________________
आलङ्कारिक वैदुष्य को व्यक्त करती है।
रस- प्रस्तुत स्तोत्र में आदि से अन्त तक भक्तिरस की अविच्छिन्न धारा अस्खलित गति से प्रवाहित है। विबुधार्चितपादपीठ (३) गुणसमुद्र (४) मुनीश (५) नाथ (८) भुवनभूषण, भूतनाथ (९) त्रिभुवनैकललामभूत (१२) त्रिजगदीश्वर (१४) मुनीन्द्र (१७) विबुधार्चित, धीर, भगवान् (२५) जिन (२६) और जिनेन्द्र (३६) इत्यादि सम्बोधन, जिनमें नाथ, मुनीश और जिनेन्द्र का प्रयोग एकाधिक बार हुआ है, भक्ति रस की अभिव्यक्ति के अनुकूल है।
जो आलङ्कारिक भक्ति रस को नहीं मानते उनकी दृष्टि से इसके स्थान में देव विषयक रति भाव है।
छन्द- इस स्तोत्र के सभी पद्यों में केवल एक 'वसन्ततिलका' जिसका दूसरा नाम वृत्तरत्नाकर में 'मधुमाधवी' भी दिया गया है, प्रयुक्त है। इसका लक्षण है- 'उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।' जिस में क्रमश: तगण, भगण, जगण और फिर दो गुरु वर्ण हों, वह 'वसन्ततिलका' छन्द कहलाता है। यह वर्ण छन्द है, न कि मात्रा। वछन्द में एक गण में तीन वर्ण होते हैं, अत: 'भक्तामर स्तोत्र' के प्रत्येक चरण में चौदह वर्ण हैं। चारों चरणों में कुल वर्ण छप्पन हैं। अड़तालीसों पद्यों की वर्ण संख्या दो हजार छ: सौ अट्ठासी है। तुलना (क) धातासि धीर! शिवमार्गविधेर्विधानात्। -भक्तामर २५
ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् । यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुणभावतः।।
- शास्त्रवार्तासमुच्चय, पृ० २०४ आचार्य मानतुङ्ग और आचार्य हरिभद्र (८वीं शती) ने अपने-अपने उक्त दोनों वाक्यों में मुख्य या गौण किसी भी रूप में भगवान् अरिहन्त को कर्ता बतलाया है, जैसा कि इतर दार्शनिक ब्रह्मा या ईश्वर को मानते हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि मानतुङ्ग ने जिसे शिवमार्गविधि कहा है उसे हरिभद्र ने तदुक्तव्रतसेवन। (ख) कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् । उद्यच्छशाङ्कशुचिनिर्झरवारिधार मुच्चैस्तटं सुरगिरेखि शातकौम्भम् ।। भक्ता० ३०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org