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________________ प्रस्तुत ग्रन्थ भट्टाकलङ्कदेव की मौलिक प्रतिभा का निदर्शन है। इसके देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि भट्टाकलङ्कदेव व्याकरण, साहित्य, कोष, आगम तथा सभी दर्शनों के मर्मज्ञ थे। प्रस्तुत ग्रन्थ के रचने में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र शैली का उपयोग किया है। किसी भी सूत्र पर भाष्य लिखते समय वे उसके कुछ क्लिष्ट एवं श्लिष्ट पदों के अनेक अर्थ बतलाकर उनमें से किसी एक विवक्षित अर्थ को निश्चित करते हैं कि यहाँ यही अर्थ है। जैसे- 'सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च' १-८ इस सूत्र में सत् के चार अर्थ हैं- १. प्रशंसा, २. अस्तित्व, ३ प्रतिज्ञा और ४. आदर। इन चारों से यहाँ अस्तित्व अर्थ ही विवक्षित है। 'रूपिष्वधेः' १-२७ सूत्र में रूप के दो अर्थ हैं- १. रंग और २. स्वभाव। यहाँ पहला अर्थ ही विवक्षित है। विशिष्ट शब्दों की व्युत्पत्तियाँ भी प्रस्तुत ग्रन्थ में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती हैं। सूत्रों का उल्लेख करते समय पूज्यपादकृत जैनेन्द्रव्याकरण को प्रमुखता दी गई है। सर्वार्थसिद्धि की भाँति इस भाष्य में भी परिष्कृत लक्षणों का निर्माण किया गया है। किसी भी प्रश्न का उत्तर देते समय युक्ति, आगम और अनेकान्त का आश्रय लिया गया है। संस्कृत भाषा का प्रवाह आदि से अन्त तक एक जैसा दिखलाई पड़ता है। प्रस्तुत-ग्रन्थ में बिलकुल सरल रीति से प्रश्न उठाकर उनके उत्तर दिये गये हैं प्रश्न (पृष्ठ १)- ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्राणि मोक्षमार्गः' १-१ इस सूत्र में मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है जो उचित नहीं, पहले मोक्ष का स्वरूप बतलाना चाहिए था, बाद में उसके मार्ग पर प्रकाश डालना चाहिए था, पर सूत्रकार ने ऐसा नहीं किया, सो क्यों? उत्तर- मोक्ष के बारे में किसी को विवाद नहीं, क्योंकि मोक्ष को प्राय: सभी आस्तिक मानते हैं, पर उसके मार्ग के बारे में ही उन्हें विवाद है। पटना नगर के अस्तित्व में किसी को भी विवाद नहीं हो सकता, विवाद हो सकता है तो उसके मार्ग के बारे में; क्योंकि भिन्न-भिन्न दिशाओं में रहने वाले पटना पहुँचने का जो भी मार्ग बतलायेंगे उनमें भिन्नता होना स्वाभाविक है। कोई केवल दर्शन को, कोई केवल ज्ञान को और कोई केवल चारित्र को ही मोक्ष का मार्ग-उपाय मानते हैं। अतः सूत्रकार ने प्रथमत: मार्ग ही बतलाया है। सूत्रकार का यहाँ यह अभिप्राय है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र- इन तीन गुणों की एकता ही मोक्ष का मार्ग है। भिन्न रहकर वे मोक्ष के उपाय नहीं हो सकते। ये तीनों एक साथ हों तभी रोग मूल से जा सकता है। प्रश्न (पृष्ठ २)- पहले बन्ध होता है बाद में मोक्ष, अत: पहले बन्ध के कारण - बतलाने थे बाद में मोक्ष के। ऐसा क्यों नहीं किया गया? उत्तर- जैसे जेल में बन्द कैदी को वहाँ से छूटने के उपाय सुनते ही प्रसन्नता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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