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________________ जो ‘सुभाषितरत्नभाण्डागार' (पृष्ठ ३७) में भी मातङ्गदिवाकर की प्रशंसा में राजशेखर के नाम से उद्धृत है। इसी पद्य ने पं० बलदेव जी उपाध्याय और 'सुभाषितरत्नभाण्डागार' के संकलयिता पं० काशीनाथ जी शर्मा आदि को भ्रम में डाला है। जान पड़ता है कि राजशेखर ने जिस कृति के आधार पर अपने पद्य में 'मातङ्ग' शब्द को गुम्फित किया, उसमें लिपिक की अनवधानता से 'मानतुङ्ग' के स्थान में 'मातङ्ग' लिखा गया होगा। हर्ष की सभा में मानतुङ्ग के साथ या उनके स्थान में अन्य मातङ्ग दिवाकर के रहने की बात भी नहीं सोची जा सकती जैसा कि इतिहास ग्रन्थों से स्पष्ट है। यदि मानतुङ्गाचार्य चाण्डाल जाति के होते तो ब्राह्मण कवि बाण और मयूर के साथ राजसभा में एक ही पंक्ति में कैसे बैठते तथा यजुर्वेद का अभ्यास कैसे करते; क्योंकि उस युग में और अभी भी स्त्री और शूद्र को वेदाभ्यास वर्त्य है--- 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्।' अत: यह मानना होगा कि लिपिक की असावधानी ने राजशेखर को भ्रम में डाला और राजशेखर के पद्य ने अन्य विद्वानों को। मानतुङ्गका वैदुष्य- आचार्य मानतङ्ग के दोनों स्तोत्रों के अध्ययन-मनन से यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि संस्कृत और प्राकृत भाषा के साथ वेद, व्याकरण, साहित्य, अलङ्कारशास्त्र और जैन व जैनेतर वाङ्मय के अन्य अनेक विषयों पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। मानतुङ्ग की कृतियाँ- प्रस्तुत भक्तामर स्तोत्र' के अतिरिक्त आचार्य मानतुङ्ग का प्राकृत भाषा में निबद्ध एक 'भयहर-स्तोत्र' भी प्रकाशित हो चुका है, जिसका दूसरा नाम ‘नमिऊण-स्तोत्र' है। इस स्तोत्र के दूसरे पद्य के सत्रहवें पद्य तक क्रमश: दो-दो पद्यों में कष्ट, जल, अग्नि, सर्प, चोर, सिंह, गज और रण इन आठ भयों का उल्लेख है। 'मङ्गलवाणी' (पृष्ठ १५८-१६३) में मुद्रित इस स्तोत्र के ऊपर 'नमिऊण स्तोत्र' अङ्कित है। इस नाम का कारण प्रारम्भ में 'नमिऊण'८ पद का होना है। उन्नीसवीं गाथा से इसका ‘भयहर' नाम सिद्ध होता है। इक्कीसवी गाथा में रचयिता का श्लिष्टर नाम भी दिया गया है। अन्तिम गाथा में बतलाया गया है है कि जो सन्तुष्ट मन से भगवान् पार्श्वनाथ का स्मरण करता है उसे एक सौ आठ व्याधिजन्य भय सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। ११ मेरे सामने जो मङ्गलवाणी है उसमें मुख पृष्ठ सहित प्रारम्भ के एक सौ चौवालीस पृष्ठ नहीं हैं, अत: इसका प्रकाशन स्थान ज्ञात नहीं हो सका। इसमें कुछ दिगम्बर स्तोत्र भी प्रकाशित हैं। ___ 'भयहर-स्तोत्र' मानतुङ्ग दिवाकर की कृति है, न कि मानतुङ्गसूरि की। इसका उल्लेख आचार्य प्रभाचन्द्र सूरि ने ‘मानतुङ्ग प्रबन्ध' (श्लोक १६३) में१२ किया है। इसी विषय में महान् विद्वान् कटारिया जी ने भी प्रकाश डाला है। १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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