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________________ भक्तामर स्तोत्र नाम - इस स्तोत्र के दो नाम हैं। प्रारम्भ में 'भक्तामर' पद होने से इसका 'भक्तामर ' या 'भक्तामर स्तोत्र' नाम पड़ गया है, पर वास्तविक नाम 'आदिनाथ-स्तोत्र' या 'ऋषभस्तोत्र' है; क्योंकि इसमें इस युग के प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् 'आदिनाथ' का संस्तवन किया गया है, जिनके आदिनाथ, ऋषभनाथ, वृषभनाथ, आदिदेव, ऋषभदेव, वृषभदेव और पुरुदेव आदि अनेक नाम व्यवहृत हैं। आद्य स्तुतिकार समन्तभद्र, धनंजय, वादिराज, कुमुदचन्द्र, हेमचन्द्र और जैनेतर कवि पुष्पदन्त आदि अनेक प्राचीन मनीषियों के स्तोत्रों के इसी प्रकार से दो-दो नाम प्रचलित हैं। ८१ पद्य - संख्या - प्रस्तुत स्तोत्र की पद्य - संख्या अड़तालीस है । कतिपय हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों में यद्यपि तीन तरह के चार-चार पद्य और भी उपलब्ध हैं, पर वे पुनरुक्ति तथा रचना वैषम्य के कारण मानतुङ्गकृत नहीं माने जाते । अज्ञातकालिकमुनि रत्नसिंह के प्राणप्रिय नामक खण्डकाव्य से भी, जिसमें भगवान् 'नेमिनाथ' का वर्णन है, उक्त संख्या प्रमाणित होती है; क्योंकि इसमें प्रस्तुत स्तोत्र के सभी चतुर्थ चरणों की अत्यन्त सुन्दर समस्यापूर्ति १४ की गयी है, जो अड़तालीस पद्यों में समाप्त हुई है। इसी स्तोत्र के प्रत्येक चरण की समस्यापूर्ति 'भक्तामर - शतद्वयी' में की गयी है। इससे भी अड़तालीस संख्या का समर्थन होता है । मेघदूत की पद्य संख्या का निर्णय विद्वानों ने पार्श्वाभ्युदय के आधार पर किया है, जिसमें भगवज्जिनसेनाचार्य मेघदूत के पद्यों की समस्यापूर्ति की है । स्थानकवासी आचार्य, कविरत्न श्रीअमरमुनि आदि भी इसी पद्य - संख्या को मान रहे हैं। चौवालीस पद्यों की मान्यता- भक्तामरस्तोत्र के जिन चार (३२-३५) पद्यों में क्रमश: दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामण्डल और दिव्यध्वनि इन चार प्रतिहार्यों का वर्णन है, उन्हें छोड़ कर शेष चौवालीस पद्यों की मान्यता प्रायः श्वेताम्बर जैन समाज में प्रचलित है, यद्यपि आठ प्रातिहार्यों का वर्णन श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी हैं। कल्याण - मन्दिर स्तोत्र में भी आठ (१९ - २६ ) पद्यों में क्रमशः आठों प्रातिहार्यों का वर्णन है, जो दिगम्बर समाज की भाँति श्वेताम्बर समाज को भी मान्य है। मान्यता का आधार- संभवतः मानतुङ्ग-प्रबन्ध इस मान्यता का आधार है, जिसमें आचार्य प्रभाचन्द्र सूरि ने लिखा है कि मयूर कवि ने सूर्यशतक- स्तोत्र का निर्माण कर के सूर्य का संस्तवन किया था, फलतः उस ( मयूर कवि) का कुष्ट नष्ट हो गया था। इस चमत्कार को देखने के पश्चात्, एक मन्त्री के अनुरोध पर सम्राट हर्षवर्धन ने मानतुङ्ग से भी चमत्कार दिखलाने की इच्छा व्यक्त की। उसने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि- आचार्य मानतुङ्ग को बेड़ियों से जकड़ कर एक अँधेरे कमरे में बन्द कर दो। इस आदेश के अनुसार निष्ठुर सिपाहियों ने चौवालीस लौह बेड़ियों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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