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________________ } १८४ हैं। उनकी लेखनी से अल्प समय में ही प्रणीत विभिन्न ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके हैं। अध्ययन, चिन्तन और लेखन उनकी सहज विशेषता है। प्रस्तुत कृति पथिक का सम्पूर्ण कथानक एक ऐसे व्यक्ति पर केन्द्रित है, जो विविध रूपों में हमारे समक्ष आता है। जहां एक ओर उसने संघर्षशील युवक का किरदार निभाया है वहीं वह एक संस्कारशील युवक की भूमिका निभाने में भी सफल रहा है। जहां एक ओर वह शान्तिदूत है वहीं दूसरी ओर रूढ़ियों को तोड़ने में वह क्रान्तिकारी भी है। एक ही पात्र को विभिन्न रूपों में दर्शाने वाला यह कथानक पाठकों को प्रारम्भ से अन्त तक पूर्णतया बांधे रहता है । सम्पूर्ण कथानक में घटनाक्रमों के मध्य धर्माचरण का भी मार्ग बतलाया गया है जिससे इसकी गरिमा और भी बढ़ जाती है। मात्र आठ महीने के अन्तराल में इस पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित होना इसकी लोकप्रियता को दर्शाता है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण प्रायः त्रुटिरहित और कलात्मक है । इस मनोरंजक एवं प्रेरणास्पद ग्रन्थ के प्रणयन के लिये लेखक तथा उसे अल्प मूल्य में पाठकों तक पहुँचाने के लिये प्रकाशक दोनों ही प्रशंसा के पात्र हैं। संसारदर्पण, संकलनकर्ता - क्षुल्लक विवेकानन्द सागर; प्रकाशक - श्री दिगम्बर जैन प्रेम प्रचारिणी सभा, मण्डल बामौरा एवं डॉ० विनयकुमार चौधरी, बहादुरपुर प्रथम संस्करण- १९९९ ई०; पृष्ठ ६+६५; मूल्य - २०/- रुपये । जैन दर्शन आत्म - जिज्ञासा प्रधान है। अनन्त सांसारिक चतुर्गतियों से छुटकारा पाने के लिए जैन दर्शन में आत्मा को जानने और उसके सतत् विकास एवं सजगता के प्रति सतर्क रहने का अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इसी क्रम में आत्मा और उसे दूषित करने के तत्त्वों पर अति सूक्ष्मता और अति गहराई में जाकर विचार किया गया है । जैन दर्शन की इसी गुरुगम्भीर परम्परा का पालन करते हुए क्षुल्लक विवेकानन्द सागर जी का संकलन 'संसार दर्पण' प्रकाशित हुआ है। इसमें चारों गतियों में भावों एवं आस्रवों का परम्परानुसार गहन विश्लेषण प्रस्तुत है। साथ ही भोगभूमि, कर्मभूमि और चतुर्गति, यथा-- नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतियों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्था को विभिन्न तालिकाओं द्वारा सुगमतापूर्वक समझाया गया है। इस क्रम में कुल २९ तालिकायें हैं। यद्यपि आमुख में डॉ० (कु० ) आराधना जैन 'स्वतन्त्र' ने २१ तालिकाओं का ही उल्लेख किया है। पुस्तक के प्रारम्भ में 'पारिभाषिक शब्दकोष' दिया गया है, जिसमें आस्रव, अविरत कषाय, योग, भाव, दर्शन, लेश्या और उपलब्धि को विस्तार से परिभाषित कर जैन दर्शन के आधारभूत तत्त्वों को ३२ प्रश्नों और उत्तर के माध्यम से समझाया गया है। इस पुस्तक को तैयार करने में परम्परागत ग्रन्थों गोम्मटसार - जीवकाण्ड, गोम्मटसार- कर्मकाण्ड, सर्वार्थसिद्धि और पञ्चाध्यायी को आधार बनाया गया है। पुस्तक पठनीय है। मुद्रण, कागज आदि मन को आह्लादित करने वाला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only अतुल कुमार www.jainelibrary.org
SR No.525039
Book TitleSramana 1999 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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