 'नात्यद्भुतं .....' इत्यादि (१० वाँ) पद्य । अन्वेषण करने पर अन्य कृतियों या उनकी टीकाओं में और भी अवतरण मिल सकते हैं। जहाँ तक स्मरण है 'वृत्तरत्नाकर' की एक जैन टीका में भी इसके अनेक पद्यों के अवतरण हैं, जो इस समय मेरे सामने नहीं हैं।
भक्तामर से सम्बद्ध कृतियाँ
भक्तामर स्तोत्र के चौथे तथा चारों चरणों को लेकर लिखे गये समस्यापूर्त्यात्मक दो (प्राणप्रिय काव्य और भक्तामर - शतद्वयी) काव्यों के अतिरिक्त ज्ञानभूषण भट्टारक
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