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________________ पढ़ सकते हैं। दूसरे पद्य में चारों प्रश्नों के क्रमश: चार उत्तर दिये गये हैं- तोता, कौआ, लोक और श्लोक। जिस श्लोक में प्रश्न किये गये हैं, उसके प्रत्येक चरण में सात-सात अक्षर हैं। उनके प्रारम्भ में एक-एक अक्षर और जोड़ देने से उत्तर सहित दूसरा पद्य बन गया है। इस तरह शब्दालंकारों का वर्णन आदि से अन्त तक सरस है। इसी तरह ७० अर्थालंकारों और उनके अवान्तर भेदों की चर्चा भी सरस और सरल है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अर्थालंकारों की परिभाषाएँ भी बहुत परिष्कृत हैं। जैसे--- उपमालंकार की परिभाषा देखिये वर्ण्यस्य साम्यमन्येत स्वतः सिद्धेन धर्मतः। भिन्नेन सूर्यभीष्टेन वाच्यं यत्रौपमैकदा।।४।१८. उपमेय से भिन्न, स्वत: सिद्ध, विद्वानों द्वारा मान्य, अप्रस्तुत अर्थात् उपमान के साथ जहाँ किसी धर्म की दृष्टि से समानता बतलाई जाय, वहाँ उपमा अलंकार होता है। " जैनेतर उच्चकोटि के अलंकार ग्रन्थों में 'साधर्म्यम्पमा' अर्थात् उपमेय की उपमान के साथ समानता दिखलाने को उपमा कहते हैं। अलंकारचिन्तामणिकार ने यद्यपि इस परिभाषा का खण्डन नहीं किया, किन्तु उन्होंने अपनी उपमा की परिभाषा में उपमान के तीन विशेषण लगाये हैं। यदि ये नहीं लगाये जाते, तो अन्य अलंकारों में उपमा का लक्षण चला जाता। फलत: उपमा का लक्षण अतिव्याप्ति दोष से दूषित हो जाता। यदि 'स्वत:भिन्नेन' 'उपमेय से भिन्न' यह विशेषण न देते, तो अनन्वयालंकार में परिभाषा चली जाती, क्योंकि अनन्वय में उपमेय और उपमान अभिन्न होते हैं, 'स्वत: सिद्धेन' 'स्वयं सिद्ध' विशेषण नहीं देते, तो उत्प्रेक्षा में लक्षण चला जाता, क्योंकि उत्प्रेक्षा में उपमान स्वयं सिद्ध नहीं, बल्कि कल्पित होता है। ‘सूर्यभीष्टेन' विद्वानों के द्वारा मान्य यह विशेषण न देते, तो प्रस्तुत लक्षण 'हीनोपमा' में चला जाता। इसी प्रकार अन्य अलंकारों की परिभाषा भी परिष्कृत है। काव्यानुशासन– इसके रचनाकार अभिनव वाग्भट हैं। इनका समय १४वीं शताब्दी है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पृष्ठ ४२ पर उदात्तालंकार का जो उदाहरण वाग्भट ने दिया है, वह नरेन्द्रप्रभसूरि के अलंकारमहोदधि- जिसकी रचना वि०सं० १२८२ में समाप्त हुई थी— को छोड़कर अन्यत्र नहीं मिलता। अत: वाग्भट का समय १४वीं शताब्दी निश्चित है। प्रस्तुत ग्रन्थ की एक हस्तलिखित प्रति का उल्लेख इगलिंग कैटलौग नं० १११५७ पर है। इस लिखित प्रति पर लेखन-काल वि०सं० १५१५ है। __ वाग्भट के पिता का नाम नेमिकुमार और पितामह का श्री मक्कलय था। इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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