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भट्टाकलङ्कदेव रचित तत्त्वार्थवार्तिक*
तत्त्वार्थसूत्र जैनों का प्रथम संस्कृत ग्रन्थ है। इसके प्रणेता आचार्य गृद्धपिच्छ हैं। जिस तरह हिन्दुओं में गीता की, ईसाइयों में बाइबिल की और यवनों में कराण की मान्यता है, उसी तरह जैनों में इस ग्रन्थ की है। इसके श्रवण करने मात्र से श्रोता को एक उपवास का फल मिलता है। दशलक्षणपर्व की पुण्यबेला में प्रवचन का मुख्य विषय यही रहता है। यह प्राकृत जैन वाङ्मय का सार, जैन धर्म का हृदय और जैन दर्शन का प्रवेशद्वार है।
इस ग्रन्थ का मुख्य नाम तत्त्वार्थ है, क्योंकि इसमें तत्त्वार्थ- जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- इन सात तत्त्वों का निरूपण है। पर सूत्र शैली में लिखे जाने से इसका तत्त्वार्थसूत्र नाम पड़ा। इसके दो नाम और भी हैंमोक्षशास्त्र और निश्रेयसशास्त्र, यद्यपि इन दोनों का अभिप्राय एक ही है। मोक्ष या निश्रेय के मार्ग- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का-प्रतिपादन करने से वे दोनों नाम पड़े।
इसके प्रारम्भ के चार अध्यायों में जीवतत्त्व का, पञ्चम में अजीव तत्त्व का, षष्ठ और सप्तम में आस्रवतत्त्व का, नवम में संवर तथा निर्जरा का और अन्तिम अध्याय में मोक्ष तत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र- इन आत्मा के श्रेष्ठ गुणों का, प्राणि जगत् का, भूगोल का, खगोल का, व्रतों का और कर्मों का आकर्षक वर्णन है।
मानव का उत्थान सद्गुणों और पतन दुर्गुणों से होता है- इस पर इस ग्रन्थ में जो प्रकाश डाला गया है, वह द्रष्टव्य है तथा किसी भी सहदय गुणग्राही पाठक के हृदय को हरण करने वाला है।
इसके 'मोक्षमार्गस्यनेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये।' इस मङ्गलाचरण को लेकर आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा और आचार्य विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा ग्रन्थ की रचना की। प्रमाणनयैरधिगम : १-६ सूत्र को आधार बनाकर भट्टाकलङ्कदेव ने अपने लघीयस्त्रय ग्रन्थ के प्रमाण प्रवेश और नय प्रवेशये दो प्रकरण रचे एवं अभिनव धर्मभूषणयति ने न्यायदीपिका प्रकरण ग्रन्थ की रचना की।
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जैन सन्देश, शोधाङ्क १९, जुलाई १९६४ से साभार
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