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________________ १९ इसे क्या दिगम्बर और श्वेताम्बर सभी मानते हैं । इसीलिये इन दोनों सम्प्रदायों के मूर्धन्य प्रतिभाशाली आचार्यों ने इस ग्रन्थ पर संस्कृत में बड़ी-बड़ी टीकायें लिखी हैं। दिगम्बर आचार्यों में समन्तभद्र, पूज्यपाद, भट्टाकलङ्कदेव, विद्यानन्द, भास्करनन्दी, श्रुतसागर, विबुध सेनचन्द्र, योगीन्द्रदेव, लक्ष्मीदेव और अभयनन्दी आदि प्रमुख हैं तथा श्वेताम्बर आचार्यों में उमास्वाति, सिद्धसेन, हरिभद्र, देवगुप्त, मलयगिरि, चिरन्तनमुनि, वाचक यशोविजय और गणि यशोविजय आदि । इनके अतिरिक्त अनेक मनीषियों ने कन्नड़, हिन्दी और गुजराती आदि अनेक प्रान्तीय और अंग्रेजी आदि पाश्चात्य भाषाओं में टीकाएँ लिखी हैं। इससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी ग्रन्थ पर सातवीं-आठवीं शताब्दी में भट्टाकलङ्कदेव ने, जिन्हें केवल एक बार पढ़ लेने से कोई ग्रन्थ कण्ठस्थ हो जाता था, एक वार्त्तिक ग्रन्थ लिखा, जिसका नाम तत्त्वार्थवार्त्तिक रखा जो बाद में राजवार्त्तिक के नाम से प्रख्यात हुआ। इसमें तत्त्वार्थसूत्र के ३५५ सूत्रों में से इधर-उधर के सरलतम केवल २७ सूत्रों को छोड़कर शेष सभी पर गद्यवार्त्तिकों की रचना की गई, जिनकी संख्या दो हजार छह सौ सत्तर है। इन वार्त्तिकों में सूत्रकार के सूत्रों पर जिन विप्रतिपत्तियों की कोई कभी थोड़ी सी श्री कल्पना कर सकता था, उन सभी का समुचित निराकरण करके भट्टाकलङ्कदेव द्वारा ग्रन्थकार गृद्धपिच्छ के हृदय में प्रविष्ट होकर उनके ग्रन्थ का रहस्य खोला गया है। पर इन वार्त्तिकों में कहीं कम और कहीं अधिक गूढ़ता छिपी हुई थी। इसी को दूर करने के लिए वार्त्तिककार भट्टाकलङ्कदेव ने वार्त्तिकों पर वृत्ति की रचना की जा आवश्यकतानुसार कहीं संक्षिप्त और कहीं विस्तृत है। इसका धवला और न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थों में भाष्य के रूप में उल्लेख किया गया है। भट्टाकलङ्कदेव ने अष्टशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लघीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रह - इन पाँच अन्य ग्रन्थों की भी रचना की तथा इनमें से कुछ पर विवरण भी लिखे। पर इन सभी ग्रन्थों तथा विवरणों की संस्कृत क्लिष्ट है। यदि विद्यानन्द ने अष्टशती पर अष्टसहस्री नाम की टीका न लिखी होती तो विद्वानों को अष्टशती का अर्थ समझना टेढ़ी खीर हो जाता है । पर प्रस्तुत भाष्य की संस्कृत उक्त सभी ग्रन्थो से सर्वथा विपरीत — अत्यन्त सरल है। भाष्य लिखने की परम्परा ही ऐसी रही जो वे सरल संस्कृत में लिखे जाते थे। पातञ्जल महाभाष्य, शाबरभाष्य और न्यायभाष्य आदि इसी ढंग से लिखे गये । प्रस्तुत भाष्य की सरलता का अनुमान इसकी इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है 'संसारिणः पुरुषस्य सर्वेस्वर्थेषु मोक्षः प्रधानम् प्रधाने च कृतो यत्नः फलवान् भवति। तस्मात्तन्मार्गोपदेशः कार्यः तदर्थत्वात् । ' १ - १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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