________________
में अपनी बहन के, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार व्रतों का परिपालन करती थी, (श्लो० २१) कहने से श्वेताम्बर साधु बन गये थे (श्लो० ३८)। भक्तामर-स्तोत्र का चमत्कार दिखलाने से पहले, एक मन्त्री ने मानतुङ्गाचार्य का प्रथम परिचय देते समय हर्षवर्धन से कहा था कि आपके पुर में बुद्धिमान् एवं प्रभावशाली एक श्वेताम्बराचार्य विद्यमान हैं, जिनका नाम मानतुङ्ग है। आचार्य मानतुङ्ग ने अपने समय में जिनशासन की बड़ी प्रभावना की थी। उनके अनेक सुयोग्य शिष्य भी रहे (श्लो० १६६)।
'श्रीमानतुङ्ग प्रबन्ध' किस आधार पर रचा गया- यह प्रभाचन्द्रसूरि ने अपनी कृति में कहीं सूचित नहीं किया। इस प्रबन्ध के कुछ ही पद्यों का सार यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए दिया गया है।
एक कल्पना- 'भक्तामर-स्तोत्र' के ग्यारहवें 'दृष्ट्वा भवन्त......' इत्यादि और इक्कीसवें 'मन्ये वरं........' इत्यादि पद्य से मेरे मन में यह कल्पना उठ रही है कि आचार्य मानतुङ्ग पहले जैनेतर सम्प्रदाय से प्रभावित रहे। जिन तीन पद्यों में भगवान् आदिनाथ को क्रमश: अपूर्व दीप, सूर्य और चन्द्र बतलाया गया है, उनसे ऐसा जान पड़ता है कि वे पहले जिस सम्प्रदाय से प्रभावित रहे, उसमें शाम के समय दीपक को, सबेरे के समय सूर्य को और प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन चन्द्रमा को नमन किया जाता था, जो आज भी चालू है। महाकवि दामोदर भारवि की कृति की, जो 'किरात' नाम से प्रसिद्ध है, (-११) मल्लिनाथी टीका से द्वितीया के चन्द्र को नमन करने की बात की पुष्टि होती है। मानतुङ्ग उस सम्प्रदाय के परमाराध्य देवों के चरित-ग्रन्थों में उनके मन के डिगने की बात पढ़ चुके थे। लगता है कि इसीलिए उन्होंने 'चित्रं किमत्र....' इत्यादि पन्द्रहवें पद्य में भगवान् आदिनाथ के निर्विकार अडिग मन को प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार के माध्यम से सुमेरु शिखर की उपमा दी है। इस कल्पना की पुष्टि प्रस्तुत स्तोत्र के 'त्वामामनन्ति......' इत्यादि तेईसवें पद्य के आधार पर भी की जा सकती है, जो मानतुङ्ग को वेदाभ्यासी सिद्ध करता है; क्योंकि उक्त पद्य की रचना शुक्ल यजुर्वेद के मन्त्र से मिलती-जुलती है। इतनी समानता अकस्मात् कैसे हो सकती है? जब तक पुष्ट प्रमाण नहीं मिलते तब तक मैं इस विषय में जोर देकर कुछ भी नहीं कह सकता, इसीलिए उक्त बात को 'एक कल्पना' ही लिखा गया है।
एक भ्रम- पं० श्री बलदेव जी उपाध्याय ने अपनी कृति 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' (पृष्ठ ३६४) में आचार्य मानतुङ्ग की चर्चा और उन के 'भक्तामर-स्तोत्र' की प्रशंसा की है, पर आगे चलकर (पृष्ठ ५३७) हर्ष की सभा में बाण और मयूर के साथ 'मानतुङ्ग' न लिखकर 'मातङ्ग दिवाकर' लिखा है और उन्हें राजशेखर के एक मद्य के आधार पर नीच (चाण्डाल) जाति का बतलाया गया है।"
भ्रम का कारण- उक्त भ्रम का कारण राजशेखर (९वीं शती) का पद्य है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org