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पैरों से सिर तक पूरे शरीर को जकड़ कर उन्हें लौह यन्त्र जैसा बना दिया और कमरे में बन्द कर दिया। कपाट बन्द करके ताला डाल दिया। गाढ़ अन्धकार में डूब करें वह कमरा पाताल सरीखा हो गया। इसी अवसर पर आचार्य मानतुङ्ग ने एकाग्र चित्त होकर भक्तामर स्तोत्र की रचना की जिसके प्रभाव से सभी बेड़ियाँ तड़तड़ा कर टूट गयीं, ताला टूट गया, फाटक खुल गया और आचार्य मानतुङ्ग भी बाहर आ गये।
यह देखकर सम्राट को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसके मनमें जैन धर्म के प्रति श्रद्धा के बीज अङ्करित हो उठे। ऊपर बतलायी गयी बेड़ियों की चौवालीस संख्या ही मेरी दृष्टि से भक्तामर-स्तोत्र की चौवालीस पद्य-संख्या की मान्यता का कारण है। थोड़ेबहुत हेर-फेर के साथ लगभग इसी ढंग का उल्लेख दिगम्बर साहित्य में भी उपलब्ध है, अन्तर संख्या का है। दिगम्बर सम्प्रदाय में अड़तालीस दरवाजों और तालों की अनुश्रुति चली आ रही है।
__ साहित्यिक सुषमा रचना की चारुत- राजा जयसिंह के महामात्य वाग्भट की दृष्टि से काव्य रचना की चारुता (सुन्दरता) के चार हेतु हैं.-१. संयुक्त वर्ण को आगे रखकर पिछले वर्ण को गुरु बनाना। २. विसर्गों का लोप न करना। ३. ऐसी सन्धि न करना जिसमें कर्ण कटुता या अश्लीलता आदि दोष आ जाय। ४. बिना सन्धि के प्रयोग न करना। ये चारों 'भक्तामर-स्तोत्र' में विद्यमान हैं। भर्तृहरि अपने समय के महान् विद्वान् रहे, पर उनके 'नीतिशतक' के प्रारम्भ में ही 'मदनं च इमां च मां च' यहाँ पर विसन्धि-गुण सन्धि का अभाव है। 'भक्तामर-स्तोत्र' में कहीं पर भी मानुतुङ्ग से ऐसी चूक नहीं हुई। अत: रचना की चारुता की दृष्टि से भी यह स्तोत्र श्लाघ्य है।
__ अलङ्कार-विच्छित्ति- शब्दालङ्कारों में छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास की छटा प्रस्तुत स्तोत्र के प्रत्येक पद्य में है। वर्ण की समानता एक बार हो तो छेकानुप्रास और अधिक बार हो तो वृत्यनुप्रास होता है। प्रथम पद्य के प्रथम चरण में 'ण' का साम्य एक बार है, अत: छेकानुप्रास है। 'आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं' (९) में 'स्त' का साम्य अनेक बार है, अत: वृत्त्यनुप्रास है। इसी ढंग से प्रत्येक पद्य में अनुप्रास की विच्छित्ति मनोहारिणी है। अर्थालङ्कारों में से 'वक्त्रं कृते.....' (१३) में विषमालङ्कार, 'निर्धूमवर्ति......' इत्यादि तीन (१६-१८) पद्यों में व्यतिरेकालङ्कार, कुन्दावदात......' (३०) में पूर्णोपमालङ्कार, 'कल्पान्तकाल......' (४०) में अनुप्रास, उपमा, रूपक और फलोत्प्रेक्षा, ‘स्तोत्रस्रजं.....' (४८) में रूपक, श्लेष और अनुप्रास एवं 'बुद्ध्या विनापि.....' (३) में भ्रान्तिमान् अलङ्कार की ध्वनि चमत्कारजनक है। इनके अतिरिक्त
और भी अतियोक्ति, आक्षेप, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा और समासोक्ति आदि अर्थालङ्कारयत्र-तत्र प्रयुक्त हैं। स्वल्पकाय स्तोत्र में इतने अधिक अलङ्कारों की विच्छिति स्तोता के
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