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________________ २१ होती है और उसे धैर्य बंधता है, उसी तरह अनादिकाल से इस संसार रूपी जेल में यातनाएँ सहने वाले व्यक्ति को यदि संसार से छूटने के उपाय बतलाये जायें तो वह प्रसन्न होगा और उसे ढाढस भी बंधेगा। बस, यही सोचकर सूत्रकार ने पहले बन्ध के कारण न बतलाकर मोक्ष के कारण बतलाये, बाद में आठवें अध्याय में बन्ध के कारण बतला दिये हैं। प्रश्न (पृष्ठ १९ ) – 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।' १ २ सूत्र में दर्शन का अर्थ श्रद्धान किया गया है। यह ठीक नहीं, क्योंकि दृशिर् धातु से दर्शन शब्द बनता है। यह धातु देखने के अर्थ में है, अतः व्याकरण की दृष्टि से यहाँ दर्शन का अर्थ देखना होना चाहिए न कि श्रद्धान् । उत्तर - यहाँ दर्शन का श्रद्धान् अर्थ ही विवक्षित है, न कि देखना। यदि देखना ही मोक्ष का कारण हो तो सभी चतुरिन्द्रिय और सभी पञ्चेन्द्रिय जीव देखते हैं, अतः इन सभी को मोक्ष हो जाना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता और न हो भी सकता है। प्रकरण के अनुसार ही शब्दों के अर्थ लगाये जाते हैं- 'यादृशं प्रकरणं तादृशोऽर्थः । ' वहाँ व्याकरण की दृष्टि से विरोध हो सो भी बात नहीं; क्योंकि व्याकरण में धातुओं के अनेक "अर्थ देखे जाते हैं। जैसे— अव धातु अठारह अर्थों में प्रयुक्त होता है, हन् धातु दो अर्थों में प्रयुक्त होता है, इसी तरह एक दो नहीं सैकड़ों धातुएँ हैं, जिनका प्रयोग अनेक अर्थों में होता है । दृशिर्, धातु देखने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, यह ठीक है, पर इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि इसके और अर्थ कभी हो ही नहीं सकते। 'सतं द्रष्टुं याति' यहाँ दृशिर् धातु मिलने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अंग्रेजी में भी टू सी का अर्थ मिलना होता है। अतः प्रकरण के अनुसार यहाँ दर्शन का श्रद्धान ही अर्थ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक ऐसे भी विषय हैं, जिन पर भट्टाकलङ्कदेव ने पहली बार प्रकाश डाला है और जो निश्चय ही उनकी देन है सप्तभङ्गी का परिष्कृत स्वरूप – 'प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी । (पृष्ठ ३३) प्रश्न के अनुसार किसी एक ही वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधि और प्रतिषेध की कल्पना (विवक्षा करना ) सप्तभङ्गी है। स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है । जगत् के किसी भी पदार्थ को देखें, उसमें अनेक धर्म मिलेंगे। भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से उन्हीं अनेक धर्मों का एक ही वस्तु में कथन करना स्याद्वाद है। एक ही मनुष्य अपने पिता की अपेक्षा पुत्र, अपने पुत्र की अपेक्षा पिता, अपनी पत्नी की अपेक्षा पति, अपने भानजे की अपेक्षा मामा और अपने मामा की अपेक्षा भानजा है। इसी तरह और भी अगणित सम्बन्धों की दृष्टि से उसमें अगणित धर्म सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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