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हो सकते हैं। यों पुत्रत्व, पितृत्व, पतित्व, मातुलत्व और भागिनेयत्व आदि धर्म परस्परविरोधी हैं, पर विवक्षा की दृष्टि से वे एक ही मनुष्य में सिद्ध हो जाते हैं। इसी कथन को स्याद्वाद कहते हैं। यह कथन सप्तभंगी के माध्यम से ही हो सकता है। अतएव स्याद्वाद के साथ सप्तभंगी का होना नितान्त आवश्यक है।
यों सात भंगों का निर्देश आचार्य कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकाय और प्रवचनसार में और आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में भी किया है, किन्तु सप्तभंगी का परिष्कृत स्वरूप प्रथमत: भट्टाकलंकदेव ने ही किया है।
भारतवर्ष शास्त्रार्थियों का गढ़ रहा है। यहाँ जितने भी दर्शन हैं, सब-के-सब परस्पर विरोधी हैं।
जिस वस्तु को सांख्य दर्शन नित्य बतलाता है उसी को बौद्धदर्शन अनित्य। शास्त्रार्थ के समय सभी अपने पक्ष को सही और विपक्षी के पक्ष को गलत सिद्ध किया करते थे। फलत: बड़े-बड़े संघर्ष होते रहते थे, जिनमें अनेक मनीषियों को अपमान सहना पड़ता था और उन्हें मृत्यु तक का शिकार होना पड़ता था इसी हिंसा को दूर करने के लिये जैन दर्शन में स्याद्वाद को स्थान दिया गया।
__ यदि सभी मनुष्य एक दूसरे की दृष्टि को समझने का प्रयत्न करें तो उनमें संघर्ष की नौबत ही नहीं आ सकती। माना कि नित्य और अनित्य में विरोध है, पर यह नहीं माना जा सकता कि उनमें इतना विरोध है कि वे एक वस्तु में रह ही नहीं सकते। जैसे घड़ें के बारे में ही सोचा जाय तो वह नित्य भी है और अनित्य भी। यहाँ दोनों भी एक के स्थान में ही कर दिया जाय तो अवश्य ही विरोध प्रतीत होने लगेगा, जो झगड़े की जड़ है। घड़े की अवस्था बदल जाती है, अत: वह अनित्य है। किसी का पैर लग जाय या किसी के हाथ से छूटकर गिर जाय तो उसके टुकड़े हो जायेंगे। इन टुकड़ों को घड़ा नहीं कहा जा सकता, कपाल कहा जा सकता है, अत: घड़ा अनित्य है। पर घड़ा पुद्गल द्रव्य से बना हुआ है, फूट जाने पर भी वह पुद्गल बना रहता है। अत: नित्य है। एक ही पहाड़ी मार्ग से परस्पर विरुद्ध दिशाओं में जाने वाले दो व्यक्तियों को उसका दो प्रकार का अनुभव होगा। जो ऊँचाई की ओर जा रहा है, उसे यह अनुभव होगा कि इस मार्ग में चढ़ाव-ही-चढ़ाव है और जो नीचे की ओर जा रहा है, उसे यह अनुभव होगा कि इस मार्ग में उतार ही उतार है। ऊँचाई और नीचाई में भले ही हम विरोध समझें पर वे रहती हैं एक ही मार्ग में। इसी तरह प्रत्येक पदार्थ में अपेक्षा भेद से अनेक धर्मों का प्रतिपादन करना स्याद्वाद का काम है। इसका रहस्य इतना ही है कि एक वस्तु के बारे में अनेक व्यक्तियों को दृष्टिभेद से जो अनेक प्रकार के अनुभव होंगे, वे भले ही आपस में विरुद्ध हों, पर हैं तो एक ही वस्तु के, अत: उन सभी - में समन्वय की भावना रखनी चाहिए।
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