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भक्तामर स्तोत्रः एक विवेचन
प्रतिभाभिराम मानतुङ्ग अत्यन्त सौभाग्यशाली जैन आचार्यों में से एक हैं, जिन्हें जैनों के दोनों सम्प्रदाय अपना-अपना मानते आ रहे हैं। 'भक्तामरस्तोत्र' इन्हींकी अमर कृति है, जो भक्तिरस के साथ कवित्व की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। सभी जैन, चाहे वे किसी भी सम्प्रदाय या उसके पन्थ के अनुयायी हों, इसका प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक पाठ करते हैं। पर्व के पवित्र दिनों में कहीं-कहीं इसका अखण्ड पाठ भी होता हैं। अनभ्यास के कारण जो स्वयं पाठ नहीं कर सकते, वे दूसरों से सुना करते हैं। ऐसे भी हजारों व्यक्ति हैं, जो इसका पाठ किये बिना भोजन नहीं करते। श्वेताम्बर आचार्य यशोविजय (१८वीं शती) की माँ जिस दिन इसका पाठ नहीं सुन पाती थीं, उस दिन उपवास करती रहीं। अनेक ऐसे भी व्यक्ति हैं, जिन्हें इसका नियमित पाठ करने से कई रोगों से मुक्ति प्राप्त हुई है। इसके प्रायः प्रत्येक पद्य से विशेष लाभ होने की ख्याति है। कुछ, विद्वानों ने इसके साधना की विधि भी लिखी है। लब्धप्रतिष्ठ प्रसिद्ध जैन स्तोत्रों में इसे प्रथम स्थान प्राप्त है। निम्नलिखित पंक्तियों में उन्हीं आचार्य मानतुङ्ग और उनके 'भक्तामर-स्तोत्र' का परिचय दिया जा रहा है
आचार्य मानतुङ्ग-मानतुङ्ग नाम के दो आचार्य हुए हैं- पहले भक्तामर स्तोत्र के रचयिता और दूसरे ‘जयन्तीप्रकरण' या 'जयन्तीचरित' के। इतिहास-ग्रन्थों में पहले आचार्य के नाम के आगे 'दिवाकर'२ तथा दूसरे आचार्य के नाम के आगे 'सूरि३' का उल्लेख मिलता है।
समय- आचार्य मानतुङ्ग दिवाकर (दिवाकर उनकी उपाधि प्रतीत होती है) सम्राट हर्षवर्धनकी राजसभा में थे, जैसा कि इतिहास के पृष्ठों में अङ्कित है। हर्षवर्धन का राज्यकाल ६०६ ई० से ६४७ तक सुनिश्चित है, अत: आचार्य मानतुङ्ग का भी यही समय सिद्ध होता है।
विशेष परिचय- श्वेताम्बर आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि (सं० १३३४) ने अपने ग्रन्थ-प्रभावकचरित के (१८०-१९१) पृष्ठों में १६९ पद्मों में 'श्रीमानतुङ्गप्रबन्ध' रचा है। इसमें बतलाया गया है कि वाराणसी में, जहाँ का राजा हर्ष था, मानतुङ्ग का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम श्रेष्ठी सेठ धनदेव था। मानतुङ्ग का चरित्र बाल्यकाल से ही निर्मल रहा (श्लो० ५-८)। प्रारम्भ में उन्होंने दिगम्बर दीक्षा ली थी, पर बाद
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*. डॉ० कमलेश कुमार जैन से साभार प्राप्त.
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