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सम्पादकीय नयी शताब्दी का प्रवेश द्वार
कुछ ही दिनों में हम नयी शताब्दी में प्रवेश करने जा रहे हैं। अभी हम देहली पर खड़े हुए हैं जहाँ से पिछले वर्ष और आगामी वर्ष की हमारी गतिविधियों का प्रतिबिम्बन हो सकता है। यह प्रतिबिम्बन स्वच्छ और निष्पक्ष हो तो हमारे मूल्यांकन में भी वही स्वच्छता और निष्पक्षता आ सकेगी।
हमारा देश अध्यात्मिकता का पुजारी रहा है, त्याग-तपस्या उसमें मुखरित होती रही है। ऋषियों, मुनियों और सन्तों की महत्त्वपूर्ण भूमिका देश के संचालन में भी रही है। फिर भी जहाँ-तहाँ स्वार्थवश उनका अपमान भी होता रहा है।
अभी २८ अगस्त १९९९ को सिरोही जिले के रोहिडा ग्राम (राजस्थान) में एक विचित्र घटना घटी। वहाँ अनोप मण्डल द्वारा आदिवासी समाज में यह दुष्प्रचार किया गया कि जैन साधुओं ने वर्षा को बांध रखा है। उनके मन्त्र-तन्त्र के प्रभाव से वर्षा नहीं हो पा रही है। इसका फल यह हुआ कि वहाँ विराजमान् आचार्यश्री पद्मसूरि जी आदि साधु-सन्तों को मारने के लिए एक जबर्दस्त भीड़ उमड़ पड़ी। साधु-सन्तों को तो बचा लिया गया पर आदिवासियों के कोप का भाजन बनना पड़ा जैन मन्दिरों को, जहाँ कि मूर्तियों आदि को तोड़-फोड़ दिया गया। पुलिस के हस्तक्षेप से किसी तरह भीड़ पर काबू किया जा सका।
जैन साधु-साध्वियों पर किया गया हमला कोई नयी बात नहीं है। ऐसी घटनायें प्रायः होती रही हैं। इन घटनाओं में राजनीति और वैयक्तिकता के स्वर अधिक मुखरित होते हैं। राजनीति के अखाड़े में धर्म का अपमान करना कोई टेढ़ी खीर भी नहीं है। धर्म को वहाँ शस्त्र बनाकर चलाया जाता है और अपने स्वार्थ की पूर्ति कर ली जाती है। भारत जैसे धर्मप्राण देश में इस प्रकार की घटनायें घटना सहज नहीं कहा जा सकता है।
जैन समाज अहिंसाप्रिय समाज है। उसने कभी भी हिंसा को अपना शस्त्र नहीं बनाया। निरर्थक विवादों से दूर रहकर वह सार्थकता की ओर अपना कदम बढ़ाता रहा है । व्यर्थ के आडम्बरों से दूर रहकर उसे जनधर्म की ओर विशेष
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